कविता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कविता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

अज्ञेय की तीन कविताएँ, नदी के द्वीप, कलगी बाजरे की और यह दीप अकेला

(कविता पाठ और उसका अर्थ ग्रहण साहित्यालोचन का एक विशेष पक्ष है। हम हिन्दी की कुछ विशेष कविताओं का भाष्य करने और पाठालोचन करने का प्रयास कर रहे हैं। इस क्रम में हमारी टीम विभिन्न काव्य मर्मज्ञों और सुजान अध्येताओं से अनुरोध कर रही है। समय समय पर हम इन विभिन्न कविताओं की व्याख्या और भाष्य लेकर उपस्थित होंगे। हमने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' की प्रसिद्ध और जरूरी कविता "नदी के द्वीप" से इसका आरंभ करना तय किया है। इस कविता का भाष्य सुधी आलोचक और चिन्तक डॉ गौरव तिवारी करेंगे। उनका "पाठ" मई दिवस पर प्रस्तुत किया जाएगा। यहाँ प्रस्तुत है वह प्रसिद्ध कविता। - संपादक)




1. नदी के द्वीप


हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

इलाहाबाद, 11 सितम्बर, 1949

 


2. कलगी बाजरे की

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद् के भोर की नीहार-न्हायी कुँई।
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है

बल्कि केवल यही: ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के
निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ-

बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?

आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है
या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती
कलगी अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।

शब्द जादू हैं-
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?

 

3. यह दीप अकेला

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो 

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित : 

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो 

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो 

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

 -सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'


मंगलवार, 24 सितंबर 2019

कथावार्ता : कृष्ण की चेतावनी


रामधारी सिंह "दिनकर"


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

कथावार्ता : एक बूँद- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

दैव मेरे भाग्य में क्या है बदा।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।

शनिवार, 14 सितंबर 2019

कथावार्ता : मातृ-भाषा के प्रति

भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।

सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

रविवार, 30 जून 2019

कथावार्ता : पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने

जनकवि नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनका जन्म बिहार के मधुबनी जनपद के तरौनी नामक गाँव में सन 1911 ई० में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा पारंपरिक तरीके से लघुसिद्धान्त कौमुदी और अमरकोश से शुरू हुई और स्वाध्याय से ही संस्कृत, मैथिली, हिन्दी, नेपाली, सिंहली, अङ्ग्रेज़ी आदि भाषाओं के पण्डित हुए। सनातन और बौद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया और सिंहल प्रवास के दौरान सन 1936 ई० में बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। बौद्ध धर्म में दीक्षा के बाद उन्होंने अपना नाम नागार्जुन रखा। वह मैथिली में यात्री उपनाम से कवितायें लिखते थे। उनका एक अन्य रचनात्मक नाम प्रवासी था। ०५ नवंबर, 1998 को नागार्जुन का निधन हुआ।

          नागार्जुन ने विपुल साहित्य रचा। उन्होंने कविता और उपन्यास के क्षेत्र में विशेष ख्याति अर्जित की। उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं-

1.    युगधारा -१९५३

2.    सतरंगे पंखों वाली -१९५९

3.    प्यासी पथराई आँखें -१९६२

4.    खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०

5.    हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१

6.    पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३

उनके अग्रलिखित उपन्यास बहुत चर्चित हुए-

1.    रतिनाथ की चाची -१९४८

2.    बलचनमा -१९५२

3.    नयी पौध -१९५३

4.    बाबा बटेसरनाथ -१९५४

5.    वरुण के बेटे -१९५६-५७

सन २००३ में, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से नागार्जुन की रचनावली सात खण्डों में, प्रकाशित हुई है, जिसका सम्पादन शोभाकांत ने किया है।

          नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जन को आवाज दी है। राजनीतिक विषयों पर लिखी गयी उनकी कवितायें विशुद्ध क्रांतिकारी तेवर के साथ मौजूद हैं। राजनीतिक कविताओं के अतिरिक्त जहां वह जनता के कवि हैं, वहाँ उन सा बड़ा जनकवि दूसरा नहीं। उनकी कविताएं प्रयोगधर्मी हैं। वह कविता के हर क्षेत्र में प्रयोग करते हैं। लय में, छंद में और विषय वस्तु में। घनघोर नास्तिक और बौद्ध मत में दीक्षित हो जाने के बाद भी इस कविता – पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने में उनका अकुण्ठ मानस सहज देखा जा सकता है। वह अपने जनपद में रहते हुए बौद्धिकता अथवा किसी तरह के दिखावे से सर्वथा दूर हैं,  इसलिए वह स्वयं पर भी कटाक्ष करने से नहीं चूकते। लंबी अवधि के बाद शरद का सूर्य देखने के बाद वह आंचलिक कथाकार पर तीखा व्यंग्य करते हैं, यह आंचलिक कथाकार और कोई नहीं, वह स्वयं हैं। शरद के प्रात:कालीन सूर्य को देखने के बाद उनकी आस्तिकता जागृत हो जाती है। इसका उद्गार सूर्य और सावित्री के मंत्रों के मुक्त उच्चार में दिखता है। उसे छिपाने के लिए छोटा सा झूठ बोलने की स्वीकृति दिलवाकर उसके पाप  से मुक्त हो जाते हैं। नागार्जुन का यह आत्मस्वीकार इस कविता को बहुत महत्त्वपूर्ण बनाती है कि उनके नास्तिक मन को प्रकृति में व्याप्त सौंदर्य और तज्जनित आस्तिकता ने पीछे छोड़ दिया है।

          वह पढे लिखे युवक रत्नेश्वर से इस डेविएशन की चर्चा करते हैं और दलगत विवशता का भी उल्लेख करते हैं। यह विवशता विचारधारा की संकीर्णता का सूचक है और नागार्जुन का कवि मानस इस संकीर्णता का अतिक्रमण कर जाता है-



प्रस्तुत है - नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता- पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने।

शुरू-शुरू कातिक में

निशा शेष ओस की बूंदियों से लदी हैं
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप ………
टहलने निकलता हूँ परमानके किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेडों पर से, आगे
वापस जा मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद का बाल रवि

चमकता रहेगा घड़ी आधी घड़ी…

पूर्वांचल प्रवाही परमानकी
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहलकदमी
सैकत पुलिन पर

छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप….
और फिर आएगी, हँसी मुझे अपने आप पर
उतर पडूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएंगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान
झुक जाएगा ये मस्तक अनायास
दुधारू भैंसों की याद में….
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उड़ता आया है नीलकंठ
गुज़र जाएगा ऊपर-ही-ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?

इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर
या उस बूढे पीपल की बदरंग डाल पर ?
या किउड़ता ही जाएगा
पहुंचेगा विष्णुपुर के बीचोबीच
मन्दिर की अंगनाई में मौलसिरी की
सघन पत्तियोंवाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अदृश्य, करेगा वहीं आराम!


जाने भी दो,

आओ तुम मेरे साथ रत्नेश्वर
देखेंगे आज जी भरकर
उगते सूरज का अरुण-अरुण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हों हमारे नेत्र
देखना भाई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ दिखता है रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)

आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्घ
गुनगुनायेंगे गदगद हो कर
ॐ नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ॐ नमो ज्योतिश्वराय
ॐ नमः सूर्याय सवित्रे…”
देखना भाई रत्नेश्वर, जल्दी न करना।
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
        नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान पोस्ट-ग्रेजुएट
मेरे इस डेविएशनका !
नहीं, मैं झूठ कहता हूँ ?
मुकर जाऊँ शायद कभी….
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था
        मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
        सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुस्कुरा-भर देना मेरी उस
        मिथ्या पर!

 

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

चॉकलेट दिवस पर ग्रामवासिनी प्रिया से।

(चॉकलेट दिवस पर विशेष)

मेरी ग्रामवासिनी प्रिया
जब चौका बासन हो जाए
और लिपा जाये चूल्हा
कहीं दूर पूरब में झींगुर सनसनाने लगें
और निचाट सन्नाटा अम्मा को डराने लगे
मेरे बारे में सोचना
.
जब पौ फटे
गाय को सानी पानी करके
बछ्ड़े को छोड़ देना
दूध की एक धार बाल्टी में
दूसरी गाय के मुँह पर डालोगी तो
मुझे याद करना
.
मेरी ग्रामवासिनी प्रिया
जब गोबर पाथना
तब ऐसे थपकी देना
जैसे मेरी पीठ पर थपकी देती थी माँ,
यह मेरे श्रम का परिहार करती है।
.
मेरी ग्रामवासिनी प्रिया
मैं चैत्र में आऊँगा
उस समय आसमान भी हमारे बारे में सोचता है।

सोमवार, 18 जनवरी 2016

अशरफ फयाद : फिलिस्तीनी मूल का क्रान्तिकारी कवि

ये कविताएं अशरफ फयाद के कविता संग्रह ‘Instructions Within’ में शामिल हैं जो बेरुत के दर अल-फराबी प्रकाशन द्वारा साल 2008 में प्रकाशित हुआ और बाद में सऊदी अरब में इसके प्रसार पर रोक लगा दी गई
अंग्रेजी अनुवाद : मोना करीम 
हिंदी-उर्दू अनुवाद : शायक आलोक
*ज्ञात हो कि मोना करीम ने फयाद के मामले पर संवाद आंदोलन छेड़ रखा है और इन कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद द्वारा फयाद के केस को व्यापक जनमत तक पहुंचा रही हैं इस अनुवाद को उनके व्यापक संवाद का ही एक हिस्सा माना जाए … --शायक आलोक
1.

बेज़रार है पेट्रोलियम, सिवाय इसके कि अपने पीछे
तंगहाली के निशां छोड़ता है
उस दिन, जिस दिन तेल के और कुएं खोजते चेहरे स्याह हो जाएंगे
जब ज़िन्दगी तुम्हारे कल्ब पर थपेड़े डालेगी
ताकि तुम्हारी रूह से तेल निकाल सके
ताकि उसका आम इस्तेमाल हो
जो वादा है तेल का, एक सच्चा वादा
उस दिन क़यामत होगी
2. 

कहा गया जाओ पनाह पाओ
लेकिन तुम में से कुछ सबके दुश्मन हो
इसलिए अब रुक जाओ
दरिया के तह से देखो खुद को
तुम में जो ऊपर हैं उन्हें नीचे वालों से थोड़ी हमदर्दी होनी चाहिए
महजर वैसे ही मजबूर है
जैसे तेल के बाजार में लहू को नहीं खरीदता कोई
3.
 
मुझे माफ़ी दे दो, मुझे माफ़ करो
कि मैं तुम्हारे लिए अब और आंसू नहीं बहा सकता
कि माजी में लहरता तुम्हारा नाम और नहीं बड़बड़ा सकता
मेरा रुख़ तुम्हारे आगोश की गर्माहट के सदके
मुझे मोहब्बत मिला पर तुम मिले, अकेले तुम, और मैं हूँ
तुम्हारे आशिकों में से पहला
4.
 
रात,
तुम वक़्त के तजर्बाकार नहीं
तुम्हारे पास बारिश की उन बूंदों की कमी
जो तुम्हारे माजी के सभी दुखों को धो देती
और तुम्हें आज़ाद कर देती
उससे जिसे तुम खुदा तरसी कहते रहे
उस दिल सेजो जी सकता है मोहब्बत,
खेल से
और आज़ादी
उस पिलपिले मजहब से तुम्हारी
अश्लील वापसी के साथ कितह करने से
उस नकली तंज़ील से
और उन खुदाओं से जो अपना ग़रूर खो चुके
5.
 
तुम डकार लेते जाते हो पहले से अधिक ..
जैसे जैसे शराबखाने शराबियों को
तलकीन से लुभाते जाते हैं और दिलफ़रेब नचनियों से..
तेज शोरोगुल मोसिक़ी के साथ
तुम अपने दुःस्वप्न सुनाते हो
और इन देहों की तारीफ़ करते हो
जो जला-वतन के वतनी पर झूम रहे हैं
6.
 
उसे तो चलते रहने का हक़ है
झूमते रहने का रोते रहने का
उसे अपनी रूह की खिड़की खोलने का भी हक़ नहीं
कि अपनी सांस, अपनी गर्द, अपने आंसुओं को ताजा कर ले
तुम भी हुआ चाहते हो इस सच्चाई से बेखबर
कि तुम एक रोटी के टुकड़े भर हो
7.

जला-वतनी के रोज, वे नंगे खड़े रहे,
जबकि तुम गंदे पानी के जंग लगे पाइपों में रेंग रहे थे
नंगे पांव ।।
यह भले ही पांव के लिए सेहतमंद हो
नहीं वैसा धरती के लिए
8.
 
गोशा नशीं हो चुके पैगंबर सब
तो मत करो इंतजार कि तुम्हारा नबी आएगा
और तुम्हारे लिए,
तुम्हारे खलीफ़ा अपनी रोजाना रपट लाते हैं
और भारी तनख्वाह पाते हैं ।।
अज़मत की ज़िन्दगी के लिए
पैसे की कितनी अहमियत हो सकती है ?
9.
 
मेरे दादा रोज नंगे खड़े होते हैं
बिना जला-वतनी के, बिना खुदाई तख्लीक़ के ।।
मैं मेरे अक्स में किसी खुदाई फूंक के बिना पहले ही जिंदा हो चुका हूँ
मैं धरती पर नरक का आजमाइश हूँ ।।
धरती
एक नरक है जो बसाई गई महजेरात के लिए
10. 

तुम्हारा खामोश लहू तब तक कुछ बोलेगा
जबतक मारे जाने पर रखोगे तुम ग़रूर
जबतक रहोगे एलान करते राजदारी से
कि तुमने अपनी रूह सौंप रखी
उनके हाथों को जो नहीं जानते ज़ियादा।।
तुम्हारे रूह का खोना वक़्त को भारी गुजरेगा
उससे भी भारी जितना वक़्त लगेगा
तेल के आंसू रोते तुम्हारी आँखों को ठंडा होते 


सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.