सोमवार, 29 अगस्त 2022

पाजेब : जैनेन्द्र कुमार की कहानी

          बाज़ार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियां आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं। पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा-देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है। हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी, हम पाजेब पहनेंगे। बोलिए भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाजेब पहनेगी। मैंने कहा, कैसी पाजेब? बोली, वही जैसी रुकमन पहनती है, जैसी शीला पहनती है। मैंने कहा, अच्छा-अच्छा। बोली, मैं तो आज ही मंगा लूंगी। मैंने कहा, अच्छा भाई आज सही। उस वक्त तो ख़ैर मुन्नी किसी काम में बहल गई। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ, तब वह मुन्नी सहज मानने वाली न थी। बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा, तो तेरी पाजेब अबके इतवार को ज़रूर लेती आऊंगी।

          इतवार को बुआ आई और पाजेब ले आई। मुन्नी पहनकर खुशी के मारे यहां-से-वहां ठुमकती फिरी। रुकमन के पास गई और कहा-देख रुकमन, मेरी पाजेब। शीला को भी अपनी पाजेब दिखाई। सबने पाजेब पहनी देखकर उसे प्यार किया और तारीफ़ की। सचमुच वह चांदी कि सफेद दो-तीन लड़ियां-सी टखनों के चारों ओर लिपटकर, चुपचाप बिछी हुई, बहुत ही सुघड़ लगती थी, और बच्ची की खुशी का ठिकाना न था।

          और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी-बजी देखकर बड़े ख़ुशी हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी बढ़िया मुन्नी को पाजेब-सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गए। मुन्नी की पाजेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह ख़ूब हंसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे। बुआ ने कहा कि अच्छा बेटा अबके जन्म-दिन को तुझे बाईसिकिल दिलवाएंगे।  आशुतोष बाबू ने कहा कि हम तो अभी लेंगे। बुआ ने कहा, ‘छी-छी, तू कोई लड़की है? जिद तो लड़कियां किया करती हैं। और लड़कियां रोती हैं। कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं?” आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल ज़रूर लेंगे जन्म-दिन वाले रोज। बुआ ने कहा कि हां, यह बात पक्की रही, जन्म-दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी।

          इस तरह वह इतवार का दिन हंसी-खुशी पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गई। पाजेब का शौक घड़ीभर का था। वह फिर उतारकर रख-रखा दी गई; जिससे कहीं खो न जाए। पाजेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे।

श्रीमतीजी ने हमसे कहा, क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी अपने लिए बनवा लूं? मैंने कहा कि क्यों न बनवाओ! तुम कौन चार बरस की नहीं हो? ख़ैर, यह हुआ। पर मैं रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा कि तुमने पाजेब तो नहीं देखी? मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब? बोली कि देखो, यहां मेज-वेज पर तो नहीं है? एक तो है पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहां गई? मैंने कहा कि जाएगी कहां? यहीं-कहीं देख लो। मिल जाएगी।

          उन्होंने मेरे मेज के कागज उठाने-धरने शुरू किए और आलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया। मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो? यहां वह कहां से आएगी? जवाब में वह मुझी से पूछने लगी कि फिर कहां है? मैंने कहा तुम्हीं ने तो रखी थी। कहां रखी थी? बतलाने लगी कि दोपहर के बाद कोई दो बजे उतारकर दोनों को अच्छी तरह संभालकर उस नीचे वाले बाक्स में रख दी थीं। अब देखा तो एक है, दूसरी गायब है। मैंने कहा कि तो चलकर वह इस कमरे में कैसे आ जाएगी? भूल हो गई होगी। एक रखी होगी, एक वहीं-कहीं फर्श पर छूट गई होगी। देखो, मिल जाएगी। कहीं जा नहीं सकती।

          इस पर श्रीमती कहा-सुनी करने लगीं कि तुम तो ऐसे ही हो। ख़ुद लापरवाह हो, दोष उल्टे मुझे देते हो। कह तो रही हूं कि मैंने दोनों संभालकर रखी थीं। मैंने कहा कि संभालकर रखी थीं, तो फिर यहां-वहां क्यों देख रही थी? जहां रखी थीं वहीं से ले लो न। वहां नहीं है तो फिर किसी ने निकाली ही होगी। श्रीमती बोलीं कि मेरा भी यही ख्याल हो रहा है। हो न हो, बंसी नौकर ने निकाली हो। मैंने रखी, तब वह वहां मौजूद था। मैंने कहा, तो उससे पूछा? बोलीं, वह तो साफ इंकार कर रहा है। मैंने कहा, तो फिर?

          श्रीमती जोर से बोली, तो फिर मैं क्या बताऊं? तुम्हें तो किसी बात की फिकर है नहीं। डांटकर कहते क्यों नहीं हो, उस बंसी को बुलाकर? ज़रूर पाजेब उसी ने ली है। मैंने कहा कि अच्छा, तो उसे क्या कहना होगा? यह कहूं कि ला भाई पाजेब दे दे!

          श्रीमती झल्ला कर बोलीं कि हो चुका सब कुछ तुमसे। तुम्हीं ने तो उस नौकर की जात को शहजोर बना रखा है। डांट न फटकार, नौकर ऐसे सिर न चढ़ेगा तो क्या होगा? बोलीं कि कह तो रही हूं कि किसी ने उसे बक्स से निकाला ही है। और सोलह में पंद्रह आने यह बंसी है। सुनते हो न, वही है। मैंने कहा कि मैंने बंसी से पूछा था। उसने नहीं ली मालूम होती। इस पर श्रीमती ने कहा कि तुम नौकरों को नहीं जानते। वे बड़े छंटे होते हैं। बंसी चोर ज़रूर है। नहीं तो क्या फरिश्ते लेने आते? मैंने कहा कि तुमने आशुतोष से भी पूछा?

          बोलीं, पूछा था। वह तो ख़ुद ट्रंक और बक्स के नीचे घुस-घुसकर खोज लगाने में मेरी मदद करता रहा है। वह नहीं ले सकता। मैंने कहा, उसे पतंग का बड़ा शौक है। बोलीं कि तुम तो उसे बताते-बरजते कुछ हो नहीं। उमर होती जा रही है। वह यों ही रह जाएगा। तुम्हीं हो उसे पतंग की शह देने वाले। मैंने कहा कि जो कहीं पाजेब ही पड़ी मिल गई हो तो? बोलीं, नहीं, नहीं! मिलती तो वह बता न देता? ख़ैर, बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और डोर का पिन्ना नया लाया है। श्रीमती ने कहा कि यह तुम्हीं हो जिसने पतंग की उसे इजाजत दी। बस सारे दिन पतंग-पतंग। यह नहीं कि कभी उसे बिठाकर सबक की भी कोई बात पूछो। मैं सोचती हूं कि एक दिन तोड़-ताड़ दूं उसकी सब डोर और पतंग। मैंने कहा कि ख़ैर; छोड़ो। कल सवेरे पूछ-ताछ करेंगे।

          सवेरे बुलाकर मैंने गंभीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा, एक पाजेब नहीं मिल रही है, तुमने तो नहीं देखी? वह गुम हो गया। जैसे नाराज हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुंह नहीं खोला। मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच बता देना चाहिए। उसका मुंह और भी फूल आया। और वह गुम-सुम बैठा रहा।

जैनेन्द्र कुमार

          मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धांत आए। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करन चाहिए, इत्यादि। मैंने कहा कि बेटा आशुतोष, तुम घबराओ नहीं। सच कहने में घबराना नहीं चाहिए। ली हो तो खुल कर कह दो, बेटा! हम कोई सच कहने की सजा थोड़े ही दे सकते हैं। बल्कि बोलने पर तो इनाम मिला करता है। आशुतोष तब बैठा सुनता रहा। उसका मुंह सूजा था। वह सामने मेरी आंखों में नहीं देख रहा था। रह-रहकर उसके माथे पर बल पड़ते थे। क्यों बेटे, तुमने ली तो नहीं?” उसने सिर हिलाकर क्रोध से अस्थिर और तेज आवाज में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने को हो आया, पर रोया नहीं। आंखों में आंसू रोक लिए। उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ, उग्रता दोष का लक्षण है। मैंने कहा, देखो बेटा, डरो नहीं; अच्छा जाओ, ढूंढ़ो; शायद कहीं पड़ी हुई वह पाजेब मिल जाए। मिल जाएगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे।

          वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहां-वहां पाजेब की तलाश में लग गया। श्रीमती आकर बोलीं, आशू से तुमने पूछ लिया? क्या ख्याल है? मैंने कहा कि संदेह तो मुझे होता है। नौकर का तो काम यह है नहीं! श्रीमती ने कहा, नहीं जी, आशू भला क्यों लेगा?

          मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गंभीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्जाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है, लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।

          मैंने बुलाकर कहा, “अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ़ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न?”

          वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था।

          मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि डरने की कोई बात नहीं। हां, हां, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ, बेटे! कैसा हमारा सच्चा बेटा है! मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया। मैंने बहुत ख़ुशी होकर कहा कि दी है न छुन्नू को? उसने सिर हिला दिया। अत्यंत सांत्वना के स्वर में स्नेहपूर्वक मैंने कहा कि मुंह से बोलो। छुन्नू को दी है? उसने कहा, “हां-आं।

          मैंने अत्यंत हर्ष के साथ दोनों बांहों में लेकर उसे उठा लिया। कहा कि ऐसे ही बोल दिया करते हैं अच्छे लड़के। आशू हमारा राजा बेटा है। गर्व के भाव से उसे गोद में लिए-लिए मैं उसकी मां की तरफ़ गया। उल्लासपूर्वक बोला कि देखो हमारे बेटे ने सच कबूल किया है। पाजेब उसने छुन्नू को दी है। सुनकर मां उसकी बहुत ख़ुश हो आईं। उन्होंने उसे चूमा। बहुत शाबाशी दी ओर उसकी बलैयां लेने लगी! आशुतोष भी मुस्करा आया, अगरचे एक उदासी भी उसके चेहरे से दूर नहीं हुई थी। उसके बाद अलग ले जाकर मैंने बड़े प्रेम से पूछा कि पाजेब छुन्नू के पास है न? जाओ, मांग ला सकते हो उससे? आशुतोष मेरी ओर देखता हुआ बैठा रहा। मैंने कहा कि जाओ बेटे! ले आओ। उसने जवाब में मुंह नहीं खोला। मैंने आग्रह किया तो वह बोला कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा? मैंने कहा कि तो जिसको उसने दी होगी उसका नाम बता देगा। सुनकर वह चुप हो गया। मेरे बार-बार कहने पर वह यही कहता रहा कि पाजेब छुन्नू के पास न हुई तो वह देगा कहां से? अंत में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होगी। अच्छा, तुमने कहां से उठाई थी?

          “पड़ी मिली थी।

          “और फिर नीचे जाकर वह तुमने छुन्नू को दिखाई?”

          “हां!

          “फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे!

          “हां!

          “कहां बेचने को कहा?”

          “कहा, मिठाई लाएंगे?”

          “नहीं।”

          “पतंग लाएंगे?”

          “हां!

          “सो पाजेब छुन्नू के पास रह गई?”

          “हां!

          “तो उसी के पास होनी चाहिए न! या पतंग वाले के पास होगी! जाओ, बेटा, उससे ले आओ। कहना, हमारे बाबूजी तुम्हें इनाम देंगे। वह जाना नहीं चाहता था। उसने फिर कहा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो कहां से देगा! मुझे उसकी ज़िद बुरी मालूम हुई। मैंने कहा कि तो कहीं तुमने उसे गाड़ दिया है? क्या किया है? बोलते क्यों नहीं? वह मेरी ओर देखता रहा, और कुछ नहीं बोला।

          मैंने कहा, कुछ कहते क्यों नहीं? वह गुम-सुम रह गया। और नहीं बोला। मैंने डपटकर कहा कि जाओ, जहां हो वही से पाजेब लेकर आओ। जब वह अपनी जगह से नहीं उठा और नहीं गया तो मैंने उसे कान पकड़कर उठाया। कहा कि सुनते हो? जाओ, पाजेब लेकर आओ। नहीं तो घर में तुम्हारा काम नहीं है। उस तरह उठाया जाकर वह उठ गया और कमरे से बाहर निकल गया। निकलकर बरामदे के एक कोने में रूठा मुंह बनाकर खड़ा रह गया। मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। यह लड़का सच बोलकर अब किस बात से घबरा रहा है, यह मैं कुछ समझ न सका। मैंने बाहर आकर धीरे से कहा कि जाओ भाई, जाकर छुन्नू से कहते क्यों नहीं हो?

          पहले तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और जवाब दिया तो बार-बार कहने लगा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा? मैंने कहा कि जितने में उसने बेची होगी वह दाम दे देंगे। समझे न! जाओ, तुम कहो तो।

          छुन्नू की मां तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी। जिस पर आशुतोष की मां ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है। क्यों रे आशुतोष, तैने दी थी न? आशुतोष ने धीरे से कहा, हां, दी थी। दूसरे ओर से छुन्नू बढ़कर आया और हाथ फटकारकर बोला कि मुझे नहीं दी। क्यों रे, मुझे कब दी थी? आशुतोष ने जिद बांधकर कहा कि दी तो थी। कह दो, नहीं दी थी?

          नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की मां ने छुन्नू को ख़ूब पीटा और ख़ुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। कुलच्छनी औलाद जाने कब मिटेगी?

          बात दूर तक फैल चली। पड़ोस की स्त्रियों में पवन पड़ने लगी। और श्रीमती ने घर लौटकर कहा कि छुन्नू और उसकी मां दोनों एक-से हैं। मैंने कहा कि तुमने तेजा-तेजी क्यों कर डाली? ऐसी कोई बात भला सुलझती है! बोली कि हां, मैं तेज बोलती हूं। अब जाओ ना, तुम्हीं उनके पास से पाजेब निकालकर लाते क्यों नहीं? तब जानूं, जब पाजेब निकलवा दो। मैंने कहा कि पाजेब से बढ़कर शांति है। और अशांति से तो पाजेब मिल नहीं जाएगी। श्रीमती बुदबुदाती हुई नाराज़ होकर मेरे सामने से चली गईं।

          थोड़ी देर बाद छुन्नू की मां हमारे घर आई। श्रीमती उन्हें लाई थी। अब उनके बीच गर्मी नहीं थी, उन्होंने मेरे सामने आकर कहा कि छुन्नू तो पाजेब के लिए इनकार करता है। वह पाजेब कितने की थी, मैं उसके दाम भर सकती हूं। मैंने कहा,“यह आप क्या कहती है! बच्चे बच्चे हैं। आपने छुन्नू से सहूलियत से पूछा भी! उन्होंने उसी समय छुन्नू को बुलाकर मेरे सामने कर दिया। कहा कि क्यों रे, बता क्यों नहीं देता जो तैने पाजेब देखी हो?

          छुन्नू ने जोर से सिर हिलाकर इनकार किया। और बताया कि पाजेब आशुतोष के हाथ में मैंने देखी थी और वह पतंग वालों को दे आया है। मैंने ख़ूब देखी थी, वह चांदी की थी।

          “तुम्हें ठीक मालूम है?”

          “हां, वह मुझसे कह रहा था कि तू भी चल। पतंग लाएंगे।

          “पाजेब कितनी बड़ी थी? बताओ तो। छुन्नू ने उसका आकार बताया, जो ठीक ही था।

मैंने उसकी मां की तरफ़ देखकर कहा देखिए न पहले यही कहता था कि मैंने पाजेब देखी तक नहीं। अब कहता है कि देखी है।

          मां ने मेरे सामने छुन्नू को खींचकर तभी धम्म-धम्म पीटना शुरू कर दिया। कहा कि क्यों रे, झूठ बोलता है? तेरी चमड़ी न उधेड़ी तो मैं नहीं। मैंने बीच-बचाव करके छुन्नू को बचाया। वह शहीद की भांति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं और एक कोने में खड़े आशुतोष को जाने किस भाव से देख रहा था। ख़ैर, मैंने सबको छुट्टी दी। कहा, जाओ बेटा छुन्नू खेलो। उसकी मां को कहा, आप उसे मारिएगा नहीं। और पाजेब कोई ऐसी बड़ी चीज़ नहीं है। छन्नू चला गया। तब, उसकी मां ने पूछा कि आप उसे कसूरवार समझते हैं? मैंने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है।

          इस पर छुन्नू की मां ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा,“चलो बहनजी, मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाए देती हूं। एक-एक चीज़ देख लो। होगी पाजेब तो जाएगी कहां?” मैंने कहा,“छोड़िए भी। बेबात को बात बढ़ाने से क्या फायदा।सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाए ले रही थी। कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया तो, मेरा नाम नहीं।

          ख़ैर, जिस-तिस भांति बखेड़ा टाला। मैं इस झंझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका। जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो, आशुतोष को धमकाना मत। प्यार से सारी बातें पूछना। धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न?

          शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाजेब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पांच आने जो दिए वह छुन्नू के पास हैं। इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है। कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकाला है। दो-तीन घंटे में मगज़ मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।

          मैं सुनकर ख़ुशी हुआ। मैंने कहा कि चलो अच्छा है, अब पांच आने भेजकर पाजेब मंगवा लेंगे। लेकिन यह पतंग वाला भी कितना बदमाश है, बच्चों के हाथ से ऐसी चीज़ें लेता है। उसे पुलिस में दे देना चाहिए। उचक्का कहीं का! फिर मैंने पूछा कि आशुतोष कहां है? उन्होंने बताया कि बाहर ही कहीं खेल-खाल रहा होगा। मैंने कहा कि बंसी, जाकर उसे बुला तो लाओ। बंसी गया और उसने आकर कहा कि वे अभी आते हैं।

          “क्या कर रहा है?”

          “छुन्नू के साथ गिल्ली डंडा खेल रहे हैं।

          थोड़ी देर में आशुतोष आया। तब मैंने उसे गोद में लेकर प्यार किया। आते-आते उसका चेहरा उदास हो गया और गोद में लेने पर भी वह कोई विशेष प्रसन्न नहीं मालूम नहीं हुआ। उसकी मां ने ख़ुशी होकर कहा कि आशुतोष ने सब बातें अपने आप पूरी-पूरी बता दी हैं। हमारा आशुतोष बड़ा सच्चा लड़का है। आशुतोष मेरी गोद में टिका रहा। लेकिन अपनी बड़ाई सुनकर भी उसको कुछ हर्ष नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता था। मैंने कहा कि आओ चलो। अब क्या बात है। क्यों हज़रत, तुमको पांच ही आने तो मिले हैं न? हम से पांच आने मांग लेते तो क्या हम न देते? सुनो, अब से ऐसा मत करना, बेटे!

          कमरे में जाकर मैंने उससे फिर पूछताछ की,“क्यों बेटा, पतंग वाले ने पांच आने तुम्हें दिए न?”

          “हां

          “और वह छुन्नू के पास हैं न!

          “हां!

          “अभी तो उसके पास होंगे न!

          “नहीं

          “ख़र्च कर दिए!

          “नहीं

          “नहीं ख़र्च किए?”

          “हां

          “ख़र्च किए, कि नहीं ख़र्च किए?” उस ओर से प्रश्न करने वह मेरी ओर देखता रहा, उत्तर नहीं दिया।

          “बताओं ख़र्च कर दिए कि अभी हैं?” जवाब में उसने एक बार हांकहा तो दूसरी बात नहींकहा। मैंने कहा, तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें नहीं मालूम है?

          “हां।

          “बेटा, मालूम है न?”

          “हां।

          “पतंग वाले से पैसे छुन्नू ने लिए हैं न?

          “हां

          “तुमने क्यों नहीं लिए?” वह चुप।

          “इकन्नियां कितनी थी, बोलो?”

          “दो।

          “बाक़ी पैसे थे?”

          “हां

          “दुअन्नी थी!

          “हां।

          मुझे क्रोध आने लगा। डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी? सच बताओ कितनी इकन्नियां थी और कितना क्या था। वह गुम-सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला।

          “बोलते क्यों नहीं?” वह नहीं बोला।

          “सुनते हो! बोला-नहीं तो…” आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला।

          “सुनते नहीं, मैं क्या कह रहा हूं?” इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने कान पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आंसू लाए गुम-सुम खड़ा रहा।

          “अब भी नहीं बोलोगे?” वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका। मैंने जोर से बुलाया बंसी यहां आओ, इनको ले जाकर कोठरी में बंद कर दो। बंसी नौकर उसे उठाकर ले गया और कोठरी में मूंद दिया। दस मिनट बाद फिर उसे पास बुलवाया। उसका मुंह सूजा हुआ था। बिना कुछ बोले उसके ओंठ हिल रहे थे। कोठरी में बंद होकर भी वह रोया नहीं।

मैंने कहा, “क्यों रे, अब तो अकल आई?” वह सुनता हुआ गुम-सुम खड़ा रहा।

          “अच्छा, पतंग वाला कौन सा है? दाई तरफ़ का चौराहे वाला?” उसने कुछ ओठों में ही बड़बड़ा दिया। जिसे मैं कुछ समझ न सका।

          “वह चौराहे वाला? बोलो…”

          “हां।

          “देखो, अपने चाचा के साथ चले जाओ। बता देना कि कौन सा है। फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न?” यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, “देखो, पांच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। आशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाजेब मांगेगा। अव्वल तो यह पाजेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डांटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा। बच्चों से माल ठगता है? समझे? नरमी की ज़रूरत नहीं हैं।

          “और आशुतोष, अब जाओ। अपने चाचा के साथ जाओ।वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस-से-मस होता दिखाई नहीं दिया।

          “नहीं जाओगे! उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा। मैंने तब उसे समझाकर कहा कि भैया घर की चीज़ है, दाम लगे हैं। भला पांच आने में रुपयों का माल किसी के हाथ खो दोगे! जाओ, चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हां, पैसे दे देना और अपनी चीज़ वापस मांग लेना। दे तो दे, नहीं दे तो नहीं दे। तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं। सच है न, बेटे! अब जाओ। पर वह जाने को तैयार ही नहीं दिखा। मुझे लड़के की गुस्ताखी पर बड़ा बुरा मालूम हुआ। बोला,“इसमें बात क्या है? इसमें मुश्किल कहां है? समझाकर बात कर रहे है सो समझता ही नहीं, सुनता ही नहीं।

          मैंने कहा कि,“क्यों रे नहीं जाएगा?” उसने फिर सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा। मैंने प्रकाश, अपने छोटे भाई को बुलाया। कहा,“प्रकाश, इसे पकड़कर ले जाओ। प्रकाश ने उसे पकड़ा और आशुतोष अपने हाथ-पैरों से उसका प्रतिकार करने लगा। वह साथ जाना नहीं चाहता था। मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके फिर आशुतोष को पुचकारा, कि जाओ भाई! डरो नहीं। अपनी चीज़ घर में आएगी। इतनी-सी बात समझते नहीं। प्रकाश इसे गोद में उठाकर ले जाओ और जो चीज़ मांगे उसे बाज़ार में दिला देना। जाओ भाई आशुतोष! पर उसका मुंह फूला हुआ था। जैसे-तैसे बहुत समझाने पर वह प्रकाश के साथ चला। ऐसे चला मानो पैर उठाना उसे भारी हो रहा हो। आठ बरस का यह लड़का होने को आया फिर भी देखो न कि किसी भी बात की उसमें समझ नहीं हैं। मुझे जो गुस्सा आया कि क्या बतलाऊं! लेकिन यह याद करके कि गुस्से से बच्चे संभलने की जगह बिगड़ते हैं, मैं अपने को दबाता चला गया। ख़ैर, वह गया तो मैंने चैन की सांस ली।

          लेकिन देखता क्या हूं कि कुछ देर में प्रकाश लौट आया है। मैंने पूछा, “क्यों?” बोला कि आशुतोष भाग आया है। मैंने कहा कि अब वह कहां है?”

          “वह रूठा खड़ा है, घर में नहीं आता।

          “जाओ, पकड़कर तो लाओ। वह पकड़ा हुआ आया। मैंने कहा, “क्यों रे, तू शरारत से बाज नहीं आएगा? बोल, जाएगा कि नहीं?” वह नहीं बोला तो मैंने कसकर उसके दो चांटे दिए। थप्पड़ लगते ही वह एक दम चीखा, पर फौरन चुप हो गया। वह वैसे ही मेरे सामने खड़ा रहा। मैंने उसे देखकर मारे गुस्से से कहा कि ले जाओ इसे मेरे सामने से। जाकर कोठरी में बंद कर दो। दुष्ट!

          इस बार वह आध-एक घंटे बंद रहा। मुझे ख्याल आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूं, लेकिन जैसे कोई दूसरा रास्ता न दिखता था। मार-पीटकर मन को ठिकाना देने की आदत पड़ कई थी, और कुछ अभ्यास न था। ख़ैर, मैंने इस बीच प्रकाश को कहा कि तुम दोनों पतंग वाले के पास जाओ। मालूम करना कि किसने पाजेब ली है। होशियारी से मालूम करना। मालूम होने पर सख्ती करना। मुरव्वत की ज़रूरत नहीं। समझे। प्रकाश गया और लौटने पर बताया कि उसके पास पाजेब नहीं है। सुनकर मैं झल्ला आया, कहा कि तुमसे कुछ काम नहीं हो सकता। जरा सी बात नहीं हुई, तुमसे क्या उम्मीद रखी जाए? वह अपनी सफाई देने लगा। मैंने कहा, “बस, तुम जाओ। प्रकाश मेरा बहुत लिहाज मानता था। वह मुंह डालकर चला गया। कोठरी खुलवाने पर आशुतोष को फर्श पर सोता पाया। उसके चेहरे पर अब भी आंसू नहीं थे। सच पूछो तो मुझे उस समय बालक पर करुणा हुई। लेकिन आदमी में एक ही साथ जाने क्या-क्या विरोधी भाव उठते हैं!

          मैंने उसे जगाया। वह हड़बड़ाकर उठा। मैंने कहा, “कहो, क्या हालत है?” थोड़ी देर तक वह समझा ही नहीं। फिर शायद पिछला सिलसिला याद आया। झट उसके चेहरे पर वहीं जिद, अकड़ ओर प्रतिरोध के भाव दिखाई देने लगे। मैंने कहा कि या तो राजी-राजी चले जाओ नहीं तो इस कोठरी में फिर बंद किए देते हैं। आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ।

          ख़ैर, उसे पकड़कर लाया और समझाने लगा। मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, “बेटा, इसे पतंग वाले को दे देना और पाजेब मांग लेना कोई घबराने की बात नहीं। तुम समझदार लड़के हो। उसने कहा कि जो पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा?

          “इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पांच आने में पाजेब दी है। न हो तो छुन्नू को भी साथ ले लेना। समझे?” वह चुप हो गया। आखिर समझाने पर जाने को तैयार हुआ। मैंने प्रेमपूर्वक उसे प्रकाश के साथ जाने को कहा। उसका मुंह भारी देखकर डांटने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी।

          बुआ ने आशुतोष के सिर पर हाथ रखकर पूछा कि कहां जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूं। आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बुआ से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो। आशुतोष रुकने को उद्यत था। वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा। बुआ ने पूछा, “क्या बात है?”

          मैंने कहा, “कोई बात नहीं, जाने दो न उसे। पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डांटकर कहा, “प्रकाश, इसे ले क्यों नहीं जाते हो?”

          बुआ ने कहा कि बात क्या है? क्या बात है?

          मैंने पुकारा, “बंसी, तू भी साथ जा। बीच से लौटने न पाए।सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बुआ ने कहा, “क्यों उसे सता रहे हो?”

          मैंने कहा कि कुछ नहीं, जरा यों ही- फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा। राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती, मुहल्ले में भी राजनीति होती है। यह भार स्त्रियों पर टिकता है। कहां क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि चर्चा स्त्रियों को लेकर रंग फैलाती है। इसी प्रकार कुछ बातें हुईं, फिर छोटा-सा बक्सा सरका कर बोली, इनमें वह कागज है जो तुमने मांगें थे। और यहां- यह कहकर उन्होंने अपने बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाजेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हों। मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या?

          बोली कि उस रोज भूल से यह एक पाजेब मेरे साथ चली गई थी।

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
   

-         जैनेन्द्र कुमार

(जैनेन्द्र कुमार की यह कहानी पाजेब उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

-        पाठ्यक्रम की दूसरी कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

2. अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

3. यशपाल की कहानी परदा

    4.  फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

    5.  ज्ञानरंजन की कहानी पिता

बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)


बुधवार, 10 अगस्त 2022

केशवदास की कविप्रिया से

काव्य दूषण वर्णन (तीसरा प्रभाव)

 

समझैं बाला बालकहूंवर्णन पंथ अगाध।

कविप्रिया केशव करीछमियो कवि अपराध ॥1॥

          भावार्थ :- बालकयुवक और युवती आदि के समझने के लिएइस कविकर्म के गहरेदुरूह और कठिन  मार्ग का वर्णन करने के लिए(काव्य के अंग-उपांग आदि को समझाने के लिए) कवि केशव दास ने यह कविप्रिया नामक ग्रंथ बनाया है। यदि इस अनुक्रम में कोई अपराध हो जाये तो वह क्षमा कर दिया जाना चाहिए।

अलंकार कवितान केसुनि सुनि विविध विचार।

कवि प्रिया केशव करीकविता को सिंगार ॥2॥

          भावार्थ :- कवि केशवदास कहते हैं कि कविता के अलंकरण के सम्बन्ध में विविध प्रकार के आचार्य, कवियों, काव्य मर्मज्ञ जनों के विचार सुन सुनकर उन्होंने कविप्रिया का प्रबन्धन किया है ताकि कविता का शृंगार किया जा सके। 

          कविप्रिया प्रबंध में इन्हीं स्थापनाओं के कारण केशवदास को आचार्य का पद दिया गया है और उन्हें अलंकारवादी कहा गया है। वह कविता के सौन्दर्य में अलंकारों को बहुत महत्त्व देने वाले कवि/आचार्य हैं।

चरण धरत, चिन्ता करतनींद न भावत शोर।

सुबरण को सोधत फिरतकवि, व्यभिचारीचोर॥3॥

          भावार्थ :- केशवदास इस दोहे में श्लेष अलंकार का प्रयोग करते हुए लिखते हैं कि कवि, व्यभिचारी और चोर; तीनों ही प्रकार के लोगों को सुवर्ण की चाह रहती है और वह उसे खोजते फिरते हैं। सुवर्ण की चाह में ही वह अपने पैर रखते हैं यानि किसी भी तरह का प्रयास, उद्योग करते हैं। उसके विषय में सोचते और मनन करते हैं। इस क्रम में उन्हें नींद भी नहीं आती और उन्हें हल्ला-गुल्ला, शोर कतई पसंद नहीं आता। यहाँ सुवर्ण का अर्थ चोर के लिए सोना, व्यभिचारी के लिए अच्छे वर्ण यानि रंग-रूप वाला तथा कवि के लिए काव्योचित अक्षर हैं।

राजत रंच न दोष युतकविताबनिता, मित्र।

बुंदक हाला परत ज्योंगंगाघट अपवित्र॥4॥

          भावार्थ :- कवि केशवदास का मानना है कि कवितास्त्री तथा मित्र में थोड़ा सा भी दोष हो तो वह रंच मात्र भी शोभित नहीं होते। अर्थात दोषपूर्ण होने से कविता, स्त्री और मित्र अच्छा नहीं माने जाते। जिस प्रकार मदिरा की एक बूंद पड़ते ही गंगा जल का भरा हुआ पूरा घड़ा ही अपवित्र हो जाता है।

केशवदास

          (केशवदास हिन्दी में रीतिकाल के सबसे प्रतिभाशाली कवियों में से एक हैं। रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया, छंदमाला और जहांगीर जसचन्द्रिका उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं। इनमें उनका कवि और आचार्य रूप परस्पर गुंथा हुआ मिलता है। रामचन्द्रिका उनकी कीर्ति का आधार ग्रंथ है जिसमें छंदों का बाहुल्य है। केशवदास की कविता की गूढ़ता, विशिष्टता, चौंकाने वाली सोच तथा अभिनव प्रयोग करने की प्रवृत्ति ने उन्हें कठिन काव्य का प्रेत बना दिया है। रामचन्द्रिका में इतने प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं कि रामचन्द्र शुक्ल ने इस ग्रंथ को छंदों का अजायबघर कहा है।

          यहाँ उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय के बी ए प्रथम सेमेस्टर हिन्दी के विद्यार्थियों की सुविधा के लिए उनके पाठ्यक्रम में निर्धारित केशवदास की कविप्रिया से चार छंद (दोहा) और उनका भावार्थ प्रस्तुत किया गया है ताकि उन्हें समझने में आसानी हो।)

प्रस्तुति- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, 

इटावा उत्तर प्रदेश 206001

शनिवार, 6 अगस्त 2022

स्वाधीनता के 75 साल और हमारा सामाजिक ताना-बाना

         स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में अपने सामाजिक ताने-बाने पर विचार करते हुए सबसे पहला ध्यान तो इस यात्रा के आरंभिक बिन्दु पर जाता है, जब देश के पूर्वी और पश्चिमी भाग में भारी मार-काट मची थी और पाकिस्तान से रेलगाड़ियों में शव, बोरे की शक्ल में आ रहे थे। दोनों सीमाओं पर अफरा-तफरी मची थी और लोग अपने वतन की तलाश में शरणार्थी और मुहाजिर बनने को विवश थे। स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर देश का सामाजिक ताना-बाना एक नया आकार ले रहा था। चयन शुद्ध सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था। मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे और हिन्दू भारत में आने के लिए प्रयास कर रहे थे। संप्रदाय के आधार पर निर्मित राष्ट्र पाकिस्तान जाने के लिए बहुत से मुसलमान लालायित थे, कुछ विवश थे और कुछेक इस द्विविधा में थे कि क्या करें। सीमाओं पर हो रही गतिविधि देश के अंदरूनी हिस्सों में भी हलचल मचा रही थी। कुछ लोग देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे, कुछ उनकी सहायता कर रहे थे, कुछ विवश कर रहे थे तो कुछ रोक रहे थे। पाकिस्तान के गठन ने इस देश के सामाजिक ढांचे को बुरी तरह उद्वेलित कर दिया था।

          हिन्दू और मुसलमान समुदाय का आपसी सम्बन्ध ही इस विश्लेषण के केंद्र में है क्योंकि भारत में सामाजिक ताना-बाना इन्हीं के आपसी सम्बन्धों का आईना है। अन्य सभी समुदाय इस अमृत काल तक छिटपुट घटनाओं को छोड़कर, जिसमें 1984 का भीषण सिख संहार शामिल है, लगभग शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व में है। संघर्ष और मेल के जो रिश्ते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हैं, वही भारत में सामाजिक ताने-बाने का आधार बनता है।

          स्वाधीनता प्राप्ति और विभाजन की विभीषिका से अंग्रेजों की बोई हुई सांप्रदायिकता वाली विषबेल कई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारणों से फैलती गयी। विभाजन के बाद जब पाकिस्तान बना तो वह बाकायदा मुसलमानों का मुल्क बना और स्वाभाविक रूप से भारत को हिन्दुओं का देश मान लिया गया। यद्यपि भारत में कोई सामुदायिक बाध्यता नहीं थी और यहाँ सभी समुदायों की सुरक्षा, नागरिकता और अधिकारों को लेकर अतिरिक्त प्रयास किए गए। यह संदेश दिया गया कि यह देश मुसलमानों का भी उतना ही है जितना हिन्दुओं का। यदि विभाजन केन्द्रित कुछ हिन्दी उपन्यासों का अनुशीलन किया जाए, जैसे यशपाल का झूठा-सच’, शानी का काला जल’, राही मासूम रज़ा का आधा गाँव’, कमलेश्वर का लौटे हुए मुसाफिर’, बदीउज़्जमां का छाको की वापसी’, भीष्म साहनी का तमस आदि तो यह बात समझ में आती है कि जो मुसलमान भारत में ही रह गए, उनमें से कइयों को अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने के लिए प्रयास करना पड़ा। देश में रह गए मुसलमान भी विभिन्न अवसरों पर अपनी निष्ठा के लिए संदेहास्पद बने।

          यह इतिहास का एक काला अध्याय है कि अभी हमारा देश विभाजन के दंश को ठीक से झेल भी नहीं पाया था कि स्वाधीनता प्राप्ति के एक साल के भीतर ही सन 1948 ई0 में पाकिस्तान की आक्रमणकारी नीति और कश्मीर मामले को लेकर दबाव में आ गया। जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम भी हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ाने वाले कारक के रूप में उभर रहे थे। 1965 ई0 और 1971 ई0 में निर्णायक युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह पराजित हुआ तो जनमानस में यह विभेद और बढ़ा। समय समय पर देश के भिन्न भिन्न शहरों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों से यह वैमनस्य बढ़ा। विभिन्न राजनीतिक कारणों से यह दंगे अधिक समय तक चलते रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बताया है कि भारत में केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे तीन से अधिक दिन तक चल सकते हैं।

          भारत के मुसलमानों के साथ दो तत्त्व बहुत गहराई से जुड़ गए थे, पाकिस्तान के साथ उनका सांप्रदायिक और आत्मीय आधार पर जुड़ाव और अरबों के साथ उत्पत्ति विषयक। यह दोनों ही तत्त्व भारत से उनके जुड़ाव में बाधक था। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया में एक पात्र के व्यवहार से इस वृत्ति को बहुत सुंदरता से उद्घाटित किया है कि जब क्रिकेट मैच में “पाकिस्तान जीतता है, यह किक्की मुफ्त पान बांटने लगता है और हार की खबर सुनते ही दुकान बंद कर देता है।” यह सहानुभूति ऐसी दुखद सच्चाई है जो मुसलमानों के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ गयी है और आज भी ऐसे कई प्रकरण में यह दिखाई देती है और बहुत प्रमुखता से उछाली भी जाती है।

          पाकिस्तान के साथ भारतीय मुसलमानों का लगाव आत्मीयता और रिश्तेदारी से था तो अरब देशों की तरफ वह मक्का मदीना, यानि पवित्र धर्मस्थल की स्थिति से झुका। दुर्भाग्य से भारत के यह लोग अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ-हानि के लिए भी अरबों के मुखापेक्षी हो गए। कई एक मामले, जिसमें मुसलमान अपने को प्रगतिशील दिखा सकते थे और बंद समाज के दायरे से निकल सकते थे, उन्होंने मध्य एशिया के मुस्लिम देशों, खलीफाओं की तरफ देखा और इस तरह वह हिन्दुओं की तरफ पीठ कर खड़े हो गए।

          जिस समय यूरोप और अमेरिका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊँचाइयाँ हासिल कर रहे थे, भारत अपना अन्तरिक्ष कार्यक्रम आगे बढ़ा रहा था। भारत में हिन्दू तब स्वयं को उदार रखकर आगे बढ़ने के लिए सरकारी योजनाओं के साथ कदमताल कर रहा था, जबकि मुसलमान कट्टरता अपना रहा था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हुमायूँ कबीर, फख़रुद्दीन अली अहमद और करीम छागला से लेकर नुरुल हसन तक; आजादी के लगभग तीस साल तक भारत के शिक्षा मंत्री के पद पर मुसलमान नेता रहे किन्तु इस अवधि में मदरसा शिक्षा अधिक सांप्रदायिक रही। मुसलमान अपनी सांप्रदायिक पहचान के प्रति अधिक सजग बन रहा था। शाहबानो प्रकरण में यह देखा गया कि यह समुदाय अपने पारंपरिक तौर तरीकों में बदलाव के लिए कतई राजी नहीं है। राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बहुत तीक्ष्ण शब्दों में आलोचना करते हुए लिखा है कि इन्हें इस्लाम कटपीस में चाहिए। इस समुदाय में नए समाज के हिसाब से चलने की कोई ललक नहीं और इस क्रम में उसकी पक्षधरता अधिक संदेहास्पद हुई।

          उदारीकरण के साथ ही देश में सांप्रदायिकता के एक नए अध्याय का आरंभ हुआ। उदारीकरण से दुनिया एक गाँव में बदलने के लिए अपने मार्ग प्रशस्त कर रही थी। भारत में सामाजिक ढाँचा करवट ले रहा था। तब भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद किया गया। जब भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्या में मुग़लों द्वारा राम मंदिर के स्थान पर बनाए गए ढांचे को लेकर राजनीति शुरू हुई, तो समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में भारी उथल पुथल मची। कांग्रेस ने जब कपाट खुलवाए और पूजा अर्चना शुरू की तो भाजपा ने रथयात्रा आरंभ की। दिसम्बर 1992ई0 में ढांचा ढहाए जाने के बाद देश भर में दंगे और प्रदर्शन हुए।

          ऐसा देखा गया कि 1992ई0 के बाद मुस्लिम समुदाय पूर्णरुपेण अरबों का मुखापेक्षी हो गया। यह समुदाय अधिक मुखर हुआ और उसने अपने सांप्रदायिक प्रतीकों का अधिक उग्रता से प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया। काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास काशी का अस्सी में एक संवाद में लक्षित किया कि मस्जिदों पर लाउडस्पीकर इस घटना के बाद रातों रात लगा दिये गए।

          आज स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में यह साफ देखा जा सकता है कि भारत में हिन्दू , सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि समुदाय नए ज्ञान-विज्ञान के साथ आने के लिए स्वयं में बदलाव हेतु व्यग्र हैं जबकि मुसलमान आकांक्षी होकर भी रूढ़ियों और कट्टरताओं में उलझा हुआ है। सरकार निरंतर योजना बनाती है कि वह युवाओं के हाथ में कुरान के साथ साथ कंप्यूटर भी देखना चाहती है किन्तु जैसा कि तुलसीदास लिख गए हैं- दोऊ की होऊ एक समय भुवाला। हंसब ठठाई फुलाईब गाला।

          आज मुस्लिम समुदाय अरब देशों के निर्देशों से संचालित हो रहा है। एक घटना मात्र होती है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया में अरब देश भी त्वरित उपस्थित होते हैं। अभी हाल के दिनों में टीवी बहस के एक प्रकरण को लेकर यह बहुत स्पष्ट तरीके से देखा गया। मुस्लिम समुदाय अपने सांप्रदायिक प्रतीकों को लेकर अधिक आग्रही है। जिस तरह ईरान, तुर्की, फ्रांस आदि देश क्रमशः कट्टरपंथ की तरफ अग्रसर हुए हैं, भारत में उसकी प्रतिच्छाया दिखी है। बच्चों के नामकरण से लेकर संस्कारों और दैनिक व्यवहारों में यह देखा जा सकता है। सड़कों पर अदा किया जाने वाला नमाज हो या शिक्षण संस्थानों में हिजाब का मामला, मुस्लिम समुदाय ने अपने प्रतिगामी रूप को अधिक प्रदर्शित किया है। यह प्रदर्शन बहुत आक्रामक दिखाई देता है। इसके विपरीत हिन्दू जनमानस अपने सांप्रदायिक प्रदर्शन से बचने का उपाय करता मिला है। वह नवधा भक्ति के समस्त कर्मकांड के स्थान पर उदारवादी रवैया रखते हुए सहिष्णु बनने के लिए हर तरह का मूल्य चुकाने को तत्पर दिखता है। यद्यपि आज कई प्रतिक्रियावादी घटनाएँ इस समुदाय को भी कट्टरता के दायरे में धकेल रही हैं किन्तु सामान्यतः यह समुदाय दूसरे को पर्याप्त स्थान देने के लिए सदैव प्रयासरत दिखाई देता है।

          स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हम यह नहीं कह सकते कि भारत में इन दोनों समुदायों के बीच आगामी वर्षों में तीखापन नहीं आएगा। दुर्भाग्य से भारत में इस समय किए जा रहे सामाजिक सुधारों का, जिसमें तीन तलाक, कश्मीर मामला, सी ए ए और एनआरसी आदि शामिल हैं, मुस्लिम समुदाय विरोध कर रहा है और इस विरोध के पीछे कोई तार्किक आधार भी नहीं है। तब भी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक वाक्य से अपनी बात खत्म करता हूँ- क्या निराश हुआ जाये?

(हस्तक्षेप दिनांक 05 अगस्त, 2022)

हम और हमारा सामाजिक ताना-बाना


 

 ------डॉ रमाकान्त राय

लेखक एवं विश्लेषक

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

728सिविल लाइंसइटावाउत्तर प्रदेश 206001

royramakantrk@gmail.com  9838952426

ट्विटर- ramakroy


सोमवार, 1 अगस्त 2022

पंच परमेश्वर प्रेमचन्द की कहानी

जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गए थेतब अपना घर अलगू को सौंप गए थेऔर अलगू जब कभी बाहर जातेतो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार थान धर्म का नाताकेवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।

इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआजब दोनों मित्र बालक ही थेऔर जुम्मन के पूज्य पिताजुमरातीउन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरु जी की बहुत सेवा की थीख़ूब रकाबियां मांजीख़ूब प्याले धोए। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता थाक्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आतीजो कुछ होता हैगुरु के आशीर्वाद से। बसगुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख़ के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआतो यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में उसने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखीविद्या उसके भाग्य ही में न थीतो कैसे आती?

मगर जुमराती शेख़ स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा थाऔर उसी सोटे के प्रताप से आज आस-पास के गांवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था। हलके का डाकियाकांस्टेबिल और तहसील का चपरासी-सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण थातो जुम्मन शेख़ अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।

(2) 

जुम्मन शेख़ की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थीपरन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थीतब तक खालाजान का ख़ूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें ख़ूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गए। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गईपर रजिस्ट्री की मोहर ने इन ख़ातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज़तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख़ भी निठुर हो गए। अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।

बुढ़िया न जाने कब तक जिएगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दियामानो मोल ले लिया है! बघारी दाल के बिना रोटियां नहीं उतरतीं! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुकेउतने से तो अब तक गांव मोल ले लेते।

कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहापर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी-गृहस्वामी-के प्रबंध में दख़ल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा-बेटा! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपए दे दिया करोमैं अपना पका-खा लूंगी।

जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया-रुपए क्या यहां फलते हैं?

खाला ने नम्रता से कहा-मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहींजुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब दिया-तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आई हो?

खाला बिगड़ गयींउन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हंसेजिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाल की तरफ़ जाते देख कर मन ही मन हंसता है। वह बोले-हांज़रूर पंचायत करो। फ़ैसला हो जाए। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं। पंचायत में किसकी जीत होगीइस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस-पास के गांवों में ऐसा कौन थाजो उसके अनुग्रहों का ऋणी न होऐसा कौन थाजो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सकेकिसमें इतना बल थाजो उसका सामना कर सकेआसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं!

                                                (3)

इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आस-पास के गाँवों में दौड़ती रही। कमर झुक कर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना दूभर थामगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना ज़रूरी था।

बिरला ही कोई भला आदमी होगाजिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आंसू न बहाए हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दियाऔर किसी ने इस अन्याय पर ज़माने को गालियां दीं! कहा-क़ब्र में पांव लटके हुए हैंआज मरे कल दूसरा दिनपर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिएरोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम हैकुछ ऐसे सज्जन भी थेजिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमरपोपला मुंहसन के-से बाल-इतनी सामग्री एकत्र होंतब हंसी क्यों न आएऐसे न्यायप्रियदयालुदीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थेजिन्होंने उस अबला के दुखड़े को ग़ौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी और दम ले कर बोली-बेटातुम भी दम भर के लिए मेरी पंचायत में चले आना।

अलगू- मुझे बुला कर क्या करोगीकई गांव के आदमी तो आवेंगे ही।

खाला- अपनी विपद तो सबके आगे रो आई। अब आने-न-आने का अख़्तियार उनको है। हमारे गाजी मियां गाय की गुहार सुनकर पीढ़ी पर से उठ आए थे। क्या एक बेकस बुढ़िया की फरियाद पर कोई न दौड़ेगा?

अलगू- यों आने को आ जाऊंगामगर पंचायत में मुंह न खोलूंगा।

खाला- क्यों बेटा?

अलगू- अब इसका क्या जवाब दूंअपनी ख़ुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।

खाला- बेटाक्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?

हमारे सोए हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाएतो उसे ख़बर नहीं होतीपरन्तु ललकार सुन कर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सकापर उसके हृदय में ये शब्द गूंज रहे थे- क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?

(4)

संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख़ जुम्मन ने पहले से ही फ़र्श बिछा रखा था। उन्होंने पानइलायचीहुक्केतम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था। हांवह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ ज़रा दूर पर बैठे हुए थे। जब पंचायत में कोई आ जाता थातब दबे हुए सलाम से उसका ‘शुभागमन’ करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठीतब यहां भी पंचायत शुरू हुई। फ़र्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गईपर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थेजिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुआं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ़ कोलाहल मच रहा था। गांव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझ कर झुंड के झुंड जमा हो गए थे।

पंच लोग बैठ गएतो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की-

पंचोंआज तीन साल हुएमैंने अपनी सारी ज़ायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना क़बूल किया। सालभर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी-दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दुःख सुनाऊंतुम लोग जो राह निकाल दोउसी राह पर चलूं। अगर मुझमें कोई ऐब देखोतो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। जुम्मन में बुराई देखोतो उसे समझाओक्यों एक बेकस की आह लेता है! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊंगी।

रामधन मिश्रजिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गांव में बसा लिया थाबोले-जुम्मन मियांकिसे पंच बदते होअभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगेवही मानना पड़ेगा।

जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दीख पड़ेजिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले- पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक़्म है। खालाजान जिसे चाहेंउसे बदेंमुझे कोई उज्र नहीं।

खाला ने चिल्ला कर कहा- अरे अल्लाह के बन्दे! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देताकुछ मुझे भी तो मालूम हो। जुम्मन ने क्रोध से कहा- अब इस वक़्त मेरा मुंह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी हैजिसे चाहोपंच बदो।

खालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गईंवह बोलीं- बेटाख़ुदा से डरोपंच न किसी के दोस्त होते हैंन किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न होतो जाने दोअलगू चौधरी को तो मानते होलोमैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।

जुम्मन शेख़ आनंद से फूल उठेपरंतु भावों को छिपा कर बोले- अलगू ही सहीमेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू।

अलगू इस झमेले में फंसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले- खालातुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है।

खाला ने गम्भीर स्वर में कहा- बेटादोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में ख़ुदा बसता है। पंचों के मुंह से जो बात निकलती हैवह ख़ुदा की तरफ़ से निकलती है।

अलगू चौधरी सरपंच हुए। रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा। अलगू चौधरी बोले- शेख़ जुम्मन! हम और तुम पुराने दोस्त हैं! जब काम पड़ातुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पड़ातुम्हारी सेवा करते रहे हैंमगर इस समय तुम और बूढ़ी खालादोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज करनी होकरो।

जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाज़ी मेरी है। अलगू यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त हो कर बोले-

पंचोंतीन साल हुए खालाजान ने अपनी ज़ायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें हीन-हयात खाना-कपड़ा देना क़बूल किया था। ख़ुदा गवाह हैआज तक मैंने खालाजान को कोई तक़लीफ़ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी मां के समान समझता हूं। उनकी खिदमत करना मेरा फ़र्ज़ हैमगर औरतों में ज़रा अनबन रहती हैउसमें मेरा क्या बस हैखालाजान मुझसे माहवार ख़र्च अलग मांगती हैं। ज़ायदाद जितनी हैवह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफ़ा नहीं होता है कि माहवार ख़र्च दे सकूं। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार ख़र्च का कोई जिक्र नहीं। नहीं तो मैं भूल कर भी इस झमेले में न पड़ता। बसमुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार हैजो फ़ैसला चाहेंकरें।

अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा क़ानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इन प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठा हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गई कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा हैक्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आएगी?

जुम्मन शेख़ तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फ़ैसला सुनाया- जुम्मन शेख़! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार ख़र्च दिया जाए। हमारा विचार है कि खाला की ज़ायदाद से इतना मुनाफ़ा अवश्य होता है कि माहवार ख़र्च दिया जा सके। बसयही हमारा फ़ैसला हैअगर जुम्मन को ख़र्च देना मंजूर न होतो हिब्बानामा रद्द समझा जाए।

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सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गए। जो अपना मित्र होवह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरेइसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहेंजिस पर पूरा भरोसा थाउसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज़ न होतेतो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होतायह हैजा-प्लेग आदि व्याधियां दुष्कर्मों के ही दंड हैं।

मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता की प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे-इसका नाम पंचायत है! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्तीदोस्ती की जगह हैकिंतु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी हैनहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती।

इस फ़ैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखाई देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही ज़मीन पर खड़ा था।

उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज़्यादा करने लगा। वे मिलते-जुलते थेमगर उसी तरहजैसे तलवार से ढाल मिलती है।

जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।

                                                (6)

अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती हैपर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती। जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाए थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदरबड़े-बड़े सींगोंवाले थे। महीनों तक आस-पास के गांव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्तों से कहा-यह दगाबाज़ी की सज़ा है। इन्सान सब्र भले ही कर जाएपर ख़ुदा नेक-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है। चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया। उसने कहा-जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है। चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन ख़ूब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंग्यवक्रोक्तिअन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डांट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गए। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया।

अब अकेला बैल किस काम काउसका जोड़ बहुत ढूंढ़ा गयापर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गांव में एक समझू सेठ थेवह इक्का-गाड़ी हांकते थे। गांव के गुड़-घी लाद कर मंडी ले जातेमंडी से तेलनमक भर लातेऔर गांव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचायह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेपें हों। आजकल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखागाड़ी में दौड़ायाबाल-भौंरी की पहचान कराईमोल-तोल किया और उसे ला कर द्वार पर बांध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी हीघाटे की परवाह न की।

समझू सेठ ने नया बैल पायातो लगे उसे रगेदने। वह दिन में तीन-तीनचार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फ़िक्र थीन पानी कीबस खेपों से काम था। मंडी ले गएवहां कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन की बंशी बजती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। ख़ूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहां बैलराम का रातिब था-साफ़ पानीदली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खलीऔर यही नहींकभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करतापोंछता और सहलाता था। कहां वह सुख-चैनकहां यह आठों पहर की खपत! महीने भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हड्डियां निकल आई थींपर था वह पानीदारमार की बरदाश्त न थी।

एक दिन चौथी खेप में सेठ जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भर का थका जानवरपैर न उठते थे। पर सेठ जी कोड़े फटकारने लगे। बसफिर क्या थाबैल कलेजा तोड़ कर चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि जरा दम ले लूंपर सेठ जी को जल्द पहुंचने की फ़िक्र थीअतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर ज़ोर लगायापर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ाऔर ऐसा गिरा कि फिर न उठा। सेठ जी ने बहुत पीटाटांग पकड़ कर खींचानथनों में लकड़ी ठूंस दीपर कहीं मृतक भी उठ सकता हैतब सेठ जी को कुछ शक हुआ। उन्होंने बैल को गौर से देखाखोल कर अलग कियाऔर सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुंचे। बहुत चीखे-चिल्लाएपर देहात का रास्ता बच्चों की आंख की तरह सांझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नज़र न आया। आस-पास कोई गांव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे-अभागे। तुझे मरना ही थातो घर पहुंच कर मरता! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा! अब गाड़ी कौन खींचेइस तरह सेठ जी ख़ूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थेदो-ढाई सौ रुपए कमर में बंधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक के थेअतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गए। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पीगाया। फिर हुक्का पिया। इस तरह सेठ जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहे। अपनी जान में तो वह जागते ही रहेपर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखातो थैली ग़ायब! घबरा कर इधर-उधर देखातो कई कनस्तर तेल भी नदारत! अफ़सोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रातःकाल रोते-बिलखते घर पहुंचे। सेठानी ने जब यह बुरी सुनावनी सुनीतब पहले तो रोईफिर अलगू चौधरी को गालियां देने लगी-निगोड़े ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म भर की कमाई लुट गई।

इस घटना को हुए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम मांगते तब सेठ और सेठानीदोनों ही झल्लाए हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते- वाह! यहां तो सारे जन्म की कमाई लुट गईसत्यानाश हो गयाइन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया थाउस पर दाम मांगने चले हैं! आंखों में धूल झोंक दीसत्यानाशी बैल गले बांध दियाहमें निरा पोंगा ही समझ लिया है! हम भी बनिए के बच्चे हैंऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जा कर किसी गड़हे में मुंह धो आओतब दाम लेना। न जी मानता होतो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे?

चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और सेठ जी के बर्राने की पुष्टि करते। परन्तु डेढ़ सौ रुपए से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। सेठ जी बिगड़ कर लाठी ढूंढ़ने घर में चले गए। अब सेठानी ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुंची। सेठानी ने घर में घुस कर किवाड़ बंद कर लिए। शोरगुल सुन कर गांव के भलेमानस जमा हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया। सेठ जी को दिलासा दे कर घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। जो कुछ तय हो जायउसे स्वीकार कर लो। सेठ जी राज़ी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।

(7)

पंचायत की तैयारियां होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किए। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नहींऔर जब तक यह प्रश्न हल न हो जाएतब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में यह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें बेमुरौवत कहने का क्या अधिकार हैजब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दगा करने में भी संकोच नहीं होता।

पंचायत बैठ गईतो रामधन मिश्र ने कहा-अब देरी क्या हैपंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरीकिस-किस को पंच बदते हो।

अलगू ने दीन भाव से कहा- समझू सेठ ही चुन लें।

समझू खड़े हुए और कड़क कर बोले- मेरी ओर से जुम्मन शेख़।

जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगामानो किसी ने अचानक थप्पड़ मार दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा- क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नहीं।

चौधरी ने निराश हो कर कहा- नहींमुझे क्या उज्र होगा?

    *                          *                       *                  *

अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैंतब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता हैपरंतु ऐसे अवसर आते हैंजब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञकितनी विचारशीलकितनी न्यायपरायण हो जाती है। इसका कारण उत्तरदायित्व का ज्ञान है।

नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चिंतित रहते हैं! वे उसे कुल-कलंक समझते हैंपरन्तु थोड़े ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशीलकैसा शांतचित्त हो जाता हैयह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है।

जुम्मन शेख़ के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचामैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं। मेरे मुंह से इस समय जो कुछ निकलेगावह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं!

पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किए। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परंतु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल्य के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थेजिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अंत में जुम्मन ने फ़ैसला सुनाया-

अलगू चौधरी और समझू साहु! पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक़्त उन्होंने बैल लियाउसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिए जातेतो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई अच्छा प्रबंध न किया गया।

रामधन मिश्र बोले- समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा हैअतएव उससे दंड लेना चाहिए।

जुम्मन बोले- यह दूसरा सवाल है! हमको इससे कोई मतलब नहीं!

झगड़ू साहु ने कहा- समझू के साथ कुछ रियायत होनी चाहिए।

जुम्मन बोले- यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करेंतो उनकी भलमनसी।

अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और ज़ोर से बोले- पंच-परमेश्वर की जय!

इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई- पंच-परमेश्वर की जय!

प्रत्येक मनुष्य जुम्मन की नीति को सराहता था- इसे कहते हैं न्याय! यह मनुष्य का काम नहींपंच में परमेश्वर वास करते हैंयह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है?

थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उनके गले लिपट कर बोले- भैयाजब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राणघातक शत्रु बन गया थापर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त होता हैन दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जबान से ख़ुदा बोलता है।

अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गई।

प्रेमचन्द
- प्रेमचन्द

(प्रेमचन्द की यह कहानी पंच परमेश्वर उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

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बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)

 

सद्य: आलोकित!

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