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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : कद्दू की स्वादिष्ट तरकारी बनाने की विधि!

     रामचरित मानस की बहुत प्रसिद्ध अर्धाली है-
    'इहाँ कुम्हड़ बतिआ कोउ नाहीं।
     जे तरजनी देखि मर जाहीं।।'
     शिव धनुष टूटने के बाद भगवान परशुराम और लक्ष्मण का संवाद चल रहा है। लक्ष्मण परशुराम से कह रहे हैं कि यहां कुम्हड़े के बतिया यानी नवजात फल की बात नहीं हो रही कि तर्जनी दिखा देने से वह मुरझा जाएगा। आप सूर्यवंशी राजकुमारों से बात कर रहे हैं। बहरहाल, रामचरित मानस की यह चौपाई पढ़-सुनकर कुम्हड़े या कद्दू से जैसे वितृष्णा हो गयी थी। यह कोई तरकारी है या फल? कूष्माण्ड फल और बनती है तरकारी। और तो और इस कूष्माण्ड फल का आकार इतना बड़ा होता है कि बिना सामूहिक आयोजन के खप ही नहीं सकता। प्रतापगढ़ और प्रयागराज के विप्र समुदाय के बीच पूड़ी के साथ इसकी तरकारी के कॉम्बिनेशन की लोकप्रियता से मन किञ्चित ललचाया था लेकिन तब भी मैं इसकी तरकारी से चिढ़ता था। भैया को यह पसंद थी। वह जब तब यह लेते आते थे तो एक दिन हमने इसमें कुछ प्रयोग किये और पाया कि कद्दू को कुछ यूं पकाया जाए तो वह जिह्वा पर चढ़ जाती है। आप फॉलो करें!

सामग्री (दो जन के लिए)-
       एक करछुल से कुछ कम सरसों तेल,
पंचफोरन, (पंचफोरन जीरा, कलौंजी, मेथी, सौंफ और राई का बराबर मिश्रण आता है, लेकिन इस व्यंजन के लिए जीरा हटाकर अजवायन का प्रयोग किया जाए।)
कद्दू- आधा किग्रा,
आलू- दो-तीन मंझले आकार के।
लहसुन एक पोटी,
हरी मिर्च,
अदरख और 
नमक स्वादानुसार।

विधि-
        कद्दू और आलू को अलग अलग काट लें। आकार ठीक वैसा हो जैसा पपीता खाने के लिए काटते हैं। नॉन स्टिक कड़ाही में तेल गरम होने के लिए डालें। पंचफोरन डालें। पंचफोरन न हो तो मेथी से काम चला सकते हैं, जीरा नहीं डालना है। फिर लहसुन-मिर्च-अदरक के कटे टुकड़े  डालें। भुनते हुए जब लालिमा झलकने लगे तो आलू डालें। कुछेक मिनट के अंतराल पर कद्दू डाल दें। ध्यान दें कि सारी सामग्री पड़ जाने तक करछुल का प्रयोग नहीं करना है। इस तरह जो परत होगी, उसका क्रम यों होगा-
पंचफोरन-लहसुन-मिर्च-अदरख-आलू और कद्दू। आंच न्यूनतम। ढँक दें। कुछ अंतराल के बाद नमक छिड़क दें। ढँक दें। पकने दें। देखेंगे कि इतना सत्व बन गया है कि तरकारी पक सके। धैर्य रखें। देखते रहें कि कड़ाही से चिपक तो नहीं रहा। जब सत्व कम हो जाये, करछुल का प्रयोग करें। एकाध बार चला दें। सबको मिल जाने दें। कुछ अंतराल के बाद जब आलू पक जाए, (कद्दू पक चुका होगा) उतार लें। अगर हरी धनिया है- बारीक काटकर छिड़क लें। ढँक दें। पाँचेक मिनट के बाद रोटी के साथ  खाएं।
फिर मेरी तारीफ करें।
     धन्यवाद।

नोट- अपने रिस्क पर पकाएं।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

कथावार्ता : ढेलहिया चौथ- 2

"की हम सांझ क एकसर तारा, की भादव चऊथ क ससि।
इथि दुहु माँझ कओन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।"
(विद्यापति की नायिका (राधा) कहती है कि क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ या भाद्रपद महीने के चतुर्थी का चंद्रमा, जो प्रभु (श्रीकृष्ण) मुझे न तो देखते हैं न मुझपर हँसते हैं।)

भाद्रपद के चतुर्थी के चंद्रमा को देखने की मनाही है। कहते हैं- इसे देखने पर कलंक लगता है। श्रीकृष्ण ने इसे गलती से देख लिया था तो उनपर स्यमंतक मणि की चोरी का कलंक लग गया था और उसके चक्कर में उन्हें जाम्बवती से विवाह करना पड़ा।

कथा है कि जब सत्राजित ने सूर्य की उपासना की तो उसे दिव्य मणि स्यमंतक उपहार में मिली। इस मणि को सब पाना चाहते थे। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सत्राजित से उस मणि को पाने की इच्छा प्रकट की तो सत्राजित ने इसका अनादर किया और मणि अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। प्रसेनजित मणि लेकर शिकार के लिए वन में गया तो वहाँ उसे सिंह ने मार डाला। सिंह मणि लेकर चला ही था कि जाम्बवंत ने उसे मारकर मणि छीन ली। इधर जब लम्बी अवधि तक प्रसेनजित घर नहीं लौटा तो सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर लांछन किया कि मणि के लोभ में उन्होंने प्रसेनजित को मार दिया है। श्रीकृष्ण इसका पता लगाने निकले और सिंह द्वारा प्रसेनजित को मार डालने का साक्ष्य जुटाया।

इस क्रम में उन्हें जाम्बवंत की गुफा का पता चला और वह मणि की तलाश में जाम्बवन्त से भिड़ गए। गुफा के भीतर 21 दिन तक युद्ध होता रहा। तब जाम्बवन्त को प्रभु के कृष्णअवतार का अन्देशा हुआ। यह पता लगते ही रीछराज ने अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया और उपहारस्वरूप वह मणि दी।

कृष्ण ने वह मणि लौटाकर कलंक दूर किया। सत्राजित ने अपप्रचार से  लज्जित हो अपनी पुत्री का विवाह कृष्ण से कर दिया। हालांकि यह प्रकरण आगे भी बन्द नहीं हुआ। जब श्रीकृष्ण एक बार इन्द्रप्रस्थ गये तो अक्रूर की राय पर शतधन्वा ने सत्राजित को मारकर मणि हस्तगत कर ली। कृष्ण तत्काल लौटे। बलराम की मदद से वह शतधन्वा पर आक्रमण करने की तैयारी ही कर रहे थे कि उसने मणि अक्रूर को दे दी और भाग गया। शतधन्वा मारा गया किन्तु मणि न मिली। क्षोभवश बलराम विदर्भ चले गए तो श्रीकृष्ण पर पुन: कलंक लगा कि मणि के लालच में उन्होंने भाई को भी त्याग दिया है।

श्रीकृष्ण इस समूचे घटनाक्रम से व्यथित थे। तब महर्षि नारद ने उन्हें बताया कि वास्तव में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा को देखने से लांछित होना पड़ रहा है। उन्होंने गणेश जी की आराधना करने को कहा। पूजन के उपरांत श्रीकृष्ण इससे मुक्त हो सके।

बात यह है कि गणेश जी की भूमिका कहाँ से है?

हुआ यूँ था कि गणपति की उपासना ब्रह्मा ने की और वर मांगा कि मुझे इस सृष्टि की रचना का कभी घमंड न हो। विनायक ने तथास्तु कहा। इसपर चन्द्रमा ने गणपति के रूप-रचना की खिल्ली उड़ाई। गणपति ने चन्द्रमा को शाप दे दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।

बस चन्द्रमा को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह जाकर कुमुदनियों के बीच छिप गया। तीनो लोक में खलबली मच गयी। तब ब्रह्मा के कहने पर गणेश ने शाप में रियायत कर दी और इसे इस एक दिन के लिये नियत कर दिया। इस दिन चांद देखने पर कलंक लगना तय है।

लोक ब्रह्मा और गणपति से बड़ा स्रष्टा है तो उसने इस कलंक से मुक्ति के लिये उपाय खोज लिया। मान्यता है कि अगर किसी ने इस तिथि के चांद को देख लिया है तो उसे चाहिए कि वह पड़ोसी के छत पर पत्थरबाजी करे। पड़ोसी इस हरकत से खिन्न होकर गालियां देगा। यह गाली उसे कलंक मुक्त कर देगी। पत्थर/ढेला फेंकने से कलंक मुक्ति का उपाय इतना रोचक और मनोरंजक हो गया कि कालांतर में यह चतुर्थी लोक में ढेलहिया चौथ के रूप में विख्यात हो गयी।

गणपति का दिन इस तरह भी लोक में प्रचलित है। हमने आज शाम चाँद देख लिया। देखने के बाद याद आया कि नहीं देखना था। हर बार यही होता है। अब उपाय एक ही है- पत्थरबाजी। लेकिन यह पत्थरबाजी stone pelting नहीं है!

आप सबको गजानन, विघ्न हर्ता भगवान गणेश की तिथि पर हार्दिक शुभेच्छा!

सोमवार, 16 सितंबर 2019

कथावार्ता : पारिजात-दिव्य पुष्प की भव्य कथा

पारिजात।


यह पुष्प बेहद आकर्षक है। रूप-गन्ध और पौराणिक दृष्टि से। इसे शेफाली या हरसिंगार भी कहते हैं। आख्यान से पता चलता है कि यह पुष्प समुद्र मंथन में मिला था। इन्द्र इसे अपने साथ स्वर्गलोक ले गये जहाँ उर्वशी इसका सानिध्य लाभ कर नृत्य की थकान मिटाया करती थीं।

कथा है कि एक बार रुक्मिणी अपने एक व्रत का उद्यापन करने श्रीकृष्ण सहित रैवतक पर्वत पर पहुंचीं। उस समय देवऋषि नारद वहां से गुजर रहे थे। उनके हाथ में पारिजात वृक्ष का पुष्प था। कृष्ण और रुक्मिणी के साहचर्य से मुदित होकर पुष्प उन्होंने रुक्मिणी को दे दिया। रुक्मिणी ने इस फूल को अपने बालों में लगा लिया।

द्वारका लौटने पर इस दिव्य पुष्प को देखकर श्रीकृष्ण की पट्टमहिषी  सत्यभामा ने कहा कि मुझे यह फूल चाहिए। फिर उन्होंने कहा कि फूल तो एक दो दिन में मुरझा जायेगा, इसलिये आप उस वृक्ष को ही ले आयें। जब चाहे फूलों का गजरा बना लिया जायेगा। कृष्ण ने बहुत समझाया लेकिन सत्यभामा न मानीं। तो हारकर कृष्ण को स्वर्ग जाना पड़ा। इन्द्र इस असमय आगमन से घबरा गए। आने का कारण पूछा और जानकर संतुष्ट हुए कि यह साम्राज्यवादी अभियान नहीं है। उन्होंने पारिजात का वृक्ष कृष्ण को दे दिया। धूमधाम से वृक्ष का स्वागत हुआ। लेकिन सत्यभामा ने अगले दिन हंगामा कर दिया- 'यह पेड़ तो मुरझा रहा है।'

सारे यदुकुल में यह समाचार फैल चुका था कि पारिजात नामक दिव्य वृक्ष द्वारका आ चुका है। अब किसी को थकान न होगी। लेकिन जब उन्हें पता चला कि इन्द्र ने एक नकली पौधा देकर यादवों को मूर्ख बनाया है तो वह सब भी भड़क गए। सारे रथी-महारथी लाठी, बल्लम, मुगदर लेकर द्वारकाधीश के दरवाजे पर आ गये। कृष्ण ने सभी वीरों को देखा। बलराम जी एक तरफ हल की मूठ पकड़े फुँफ़कार रहे थे। साम्ब हल हाँकने वाला पैना लेकर आया था। प्रद्युम्न की गोद में अनिरुद्ध भी उपस्थित था और सब कोलाहल कर रहे थे। एक ने कहा कि इन्द्र की इतनी हिम्मत कैसे पड़ी कि वह हम सबको धोखा दे। इसबार उसकी ईंट से ईंट बजा देंगे। कृष्ण को माजरा समझने में थोड़ी देर हुई लेकिन जब उनको बात समझ में आई तब तक सत्यभामा कोपभवन में जा चुकी थीं। 

उधर इन्द्र को समाचार मिला कि यदुवंशी नाराज हैं और किसी भी क्षण हमला कर सकते हैं तो वह नारद के पास गये। सबकी जड़ यही देवर्षि थे। पारिजात से परिचय कराने की क्या दरकार थी।
नारद तत्क्षण द्वारका पहुँचे। सबको समझाया कि देवलोक की बात दूसरी है। वह भोग का लोक है। धरती कर्मभूमि है। यहाँ पारिजात दूसरे ढंग से पुष्पित पल्लवित होगा। उसको रोपना पड़ेगा, आल बाल बनाकर सींचना पड़ेगा। कर्मभूमि में बैठे-बिठाये खाने का कोई तुक नहीं है। सत्यभामा को बात समझ में आई। पारिजात रोपा गया। सींचा गया। उसमें खाद डाला गया। समय पर वह पुष्पित पल्लवित हुआ। हर तरफ उसकी सुगंध फैली। सत्यभामा ने उसके फूलों की सेज बनाई। रुक्मिणी ने उससे शृंगार किया। जाम्बवती ने इसे पूजा के लिए सहेजा। सारे यादवों ने हर्षध्वनि की। इन्द्र ने चैन की साँस ली।

पारिजात धरती पर आया तो रात में खिलने लगा और सुबह उसके पुष्प स्वत: झरने लगे। यह एकमात्र ऐसा पुष्प बना जो झरकर भी पवित्र बना रहता है। दैवीय गुणों से युक्त है। नासिरा शर्मा ने इस नाम से एक उपन्यास लिखा है। बंगाल ने इसे राजकीय पुष्प का दर्जा दिया है।

मुझे बहुत प्रिय है।

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

ज्यादा चालाक लोग तीन जगह चपोरते हैं

यह कहानी ज्यादा चालाक लोगों के लिए है.
शीर्षक है- ज्यादा चालाक लोग तीन जगह चपोरते हैं.
तीन दोस्त थे. एक सामान्य समझ का था, एक थोड़ा चालाक और एक ज्यादा चालाक. राह चलते तीनों का पैर आग पर पड़ गया. मैं जब आग कह रहा हूँ तो उम्मीद करता हूँ कि आप इसके दूसरे अर्थ को जरूर जानते होंगे. आग पर पैर पड़ने के बाद तीनों विचलित हो गए. मन घिना गया.
सामान्य समझ वाले ने वहीँ घास देखी और पैर पोंछ कर आगे बढ़ चला.
थोड़ा चालाक जो था, उसने सोचा कि देखें आखिर क्या है जो पैरों तले आया है. उसने पैर में लगी ...गन्दगी को हाथ में लेकर देखा. फिर पोंछ कर आगे बढ़ लिया.
जो ज्यादा चालाक था, उसने भी यह जानने के लिए कि क्या था, हाथ में लिया और ठीक से जानने के लिए जीभ पर रखा. चखा और तब जाना कि ओह! यह तो मैला है.
तीन जगह चपोरने वाली बात यहीं ख़तम हुई.
कल देश के आम चुनाव का पहला बड़ा और महत्त्वपूर्ण चरण शुरू हो रहा है. हम सब आगामी पाँच साल के लिए एक सरकार चुनने जा रहे हैं. एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. ऐसे में निर्णय लेने की घड़ी आ गयी है.
चुनाव आयोग ने ईवीएम में नोटा का एक बटन रखा है. यह बटन इनमें से किसी भी नहीं के लिए है. यह बटन महज हमारी असहमति के लिए है. इससे चुनाव परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ेगा चाहे अस्सी फ़ीसदी लोग क्यों न नोटा बटन चुनें.
ढेर सारे उत्साही लोग इस बटन का प्रयोग करना चाहेंगे. इसलिए कि बता सकें कि उन्हें देश की संसदीय प्रणाली पर भरोसा नहीं है. ऐसे लोगों को आप किस कोटि में रखेंगे, आप स्वयं तय कर लें.
बाकी, कहानी का यह है कि कहानी वन में जाने के बाद भी आपके मन में बनी रहती है. सोचिये. सोचिये. सोचिये.
फिर निर्णय कीजिये.
शुक्रिया.

रविवार, 16 मार्च 2014

कथावार्ता : मसाने में छानब भांग


 

'शिवप्रिया की काशी में बड़ी महिमा है। वह शिव का प्रिय पेय है। मैं भी इस चिन्मय-पेय का बचपन से ही अनुराग रहा हूं। मेरे दादाजी घर पर ही स्वनिर्मित भांग छानते रहे हैं। पिताजी जब काशी में होते तो यह जिम्मा वही बखूबी निभाते। सहयोग के साथ मेरा भी प्रशिक्षण चलता रहा। बादाम, केसरू, खरबूजा-तरबूज के बीज छीलने जैसे काम मुझे सौंपे जाते। भांग धोने से लगायत सिल-लोढ़ा तक पहुंचने में कुछेक वर्ष लगे। भांग पिसार्इ में लोढे़ के साथ चिपका सिल उठाने की कला में पारंगत होने के लिये काफी दंड पेलना पड़ा था। सिल-लोढ़ा से बना यह रिश्ता पत्रकारिता में भी काम आया। जब आपातकाल में जेल में रहा। तरल भांग तो वहां उपलब्ध था लेकिन 'कोफेपोशा' में बंद घड़ी तस्कर मित्र शशि अग्रवाल मुझे मनुक्के की गोली उपलब्ध करवा देते थे। उसी पीड़ा के दौर में मैंने सिल-लोढ़ा बनाने वाले कारीगरों पर एक फीचर लिखा। जेल में ही चंचलजी ने स्केच बनाये थे जो 'दिनमान में कवर स्टोरी के तौर पर छपा। (जिसे जेल से चोरी छिपे प्राप्त कर आशा भार्गव ने ही 'दिनमान तक पहुंचाया था) रघुवीर सहायजी का अतिशय प्रेम था, जोखम भरा। 'विजया से ही जुड़ा आपातकाल से पहले का एक प्रसंग कवि-संपादक रघुवीर सहायजी के साथ का है। उन्हें अपने छपास आकांक्षी मित्रों से बचाकर भांग की ठंडार्इ पिलाने के बाद बनारस के गोपाल मंदिर (जिसके तहखाने की काल कोठरी में गोस्वामी तुलसीदास ने रची थी विनय पत्रिका) के सामने पखंडु सरदार की रबड़ी खिलाने ले गया था। उसी शाम काशी पत्रकार संघ में कमलापति त्रिपाठी के लिये आयोजित समारोह में बिना तयशुदा कार्यक्रम में बोलने के बाद वापसी में एकांत में उन्होंने मुझसे पूछा था कि, 'बेतुका तो नहीं बोल गया। उनका आशय भांग के असर से रहा था। मेरे प्रति अतिशय स्नेहवश मेरी नालाकियों में भी वे रस लेते थे। एक बार भारतेन्दु भवन से बहुत निकट रंगीलदास फाटक वाले पंडित लस्सी वाले के अनूठेपन का जिक्र किया तो तुरन्त तैयार हो गये। पंडित लस्सीवाले की खासियत यह थी कि उकड़ु बैठकर मथनी से आधे घंटे में एक मटकी तैयार करते थे। मजाल था कि क्रम से पहले कोर्इ लस्सी पा जाये, चाहे कितना बड़ा तुर्रम-खां हो। धैर्य के साथ सहायजी लस्सी की प्रतिक्षा में खड़े रहे। मैं उन्हें बताना भूल गया था कि पुरवा (कुल्हड़) चांटकर या पानी से धोकर पीने के बाद ही फैंकना होता है। नतीजन लस्सी पीने के बाद सहायजी ने पुरवा कचरे में फेंक दिया। नियम के नेमी पंडित 'गोरस की इस दुर्गति से पगला गये। छिनरो-भोसड़ी से प्रारम्भ होकर मतारी-बहिन तक पहुंचते ही मैंने पकड़ लिऐ पैर कि, 'गलती हमार हौ, इनके नाही बतउले रहली। त$ बहुत बड़का संपादक हउवन दिल्ली वाला। पंडितवा मुझे पहचानता था, इसलिए मुझे दो-तीन करारा झापड़ और भरपूर गाली देने के बाद शांत हुए थे। हतप्रभ सहायजी ने पूरी बात सुनने के बाद पंडितवा को सराहा और मुझे मीठी-लताड़ लगार्इ। मैं बकचोद-सा खड़ा चुपचाप सुनता रहा था। सातवें दशक के उसी दौर में दैनिक 'शांती मार्ग से श्रीप्रकाश शर्मा को अगवा कर दैनिक 'सन्मार्ग में लिवाने के बाद से ही दोपहर को भी 'शिवप्रिया सेवन का सिलसिला प्रारम्भ हुआ था। अन्यथा मैं सांयकाल ही भारत रत्न रविशंकर के बनारसी पीए मिश्राजी के 'मिश्राम्बु पर ही 'विजया ग्रहण करता था। श्रीप्रकशवा के लिये समय-काल का कोर्इ मायने नहीं था। 'मिश्राम्बु पर जुटने वालों में अशोक मिसिर, मंजीत चुतुर्वेदी, अजय मिश्रा, गोपाल ठाकुर, वीरेन्द्र शुक्ल, नचिकेता देसार्इ जैसे भंगेड़ी धुरंधर तो स्थायी सदस्य सरीखे थे। छायाकार एस. अतिबल, निरंकार सिंह, योगेन्द्र नारायण शर्मा जैसे 'कुजात सूफी भी थे, जो बिना भांगवाली ठंडार्इ पीकर पैसा बर्बाद करते-करवाते थे। मेरी और श्रीप्रकाश की लाख जतन के बावजूद निरंकरवा अंत तक बिदकता ही रहा। अतिबलजी असमय संसार छोड़ गये लेकिन अब बुढ़ौती में योगेन्द्र शर्मा 'विजया-पंथी' हुए हैं। आपातकाल से चौतरफा मुकाबला मैंने और नचिकेतवा ने भांग छानकर ही किया था। उन्हीं दिनों जब प्रशासन ने तरल भांग पर रोक लगाने की कोशिश की थी तब संभवत: सिर्फ मैंने ही दैनिक 'सन्मार्ग में संपादकीय टिप्पणी लिखकर विरोध प्रकट किया था। आपातकाल में किए गये इस कारनामे के लिये मुझे 'भंग-भूषण' की उपाधि दी जानी चाहिए। काशी से छोटी काशी (जयपुर) पहुंचने पर औघड़ स्वभाव वाले नेता माणकचंद कागदी ने पहले-पहल तरल भांग छनवाया, जो मुझे नहीं पचा था। मैं साफ-सुथरी शुद्ध घरेलू या मिश्राम्बु की तासीर का आदी था। जबकि कागदीजी ने जौहरी बाजार स्थित गोपालजी के रास्ते के मुहाने पर स्थित ठेले वाली छनवा दी। मिजाज उखड़ गया। हालाकि बनारस से श्रीप्रकाश शर्मा के जयपुर आने से पहले मैंने बड़ी चौपड़ पर मेंहदी वाले चौक की आधी बनारसी ठाठ वाली भांग की दुकान तलाश ली थी। उस दुकान पर ठंडार्इ नदारद , सिर्फ सूखी बर्फी की विविधता थी। मेरी खोज वाले 'काना-मामा की धज में साफ-सफार्इ-स्वाद से लेकर पहरावे तक बनारसीपन की झलक पाकर मन चंगा हो गया था। लेकिन जौहरी बाजार के ग्रह बनारसवालों से सदा वक्री रहे हैं। तभी एक बनारसी संत संपूर्णानन्दजी पर 'गोली कांड़ का दाग लगा था और मुझ निरीह पर 'मदन-कांड का धब्बा लगा था। हुआ यूं था कि आज के 'पत्रकारों के थानेदार आनन्द जोशी उन दिनों जौहरी बाजार की एक गली में और मैं सुभाष चौक पर रहता था। एक होली के दिन बड़ी चौपड़ पर मिलना तय हुआ। बर्फी खाकर बम-बम भोले किया। अंतत: मेरे लाख मना करने के बावजूद आनंदजी ने भांग की पकौड़ी खा-खिलाकर 'मदन-कांड की नीवं रख ही दी थी। परिक्रमा के बाद आंनद के उनके पांच बत्ती सिथत 'दाक्षयानी-गृह' छोड़कर घर पहुंचा ही था। नहाने की तैयारी कर ही रहा था कि 'भैरवी चक्र के रसिया ओम थानवी और वारूणी - प्रेमी आनंद जोशी के इकलौते साले मदन पुरोहित 'परशुराम की मुद्रा में अवतरित हुए जबकि कंठी-टीकाधारी मदनजी वैष्णव परम्परा के आकंठ ध्वजावाहक रहे हैं। मेरी नालायकी के कारण ही आनंदजी ने 'दाक्षायानी' में उत्पात मचा रखा है। मैं स्वयं असंतुलित स्थिति में था फिर भी 'कोप से बचने के लिए जाना ही पड़ा। जाता तो मदनजी पिटार्इ भी कर सकते थे। जब पहुंचा तो आनंदजी एक चक्र तांड़व पूरा कर दूसरे चक्र पर आमादा थे। इमली-गुड़ पानी, नींबू, अचार का घरेलू इलाज एक तरफ, मदनजी के शब्द बाणों की बौछार से बचता-बचता घर पहुंचा था कैसे याद नहीं। भांग कफशामक, पित्त कोपक दवा है। संतुलित सेवन आनंद प्रदान करता है असंतुलित निरानंद। 'सन्मार्ग' कालीन दौर का एक किस्सा अब तक याद है। पत्रकारिता में भाषा के प्रति चौकन्ना-पहरेदार बनारसी कमर वहीद नकवी, ओम थानवी, राहुलदेव विशेष ध्यान से पढे़। एक दिन अस्पताली संवाददाता को एक खास खबर का शीर्षक नहीं सूझ रहा था। खबर थी कि कबीर चौरा अस्पताल में एक मरीज ऐसा भर्ती हुआ है जिसका 'कामायुध केलिक्रिया की कर्इ चक्रीय दौर के बाद भी पूर्व स्थिति पर नहीं रहा है। हमें 'ज्ञान वल्लिका’ (वकौल अशोक चतुर्वेदी) सेवन के बाद भी छापने लायक शीर्षक नहीं सूझा। तब श्रीप्रकाश के साथ दैनिक 'गांडीव’ में कार्यरत 'वारुणि-संत’ गरिष्ठ पत्रकार रमेश दूबे की शरण में जा पहुंचे। उन्होंने शीर्षक सुझाया - 'सतत ध्वजोत्थान से पीड़ित अस्पताल में भर्ती’।
और अंत में सालों पहले अशोक शास्त्री से 'साढे़ छह की चरचा करने वाले कलम-कूंची के सिद्धात्मा विनोद भरद्वाज यदि मेरी खांटी सलाह मानकर 'वारुणी के बजाय 'विजया का सेवन करने लगें तो अब भी 'पौने सात की संभावना है। महादेव! अब तो मसाने के खेलब होली और छानव भांग, गुरु! बम-बम भोले!


 

सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.