बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

बनारस पर लिखी गयी दो कविताएँ



हिंदी में बनारस जिस ठसक और नास्टेल्जिक तरीके से आता है वह अनूठा है. इस तरह से कोई अन्य शहर हिंदी में नहीं आता. इलाहाबाद भी नहीं, जिसने हिंदी को बहुत समृद्ध किया है. दिल्ली की खूब चर्चा उर्दू में है. बनारस की हिंदी में. आज दो कविताएँ देखिए, एक कविता हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की है. उनके विषय में क्या कहना. आज वे हिंदी में सबसे ख्यातिलब्ध कवि हैं. दूसरी कविता नवनीत सिँह की है. वे अनूठी भाव-भंगिमा के कवि हैं. रक्षाबन्धन पर उनकी एक कविता बहनें हमलोगों ने पढ़ी थी. बनारस पर यह दूसरी कविता यहाँ पेश है.
(मैंने यह दोनों कविताएँ फेसबुक से उठाई हैं. केदारनाथ सिंह इतने बड़े कवि हैं कि उनकी कविताएँ वैसे ही हम सबकी कविताएँ बन गयी हैं. नवनीत सिंह उदीयमान कवि हैं. मेरी मित्र सूची में हैं, तो मेरा अधिकार बनता है कि मैं उनकी दीवार से कविताएँ अपने मकसद के लिए चुन लूँ. वैसे भी फेसबुक पर साझा की जाने वाली चीजें सार्वजनिक कोटि में आ जाती हैं.)

 

                १

बनारस-  केदारनाथ सिंह            

इस शहर में बसन्त
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेघ पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बन्दरों की आँखों में
और एक अजीब-सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में बसन्त का उतरना !
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर

इसी तरह रोज-रोज एक अनन्त शव
ले जाते हैं कन्धे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की एक सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भूत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे--ऊँचे स्तम्भ
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ
धूँए के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
ग्ंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर !



    २
बनारस - नवनीत सिंह

रांड़, सांढ़ सीढ़ी और संन्यासियों से दूर
वह अस्थायी ठिकानों मे भी
स्थायी की तरह था,
दूर किसी सड़क पर बस का कन्डक्टर
चिल्लाता है बनारस
अपनी गैरमौजूदगी में भी
कुछ पल के लिये
बनारस वहाँ मौजूद रहा

सब कुछ खत्म होने के बाद भी
फिर से शुरू करने की हिम्मत के साथ
बनारस मजबूत दरख्त बना,

बनारस ने उन्हें सींचा
जो निष्कासित हुए थे बागीचों से
उनमें अपार सम्भावनाएं देखी
जो असम्भावित थे दुनिया के लिये

कुम्हार के घड़े की तरह ठोकते हुए
एक दिन बनारस ने उन्हें रगड़ दिया
मजदूर के हाथों मे पड़ी सुर्ती की तरह
झाड़ कर बुहार कर साफ कर
उनकी आत्मा के अतिरेक को


शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

भिखारी ठाकुर के दो गीत.



     लोक और रंगकर्म से परिचित कौन है जो भिखारी ठाकुर को नहीं जानता? उनका जन्म १८ दिसम्बर, १८८७  बिहार के सारण जिले (छपरा) के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। जीविका के लिए वे खड़गपुर गए और वहां से उन्होंने बंगाल असम और अन्यान्य जगहों की यात्राएं कीं। वे एक रंगमंच की मण्डली से जुड़े और उसके सूत्रदार कहे गए। उन्होंने कई नाटक मंचन के लिए लिखे और उनका मंचन किया. उनकी एक कृति विदेसिया सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। १०जुलाई, १९७१ई० को चौरासी वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
    वे सच्चे मायने में लोक के कलाकार थे। उनके यहाँ लोक अपने समूचे रूप में सांगीतिक तरीके से आता है। वह समूचा दुःख-सुख उनके यहाँ जिस खूबसूरती से व्यक्त हुआ है वह अप्रतिम है। यह हिन्दी की दरिद्रता है कि इस महान लोक कलाकार को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहती है। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे।
    
      प्रस्तुत हैं, उनकी दो रचनाएं. एक बारहमासा है. जैसा कि सर्वविदित है कि बारहमासा विरह वर्णन की प्रविधि में आता है। हिन्दी में जायसी का बारहमासा बहुत प्रसिद्ध है। बीसलदेव रासो में आया नरपति नाल्ह का भी। भिखारी ठाकुर का यह बारहमासा किसी मायने में जायसी के बारहमासा से कम नहीं है। जायसी और नरपति के बारहमासा में जहाँ विस्तार ज्यादा है, जबकि भिखारी ठाकुर के यहाँ यह रंगमंच को ध्यान में रखकर लिखा जाने के कारण छोटा और मार्मिक है। इस बारहमासे का आरम्भ आषाढ़ महीने से हुआ है। कालिदास के काव्य मेघदूत में भी अषाढ़ास्य प्रथम दिवसे की चर्चा है। मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' में जो बारहमासा है, वह आषाढ़ माह से शुरू होता है- चढ़ा असाढ़ गगन घन बाजा।

     इस प्रस्तुति में दूसरा एक विरह गीत है। इसमें प्रिय के पूर्व दिशा में जाने पर हो रहे कष्ट का वर्णन है। जाने के लिए  'परईलन' क्रिया का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है- दायित्व से विमुख हो कर पलायन करना।

      आज भिखारी ठाकुर की रचनाओं को सहेजने वाले बहुतेरे लोग आगे आये हैं. प्रसिद्ध उपन्यासकार संजीव ने 'सूत्रधार' नाम से एक बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा है। बलिया की 'संकल्प' की टीम भिखारी ठाकुर के कई नाटकों का मंचन कर चुकी है। मेरे मित्र अतुल कुमार राय इसी संस्था से जुड़े हैं। उन्होंने ही इन गीतों को मुझे उपलब्ध करवाया। अब आप इन्हें पढ़ें।
 
                                 (१)
                               बारहमासा

आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस, बरखा में पिया रहितन पासवा बटोहिया।
पिया अइतन बुनिया में,राखि लिहतन दुनिया में,अखरेला अधिका सवनवाँ बटोहिया।
आई जब मास भादों, सभे खेली दही-कादो,  कृस्न के जनम बीती असहीं बटोहिया।
आसिन महीनवाँ के,  कड़ा घाम दिनवाँ के,  लूकवा समानवाँ बुझाला हो बटोहिया।
कातिक के मासवा में, पियऊ का फाँसवा में, हाड़ में से रसवा चुअत बा बटोहिया।
अगहन- पूस मासे,   दुख कहीं केकरा से?  बनवाँ सरिस बा भवनवाँ  बटोहिया।
मास आई बाघवा, कँपावे लागी माघवा,  त हाड़वा में जाड़वा समाई हो बटोहिया।
पलंग बा सूनवाँ,  का कइली अयगुनवाँ से,  भारी ह महिनवाँ फगुनवाँ बटोहिया।
अबीर के घोरि-घोरि,  सब लोग खेली होरी,  रँगवा में भँगवा परल हो बटोहिया।
कोइलि के मीठी बोली, लागेला करेजे गोली, पिया बिनु भावे ना चइतवा बटोहिया।
चढ़ी बइसाख जब,   लगन पहुँची तब,  जेठवा दबाई   हमें हेठवा    बटोहिया।
मंगल करी कलोल, घरे-घरे बाजी ढोल, कहत भिखारीखोजऽ पिया के बटोहिया।


                               (२)

करिके गवनवा,  भवनवा में छोडि कर,    अपने परईलन पुरूबवा बलमुआ।
अंखिया से दिन भर, गिरे लोर ढर ढर,  बटिया जोहत दिन बितेला बलमुआ।
गुलमा के नतिया,  आवेला जब रतिया,  तिल भर कल नाही परेला बलमुआ।
का कईनी चूकवा,  कि छोडल मुलुकवा,  कहल ना दिलवा के हलिया बलमुआ।
सांवली सुरतिया,  सालत बाटे छतिया,  में एको नाही पतिया भेजवल बलमुआ।
घर में अकेले बानी,  ईश्वरजी राख पानी, चढ़ल जवानी माटी मिलेला बलमुआ।
ताक तानी चारू ओर, पिया आके कर सोर, लवटो अभागिन के भगिया बलमुआ।
कहत 'भिखारी' नाई, आस नइखे एको पाई, हमरा से होखे के दीदार हो बलमुआ।
                                                                                                


सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.