शनिवार, 9 मई 2020

कथावार्ता : उषा- शमशेर बहादुर सिंह


उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
 
भोर का नभ
 
राख से लीपा हुआ चौका
[अभी गीला पड़ा है]
 
बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गयी हो
 
स्‍लेट पर या लाल खड़िया चाक
                 मल दी हो किसी ने
 
नील जल में या किसी की
                 गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
 
और...
     जादू टटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।




उषा : शमशेर बहादुर सिंह की कविता

(महत्त्वपूर्ण कृतियों के भाष्य के क्रम में अगली प्रस्तुति शमशेर बहादुर सिंह की कविता उषा। भाष्यकार रहेंगे - डॉ शत्रुघ्न सिंह)

शुक्रवार, 1 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ अज्ञेय की कविता - नदी के द्वीप

(हिन्दी की एक बहुत चर्चित और विशिष्ट कविता नदी के द्वीप का भाष्य प्रस्तुत कर रहे हैं डॉ गौरव तिवारी- सम्पादक)


आधुनिक हिंदी साहित्य में अज्ञेय का व्यक्तित्व विशिष्ट है  हम उनकी एक बहुचर्चित काव्य कृति "नदी के द्वीप" की चर्चा कर रहे हैं  ('नदी के द्वीप' कविता को यहाँ क्लिक करके पढ़ें) "नदी के द्वीपकविता अज्ञेय द्वारा 11 दिसम्बर, 1949 को तत्कालीन इलाहाबाद में लिखी गई कविता है। यह कविता 1965 में आए उनके काव्य संग्रह 'हरी घास पर क्षण भरमें संकलित है। अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं जो साहित्य में नए-नए प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते रहे हैं  उनका मानना है की कई शताब्दियों से साहित्य में एक ही प्रकार के प्रतीकों और बिंबों के प्रयोग से विचारों और भावों के संप्रेषण में बाधा हुई है। अपनी एक कविता "कलगी बाजरे कीमें वह कहते भी हैं कि जिस प्रकार वासन को अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है उसी प्रकार किसी भी शब्द को प्रतीक या बिंब के रूप में एक सीमा से ज्यादा प्रयोग करने पर उसकी अर्थवत्ता वह नहीं रह जाती जो रचनाकार चाहता है। अपने इस विचार के मद्देनजर वे अपने साहित्य में प्रतीकों और बिंबों के स्तरों पर ढेर सारे प्रयोग करते हैं  उनके सभी प्रयोग बड़े सार्थक और उनके भावों का वहन करने वाले हैं 
          "नदी के द्वीपकविता व्यक्तिसंस्कृति/परंपराइतिहास और समाज के संबंधों को व्यक्त करने वाली कविता है। अज्ञेय के साहित्य के प्रत्येक रूप चाहें वह कविता होकहानी होउपन्यास होनिबंध साहित्य हो यात्रा या संस्मरण साहित्यसभी में व्यक्तित्वसंस्कृतिपरम्परासमाज आदि के अंतर्संबंधों को पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। अज्ञेय के साहित्यिक के रूप में आरम्भ से अंत तक ये विषय उनके चिन्तना के केंद्र में रहे हैं।
          कविता पर आने के पहले इस बात पर भी चर्चा कर लेना आवश्यक है कि अज्ञेय के साहित्य पर अंग्रेजी कवि और आलोचक टी एस इलियट का बहुत ज्यादा प्रभाव है  टी एस इलियट ने अपने साहित्य में परम्परा को बहुत महत्व दिया है। 'परंपरा का सिद्धांतदेते हुए वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है तो उस व्यक्तित्व की निर्मित में ना सिर्फ उसकी मेधाउसकी समझउसके ज्ञानउसके परिवेश का प्रभाव होता है बल्कि वह अपने इतिहास और परंपरा से भी निर्मित होता है। अज्ञेय इलियट की इस बात से न सिर्फ प्रभावित हैं बल्कि बहुत सहमत भी हैं। इसके अतिरिक्त इनकी यह भी मान्यता है कि ' संस्कृति मूलतः  एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने वाले निर्माता प्रभावों का नाम हैउन सभी निर्माता प्रभावों का जो समाज कोव्यक्ति कोपरिवार कोसबके आपसी सम्बन्धों कोश्रम और सम्पत्ति के विभाजन और उपयोग कोप्राणिमात्र से ही नहींवस्तुमात्र से हमारे सम्बन्धों कोनिरूपित और निर्धारित करते हैं।उनका यह भी मानना है कि 'संस्कृतियाँ लगातार बदलती हैंक्योंकि भौतिक परिस्थितियाँ भी लगातार बदलती हैं।' (संस्कृति की चेतनानिबंध)
          यह पूरी कविता प्रतीकात्मक है।  इस कविता में नदी परंपरा या संस्कृति का प्रतीक है तो द्वीप व्यक्तित्व का प्रतीक है।  नदी के किनारे हमारा इतिहास भी हो सकते हैं और समाज भी। कविता शुरू होती है'हम नदी के द्वीप हैं।/हम नहीं कहते कि हम को छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय।/वह हमें आकार देती है। हमारे कोणगलियाँ अंतरीपउभारसैकत कूल/सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।' कवि बताता है कि हम नदी के द्वीप के समान हैं। चारो तरफ से जल से घिरा भूस्थल द्वीप कहलाता है।  जिस प्रकार नदी द्वारा लाई गई मिट्टीबालू आदि से द्वीप को एक रूप और आकार की प्राप्ति होती है उसी प्रकार हमारा व्यक्तित्व भी हमारी परम्परा या संस्कृति से रूप और आकार प्राप्त करता है। अपने उद्गम स्थल से द्वीप तक पहुँचते-पहुँचते नदी विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों से गुजरती है। जिस प्रकार विभिन्न उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई नदी अपने साथ विभिन्न प्रकार की मिट्टी और रेत आदि से द्वीप का निर्माण करती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी अपने लंबे और विभिन्न प्रकार के ज्ञान अनुभवों से हमारा निर्माण करती है। हमारे चाहे अनचाहे हमारा व्यक्तित्व हमारी परम्परा से जुड़ जाता है। हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न रूप (कोण), हमारे मन का सकरापन या तुच्छता (गलियां), हमारी हरे-भरेपन और जीवंतता से युक्त टापू रूपी कोई विशिष्टता (अंतरीप), हमारी उदात्तता (उभारऔर हमारे व्यक्तित्व का वह रेतीलापन जो हमें बंजर सा बना देता है (सैकत कूलये सब अपनी-अपनी इयत्ता के साथ इसी परम्परा द्वारा निर्मित हैं। इसलिए हम अपनी परम्परा को खुद से अलगाने की बात कह ही नहीं सकते।  कवि यहाँ यह सीधे बताता है कि किसी के व्यक्तित्व की जो भी विशिष्टताबड़प्पनअच्छाईन्यूनता या बुराई होती है उसके निर्माण में उसकी परम्परा का भी हाथ होता है । इसलिए अपनी परम्परा से खुद को एकदम से काट लेना सम्भव नहीं है।
          कवि कहता है - 'माँ है वह। हैइसी से हम बने हैं।' कविता का यह वाक्य अपने पहले और बाद के अन्तरे से अलग है। मतलब सीधा है। कवि इस बात को अपनी विशिष्ट बात की तरह जोर देते हुए प्रस्तुत कर रहा है। वह एक व्यक्ति के लिए उसकी परम्परा का स्थान माँ के बराबर मानता है। जिस प्रकार माँ न सिर्फ अपने बच्चे को जन्म देती है बल्कि उसका भरण पोषण करके उसे तैयार करती है उसी प्रकार परम्परा भी एक व्यक्तित्व को रूप देती है और अपने विभिन्न तत्वों से उसका पोषण करती है।
 अपनी परम्परा के प्रति इतनी आस्था के बावजूद कवि काव्यक्तित्व की विशिष्टता के प्रति और उसकी स्वतंत्र पहचान के प्रति सजगता है। अज्ञेय का मानना है कि एक ही संस्कृति या परम्परा से एक ही समय में अनेक व्यक्तित्वों की निर्मिति होती है। ये सभी व्यक्तित्व या रूप किसी सांचे में ढले नहीं होते। ये अपनी परम्परा के भिन्न-भिन्न तत्वों से अलग अलग प्रकार से निर्मित होते हैं। इनकी विशिष्टता अलग-अलग होती है इसलिए प्रत्येक व्यक्तित्व परम्परा का अंग होता हुआ भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसलिए वह कहता है'किंतु हम हैं द्वीप।/हम धारा नहीं हैं।स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी केकिंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।हम बहेंगे तो हम रहेंगे ही नहीं।/पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जायेंगे।और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?/ रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।अनुपयोगी ही बनाएंगे।' यहाँ कवि द्वीप होना और धारा होने की विशिष्टता को अलग अलग रेखांकित कर रहा है और बता रहा है कि जिस प्रकार धारा का अंग या धारा की निर्मिति होते हुए भी द्वीप की अपनी वह विशिष्टता होती है जो उसकी पहचान को धारा से अलग आधार देती है उसी प्रकार परम्परा की निर्मित होते हुए भी व्यक्तित्व की एक विशिष्ट पहचान होती है । इसलिए परम्परा के प्रति व्यक्तित्व के समर्पण की सीमा निश्चित है। अगर हम गाँधी और बुद्ध के उदाहरण से समझें  तो दिखेगा कि महात्मा गाँधी ने अपनी परम्परा के बुद्ध से अहिंसा को ग्रहण किया। यह अहिंसा बुद्ध की भी एक पहचान बनी थी और बाद में गांधी की भी पहचान बनी। गाँधी की निर्मिति में बुद्ध की भी भूमिका है। लेकिन गाँधी का बुद्ध के प्रति एक स्थिर समर्पण है। गाँधी बुद्ध की ज्यों की त्यों नकल नहीं करते। अगर गाँधी बुद्ध का ज्यों का त्यों नकल करते तो उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान नहीं बनती। सम्भव है ज्यों का त्यों नकल में वे बौद्ध भिक्षुओं की भीड़ का कोई भिक्षु बनकर रह जाते। वे अहिंसा को मन की वृत्ति से बड़ा फलक देते हैं। वे उसे आंदोलन बनाते हैं। हथियार बनाते हैं। उसे सत्याग्रह से भी जोड़ते हैं। बुद्ध से गाँधी तक आते आते अहिंसा की मूल आत्मा तो वही रहती है लेकिन युग के अनुरूप उसकी शक्ति का विस्तार होता है। और यही बात गांधी को अलग व्यक्तित्व का रूप भी देती है। इसीलिए कवि कहता है कि परम्परा के अंग तो हैं किंतु परम्परा का अंग होते हुए भी एकदम से परम्परा ही नहीं हैं। हमारे अंदर कुछ और विशिष्टताएं हैं जो हमारी अलग पहचान बनाती हैं। हमारी यदि अलग विशिष्टता नहीं हुई तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। हम नदी की रेत की तरह भीड़ का शुष्कअनुपजाऊ हिस्सा बनकर ही रह जाएंगे। अपनी अलग विशिष्टता के कारण ही हमारा वजूद है। अन्यथा हमारी न कोई पहचान होगी और न वजूद। हम भीड़ बनकर बह जाएंगे। कवि यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात रेखांकित करता है। वह कहता है कि अपनी परम्परा से पोषण पाकर जो लोग अपनी अलग पहचान नहीं बनातेरेत के समान सिर्फ बहते या जीते चले जाते हैं वे अपनी परम्परा को गन्दा ही करते हैं।
          कवि आगे कहता है'द्वीप हैं हम। / यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में। / वह बृहद भूखंड से हमको मिलाती है। / और वह भूखंड अपना पितर है।' यहाँ कवि ने परम्परा और व्यक्तित्व को नदी और द्वीप के प्रतीक से प्रस्तुत करते हुए बताया है कि विशिष्ट व्यक्तित्व होना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य की बात है। वह कहता है कि  हमारे व्यक्तित्व को हमारी परम्परा हमारे समाज और इतिहास से जोड़ती है। वह यदि परम्परा और संस्कृति को माँ का स्थान देता है तो हमारे समाज और इतिहास को पिता के रूप में रखता है। वह कहता है कि जैसे नदी अपने गोद में द्वीप को धारण करती है उसी प्रकार एक परम्परा की गोद में एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। और जिस प्रकार नदी द्वीप और बड़े भूखंड को जोड़ती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी हमारे समाज और हमारे इतिहास से हमें जोड़ती है। यहाँ कवि स्पष्ट करता हुआ दिखता है कि किसी व्यक्तित्व के निर्माण में सिर्फ परम्परा की नहीं बल्कि समाज और इतिहास की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाप होना माँ होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
          कवि परम्परा के आगे बढ़ते चले जाने की बात करता हुआ कहता है कि - 'नदीतुम बहती चलो। / भूखंड से जो दाय हमको मिला हैमिलता रहा है, / माँजतीसंस्कार देती चलो'  अर्थात परम्परा प्रवाहमान रहे। समाज और इतिहास से व्यक्ति जो प्राप्त करता है उसकी कमियोंबुराइयोंगंदगियों को साफ करती और सुन्दर रूप देती चले। प्रत्येक समाज के अंदर समय के साथ अनेक बुराइयाँ आ जाती हैं। कवि स्पष्ट कह रहा है कि हमारे समाज के अंदर आयी बुराइयों को दूर करने के तत्व हमारी परम्परा में ही मौजूद होते हैं और इन तत्वों के सहारे समाज में आ गई बुराइयों से मुक्ति पाई जा सकती है।
          एक निबंध में अज्ञेय संस्कृति पर चर्चा करते हुए कहते हैं - 'संस्कृति व्यक्तित्व का विस्तार और प्रसार माँगती हैसंकोच या छँटाव नहीं। संस्कारी व्यक्ति बराबर नयी उपलब्धियों को आत्मसात करता चलता है।' (प्राची-प्रतीची)। वे सिर्फ आंतरिक कारणों से समाज में आ गई बुराइयों पर नजर नहीं रखते। वे कहते हैं - 'यदि ऐसा कभी हो / तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से - अतिचार से-/ तुम बढ़ोप्लवन तुम्हारा घरघरा उठे, / यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय / तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर / फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे। / कहीं फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार। / मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।'कभी-कभी कोई समाज अति-आत्मविश्वास से इतना भर जाता है कि वह इसके कारण अनेक बातों पर नजर नहीं रख पाता। हमारी अत्यधिक प्रसन्नता या अत्यधिक श्रेष्ठता का भाव भी कई बार समाज में अनेक कमियों के आने का कारण बन जाता है। हम खुद को बड़ा और श्रेष्ठ मानने के कारण इतने लापरवाह या दम्भी हो जाते हैं कि सब कुछ नष्ट होना अनिवार्य हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी के चिन्ता सर्ग में ऐसी ही स्थिति की देव संस्कृति के ध्वंस की बात की है जो जीवन के विभिन्न आयामों की श्रेष्ठता को प्राप्त करने के बाद अपनी वासना के आह्लाद में ऐसी डूबी की सब कुछ नष्ट हो गया। वे लिखते हैं कि देवताओं की संस्कृति का रूप ऐसा था कि - 'कीर्तिदीप्तिशोभा थी नचती अरुण किरण सी चारो ओर,/ सप्तसिंधु के तरल कणों मेंद्रुम दल मेंआनंद विभोर।शक्ति रही हाँ शक्तिप्रकृति थी पड़-तल में विनम्र विश्रांत, / कँपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत!' प्रसाद वर्णन करते हैं कि मनु कहते है - 'स्वयं देव थे हम सबतो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?' कामायनी में देव संस्कृति के नष्ट होने का प्रसंग आह्लाद के कारण किसी संस्कृति के नष्ट होने का श्रेष्ठ उदाहरण है।
          आगे कवि बताता है कि कभी किसी देश या समाज को किसी दूसरे देश या समाज के क्रूर स्वेच्छाचारिता या अत्याचार का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कोई परम्परा किसी बाहरी तत्वकिसी विस्तारवादी नीति वाली संस्कृतिकिसी आक्रमणकारी,  किसी आततायी या किसी भी अन्य के सम्पर्क में आकर भी अनेक बुराइयों से युक्त हो जाती है। कभी सत्ता के बल पर या कभी किसी अन्य प्रकार की कुटिलता के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से जैसे किसी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए वह बारिश या अन्य बाहरी कारणों से उफनाई हुई नदी द्वारा किसी द्वीप या समाज को डुबो देने का उदाहरण देता है। वह कहता है कि यह सब कर्मनाशा नदी की तरह भी हो सकता हैकि उसके जल के स्पर्श मात्र से सभी पुण्य समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार का कोई झंझा भी यदि संस्कृति या परम्परा को वह रूप को प्रदान कर ले कि उसके अंदर समाजहंता बुराइयां आ जाएंवह परम्परा कई युगों में प्राप्त सभी अच्छाइयों को नाश करने वाली हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं है। हम इस स्थिति को भी यह सोचकर स्वीकार कर लेंगेकि हमें अपने अंदर आई इन कमियों से मुक्त होना है। हमारे व्यक्तित्व की विशिष्टता यदि इस विपरीत स्थिति में समाप्त हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं। हमें इस बात के लिए धैर्य धारण करना होगा कि हमारी परम्परा या संस्कृति में इतनी शक्ति है कि अपने आंतरिक सकारात्मक तत्वों के सहयोग से वह हमें फिर कोई रूप देगी। हमारे अंदर की गंदगियों को वह दूर करेगी। फिर कोई व्यक्ति अपने लिए किसी आधार को बनाएगा और इस आधार पर किसी बड़े व्यक्तित्व का निर्माण होगा जो समाज में आ चुकी कमियों और बुराइयों को दूर करने का प्रयास करेगा और  दूसरों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा।
          कविता की अंतिम पंक्ति में अज्ञेय अपनी परम्परा और संस्कृति को बड़ी आत्मीयता से माँ सम्बोधन देते हैं। और कहते हैं कि ऐ मेरी संस्कृतिपरम्परा रूपी माताइस नए बनते व्यक्तित्व के निर्माण में फिर तुम्हारी आवश्यकता होगी और तुम उसे अपने संस्कारो से निर्मित करना। इस कविता के आरम्भ में भी उन्होंने एक पंक्ति के अलग बन्ध में नदी रूपी संस्कृति को माँ सम्बोधन देते हुए कहा है कि एक व्यक्तित्व की सभी अच्छाईयों और न्यूनताओं के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका माँ की होती है।
          जिस प्रकार "असाध्य वीणामहान रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसके आस्वादन की प्रक्रिया को बताने वाली महान रचना है उसी प्रकार "नदी के द्वीपकवितापरम्परा और सांस्कृति के अंदर आए उतार चढ़ावों के बीच सार्थक व्यक्तित्वों के निर्माण में उसकी भूमिका को बताने वाली कविता है। कवि इस कविता में संस्कृति के तत्वों को ग्रहण करके खुद को सार्थक व्यक्तित्व बनाने की बात कर रहा है और कह रहा है कि यदि हम खुद को सार्थक नहीं बनाए तो जिस प्रकार रेत नदी के जल को गन्दा करता है उसी प्रकार निरर्थक व्यक्ति के रूप में हम अपनी परम्परा और संस्कृति को गन्दा करेंगे।




लेखक परिचय- 

डॉ गौरव तिवारी भगवान बुद्ध और प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय की पावन धरती कुशीनगर के निवासी हैं। वह हिंदी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य  समीक्षक और गंभीर अध्येता हैं। साहित्यिक रचनाएं आपके संस्पर्श से अपने भाव और संवेदना के साथ खिल उठती हैं। डॉ गौरव तिवारी ने उच्च शिक्षा 'हिंदी साहित्य के तीर्थ' इलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज से प्राप्त की है। उन्हें हिंदी साहित्य के ख्यातिलब्ध विद्वान आचार्य सत्यप्रकाश मिश्र के सानिध्य में डी. फिल. की उपाधि प्राप्त हुई। आपकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मुस्लिम उपन्यासकार : परिवेश और उपन्यास' प्रकाशित हो चुकी है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक आलेख एवं शोध-आलेख विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हैं। आपके कुशल सम्पादन में शीघ्र ही निबंध विधा पर आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। आप देश-प्रदेश की अनेक सभा, संगोष्ठियों एवं संस्थाओं में मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित होते रहते हैं। सम्प्रति बुद्ध पी जी कॉलेज, कुशीनगर में सहायक आचार्य, हिन्दी के रूप में समाज और साहित्य की सेवा में समर्पित हैं।


मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

अज्ञेय की तीन कविताएँ, नदी के द्वीप, कलगी बाजरे की और यह दीप अकेला

(कविता पाठ और उसका अर्थ ग्रहण साहित्यालोचन का एक विशेष पक्ष है। हम हिन्दी की कुछ विशेष कविताओं का भाष्य करने और पाठालोचन करने का प्रयास कर रहे हैं। इस क्रम में हमारी टीम विभिन्न काव्य मर्मज्ञों और सुजान अध्येताओं से अनुरोध कर रही है। समय समय पर हम इन विभिन्न कविताओं की व्याख्या और भाष्य लेकर उपस्थित होंगे। हमने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' की प्रसिद्ध और जरूरी कविता "नदी के द्वीप" से इसका आरंभ करना तय किया है। इस कविता का भाष्य सुधी आलोचक और चिन्तक डॉ गौरव तिवारी करेंगे। उनका "पाठ" मई दिवस पर प्रस्तुत किया जाएगा। यहाँ प्रस्तुत है वह प्रसिद्ध कविता। - संपादक)




1. नदी के द्वीप


हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

इलाहाबाद, 11 सितम्बर, 1949

 


2. कलगी बाजरे की

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद् के भोर की नीहार-न्हायी कुँई।
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है

बल्कि केवल यही: ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के
निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ-

बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?

आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है
या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती
कलगी अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।

शब्द जादू हैं-
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?

 

3. यह दीप अकेला

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो 

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित : 

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो 

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो 

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

 -सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कथावार्ता : कस्बाई सिमोन : स्त्री-जीवन का नया दृष्टिकोण


‘कस्बाई सिमोन’ कथाकार शरद सिंह का तीसरा उपन्यास है जो उनके अन्य उपन्यासों की भांति ‘स्त्री-चेतना’ पर केन्द्रित है। इस उपन्यास के विषय निरूपण में लेखिका को भरपूर सफलता मिली है। इसकी भूमिका ‘अपनी बात’ से ही उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि यह उपन्यास महानगरों की अपेक्षा कस्बों में रहने वाली ‘स्वतन्त्र चेतना की स्त्री’ को केंद्र में रखकर लिखा गया है। जैसे, उसे किन परिस्थितियों या हालातों से होकर गुजरना पड़ता है? वह किन चुनौतियों का सामना करती है?’ या वह अपने ‘स्व’ को कहाँ तक सुरक्षित रख पाती है? भले ही लेखिका अपनी भूमिका में आग्रह करती है कि “इस उपन्यास के कथानक का उद्देश्य किसी विचार-विशेष की पैरवी नहीं करना अपितु उस विचार विशेष का कस्बाई स्त्री के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचना परखना है।” फिर भी जब वह उसी भूमिका में ‘स्त्रीत्ववाद’ से जुड़े तमाम प्रश्नों पर विचार करती है तभी स्पष्ट हो जाता है कि इसमें स्त्री-जीवन के कई बुनियादी प्रश्नों पर विचार किया गया है और ‘कस्बाई स्वतन्त्र चेता स्त्री-जीवन’ से जुड़ी चुनौतियों से जूझने का उपक्रम है।
इस उपन्यास की कहानी का परिवेश मध्यप्रदेश के छोटे शहर हैं। इसकी प्रमुख पात्र 28 वर्षीय ‘सुगंधा’ है जो अपनी स्वतंत्रता को सहेजने वाली, स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत, स्वावलंबी कामकाजी स्त्री है। वह ‘जबलपुर’ में अकेले रहकर सरकारी नौकरी करती है। उसके अकेलेपन की नियति बचपन में ही तय हो जाती है जो ‘मंडला’ से शुरू होकर भोपाल तक पहुँचती है, जहाँ उसका बचपन और किशोरावस्था गुजरा था। उसके पिता एक प्राध्यापक थे। वह उसके और उसकी माँ के प्रति अत्यंत निर्मम और कठोर थे। उनका अपनी शोध-छात्राओं के साथ अनैतिक संबंध था। उनकी यातना और उपेक्षा से आहत होकर नायिका की माँ उसे लेकर ‘मंडला’ से ‘भोपाल’ आ जाती है। यह ‘भोपाल’ माँ और बेटी की संघर्ष भूमि रही। यहीं पर उसकी माँ ने अपने संघर्षों से स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया और अपनी बेटी को भी स्वावलंबी। किन्तु उपन्यास में माँ और बेटी के संघर्ष की यह कहानी गौण रूप में ही आई है।

यह उपन्यास मुख्यत: ‘सुगंधा’ की उस जिजीविषा की कहानी है जिसमें वह ‘सिमोन’ के जैसा जीवन जीने का निर्णय लेती है। किन्तु यह भी एक विडंबना है कि वह जिस ‘सिमोन’ की अनुगामी बन जाती है, उस महान व्यक्तित्व से अबतक अन्य लाखों-करोड़ों स्त्रियों की भांति अनजान थी। एक बार उसके सहकर्मी पुरूष मित्र ‘मृदुल’ ने उसके स्त्री-अधिकारों से जुड़े लेखों को देखकर उसे ‘सिमोन’ कह दिया था। इसके बाद ही वह फ्रांस की इस विलक्षण महिला ‘सिमोन द बोउआर’ के विषय में जान पाई थी जिसने अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ में कहा है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’। वह बिना विवाह किए अपने प्रेमी ‘सार्त्र’ के साथ रहती थी। उसने पितृसत्ता के छल-छद्म को तार-तार कर दिया था और स्त्री-सशक्तिकरण के संघर्ष में एक नया स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। ‘सिमोन द बोउआर’ से परिचय के बाद वह उससे भावनात्मक रूप से काफी लगाव महसूस करने लगती है। ‘सिमोन’ के जीवन का सच जानकर उसे लगा कि जैसे उसके अकेले रहने और विवाह न करने के फैसले को समर्थन मिल गया हो। उसने बचपन से विवाह संस्था की जिन विदूपताओं को देखा था उससे इसके प्रति उसका विश्वास उठ गया था तभी वह‘रितिक’ के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने का निर्णय करती है। वह स्वयं भी कभी-कभी विचार करती है कि क्या उसका जीवन ‘सिमोन’ जैसा हो पाएगा। छोटे शहर में बिना विवाह किए पुरूष के साथ रहने के उसके निर्णय ने उसे ‘कस्बाई सिमोन’ बना दिया।
अभी भारतीय समाज की मानसिकता इतनी प्रगतिशील नहीं हो पाई है जो किसी अविवाहित जोड़े को एक साथ रहने की अनुमति दे सके। ‘रितिक’ और ‘सुगंधा’ को अपने संबंधों के कारण बार-बार घर बदलना पड़ता है। क्योंकि समाज उनके संबंधों को अवैध मानता है। अंतत: दोनों ने मिलकर अपना घर खरीदने का निर्णय लिया लेकिन तब तक उन्हें आभास होनेलगता है कि यदि इस समाज में रहना है तो पति-पत्नी के ढोंग से गुजरना ही पड़ेगा और दोनों थोड़ा-बहुत इससे गुजरते हैं। इस ढोंग में रितिक के पितृसत्तात्मक संस्कारों पर चढ़ी प्रगतिशीलता की परत पूरी तरह उतर जाती है और वह पति की भूमिका में आ जाता है। ‘सुगंधा’ उसमें आए इस परिवर्तन को साफ महसूस करती है- “इन पांच वर्षों के साथ में मैंने रितिक के स्वभाव में होने वाले परिवर्तनों को महसूस किया था। अब वह मुझे झिड़कने लगा था। कई बार बिलकुल परम्परावादी पति की तरह। इधर कुछ समय से मैं अनुभव कर रही थी कि हमारा ‘असामाजिक’ रिश्ता ‘सामाजिक’ आकार लेता जा रहा है। दायित्वों को लेकर रितिक की मुझसे अपेक्षाएं बढ़ गई थीं। वह मुझ पर अधिकार जमाने लगा था।” इस तरह सुगंधा भी कभी-कभी अपने को पारम्परिक पत्नी समझने लगती है। दोनों का टकराव पति-पत्नी के समान बढ़ता जाता है। एक दिन जब रितिक सुगंधा को रखैल कह देता है तब सुगंधा का संयम भरभराकर गिर जाता है और वह आहत आत्मसम्मान लिए हुए रितिक का साथ छोड़ने का निर्णय ले लेती है तथा अपना स्थानान्तरण सागर करवा लेती है। इस तरह से दोनों के संबंधों का पटाक्षेप हो जाता है।
सागर में एक बार पुन: सुगंधा का परिचय सागर विश्वविद्यालय में एक वर्ष के लिए किसी प्रोजेक्ट पर काम करने आए छिंदवाड़ा के प्राध्यापक ‘डॉ. ऋषभ जैन’ से होता है, जो विवाहित व्यक्ति है। इस परिचय की परिणति शीघ्र ही दैहिक संबंध में हो जाती है लेकिन ऋषभ की मर्दवादी सोच के कारण वह उसे त्याग देती है। इसके बाद वह एक अन्य विवाहित बैंक कर्मचारी ‘विशाल पटेल’ से जुडती है जो थियेटर के अभिनय तथा साहित्य में रुचि रखता है, वह प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति है। अपने इस संबंध से उसे तृप्ति का अनुभव होता है और यहीं पर उपन्यास की कहानी ‘कस्बाई सिमोन’ के अनिश्चित भविष्य के साथ समाप्त हो जाती है। उपन्यास को गतिशीलता प्रदान करने में उच्चवर्गीय स्त्री पात्र ‘कीर्ति’ का भी योगदान है जो अपने पति सदाशिव की इच्छा से स्वयं शोषित होना स्वीकार करती है। इसमें उच्च शिक्षा के अनेक प्राध्यापक भी हैं जो अपनी छात्राओं का यौन-शोषण करने में संलिप्त हैं। किन्तु उपन्यास की पूरी कथा सुगंधा के इर्द गिर्द घूमती है। इस कहानी में मूलत: सुगंधा के प्रति पितृसत्ता से सिंचित ‘कस्बाई मानसिकता’ के छद्म को दिखाया गया है।
पितृसत्तात्मक संस्कृति का प्रशिक्षण समाज में इतने गहरे तक समाया हुआ है कि उसकी जकड़न से निकल छूटना इतना आसान नहीं है जितना नायिका कल्पना कर लेती है। केवल व्यक्तिवादी होने मात्र से अधिकार अर्जित कर पाना संभव भी नहीं है क्योंकि अंतत: रहना तो उसी समाज में है जो अभी स्त्री को स्वतंत्र मनुष्य के तौर पर पहचान ही नहीं पाया है। नायिका बराबर स्त्रियों के दोयम दर्जे पर दुखी होती है। उसे यह भी समझ है कि स्त्री की कोई भी सामाजिक भूमिका हो वह पुरूषों द्वारा ही तय होती है। इसलिए वह सोचती है कि ‘स्त्री वेश्या बनती है क्योंकि पुरूष उसकी देह के बदले उसे पैसे देने को तैयार रहता है, स्त्री दासी बनती है क्योंकि पुरूष बदले में दूसरे पुरूषों से उसकी रक्षा करता है। पुरूष जो बनता है, स्त्री वह बनने को तैयार हो जाती है क्योंकि वह जीना चाहती है।’

किसी रचना का मुख्य पात्र एक वर्ग का प्रतिनिधि होता है जो उस वर्ग के अनेक मुद्दों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। इस उपन्यास में नायिका सुगंधा छोटे और मध्यम वर्ग के शहरों के ऐसे ‘स्त्री-वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने जीवन की स्वतंत्रता को किसी भी कीमत पर अक्षुण्ण रखना चाहती हैं। पुरूषों को वह प्राय: शोषक के रूप में देखती हैं। उनका विवाह संस्था में विश्वास नहीं है। किन्तु कथा में नायिका के चरित्र में एक स्पष्ट विरोधाभास दिखाई पड़ता है। वह न तो परिस्थितियों से हमेशा टूटती है और न ही वह उसके विरूद्ध हमेशा तनकर खड़ी ही रह पाती है फलस्वरूप उसकी नियति पेंडुलम जैसी हो जाती है। वह विद्रोह और समझौते के बीच में झूलती रहती है और उपन्यास के अंत तक उसका विद्रोह किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुँच पाता है। यद्यपि वह स्वयं को सामान्य स्त्रियों से अलग रखकर देखती है। यह उसने स्वयं स्वीकार किया है कि “मेरी जैसी औरतें अपवाद हो सकती हैं लेकिन किस सीमा तक?” स्पष्ट तौर पर नायिका कहना चाह रही है कि एक सीमा के बाद वह भी अपवाद नहीं रह जाएगी और उसकी नियति भी अन्य स्त्रियों की तरह हो जाएगी जो अपने वर्तमान से ऊब जाती हैं किन्तु अन्य विवाहिताओं की भांति उसका मन अन्य वस्तुओं से नहीं बहल सकता तो वह पुरूषों के चरित्र की तरह ही स्वयं के लिए अन्य पुरूषों को तलाश सकती है। (आगे चलकर ऋषभ और विशाल से उसके संबंध को इसी तलाश के रूप में क्यों न देखा जाए जिसके लिए वह पुरूषों को आरोपित करती रही है)। किन्तु इसे स्त्री-अधिकार या स्वतंत्र-निर्णय कैसे कह सकते हैं? यह तो पुरूषों के दुर्गुणों का स्त्री-संस्करण है। इसलिए नायिका की दैहिक आजादी की कामना को देखकर कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि वह ‘स्त्री-अधिकार’ की नहीं बल्कि ‘निजता के अधिकार’ की मांग करती हुई प्रतीत होती है। स्त्रियों की सार्वभौमिक समस्यायों पर विचार करते हुए भी वह व्यक्तिवादी ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि वह प्रतिरोध के संस्कृति की सार्थक प्रतीक नहीं बन पाती है। हम सभी यह समझते हैं कि केवल व्यक्तिवादी होकर पितृसत्ता की सामन्ती मानसिकता को चुनौती देना संभव नहीं है। उसके लिए तो तमाम स्त्रियों को ‘भगिनीभाव’ से जुड़कर पहले एक प्रतिरोध की संस्कृति तैयार करनी होगी। अन्यथा प्रत्येक कस्बाई सिमोन की चाहत रखने वाली स्त्री सुगंधा की नियति को ही प्राप्त होगी।
उपन्यास में एक और महत्वपूर्ण बात खटकती है कि नायिका ‘सुगंधा’ का बचपन और किशोरावस्था जितना उथल-पुथल भरा रहा है उसकी अपेक्षा उसका मानसिक संघर्ष और अंतर्द्वंद्व नदारद हैं जो उसके चारित्रिक विकास के लिए आवश्यक था इसलिए उसके चारित्रिक विकास की क्रमबद्धता भी स्पष्ट नहीं हो पाती है। उसका बचपन और किशोरावस्था यहाँ तक कि उसकी युवावस्था भी बड़े शर्मीले और लजीले ढंग से बीत गई। एकाध बार उसे अपनी ‘नूतन’ मौसी और अपनी दोस्त ‘रीता’ से शारीरिक इतिहास भूगोल का सामान्य परिचय तो मिला किन्तु उसमें गहराई नहीं थी। स्त्री-अधिकार, उसकी नियति, त्रासद परिस्थितियों को लेकर उसकी कभी किसी से कोई बहस नहीं हुई। यहाँ तक कि अनेक विषमताओं से जूझती अपनी माँ से भी उसकी कभी कोई बहस-विवेचना नहीं होती है। फिर उसके मन में ‘स्त्री-अधिकारों’ को लेकर इतनी रेडिकल सोच कब और कहाँ से विकसित होना प्रारम्भ हुई कि वह विवाह संस्था के खिलाफ होकर ‘कस्बाई सिमोन’ बनने की राह पर निकल पड़ती है क्योंकि मानसिक स्तर पर घटित परिवर्तन ही व्यवहारिक स्तर पर घटित होते हैं जो प्राय: किशोरावस्था में तैयार होते हैं लेकिन यहाँ पर नायिका के किशोरावस्था में कोई विशेष अंतर्द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष दिखाई नहीं पड़ता।
स्त्री के शोषण का सबसे प्रमुख माध्यम उसकी ‘देह’ है। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका ‘अनामिका’ जी ने तो इसे बड़े खुले मन से स्वीकार करते हुए लिखा है कि “स्त्री के किसी भी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसकी देह होती है इसलिए उसके लेखन के केंद्र में स्त्री-देह का होना स्वाभाविक है।” संभवत: इसलिए इस उपन्यास की नायिका के स्त्री-स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग में केवल यौन-स्वतंत्रता की मांग ही प्रमुख रूप से उभरी है। वह आर्थिक रूप से आजाद है इसलिए इसके बाद वह अपनी देह के अधिकार को चुनना चाहती है किन्तु यहाँ भी वह भावुकता से भरे दैहिक प्रेम में उलझ जाती है। यही कारण है कि उसका कोरी भावुकता से भरा प्रेम उसे औसत भारतीय स्त्री की तरह प्रदर्शित करता है जहाँ वह आखिर तक अपने संबंध को बनाए और बचाए रखना चाहती है। वह हमेशा पलायन करती है, कभी मोहल्ले से, कभी गली से, कभी शहर से भी तो कभी खुद से लेकिन उस कोरी भावुकता को नहीं छोड़ पाती जो स्त्री को कमजोर करता है। वह औसत प्रेमिका की भांति अपने अन्य प्रेमियों में भी पहले प्रेमी को ढूंढती है। वह स्वयं स्वीकार करते हुए कहती है- “मैं उससे बहुत प्रेम करती थी और अब कहना कठिन है कि मेरे मन में उसके प्रति कितना प्रेम शेष है। फिर भी वह मेरे साथ हमेशा रहता है, सशरीर , एक प्रभाव बनकर, एक छाया बनकर। मै किसी भी पुरूष को देखती हूँ या किसी पुरूष के ताप को अनुभव करना चाहती हूँ तो मेरा मन उससे तुलना करने लगता है।”
क्या रचनाकार के मन का अंतर्द्वंद्व नायिका के चरित्र में उभरा है कि वह निर्णय नहीं कर पा रही है कि आखिर गलत कौन है? और किसके विरोध में खड़ा होना है?- पुरूष, समाज, विवाह या इन सबकी नियामक पितृसत्तात्मक संस्कृति? क्योंकि अपने विचारों में तो नायिका पुरूषों को बराबर कटघरे में खड़ा करती है। यहाँ तक कि अपने प्रेमी ‘रितिक’ के विषय में भी वह पहले से अवगत है फिर भी उसे पुरूषों से कोई आपत्ति नहीं है बस वह ‘विवाह-संस्था’ में विश्वास नहीं रखती क्योंकि उसके सामने अनगिनत असफल विवाहों की गाथा है जिसमें स्वयं उसके माता-पिता भी हैं। इसे उसने स्वीकार किया है “वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही था वह जो किसी फॉसिल के सामान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।” अजीब विडंबना है जब वह स्त्रियों के शोषक के रूप में पुरूषों को पहचान रही है (जैसा कि उसके अनेक वक्तव्यों से स्पष्ट होता है) तो उसे विवाह के साथ-साथ पुरूषों से नफरत होनी चाहिए थी।
नायिका के हृदय में रितिक के लिए भावनाएं अवश्य हैं किन्तु उसके प्रति प्रेम दैहिक स्तर पर ही पनपा है क्योंकि उससे पहली मुलाकात में बारिश से भीगने पर वह अपनी देह को ही निहारती है। उसे महसूस होता है कि इस देह में वह सब कुछ है जो रितिक को आकर्षित कर सकता है। चूंकि 28 वर्ष की उम्र में भावावेग की अपेक्षा दिमाग का जोड़ घटाव अधिक सक्रिय रहता है इसलिए यहाँ निर्णय में भावना का स्थान देह के बाद ही है। भले ही वह यह कहती है कि “कोई हो जो सिर्फ मुझे प्यार करे सिर्फ मुझे” लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दैहिक जरूरतों और आकर्षण के कारण ही वह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना चाहती है। उसने इस रिश्ते में बराबरी के स्तर पर जीवन जीने की चाहे जितनी भी कोशिश की, अंतत: वह दोयम दर्जे की पार्टनर ही रही। रितिक की इच्छाएँ उससे पहले रहीं। वह न जाने कितनी बार अपराधबोध से ग्रसित हुई थी जिसे वह व्यक्त भी नहीं कर पाती थी। जैसे शारीरिक संबंधों के दौरान गर्भनिरोधक का प्रयोग करना केवल उसकी जिम्मेदारी बन गयी थी। इस बात की उसके मन में गहरी टीस भी थी किन्तु वह उसे अभिव्यक्त नही कर पाती है- “इस बात को लेकर कभी-कभी मेरा मन उदास हो जाता। इसे सम्भोग कहते हैं न? अर्थात दोनों पक्ष समान रूप से एक दूसरे का उपभोग करें। लेकिन गर्भ निरोधक के प्रश्न पर समानता कहाँ चली जाती है? यदि प्रकृति ने स्त्री को गर्भधारण की क्षमता प्रदान की है तो वही चिंता करे, गर्भ न ठहरने की, यह तो सम्भोग नहीं हुआ न!”
कस्बाई सिमोन बनने की चाहत रखने वाली सुगंधा (यद्यपि वह स्वीकार कर चुकी है कि भारतीय समाज में ‘सिमोन’ बन पाना उसके लिए संभव नहीं है) केवल विवाह नहीं चाहती थी। उसे पुरूष संसर्ग से कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आगे अतिनाटकीय क्रम में जब उसने ऋषभ जैन से संबंध जोड़ा तो उसकी पत्नी की कोई परवाह न करके उसके अधिकारों का भी हनन किया। इस दृष्टि से यहाँ पर स्त्री-अधिकार की अपेक्षा भोगवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता दिखाई दे रहा है। यह उसे ऐसे अवसरवादी व्यक्ति के रूप में चित्रित करता है जो अपनी की दैहिक तृप्ति को ही मुख्य मानती है। इससे उपन्यास की ‘स्त्री-चेतना’ समृद्ध न होकर कुछ छीजती ही है।
उपन्यास के अंतिम पड़ाव पर सुगंधा को विशाल पटेल के रूप में एक और पुरूष साथी मिलता है जो पहले दो साथियों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत और चेतना सम्पन्न है। अब पुन: दैहिक तृप्ति की एक नई कहानी प्रारंभ हो गई। यद्यपिइस संबंध की प्रकृति भी स्थाई नहीं रहने वाली है क्योंकि विशाल का अपना एक भरा-पूरा परिवार है। लेकिन उससे सुगंधा की नियति में क्या फर्क आएगा! उसका भविष्य तो अब भी अनिश्चय के अँधेरे में है। फिर उपन्यास के समापन पर नायिका के चहरे पर जो प्रसन्नता है वह क्या वह क्षणिक दैहिक तृप्ति के कारण आई है? रचनाकार ने संभवत: मुस्कुराहट की ओट लेकर उसका भविष्य पाठकों की कल्पना पर छोड़ दिया है। फिर भी पाठक के सामने कुछ प्रश्न बने रह जाते हैं कि आखिर कहानी के अंत में क्या हासिल हुआ? आखिर ‘कस्बाई सिमोन’ की नियति क्या है?
कोई भी रचना उसके सर्जक की विशिष्ट साधना का प्रतिफल होती है जिसमें वह पात्रों के रूप में सामाजिक प्रतिनिधियों को रखता है। (जैसा कि हमने लेख के प्रारम्भ में भी स्वीकार किया है।) प्राय: पाठक उन्हें स्वतंत्र व्यक्ति या सत्ता न समझकर उस वर्ग का प्रतिनिधि समझते हैं। यदि इस उपन्यास में पुरूष पात्रों को उनके वर्ग का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए तो पाठकों का अनेक संस्थाओं से भरोसा ही समाप्त हो जाएगा। संभव है कि रचनाकार के अपने अनुभव रहे हों या कहानी का दबाव रहा हो जिससे उपन्यास के प्राय: सभी पुरूष पात्र चारित्रिक दृष्टि से भ्रष्ट और धूर्त हैं। खास तौर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के अध्यापक, जिनका अपनी छात्राओं से अनिवार्यत: शारीरिक संबंध है। क्या कथाकार ने चुन-चुनकर ऐसे ही पात्रों को कथा में स्थान दिया है! अन्यथा मेरा मानना है कि इस तरह के अतिवाद से बचा जाना चाहिए था। क्या पूरी पुरूष जाति को नकार कर महिला सशक्तिकरण आन्दोलन कोई स्वस्थ सामाजिक संरचना विकसित कर सकेगा? वास्तव में स्त्रीत्ववाद को स्त्री और पुरूष में से बेहतर मनुष्यों को एकसाथ लाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें स्त्रियों के पुरूष संस्करण न रचते हुए स्त्री-पुरूष समभाव पर आधारित समाज बनाया जा सके ।
उपन्यास लेखन की सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि रचनाकार अपने पाठक को विषय से भटकने न दे, उसे अपनी कल्पना के कानन में विचरण करने दे किन्तु उसकी नजर से वह स्वर्ण पंक्षी ओझल न होने दे जो उसका लक्ष्य है। यह उपन्यास एक हद तक ही इस कसौटी पर खरा उतरता है। इसमें रोचकता है जो इसे एक बैठक में पढ़ने को प्रेरित करती है। इसमें लेखिका के पहले उपन्यास पिछले पन्ने की औरतेंजैसी उपदेशवृत्ति तथा तथ्यात्मक आंकड़ों की नीरसता नहीं है। मार्मिक विषय और रोचक प्रस्तुति ने इसकी कहानी को बोझिल नहीं बनने दिया है। यह पाठक को अंत तक अपने से बांधे रखती है। अकेली औरत की चुनौतियों से दो-चार करवाती हुई इस कृति में लेखिका के नारी संबंधी जो विचार नायिका के माध्यम से व्यक्त हुए हैंवे बड़े उत्तेजक हैं। सबसे अच्छी बात है की ये विचार स्त्री की भावना के रूप में व्यक्त हुए हैं जो उपन्यास के कथातत्व से घुल मिल गए हैं तथा कथावस्तु के प्रवाह में बाधक नहीं बने हैं बल्कि उपन्यास के उद्देश्य को ही रेखांकित कर रहे हैं। कहानी के वर्णन में पूर्वदीप्ति शैली का प्रयोग इतना सुन्दर और कुशलता से किया गया है कि उससे पाठक का रसबोध कम नहीं होता है। कुछ एक प्रसंगों को छोड़ दिया जाय तो संवाद-संयोजन भी बेहतर हैं,उसमें बनावटीपन नहीं है। वह पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करने में सक्षम हैं।
यह उपन्यास लेखिका के पहले दोनों उपन्यासों से केवल रचनाकाल में ही आगे नहीं बढ़ा है बल्कि इसमें गुणात्मक अभिवृद्धि भी हुई है। यह एक प्रौढ़ रचना है जो रोमांचक और पठनीय है।  ‘स्त्री-चेतना’ के प्रति रुचि रखने वालों के लिए इसे जरूर पढ़ना चाहिए।

(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। शरद सिंह ने अपनी औपन्यासिक कृतियों से स्त्री विमर्श में एक गहरी छाप छोड़ी है। शत्रुघ्न सिंह ने शरद सिंह का उपन्यास कस्बाई सिमोन पढ़ते हुए मुझसे कुछ विचार साझा किए थे। हमारे अनुरोध पर उन्होने इसकी गंभीर मीमांसा की है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)
डॉ. शत्रुघ्न सिंह
सहायक आचार्य हिंदी विभाग
श्री भगवान् महावीर पी.जी. कॉलेज पावानगर फाजिलनगर कुशीनगर


शनिवार, 11 अप्रैल 2020

कथावार्ता : फणीश्वर नाथ रेणु की पहली कहानी ‘वट बाबा’


          महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के पुण्यतिथि 11 अप्रैल पर सुनिए उनकी पहली कहानी वट बाबा। वाचन स्वर है डॉ रमाकान्त राय का।




         फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 04 मार्च 1921 को पूर्णिया जनपद, बिहार के औराही-हिंगना ग्राम में हुआ था। उन्होने मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस आदि उपन्यास लिखे। उनकी कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर बहुचर्चित फीचर फिल्म का निर्माण हुआ है। फणीश्वर नाथ रेणु ने कुल 63 कहानियाँ लिखी हैं। यह कहानी उनकी पहली कहानी मानी जाती है जो साप्ताहिक विश्वामित्र में अगस्त, 1944 में प्रकाशित हुई थी। 1942 के आंदोलन में उन्हें जेल हुई थी। जब वह 1944 में जेल से छूटे तो उन्होने यह पहली कहानी लिखी, जिसे भारत यायावर ने 'पहली परिपक्व कहानी' कहा है। उनकी दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' है।

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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कथावार्ता : निर्मल वर्मा : गद्य और चिन्तन की कुछ छवियाँ



आज प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा का जन्मदिन है। वह हिन्दी गद्य में एक अलग ही तरल व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। उनकी कहानी 'परिन्दे' आधुनिक हिन्दी कहानी का प्रस्थान बिन्दु मानी जाती है। रात का रिपोर्टर, वे दिन, अंतिम अरण्य आपकी प्रसिद्ध औपन्यासिक कृतियाँ हैं। 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' और धुंध से उठती धुन आपकी अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
     युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक और सुधी आलोचक हैं। वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। आज उनके द्वारा चयनित कुछ गद्यांश निर्मल वर्मा के जन्मदिन पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। शीघ्र ही निर्मल वर्मा पर उनका एक लंबा आलेख आप पढ़ सकेंगे।

(मॉडरेटर)


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"एक पराए अजनबी को किसी शहर के वासी हमेशा एक 'भीड़' दिखाई देते हैं, उस भीड़ की लय और अंतर्धारा का रहस्य सिर्फ उस नगर का वासी ही जानता है। अँग्रेज़ी शासक एक ऐसी सभ्यता से आये थे जो योरोप की राष्ट्रीय सीमाओं में विभाजित हो चुकी थी.....इसीलिए भारत की सभ्यता उनके लिए पहेली बनी रही जो बाहर से अलग-अलग मतों, सम्प्रदायों और जातियों में एक दूसरे से भिन्न होने के बावजूद-अपने भीतर की समग्रता में अखंडित थी।"
निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में

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"गड़बड़ी दरअसल कहाँ हुई ?  ऐसा क्यों हुआ कि वह हिन्दुत्त्व जो बहुलतावादी अन्तश्चेतना और सहनशीलता के लिए प्रसिद्ध था, एक ऐसी सभ्यता को अपने भीतर जगह देने में सफल नहीं हो पाया, ओ समता और भाईचारे के मानवतावादी मूल्यों से मंडित थी ?
अँग्रेज़ों ने उस देश में आकर क्यों बदहवासी और घुटन महसूस की, जहाँ वे किसी मज़बूरी के चलते नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी से आए थे ?
क्या दोनों संस्कृतियों के बीच कभी संवाद नहीं हो सका या औपनिवेशिक सन्दर्भ के कारण इस संवाद में दोनों संस्कृतियों का केवल निकृष्ट रूप ही एक दूसरे के सामने आ सका ?
या शायद 'अन्य' को जानने या 'अन्य' से एकाकार होने की यूरोप की अवधारणा में ही मूलभूत त्रुटि थी ? दुनियाभर में घूम-घूमकर पृथ्वी पर अपनी अस्मिता को पुष्ट करने के ख़ातिर दूसरी संस्कृतियों को अनुकूलित कर,दूसरी परम्पराओं से अर्थपूर्ण संवाद करना कभी भारत का ढंग नहीं रहा, लेकिन तब फिर 'अन्य' के सत्य को जानने का भारतीय ढंग क्या था- उस 'अन्य' को जिसे वह अपने में समाविष्ट न कर सकता हो ?
पाश्चात्य संशयवादियों को दूसरी संस्कृतियों और धर्मों से सम्बन्ध बनाने का भारतीय ढंग हमेशा ही थोड़ा अवसरवादी और अस्पष्ट जान पड़ा है। उन्हें यह लगता रहा कि जिस भारतीय परम्परा की तथाकथित समावेशिता कुछ ऐसी है जहाँ 'अन्य' का सीधा-सीधा सामना नहीं किया जाता,उसकी जगह 'अन्य' के साथ कुछ इस तरह का सम्बन्ध बिठाया जाता है कि येन-केन-प्रकारेण उसे किसी तरह अपनी ही व्यवस्था की एक निम्न कोटि पर शामिल किया जा सके।
अगर ईसाई मिशनरी हिंदुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो इसका कारण यह नहीं था कि हिंदुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध तहस, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही समाविष्ट कर लिया। यहाँ तक कि खुद ईसा मसीह भी उनके देवी-देवताओं में शामिल कर लिए गए।
समावेशी तादात्म्य के कारण हिन्दू पश्चिम से वास्तविक संवाद करने से बचते हुए जान पड़ते हैं, क्योंकि सच्चा संवाद तबतक नहीं हो सकता जबतक दूसरों का सच उनकी अपनी शर्तों पर उसकी सम्पूर्ण अद्वितीयता में न समझा जाए।
भारतीयों पर अक्सर यह आरोप लगाया गया है कि दूसरी सभ्यताओं के प्रति अपनी उदासीनता के परिणामस्वरूप ही वे भारतीय संस्कृति और परम्परा की अस्मिता और नैरन्तर्य बनाये रख सके लेकिन उन्होंने कभी अपने को दूसरे के संदर्भ में परिभाषित करने का प्रयास नहीं किया।"

निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में
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"योरोप ने भारतीय चेतना में जो दरार उत्पन्न की थी-एक हिस्सा परम्परा में डूबा हुआ और दूसरा अपने को योरोपीय मनुष्य की छवि में ढालने के लिए उत्सुक- उसने एक ऐसी आत्मछलना को जन्म दिया, जो हिन्दू परम्परावादियों और नव्य हिंदुओं-दोनों के अंतःकरण को कुतरने लगी।
परम्परावादी अपने को योरोपियों के विरुद्ध स्थापित करना चाहते थे, अपने अतीत को आदर्शीकृत करके, इसके लिए भले ही उन्हें अपने इतिहास के कुछ अंशों का मिथ्याकरण करना पड़ा हो, जैसा कि बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में किया था।
दूसरी तरफ, 'हिन्दू आधुनिकताकार', अपनी आत्मछलना से पीछा छुड़ाने के लिए योरोपियों से बढ़कर योरोपीय होना चाहती थी, भारतीय योरोपीय की एक ऐसी नस्ल,जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में बेहद प्रभावशाली रही और जिसने स्वतंत्रता के बाद भारत पर शासन किया।
आख़िरकार नेहरू उतने ही हिन्दू-योरोपीय थे, जितने भारतीय पुनर्जागरण की आरंभिक अवस्था के राजा राममोहन राय।
योरोप से प्रतिश्रुत होने पर भारतीय मानस में जो फाँक आई वह आईने की उस दरार की तरह थी जिसके एक भाग में उस अतीत का आदर्शीकृत प्रतिबिंब था, जो हमेशा के लिए खो चुका था और दूसरे भाग में योरोप की वह विकृत छवि,जो भारत के भावी निर्माण के लिए एक मॉडल की तरह उपयोग में लायी जानेवाली थी।
भारतीय पुनर्जागरण जहाँ एक ओर आधुनिक हिंदुओं को आत्मसाक्षात्कार करने का अवसर प्रदान करता था, वहाँ दूसरी ओर स्वयं अपने आत्म से खंडित होने के लिए विवश भी करता था- आत्मचेतना और आत्मखण्डन दोनों का उत्स पुनर्जागरण में निहित था।"
निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में


"मैं मानता हूँ कि बीसवीं शताब्दी में कम्युनिज्म ही एक ऐसी विचारधारा थी जो मानवीय आदर्शों का सबसे सुंदर उदाहरण लेकर हमारे सामने आई थी।
समता,आज़ादी,न्याय,लोगों के भीतर आपस में सौहार्द भाव। इससे ज़्यादा सुंदर मानवीय आदर्श और क्या हो सकते हैं ? और सबसे बड़ा तो यह कि जो सबसे पिसे हुए लोग हैं,सबसे शोषित लोग हैं,सबसे बेबस लोग हैं,उन्हें वाणी मिले कि वह अपनी आवाज़ ऊपर उठा सकें।
इतिहास में पहली बार सतह पर रोशनी में उनकी शक्ल दिखाई दी।हंगरी पर,चेकोस्लोवाकिया पर,जब एक मज़दूरों की ही सरकार ने सोवियत यूनियन ने आक्रमण किया तो मैं सोचने लगा,अगर अमेरिका आक्रमण करे तो बात समझ में आती है, अमेरिका अगर वियतनाम पर हमला करे तो कितना ही बुरा क्यों न लगे,वह बात समझ में आती है,क्योंकि वह एक साम्राज्यवादी देश है।
इस दृष्टि से यह फासिज्म से भी कहीं ज्यादा बुरा है क्योंकि फासिज्म का अत्याचार तो नङ्गे तौर पर लोग आंखों से देख लेते हैं जबकि कम्युनिज्म के चेहरे को हम वर्षों तक नहीं पहचान पाते क्योंकि उसके पीछे बहुत ही सुंदर आदर्शों और उदात्त भावनाओं का नक़ाब पड़ा रहता है।
यह कोई संयोग नहीं था कि 50-60 वर्ष तक सोवियत संघ में सच को झूठ,न्याय को अन्याय, हर चीज़,रात को दिन कहते रहे और हम उनपर विश्वास करते गए।"

निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में


"डॉरोथी डे की आत्मकथा पढ़ रहा हूँ, लम्बा अकेलापन उसका शीर्षक है। समूचा जीवन 'जीने का अर्थ' पाने का बीहड़ प्रयास।
संघर्षमय बचपन, गरीबी में यूनिवर्सिटी के दिन बिताए। कम्युनिस्ट पार्टी से निराश होकर कैथोलिक धर्म की ओर मुड़ीं और अमेरिका में पहली बार एक रेडिकल कैथेलिक मजदूर आंदोलन की नींव डाली। उनके समाचारपत्र 'कैथोलिक वर्कर' के इर्द गिर्द अनेक कम्युनिटी सेंटर स्थापित हुए,मज़दूरों के कम्यून, जहां आन्दोलन में भाग लेनेवाले कार्यकर्ता एक साथ रहते थे। पहली बार हार्वर्ड में रहकर मुझे इस तरह के जन-आंदोलनों का परिचय प्राप्त हुआ,जो बीसवीं शती के आरम्भ में अमेरिका के जनसाधारण, इमीग्रेट लोगों ने शुरू किए थे।
डॉरोथी डे की आत्मकथा पढ़ते हुए कैथोलिक धर्म को बहुत निकट से देखने-जानने का मौका मिला-एक धर्म सम्प्रदाय के रूप में।"

निर्मल वर्मा 'धुंध से उठती धुन' में


"एक लेखक के लिए आध्यात्मिक सुरक्षा की इच्छा उतनी ही घातक हो सकती है, जितनी भौतिक सुख पाने की आकांक्षा।
लेखक के लिए हर शरणस्थल एक गढ़हा है, एक बार उसमें गिरे नहीं कि सृजन का निर्मल आकाश हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है।
इस अर्थ में प्रेमचंद एक आदर्श थे,अंतिम उपन्यास और कहानियों में वह सब शरणस्थलों-गांधीवाद,मार्क्सवाद(जैसा वह जानते थे) छोड़ते गए।
चेखव की तरह प्रेमचंद को किसी आध्यात्मिक या धार्मिक विकल्प ने कभी मोहित नहीं किया। यथार्थ-सूखा,क्रूर,निर्मम भारतीय यथार्थ में ही रमना-खपना उनका धर्म था।
स्मृति कल्पना का अभाव है। हर दिन हम चीज़ों को देखते हैं, उसमें कल्पना नहीं, स्मृति सक्रिय रहती है।"
निर्मल वर्मा 'धुंध से उठती धुन' में


प्रश्न- 'हिंदी के एक महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में निर्मल वर्मा हिंदी भाषी समाज के सांस्कृतिक संकट,उसमें साहित्य की स्थिति और भूमिका के बारे में भी मौलिक ढंग से सोचते रहे हैं।'
निर्मल वर्मा-' एक हिंदी भाषी व्यक्ति केरल की फ़िल्म न समझ पाए,वह बात तो मुझे समझ में आती है, खुद हिंदी समाज में हिंदी लेखकों या हिंदी फ़िल्मकारों को समझने में आम जनता को मुश्किल पड़ती है और यह एक गहरे सांस्कृतिक संकट का संकेत है। बांग्ला, कन्नड़,मलयाली समाज में एक तरह की एकजुटता है,एक तरह की सांस्कृतिक एकात्मकता है जो आपको हिंदी समाज में दिखाई नहीं देगी।
हिंदी की खड़ीबोली का साहित्य सिर्फ सौ वर्ष पुराना है। हमारी जड़ें आज गाँव में,बोलियों में हैं। खड़ीबोली उतनी ही थोड़ी सी बाहर की भाषा है,जैसे हमारे लिए कभी अँग्रेज़ी थी।
शायद ही साहित्य की किसी भाषा ने सौ वर्षों में इतना विकास किया हो,जितना हिंदी ने किया है।यह तो इसका बड़ा पॉज़िटिव पॉइंट है। लेकिन इसका जो नकारात्मक पहलू है,वह यह कि यह आम जनता के भीतर जो भाषा सातत्य है,वह अगर रहता तो हमारा आज का हिंदी साहित्य उतना ही जन के निकट होता,जितना बांग्ला का साहित्य है या मलयालम का।"

संसार में निर्मल वर्मासम्पादन- गगन गिल



सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.