सोमवार, 23 सितंबर 2013

नया ज्ञानोदय : सितम्बर २०१३. एक अवलोकन


बाबू मोशाय! कहानी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए।
बाबू मोशाय! कहानी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए..Bharatiya Jnanpith की पत्रिका नया ज्ञानोदय में सितम्बर २०१३ के अंक में प्रकाशित सूरज प्रकाश की लम्बी कहानी'एक कमजोर लड़की की कहानी' खींचकर लम्बी बनाई गयी है। यह सुखद है कि फेसबुक जैसे सोशल मीडिया की भूमिका कहानियों में आ रही है। इससे पहले उपन्यासिका के तौर पर प्रकाशित शैलेन्द्र सागर की 'लम्बी कहानी' "यह इश्क नहीं आसां" में भी फेसबुक ने कथानक में जगह बनाई थी। उस कहानी में भी बड़े-बड़े लोचे थे। वह मुख्य कवर पेज पर उपन्यासिका और कहानी के शुरूआती पेज पर लम्बी कहानी के तौर पर परोसी गयी थी। प्रेमचंद सहजवाला की एक कहानी भी इन दिनों वर्तमान साहित्य में प्रकाशित हुई है जिसमें इस माध्यम का जिक्र हुआ है। लेकिन यहाँ विवेच्य एक कमजोर लड़की की कहानी में फेसबुक मुख्य भूमिका में है। वह कहानी को आगे भी बढ़ाता है और उसे ढोता भी है। अगर कहानी में लेखक और तथाकथित कमजोर लड़की के चैट संवादों को निकाल दिया जाए तो कहानी लम्बी नहीं रह जाती। हाँ, बड़ी होने के लिए जो शर्तें कही जा सकती हैं, वह लेखक और लड़की की मुलाकात और उसके आत्मकथ्य में देखी जा सकती है। लड़की का आत्मकथ्य इस कहानी को बड़ा बना सकता था, जो अन्य अनावश्यक विस्तार में ओझल हो जाता है। बाकी तो कहानी में चैटिंग के चोंचले हैं और कहानीकार के कहानियों की व्याख्या और परिचय। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लेखिका कहानियों को तीस बार-पचास बार पढ़ने का धैर्य रखे हुए है। 
यह एक मनोवैज्ञानिक सचाई ही कही जाएगी कि लेखक आदि जब इस तरह के प्रसंग उठाते हैं तो विपरीत लिंगी को ही चुनते हैं। उनके लिए शायद वहां मसाला भी ज्यादा दीखता है और आकर्षण भी।
अब एक प्रश्न?
क्या लम्बी कहानी का मतलब आकार में लम्बा होना है? उपन्यास वह है जो मोटा हो? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं होता होगा। साहित्य के सुधीजन यह बताएं कि लम्बा/ लम्बी कहानी होने के मायने क्या हैं? उपन्यासिका के भी।
इस अंक की एक उपलब्धि कुणाल सिंह का फिल्म आलेख है- ओसामा अगर पुरुष होता। फिल्म देखने के लिए मचल जाएँ, ऐसा आलेख। शशांक दुबे ने "दोस्त" फिल्म पर जो कहा है, वह बेहतरीन है। उनका यह कहना बड़ा सटीक है- 'जिन दर्शकों के नाम पर एक महत्वपूर्ण, संवेदनशील और हमेशा याद की जाने लायक फिल्म देखनी है, उनसे यह अनुरोध है कि एक बार उसकी डीवीडी लाकर एक घंटे जरूर देखें। लेकिन हाँ, उसके बाद डीवीडी बंद कर दें" क्यों बंद कर दें, यह आप खुद पढ़कर जानियेगा।
श्रीराम ताम्रकर का बेगम अख्तर पर लिखा भी ठीक है। कुसुम अंसल ने "चेतना का कोलंबस' शीर्षक से जो संस्मरण लिखा है, वह फ़िल्मी दुनिया की गलीजता को उघाड़ता है। बासु भट्टाचार्य के विषय में कई अनजाने पहलुओं को भी खोलता है।
कविताओं में दिनेश कुशवाह की कवितायेँ बेहतरीन हैं। खासकर "हरिजन देखि" बोलो मिट्ठू प्राण-प्राण उनकी शैली की विशेष याद दिलाता है। निशांत और प्रेम शंकर रघुवंशी की कवितायें भी पढ़ी जा सकती हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' कहानियों के लिए विशेष तौर पर याद की जाती है। इस माह (सितम्बर २०१३) की बड़ी उपलब्धि Harnot Sr Harnot की कहानी "हक्वाई" कही जा सकती है। हक्वाई मोची के उस लोहे के तिकोने स्टैंड को कहते हैं, जिसपर रखकर वह जूते की मरम्मत करता है। यह कहानी पढ़ते हुए मुझे धूमिल की कविता 'मोचीराम' और प्रो। तुलसीराम की आत्मकथा "मुर्दहिया" दोनों याद आये। धूमिल की कविता यह कि- "न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे आगे हर आदमी/ एक जोड़ी जूता है/ जो मरम्मत के लिए खड़ा है।" और कहानी में भागीराम के आगे सब मरम्मत के लिए खड़े हैं। तुलसीराम की आत्मकथा इसलिए कि कमाई करने यानि चमड़े का काम करने का इतना प्रामाणिक वर्णन वहीँ दिखा मुझे। और फिर यहाँ, उनकी प्रक्रिया का वर्णन भी।
हक्वाई भागीराम की कहानी है। भागीराम का कसूर यह है कि (उनका कसूर तो यह भी है कि वे निम्न कुल में जन्मे और उसकी कीमत भी बहुत कुछ खोकर गवांया। यह सब भी तफसील से कहानी में आया है लेकिन यहाँ बात दूसरी ही की जाए।) वे नगर निगम के नए अधिकारी से जूता पॉलिश करने का मेहनताना मांग लेते हैं। उसका खामियाजा यह है कि उन्हें फिर से विस्थापित होना पड़ता है। कई तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं लेकिन विस्थापन के इस पड़ाव में वे एक नए अभियान पर निकल पड़ते हैं। गाँधी बाबा का रास्ता। आमरण अनशन।
कहानी अपने बेहतर ट्रीटमेंट और लेखकीय दृष्टि के लिए याद रखी जाएगी। लेखक की पक्षधरता भागीराम के साथ है। वे उनके श्रम और जुझारू जीवन का पूरा सम्मान करते हुए दीखते हैं। कोई काम छोटा नहीं होता। भागीराम तो अपने काम को पूजने की हद तक पसंद करते हैं। वे हक्वाई को अपना देवता मानते हैं।
कहानी में जिस तरह से भागीराम का चित्रण किया गया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। मुझे पसंद आया कि लेखक का शब्द चयन पर विशेष ध्यान है। कहीं भी भागीराम के लिए किसी असंसदीय शब्द का प्रयोग नहीं किया है। यह बताना इस लिए ख़ास है कि यथार्थ का चित्रण करने के बहाने भाई लोग अपनी सामंती मानसिकता का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते। कहानी इसलिए भी बहुत ख़ास बन गयी है।
ख़ास बात यह है कि लेखक को इस बात में सिद्धि मिल गयी है कि भागीराम जैसा सरल। सहज आदमी बोलेगा तो उसके वाक्य छोटे और भाषा सहज होगी। यह सफाई बहुत कम दिखती है।
अब आप कहानी पढ़ें और बताएं कि "मैं क्या झूठ बोल्याँ"।
हरनोट जी को बधाई। बहुत-बहुत बधाइयाँ। लम्बी टीप हो गयी क्या? आखिर में भगवान सिंह का "कुछ और पहेलियाँ और उलटवासियाँ" जरूर पढ़िएगा।
अब आपकी टिप्पणियों पर बातें होंगी। :)

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हक्वाई : हरनोट जी की कहानी पर एक त्वरित टीप

भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' कहानियों के लिए विशेष तौर पर याद की जाती है। इस माह (सितम्बर २०१३) की बड़ी उपलब्धि Harnot Sr Harnot की कहानी "हक्वाई" कही जा सकती है। हक्वाई मोची के उस लोहे के तिकोने स्टैंड को कहते हैं, जिसपर रखकर वह जूते की मरम्मत करता है। यह कहानी पढ़ते हुए मुझे धूमिल की कविता 'मोचीराम' और प्रो। तुलसीराम की आत्मकथा "मुर्दहिया" दोनों याद आये। धूमिल की कविता यह कि- "न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे आगे हर आदमी/ एक जोड़ी जूता है/ जो मरम्मत के लिए खड़ा है।" और कहानी में भागीराम के आगे सब मरम्मत के लिए खड़े हैं। तुलसीराम की आत्मकथा इसलिए कि कमाई करने यानि चमड़े का काम करने का इतना प्रामाणिक वर्णन वहीँ दिखा मुझे। और फिर यहाँ, उनकी प्रक्रिया का वर्णन भी।
हक्वाई भागीराम की कहानी है। भागीराम का कसूर यह है कि (उनका कसूर तो यह भी है कि वे निम्न कुल में जन्मे और उसकी कीमत भी बहुत कुछ खोकर गवांया। यह सब भी तफसील से कहानी में आया है लेकिन यहाँ बात दूसरी ही की जाए।) वे नगर निगम के नए अधिकारी से जूता पॉलिश करने का मेहनताना मांग लेते हैं। उसका खामियाजा यह है कि उन्हें फिर से विस्थापित होना पड़ता है। कई तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं लेकिन विस्थापन के इस पड़ाव में वे एक नए अभियान पर निकल पड़ते हैं। गाँधी बाबा का रास्ता। आमरण अनशन।
कहानी अपने बेहतर ट्रीटमेंट और लेखकीय दृष्टि के लिए याद रखी जाएगी। लेखक की पक्षधरता भागीराम के साथ है। वे उनके श्रम और जुझारू जीवन का पूरा सम्मान करते हुए दीखते हैं। कोई काम छोटा नहीं होता। भागीराम तो अपने काम को पूजने की हद तक पसंद करते हैं। वे हक्वाई को अपना देवता मानते हैं।
कहानी में जिस तरह से भागीराम का चित्रण किया गया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। मुझे पसंद आया कि लेखक का शब्द चयन पर विशेष ध्यान है। कहीं भी भागीराम के लिए किसी असंसदीय शब्द का प्रयोग नहीं किया है। यह बताना इस लिए ख़ास है कि यथार्थ का चित्रण करने के बहाने भाई लोग अपनी सामंती मानसिकता का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते। कहानी इसलिए भी बहुत ख़ास बन गयी है।
ख़ास बात यह है कि लेखक को इस बात में सिद्धि मिल गयी है कि भागीराम जैसा सरल। सहज आदमी बोलेगा तो उसके वाक्य छोटे और भाषा सहज होगी। यह सफाई बहुत कम दिखती है।
अब आप कहानी पढ़ें और बताएं कि "मैं क्या झूठ बोल्याँ"।
हरनोट जी को बधाई। बहुत-बहुत बधाइयाँ।


मंगलवार, 17 सितंबर 2013

कथावार्ता : विश्वकर्मा : उद्योगों के आधुनिक देवता


ललित निबंध


आज विश्वकर्मा पूजा है। विश्वकर्मा जयंती। विश्वकर्मा के प्राचीनतम ग्रंथों में विविध नाम और रूप मिलते हैं। कहा जाता है कि लंका की नगरी, कृष्ण के लिए द्वारका उन्होंने ही बनाई थी। दुनिया की तमाम संरचनाएं उन्हीं की बनाई हुई हैं। इस तरह वे दुनिया के पहले अभियंता थे। उन्हें कभी प्रजापति तक कहा गया। लेकिन ठीक से विचार करने पर पता चलेगा कि भले ही इस देवता का मिथकों में उल्लेख मिलता हो और विष्णु पुराण में 'देव बढ़ई' कहकर संबोधित किया गया हो, इनका अभ्युदय आधुनिक काल के देवता के रूप में अधिक है। आधुनिक काल के उद्योगों, मशीनों ने इस देवता को पुनर्जीवित किया है। इसीलिए इनकी पूजा का चलन कल-कारखानों और लोहा-लक्कड़ की दुकानों तथा मैकेनिकों के यहाँ ही ज्यादा होती है। यह एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी जयंती एक निश्चित तारीख को पड़ती है। १७ सितम्बर को। वैसे तो सब त्योहारों के लिए एक तिथि नियत है लेकिन सबके लिए नियत तिथियाँ चाँद और सूर्य की गति से तय होती हैं। इसलिए उनके मामले में घट-बढ़ होती रहती है। यह जयंती अंग्रेजी कैलेण्डर से तय की जाती है। इस तरह इसकी नए होने की बात स्पष्ट हो जाती है। अब तो बाकायदा उनके पूजन की विधि भी कमर्काण्ड में शामिल कर ली गयी है। किसी गजानन स्वामी ने उनकी आरती गढ़ ली है जिसमें उन्हें सुख देने वाला भगवान बताया गया है-
श्री विश्वकर्मा जी की आरती, जो कोई नर गावे।
कहत गजानन स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे॥
विश्वकर्मा की पूजा कल-कारखानों में ही किये जाने का प्रचलन है। मैं सोचता हूँ कि मजदूरों-श्रमिकों के लिए भी देवता बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? औद्योगीकरण निःसंदेह अंग्रेजों की देन है। फिर उद्योगों पर अधिकांशतः कब्ज़ा अंग्रेजों या अंग्रेजीपरस्त लोगों का ही रहा है। जबकि मजदूर-श्रमिक थे- हिन्दू अथवा भारतीय ग्रामीण। ऐसा प्रतीत होता है कि सेठों-उद्योगपतियों ने अपने कल-कारखानों की सुरक्षा के लिए इस देवता को पुनर्जीवित किया। देवता की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद मशीनें लोहे का एक यंत्र भर नहीं रह गयीं। वे ईश्वर की बनाई संरचना हो गयीं। यह अनायास नहीं है कि आज भी अनेक लोग किसी वाहन या मशीन में किसी सुधार या निर्माण या उपयोग करने के पहले उसे प्रणाम करते हैं।
बचपन में जहाँ मैं रहता था- दक्षिण चौबीस परगना, पश्चिम बंगाल में, वहाँ बाबूजी बिरला के एक चटकल में श्रमिक थे। आज का दिन वहाँ छुट्टी का दिन होता था। सभी श्रमिकों की छुट्टी रहती थी और शाम के समय समूचा मिल परिसर अद्भुत तरीके से सजाया जाता था। विविध तरीके की झांकियां स्थापित की जाती थीं। उस दिन किसी भी नागरिक को परिसर में जाने की अनुमति थी। हमलोग भी जाते थे। एक मेला था। रोमांचक मेला। तब हम जहाँ रहते थे-बिजली कम लोगों को नसीब थी। मैं स्वयं एक दड़बेनुमा कमरे में रहता था और ढिबरी और लालटेन की रोशनी में पढ़ता था। तब इस तरह के विशाल मशीनों और कल कारखानों को देखकर हमलोग स्वतः ही मान लेते थे कि इन्हें मनुष्य कैसे बना सकता है। यह अवश्य किसी ईश्वर की बनाई संरचना होगी। ईश्वर कौन? अवश्य ही विश्वकर्मा जी। तब विश्वकर्मा का नाम जबान पर आते ही जी जरूर लग जाया करता था।
बाद में इतिहास की कई किताबों को पढ़ते हुए पता चला कि कई अंग्रेज विद्वानों ने भी खुदाई में प्राप्त कई ध्वंशावशेषों को देखकर क्यों यह स्थापना व्यक्त की होगी कि इन्हें किसी दैत्य या देवता ने बनाया होगा।
मैं जब कभी उन मेले में जाता था तो इन मशीनों को बहुत ध्यान से देखता था। वे भयावह थीं। लेकिन उस दिन सबका ध्यान सजावट और झांकियों पर रहता था। मुझे याद है। एक बार एक झाँकी ऐसी बनी थी कि एक घर में आग लगी है। एक औरत घबराई हुई मुद्रा में पुकार रही है। सामने ही कुछ दूरी पर चार लोग ताश खेल रहे हैं। वह व्यक्ति जिसका घर जल रहा है, वह देख रहा है कि उसकी पत्नी इशारे कर रही है, वह ‘एक बाज़ी और’ का संकेत कर ताश खेलने में व्यस्त हो जाता है। इस झाँकी ने मेरे अबोध मन पर बहुत असर डाला था। मेरे बाबूजी को भी ताश खेलने का जबरदस्त चस्का था। माँ से इस बात को लेकर खूब किचकिच होती रहती थी। बाद में जब माँ गाँव आ गयीं तो बाबूजी को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं रह गया था। मैंने भी उसी समय ताश खेलना सीखा था। जुआ खेलना भी। वह झाँकी मुझे यदा-कदा याद आया करती थी। अब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि धर्म आदि मामले हमें डराते भले हों, अगर हम ढीठ हो जाएँ तो हम उनके डर-भय से ऊपर उठ जाते हैं। यह जो इतना सारा कुकर्म आदि धार्मिक किस्म के लोग भी करते हैं, मुझे बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होता।
मैं जब शेखर जोशी की कहानियाँ पढ़ता हूँ और उनमें आने वाले मजदूर-श्रमिक जीवन की दुश्वारियों का अहसास करता हूँ तो अपने कथन की पुष्टि का एक आधार भी पाता हूँ। क्या ऐसा न हुआ होगा कि उद्योगपति-मालिक आदि अपनी संपत्ति की सुरक्षा के लिए,  उसकी सलामती के लिए इस पूजा का चलन शुरू करवाएं हों। मुझे याद है, जब बाबूजी काम करने जाते थे तो तेलाई ले आते थे। तेलाई अपशिष्ट मशीनी तेल में अपशिष्ट रूई या जूट को डुबोकर बनाई जाती थी। यह काम आती थी चूल्हे में आग लगाने में। हमलोग खाना पकाने के लिए कोयले अथवा गुल का प्रयोग करते थे। कोयला महँगा था। गुल हमें बनाना पड़ता था। इसे बनाने का श्रमसाध्य काम था। हम छाई खरीदते थे। छाई, कोयले का अपशिष्ट था। धूल की तरह। उसमें गंगा किनारे की काली मिट्टी, जो बहुत लसोड़ होती थी, अच्छी तरह से मिलाई जाती थी। उसमें पानी मिलकर इसे बनाते थे। इस मिश्रण में सही अनुपात का ख़याल रखना पड़ता था। वरना मिट्टी ज्यादा हो जाने पर गुल बेकार हो जाता था और जल्दी ही धुआं जाता था। हम इसे फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में जैसे ‘बड़ी’ बनाई जाती है, बनाते थे। धूप में इसे ठीक से सुखवाया जाता था। मुझे याद है, जिस मोहल्ले में मैं रहता था, उसमें इस काम को लोग समूह में करते थे। इससे यह जल्दी हो जाया करता था। इस काम के करने में ही न जाने कितनी प्रेम कहानियां बनी और फिर चूल्हे की आंच में झुलस गयीं। मेरी एक प्रेम कहानी भी उन्हीं दिनों परवान चढ़ी थी। हम अचानक जवान हो गए थे। इसी गुल के बनाने की प्रक्रिया ने राजनीति की दुनिया से भी परिचित कराया था। १९९१ की रथयात्रा, १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसी समय के आस-पास लालू यादव के बिहार में मुख्यमंत्री बन जाने के लाभ-हानि पर कई एक बहसों में मैं हिस्सेदार बन गया था। वह कांग्रेस के उत्तर भारत के राज्यों से पतन का दौर था और क्षेत्रीय दलों के उभार का भी लेकिन वह कहानी फिर कभी। तो, जो गुल बनता था उसे चूल्हे में दहकाने के लिए चिपरी की जरूरत पड़ती थी। चिपरी, गोबर से बनाई जाती थी। उपले की तरह। लेकिन यह चिपटी होती थी और एक रूपये में एक कूड़ी मिलती थी। कूड़ी बंगला में बीस की संख्या को भी कहते हैं और लड़की जात के लिए भी। हम लोग एकमुश्त चिपरी खरीदते थे। चिपरी वहां स्थानीय लोग बनाते थे और बेचते थे। इस चिपरी को सुलगाने के लिए तेलाई की जरूरत पड़ती थी। तेलाई में मौजूद मशीनी तेल जल्दी आग पकड़ती थी। उसके अभाव में मिट्टी के तेल का इस्तेमाल करना पड़ता था। मिट्टी का तेल भी कोटे पर मिलता था। कोटे का तेल लेना भी हँसी-खेल नहीं था। महँगा तो वह था ही।
मैं बता रहा था कि बाबूजी को जब तेलाई लाना होता था तो वे इसे चुराकर लाते थे। इसे गोलानुमा बनाकर एक रस्सी से बाँध कर लाया जाता था। जब वे लाते थे, अक्सर बताते थे कि इसे लाना अब हँसी-खेल नहीं है। सब शक करते हैं। वे बताते थे कि तेलाई ले आने पर गार्ड पहले कुछ नहीं कहते थे। वे भी उन्हीं की तरह के जीवन शैली में रहने वाले लोग थे। लेकिन बाद में उन्होंने भी टोकना शुरू कर दिया था। यह टोकना, श्रमिक जीवन के असाध्य श्रम पर शक करना होता था और उनकी ईमानदारी को चुनौती देना। शेखर जोशी की कहानियों में इस स्थितियों को सहजता से देखा जा सकता है। शेखर जोशी की एक कहानी 'बदबू' से एक उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ- "बाहर पंक्ति के पहले सिरे पर फोरमैन चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने अपने थैले खोल कर दिखाने का आदेश दे रहा था। उसकी बारी आ गयी थी। फोरमैन ने स्वयं डिब्बा-थैला हाथों में लेकर देखा, असंतोष के कारण उसका मुँह फीका पड़ गया। सर्चर को सबकी जेबें टटोलने का उसने आदेश दिया.  उसकी जेबें भी स्वयं फोरमैन ने टटोलीं, परन्तु फोरमैन के चेहरे पर फिर निराशा छा गयी। जाते-जाते उसने फोरमैन की ओर देखा। फोरमैन ने आँखें भूमि की ओर झुका ली थीं। गर्व से छाती उठाकर वह बड़े गेट की ओर चल दिया।(पृष्ठ-१४६, बदबू, शेखर जोशी की प्रतिनिधि कहानियां।) बाद में जब शेखर जोशी की कहानियां पढ़ने का मौका मिला तो मजदूर-श्रमिक जीवन की इन इन्दराजों को देखकर बचपन के कई दृश्य सजीव हो उठे थे। ऐसे कारखानों में अगर विश्वकर्मा नामक देवता की प्रतिष्ठा हो गयी है तो मैं इसके मिथकीयता की परीक्षा जरूर कर लेना चाहता हूँ।
खैर, मजदूरों और श्रमिकों के इस देवता को मैं कैसे प्रणाम करूँ? जब मैं देखता हूँ कि इनका होना कुछ मुट्ठी भर लोगों का हित साधन करना है। आप क्या कहते हैं? वे प्रथम अभियन्ता भले हों, पूंजीपतियों के हितचिन्तक ही हैं।

--डॉ. रमाकान्त राय.
३६५ ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६ 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

रामदास- कीर्तन में हत्या की कथा

        आज मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहाय की यह बहुत प्रसिद्ध कविता। कविता क्या हैआम आदमी की पीड़ा का बयान है। छंद मेंखासकर चौपाई जैसे छंद में बंधकर यह और भी मार्मिक हो गयी है। तुलसीदास के बाद चौपाई का जैसा प्रयोग यहाँ हैवह रामदास जैसे लोगों की हत्या के प्रसंग को कीर्तन की शक्ल दे देता है। कीर्तन की शक्ल में आकर यह उत्सव में बदल जाता है और अंततः एक विभीषक आख्यान में। आप भी पढ़िए इसे।  संग्रह, जिसमें यह कविता संकलित है, का नाम भी खासा मौजूं है- हँसो हँसो जल्दी हँसो..

 

रामदास

          चौड़ी सड़क गली पतली थी
          दिन का समय घनी बदली थी
          रामदास उस दिन उदास था
          अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।

          धीरे धीरे  चला  अकेले
          सोचा साथ किसी को ले ले
          फिर रह गयासड़क पर सब थे
          सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।

          खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
          दोनों हाथ पेट पर रख कर
          सधे क़दम रख कर के आए
          लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।

          निकल गली से तब हत्यारा
          आया उसने नाम पुकारा
          हाथ तौल कर चाकू मारा
          छूटा लोहू  का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी।

          भीड़ ठेल कर लौट गया वह
          मरा पड़ा है रामदास यह
          देखो-देखो बार बार कह
          लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी!

                                                                  

                                                                   --- रघुवीर सहाय

 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

ढेलहिया चौथ- गालीगलौज वाला चौथ


कि हम सांझ क एकसर तारा, कि भादव चौथि क ससि।
इथि दुहु माँझ कवोन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।-विद्यापति
     
    आज ढेलहिया चौथ है। आज चाँद को देखने पर दोष लगता है। कहते हैं कि गणेश जी कहीं जा रहे थे और फिसल कर गिर पड़े थे। ऐसा देखकर चन्द्रमा को हँसी आ गयी। अपनी उपेक्षा से आहत गणेश ने चन्द्रमा को शाप दे दिया। गणेश ने चंदमा को कहा कि आज से जो तुम्हें भूलवश भी देख लेगा, उसे मिथ्या कलंक लगेगा।  ब्रह्मा के कहने पर चंदमा ने गणेश की आराधना की। इसके बाद गणेश ने अपने शाप को इस तिथि तक ही सीमित कर दिया।  भूलवश इस दिन चाँद देखने पर कृष्ण को भी कलंक लग गया था। स्यमंतक मणि की चोरी का कलंक। विद्यापति की राधा बहुत दुखी हैं। वे कृष्ण की उपेक्षा से दुखी हैं। कहती हैं- क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ (यह तारा उदासी का प्रतीक माना जाता है) या भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का चाँद? इन दोनों में मेरा मुँह किस तरह का है? न प्रभु मुझे देख रहे हैं न मुझ पर हँस ही रहे हैं? 
     हमारी तरफ आज के दिन प्रचलित है कि चाँद नहीं देखना चाहिए। अगर गलती से देख भी लिया तो चाहिये कि किसी की गाली सुन लें। सब इस दिन मजे का दिन बना देते थे। कभी किसी की खपरैल पर ढेला फेंक कर या चिढ़ा-चिढ़ाकर गाली सुनने का बहाना खोजते थे।
     आज मैंने न चाहते हुए भी देख लिया है। शाम को लौट रहा था तो याद था कि चाँद नहीं देखना है और यही याद करना मुझे ललचा गया। मैंने उसे देख लिया।
अब क्या करूँ? वैसे मैं इस तरह के अन्धविश्वास में नहीं पड़ा कभी भी। लेकिन आज मन कर रहा है कि इस कलंक को अपने सिर न चढ़ने दूँ। क्या करूँ?
    अब तो हममें वह सहनशीलता भी न रही कि गालियाँ सुनकर पचा लें या उसमें आनन्द तलाश लें। गाली देने वालों में भी वह साहस न रहा। सब बड़ा नकली-नकली टाइप का हो गया है। बनावटी।
   मुझे मेरे बचपन के दिन याद आ रहे हैं। बेतहाशा।

सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.