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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कथावार्ता : कस्बाई सिमोन : स्त्री-जीवन का नया दृष्टिकोण


‘कस्बाई सिमोन’ कथाकार शरद सिंह का तीसरा उपन्यास है जो उनके अन्य उपन्यासों की भांति ‘स्त्री-चेतना’ पर केन्द्रित है। इस उपन्यास के विषय निरूपण में लेखिका को भरपूर सफलता मिली है। इसकी भूमिका ‘अपनी बात’ से ही उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि यह उपन्यास महानगरों की अपेक्षा कस्बों में रहने वाली ‘स्वतन्त्र चेतना की स्त्री’ को केंद्र में रखकर लिखा गया है। जैसे, उसे किन परिस्थितियों या हालातों से होकर गुजरना पड़ता है? वह किन चुनौतियों का सामना करती है?’ या वह अपने ‘स्व’ को कहाँ तक सुरक्षित रख पाती है? भले ही लेखिका अपनी भूमिका में आग्रह करती है कि “इस उपन्यास के कथानक का उद्देश्य किसी विचार-विशेष की पैरवी नहीं करना अपितु उस विचार विशेष का कस्बाई स्त्री के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचना परखना है।” फिर भी जब वह उसी भूमिका में ‘स्त्रीत्ववाद’ से जुड़े तमाम प्रश्नों पर विचार करती है तभी स्पष्ट हो जाता है कि इसमें स्त्री-जीवन के कई बुनियादी प्रश्नों पर विचार किया गया है और ‘कस्बाई स्वतन्त्र चेता स्त्री-जीवन’ से जुड़ी चुनौतियों से जूझने का उपक्रम है।
इस उपन्यास की कहानी का परिवेश मध्यप्रदेश के छोटे शहर हैं। इसकी प्रमुख पात्र 28 वर्षीय ‘सुगंधा’ है जो अपनी स्वतंत्रता को सहेजने वाली, स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत, स्वावलंबी कामकाजी स्त्री है। वह ‘जबलपुर’ में अकेले रहकर सरकारी नौकरी करती है। उसके अकेलेपन की नियति बचपन में ही तय हो जाती है जो ‘मंडला’ से शुरू होकर भोपाल तक पहुँचती है, जहाँ उसका बचपन और किशोरावस्था गुजरा था। उसके पिता एक प्राध्यापक थे। वह उसके और उसकी माँ के प्रति अत्यंत निर्मम और कठोर थे। उनका अपनी शोध-छात्राओं के साथ अनैतिक संबंध था। उनकी यातना और उपेक्षा से आहत होकर नायिका की माँ उसे लेकर ‘मंडला’ से ‘भोपाल’ आ जाती है। यह ‘भोपाल’ माँ और बेटी की संघर्ष भूमि रही। यहीं पर उसकी माँ ने अपने संघर्षों से स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया और अपनी बेटी को भी स्वावलंबी। किन्तु उपन्यास में माँ और बेटी के संघर्ष की यह कहानी गौण रूप में ही आई है।

यह उपन्यास मुख्यत: ‘सुगंधा’ की उस जिजीविषा की कहानी है जिसमें वह ‘सिमोन’ के जैसा जीवन जीने का निर्णय लेती है। किन्तु यह भी एक विडंबना है कि वह जिस ‘सिमोन’ की अनुगामी बन जाती है, उस महान व्यक्तित्व से अबतक अन्य लाखों-करोड़ों स्त्रियों की भांति अनजान थी। एक बार उसके सहकर्मी पुरूष मित्र ‘मृदुल’ ने उसके स्त्री-अधिकारों से जुड़े लेखों को देखकर उसे ‘सिमोन’ कह दिया था। इसके बाद ही वह फ्रांस की इस विलक्षण महिला ‘सिमोन द बोउआर’ के विषय में जान पाई थी जिसने अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ में कहा है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’। वह बिना विवाह किए अपने प्रेमी ‘सार्त्र’ के साथ रहती थी। उसने पितृसत्ता के छल-छद्म को तार-तार कर दिया था और स्त्री-सशक्तिकरण के संघर्ष में एक नया स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। ‘सिमोन द बोउआर’ से परिचय के बाद वह उससे भावनात्मक रूप से काफी लगाव महसूस करने लगती है। ‘सिमोन’ के जीवन का सच जानकर उसे लगा कि जैसे उसके अकेले रहने और विवाह न करने के फैसले को समर्थन मिल गया हो। उसने बचपन से विवाह संस्था की जिन विदूपताओं को देखा था उससे इसके प्रति उसका विश्वास उठ गया था तभी वह‘रितिक’ के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने का निर्णय करती है। वह स्वयं भी कभी-कभी विचार करती है कि क्या उसका जीवन ‘सिमोन’ जैसा हो पाएगा। छोटे शहर में बिना विवाह किए पुरूष के साथ रहने के उसके निर्णय ने उसे ‘कस्बाई सिमोन’ बना दिया।
अभी भारतीय समाज की मानसिकता इतनी प्रगतिशील नहीं हो पाई है जो किसी अविवाहित जोड़े को एक साथ रहने की अनुमति दे सके। ‘रितिक’ और ‘सुगंधा’ को अपने संबंधों के कारण बार-बार घर बदलना पड़ता है। क्योंकि समाज उनके संबंधों को अवैध मानता है। अंतत: दोनों ने मिलकर अपना घर खरीदने का निर्णय लिया लेकिन तब तक उन्हें आभास होनेलगता है कि यदि इस समाज में रहना है तो पति-पत्नी के ढोंग से गुजरना ही पड़ेगा और दोनों थोड़ा-बहुत इससे गुजरते हैं। इस ढोंग में रितिक के पितृसत्तात्मक संस्कारों पर चढ़ी प्रगतिशीलता की परत पूरी तरह उतर जाती है और वह पति की भूमिका में आ जाता है। ‘सुगंधा’ उसमें आए इस परिवर्तन को साफ महसूस करती है- “इन पांच वर्षों के साथ में मैंने रितिक के स्वभाव में होने वाले परिवर्तनों को महसूस किया था। अब वह मुझे झिड़कने लगा था। कई बार बिलकुल परम्परावादी पति की तरह। इधर कुछ समय से मैं अनुभव कर रही थी कि हमारा ‘असामाजिक’ रिश्ता ‘सामाजिक’ आकार लेता जा रहा है। दायित्वों को लेकर रितिक की मुझसे अपेक्षाएं बढ़ गई थीं। वह मुझ पर अधिकार जमाने लगा था।” इस तरह सुगंधा भी कभी-कभी अपने को पारम्परिक पत्नी समझने लगती है। दोनों का टकराव पति-पत्नी के समान बढ़ता जाता है। एक दिन जब रितिक सुगंधा को रखैल कह देता है तब सुगंधा का संयम भरभराकर गिर जाता है और वह आहत आत्मसम्मान लिए हुए रितिक का साथ छोड़ने का निर्णय ले लेती है तथा अपना स्थानान्तरण सागर करवा लेती है। इस तरह से दोनों के संबंधों का पटाक्षेप हो जाता है।
सागर में एक बार पुन: सुगंधा का परिचय सागर विश्वविद्यालय में एक वर्ष के लिए किसी प्रोजेक्ट पर काम करने आए छिंदवाड़ा के प्राध्यापक ‘डॉ. ऋषभ जैन’ से होता है, जो विवाहित व्यक्ति है। इस परिचय की परिणति शीघ्र ही दैहिक संबंध में हो जाती है लेकिन ऋषभ की मर्दवादी सोच के कारण वह उसे त्याग देती है। इसके बाद वह एक अन्य विवाहित बैंक कर्मचारी ‘विशाल पटेल’ से जुडती है जो थियेटर के अभिनय तथा साहित्य में रुचि रखता है, वह प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति है। अपने इस संबंध से उसे तृप्ति का अनुभव होता है और यहीं पर उपन्यास की कहानी ‘कस्बाई सिमोन’ के अनिश्चित भविष्य के साथ समाप्त हो जाती है। उपन्यास को गतिशीलता प्रदान करने में उच्चवर्गीय स्त्री पात्र ‘कीर्ति’ का भी योगदान है जो अपने पति सदाशिव की इच्छा से स्वयं शोषित होना स्वीकार करती है। इसमें उच्च शिक्षा के अनेक प्राध्यापक भी हैं जो अपनी छात्राओं का यौन-शोषण करने में संलिप्त हैं। किन्तु उपन्यास की पूरी कथा सुगंधा के इर्द गिर्द घूमती है। इस कहानी में मूलत: सुगंधा के प्रति पितृसत्ता से सिंचित ‘कस्बाई मानसिकता’ के छद्म को दिखाया गया है।
पितृसत्तात्मक संस्कृति का प्रशिक्षण समाज में इतने गहरे तक समाया हुआ है कि उसकी जकड़न से निकल छूटना इतना आसान नहीं है जितना नायिका कल्पना कर लेती है। केवल व्यक्तिवादी होने मात्र से अधिकार अर्जित कर पाना संभव भी नहीं है क्योंकि अंतत: रहना तो उसी समाज में है जो अभी स्त्री को स्वतंत्र मनुष्य के तौर पर पहचान ही नहीं पाया है। नायिका बराबर स्त्रियों के दोयम दर्जे पर दुखी होती है। उसे यह भी समझ है कि स्त्री की कोई भी सामाजिक भूमिका हो वह पुरूषों द्वारा ही तय होती है। इसलिए वह सोचती है कि ‘स्त्री वेश्या बनती है क्योंकि पुरूष उसकी देह के बदले उसे पैसे देने को तैयार रहता है, स्त्री दासी बनती है क्योंकि पुरूष बदले में दूसरे पुरूषों से उसकी रक्षा करता है। पुरूष जो बनता है, स्त्री वह बनने को तैयार हो जाती है क्योंकि वह जीना चाहती है।’

किसी रचना का मुख्य पात्र एक वर्ग का प्रतिनिधि होता है जो उस वर्ग के अनेक मुद्दों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। इस उपन्यास में नायिका सुगंधा छोटे और मध्यम वर्ग के शहरों के ऐसे ‘स्त्री-वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने जीवन की स्वतंत्रता को किसी भी कीमत पर अक्षुण्ण रखना चाहती हैं। पुरूषों को वह प्राय: शोषक के रूप में देखती हैं। उनका विवाह संस्था में विश्वास नहीं है। किन्तु कथा में नायिका के चरित्र में एक स्पष्ट विरोधाभास दिखाई पड़ता है। वह न तो परिस्थितियों से हमेशा टूटती है और न ही वह उसके विरूद्ध हमेशा तनकर खड़ी ही रह पाती है फलस्वरूप उसकी नियति पेंडुलम जैसी हो जाती है। वह विद्रोह और समझौते के बीच में झूलती रहती है और उपन्यास के अंत तक उसका विद्रोह किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुँच पाता है। यद्यपि वह स्वयं को सामान्य स्त्रियों से अलग रखकर देखती है। यह उसने स्वयं स्वीकार किया है कि “मेरी जैसी औरतें अपवाद हो सकती हैं लेकिन किस सीमा तक?” स्पष्ट तौर पर नायिका कहना चाह रही है कि एक सीमा के बाद वह भी अपवाद नहीं रह जाएगी और उसकी नियति भी अन्य स्त्रियों की तरह हो जाएगी जो अपने वर्तमान से ऊब जाती हैं किन्तु अन्य विवाहिताओं की भांति उसका मन अन्य वस्तुओं से नहीं बहल सकता तो वह पुरूषों के चरित्र की तरह ही स्वयं के लिए अन्य पुरूषों को तलाश सकती है। (आगे चलकर ऋषभ और विशाल से उसके संबंध को इसी तलाश के रूप में क्यों न देखा जाए जिसके लिए वह पुरूषों को आरोपित करती रही है)। किन्तु इसे स्त्री-अधिकार या स्वतंत्र-निर्णय कैसे कह सकते हैं? यह तो पुरूषों के दुर्गुणों का स्त्री-संस्करण है। इसलिए नायिका की दैहिक आजादी की कामना को देखकर कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि वह ‘स्त्री-अधिकार’ की नहीं बल्कि ‘निजता के अधिकार’ की मांग करती हुई प्रतीत होती है। स्त्रियों की सार्वभौमिक समस्यायों पर विचार करते हुए भी वह व्यक्तिवादी ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि वह प्रतिरोध के संस्कृति की सार्थक प्रतीक नहीं बन पाती है। हम सभी यह समझते हैं कि केवल व्यक्तिवादी होकर पितृसत्ता की सामन्ती मानसिकता को चुनौती देना संभव नहीं है। उसके लिए तो तमाम स्त्रियों को ‘भगिनीभाव’ से जुड़कर पहले एक प्रतिरोध की संस्कृति तैयार करनी होगी। अन्यथा प्रत्येक कस्बाई सिमोन की चाहत रखने वाली स्त्री सुगंधा की नियति को ही प्राप्त होगी।
उपन्यास में एक और महत्वपूर्ण बात खटकती है कि नायिका ‘सुगंधा’ का बचपन और किशोरावस्था जितना उथल-पुथल भरा रहा है उसकी अपेक्षा उसका मानसिक संघर्ष और अंतर्द्वंद्व नदारद हैं जो उसके चारित्रिक विकास के लिए आवश्यक था इसलिए उसके चारित्रिक विकास की क्रमबद्धता भी स्पष्ट नहीं हो पाती है। उसका बचपन और किशोरावस्था यहाँ तक कि उसकी युवावस्था भी बड़े शर्मीले और लजीले ढंग से बीत गई। एकाध बार उसे अपनी ‘नूतन’ मौसी और अपनी दोस्त ‘रीता’ से शारीरिक इतिहास भूगोल का सामान्य परिचय तो मिला किन्तु उसमें गहराई नहीं थी। स्त्री-अधिकार, उसकी नियति, त्रासद परिस्थितियों को लेकर उसकी कभी किसी से कोई बहस नहीं हुई। यहाँ तक कि अनेक विषमताओं से जूझती अपनी माँ से भी उसकी कभी कोई बहस-विवेचना नहीं होती है। फिर उसके मन में ‘स्त्री-अधिकारों’ को लेकर इतनी रेडिकल सोच कब और कहाँ से विकसित होना प्रारम्भ हुई कि वह विवाह संस्था के खिलाफ होकर ‘कस्बाई सिमोन’ बनने की राह पर निकल पड़ती है क्योंकि मानसिक स्तर पर घटित परिवर्तन ही व्यवहारिक स्तर पर घटित होते हैं जो प्राय: किशोरावस्था में तैयार होते हैं लेकिन यहाँ पर नायिका के किशोरावस्था में कोई विशेष अंतर्द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष दिखाई नहीं पड़ता।
स्त्री के शोषण का सबसे प्रमुख माध्यम उसकी ‘देह’ है। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका ‘अनामिका’ जी ने तो इसे बड़े खुले मन से स्वीकार करते हुए लिखा है कि “स्त्री के किसी भी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसकी देह होती है इसलिए उसके लेखन के केंद्र में स्त्री-देह का होना स्वाभाविक है।” संभवत: इसलिए इस उपन्यास की नायिका के स्त्री-स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग में केवल यौन-स्वतंत्रता की मांग ही प्रमुख रूप से उभरी है। वह आर्थिक रूप से आजाद है इसलिए इसके बाद वह अपनी देह के अधिकार को चुनना चाहती है किन्तु यहाँ भी वह भावुकता से भरे दैहिक प्रेम में उलझ जाती है। यही कारण है कि उसका कोरी भावुकता से भरा प्रेम उसे औसत भारतीय स्त्री की तरह प्रदर्शित करता है जहाँ वह आखिर तक अपने संबंध को बनाए और बचाए रखना चाहती है। वह हमेशा पलायन करती है, कभी मोहल्ले से, कभी गली से, कभी शहर से भी तो कभी खुद से लेकिन उस कोरी भावुकता को नहीं छोड़ पाती जो स्त्री को कमजोर करता है। वह औसत प्रेमिका की भांति अपने अन्य प्रेमियों में भी पहले प्रेमी को ढूंढती है। वह स्वयं स्वीकार करते हुए कहती है- “मैं उससे बहुत प्रेम करती थी और अब कहना कठिन है कि मेरे मन में उसके प्रति कितना प्रेम शेष है। फिर भी वह मेरे साथ हमेशा रहता है, सशरीर , एक प्रभाव बनकर, एक छाया बनकर। मै किसी भी पुरूष को देखती हूँ या किसी पुरूष के ताप को अनुभव करना चाहती हूँ तो मेरा मन उससे तुलना करने लगता है।”
क्या रचनाकार के मन का अंतर्द्वंद्व नायिका के चरित्र में उभरा है कि वह निर्णय नहीं कर पा रही है कि आखिर गलत कौन है? और किसके विरोध में खड़ा होना है?- पुरूष, समाज, विवाह या इन सबकी नियामक पितृसत्तात्मक संस्कृति? क्योंकि अपने विचारों में तो नायिका पुरूषों को बराबर कटघरे में खड़ा करती है। यहाँ तक कि अपने प्रेमी ‘रितिक’ के विषय में भी वह पहले से अवगत है फिर भी उसे पुरूषों से कोई आपत्ति नहीं है बस वह ‘विवाह-संस्था’ में विश्वास नहीं रखती क्योंकि उसके सामने अनगिनत असफल विवाहों की गाथा है जिसमें स्वयं उसके माता-पिता भी हैं। इसे उसने स्वीकार किया है “वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही था वह जो किसी फॉसिल के सामान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।” अजीब विडंबना है जब वह स्त्रियों के शोषक के रूप में पुरूषों को पहचान रही है (जैसा कि उसके अनेक वक्तव्यों से स्पष्ट होता है) तो उसे विवाह के साथ-साथ पुरूषों से नफरत होनी चाहिए थी।
नायिका के हृदय में रितिक के लिए भावनाएं अवश्य हैं किन्तु उसके प्रति प्रेम दैहिक स्तर पर ही पनपा है क्योंकि उससे पहली मुलाकात में बारिश से भीगने पर वह अपनी देह को ही निहारती है। उसे महसूस होता है कि इस देह में वह सब कुछ है जो रितिक को आकर्षित कर सकता है। चूंकि 28 वर्ष की उम्र में भावावेग की अपेक्षा दिमाग का जोड़ घटाव अधिक सक्रिय रहता है इसलिए यहाँ निर्णय में भावना का स्थान देह के बाद ही है। भले ही वह यह कहती है कि “कोई हो जो सिर्फ मुझे प्यार करे सिर्फ मुझे” लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दैहिक जरूरतों और आकर्षण के कारण ही वह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना चाहती है। उसने इस रिश्ते में बराबरी के स्तर पर जीवन जीने की चाहे जितनी भी कोशिश की, अंतत: वह दोयम दर्जे की पार्टनर ही रही। रितिक की इच्छाएँ उससे पहले रहीं। वह न जाने कितनी बार अपराधबोध से ग्रसित हुई थी जिसे वह व्यक्त भी नहीं कर पाती थी। जैसे शारीरिक संबंधों के दौरान गर्भनिरोधक का प्रयोग करना केवल उसकी जिम्मेदारी बन गयी थी। इस बात की उसके मन में गहरी टीस भी थी किन्तु वह उसे अभिव्यक्त नही कर पाती है- “इस बात को लेकर कभी-कभी मेरा मन उदास हो जाता। इसे सम्भोग कहते हैं न? अर्थात दोनों पक्ष समान रूप से एक दूसरे का उपभोग करें। लेकिन गर्भ निरोधक के प्रश्न पर समानता कहाँ चली जाती है? यदि प्रकृति ने स्त्री को गर्भधारण की क्षमता प्रदान की है तो वही चिंता करे, गर्भ न ठहरने की, यह तो सम्भोग नहीं हुआ न!”
कस्बाई सिमोन बनने की चाहत रखने वाली सुगंधा (यद्यपि वह स्वीकार कर चुकी है कि भारतीय समाज में ‘सिमोन’ बन पाना उसके लिए संभव नहीं है) केवल विवाह नहीं चाहती थी। उसे पुरूष संसर्ग से कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आगे अतिनाटकीय क्रम में जब उसने ऋषभ जैन से संबंध जोड़ा तो उसकी पत्नी की कोई परवाह न करके उसके अधिकारों का भी हनन किया। इस दृष्टि से यहाँ पर स्त्री-अधिकार की अपेक्षा भोगवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता दिखाई दे रहा है। यह उसे ऐसे अवसरवादी व्यक्ति के रूप में चित्रित करता है जो अपनी की दैहिक तृप्ति को ही मुख्य मानती है। इससे उपन्यास की ‘स्त्री-चेतना’ समृद्ध न होकर कुछ छीजती ही है।
उपन्यास के अंतिम पड़ाव पर सुगंधा को विशाल पटेल के रूप में एक और पुरूष साथी मिलता है जो पहले दो साथियों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत और चेतना सम्पन्न है। अब पुन: दैहिक तृप्ति की एक नई कहानी प्रारंभ हो गई। यद्यपिइस संबंध की प्रकृति भी स्थाई नहीं रहने वाली है क्योंकि विशाल का अपना एक भरा-पूरा परिवार है। लेकिन उससे सुगंधा की नियति में क्या फर्क आएगा! उसका भविष्य तो अब भी अनिश्चय के अँधेरे में है। फिर उपन्यास के समापन पर नायिका के चहरे पर जो प्रसन्नता है वह क्या वह क्षणिक दैहिक तृप्ति के कारण आई है? रचनाकार ने संभवत: मुस्कुराहट की ओट लेकर उसका भविष्य पाठकों की कल्पना पर छोड़ दिया है। फिर भी पाठक के सामने कुछ प्रश्न बने रह जाते हैं कि आखिर कहानी के अंत में क्या हासिल हुआ? आखिर ‘कस्बाई सिमोन’ की नियति क्या है?
कोई भी रचना उसके सर्जक की विशिष्ट साधना का प्रतिफल होती है जिसमें वह पात्रों के रूप में सामाजिक प्रतिनिधियों को रखता है। (जैसा कि हमने लेख के प्रारम्भ में भी स्वीकार किया है।) प्राय: पाठक उन्हें स्वतंत्र व्यक्ति या सत्ता न समझकर उस वर्ग का प्रतिनिधि समझते हैं। यदि इस उपन्यास में पुरूष पात्रों को उनके वर्ग का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए तो पाठकों का अनेक संस्थाओं से भरोसा ही समाप्त हो जाएगा। संभव है कि रचनाकार के अपने अनुभव रहे हों या कहानी का दबाव रहा हो जिससे उपन्यास के प्राय: सभी पुरूष पात्र चारित्रिक दृष्टि से भ्रष्ट और धूर्त हैं। खास तौर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के अध्यापक, जिनका अपनी छात्राओं से अनिवार्यत: शारीरिक संबंध है। क्या कथाकार ने चुन-चुनकर ऐसे ही पात्रों को कथा में स्थान दिया है! अन्यथा मेरा मानना है कि इस तरह के अतिवाद से बचा जाना चाहिए था। क्या पूरी पुरूष जाति को नकार कर महिला सशक्तिकरण आन्दोलन कोई स्वस्थ सामाजिक संरचना विकसित कर सकेगा? वास्तव में स्त्रीत्ववाद को स्त्री और पुरूष में से बेहतर मनुष्यों को एकसाथ लाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें स्त्रियों के पुरूष संस्करण न रचते हुए स्त्री-पुरूष समभाव पर आधारित समाज बनाया जा सके ।
उपन्यास लेखन की सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि रचनाकार अपने पाठक को विषय से भटकने न दे, उसे अपनी कल्पना के कानन में विचरण करने दे किन्तु उसकी नजर से वह स्वर्ण पंक्षी ओझल न होने दे जो उसका लक्ष्य है। यह उपन्यास एक हद तक ही इस कसौटी पर खरा उतरता है। इसमें रोचकता है जो इसे एक बैठक में पढ़ने को प्रेरित करती है। इसमें लेखिका के पहले उपन्यास पिछले पन्ने की औरतेंजैसी उपदेशवृत्ति तथा तथ्यात्मक आंकड़ों की नीरसता नहीं है। मार्मिक विषय और रोचक प्रस्तुति ने इसकी कहानी को बोझिल नहीं बनने दिया है। यह पाठक को अंत तक अपने से बांधे रखती है। अकेली औरत की चुनौतियों से दो-चार करवाती हुई इस कृति में लेखिका के नारी संबंधी जो विचार नायिका के माध्यम से व्यक्त हुए हैंवे बड़े उत्तेजक हैं। सबसे अच्छी बात है की ये विचार स्त्री की भावना के रूप में व्यक्त हुए हैं जो उपन्यास के कथातत्व से घुल मिल गए हैं तथा कथावस्तु के प्रवाह में बाधक नहीं बने हैं बल्कि उपन्यास के उद्देश्य को ही रेखांकित कर रहे हैं। कहानी के वर्णन में पूर्वदीप्ति शैली का प्रयोग इतना सुन्दर और कुशलता से किया गया है कि उससे पाठक का रसबोध कम नहीं होता है। कुछ एक प्रसंगों को छोड़ दिया जाय तो संवाद-संयोजन भी बेहतर हैं,उसमें बनावटीपन नहीं है। वह पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करने में सक्षम हैं।
यह उपन्यास लेखिका के पहले दोनों उपन्यासों से केवल रचनाकाल में ही आगे नहीं बढ़ा है बल्कि इसमें गुणात्मक अभिवृद्धि भी हुई है। यह एक प्रौढ़ रचना है जो रोमांचक और पठनीय है।  ‘स्त्री-चेतना’ के प्रति रुचि रखने वालों के लिए इसे जरूर पढ़ना चाहिए।

(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। शरद सिंह ने अपनी औपन्यासिक कृतियों से स्त्री विमर्श में एक गहरी छाप छोड़ी है। शत्रुघ्न सिंह ने शरद सिंह का उपन्यास कस्बाई सिमोन पढ़ते हुए मुझसे कुछ विचार साझा किए थे। हमारे अनुरोध पर उन्होने इसकी गंभीर मीमांसा की है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)
डॉ. शत्रुघ्न सिंह
सहायक आचार्य हिंदी विभाग
श्री भगवान् महावीर पी.जी. कॉलेज पावानगर फाजिलनगर कुशीनगर


सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : उदात्त अवधारणा का पतनशील रूप - गिरीश कर्नाड का नाटक ययाति


        गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' पढ़कर उद्विग्न हूँ। बसंत पंचमी के दिन पौराणिक आख्यान पर केंद्रित इस नाटक को पढ़ने के लिए लिया था। दो अंक पढ़कर आगे पढ़ने की इच्छा नहीं हुई थी। कल रविवार को पुनः लिया और पढ़ ही लिया। देर शाम पढ़कर जैसी उद्विग्नता ने अपना पाँव पसारा, वह देर रात तक प्रभावी रहा और आज भी यदा कदा छा जाता था। 
      गिरीश कर्नाड का नाटक 'हयवदन' इससे पहले पढ़ चुका था और उसमें जो प्रयोग किया गया था, उससे परिचित था। यद्यपि उस बेहतरीन नाटक में गिरीश कर्नाड ने विवादित बनाने के लिए मसाला डाला है लेकिन उसे भी अभिनव प्रयोग माना मैंने। जैसे अच्छे खासे पौराणिक आख्यान लगने वाले हयवदन में राष्ट्रगीत, देश प्रेम आदि को लेकर चुभने वाली बातें की गयी हैं।


ययाति पढ़ते हुए मेरे मनोमस्तिष्क में ययाति की कथा थी। ययाति होना एक मानसिक सिंड्रोम है। वृद्धावस्था से सब भयभीत होते हैं और युवा बने रहना चाहते हैं। ययाति की कथा में आता है कि लंबे समय तक भोग विलास में लिप्त रहने के बाद भी सुखोपभोग की उनकी कामना तृप्त नहीं हुई थी। उन्होंने अपनी पत्नी देवयानीजो राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य की बेटी थींकी सखी शर्मिष्ठा को अपनी वासना का शिकार बनाया। एक शर्त के अनुसार शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर रहना था। ययाति ने शर्मिष्ठा की सुंदरता पर मोहित होकर याचना की थी। शर्मिष्ठा के साथ वह कुछ वर्षों तक क्रीड़ामग्न रहे। जब देवयानी को पता चला तो उन्होंने शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य से ययाति को शाप दिया था कि यदि वह देवयानी के अतिरिक्त किसी के साथ संभोग करेंगे तो वह वृद्ध हो जाएंगे। शर्मिष्ठा से संबंध बनाने के क्रम में ययाति वृद्ध हो गए। लेकिन उनकी क्षुधा शमित नहीं हुई थी। अतः उन्होंने अपने पुत्रों से याचना की कि उनमें से कोई अपनी जवानी उन्हें दान कर दे और बदले में उनका बुढापा ले ले। उनके छोटे पुत्र पुरु ने ऐसा ही किया। कथा में है कि एक सहस्त्र वर्ष तक सुखोपभोग करने के बाद ययाति को ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा-

"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥"

अर्थात, 'हमने भोग नहीं भुगतेबल्कि भोगों ने ही हमें भुगता हैहमने तप नहीं कियाबल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैंकाल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गयेतृष्णा जीर्ण नहीं हुईपर हम ही जीर्ण हुए हैं!इस ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने पुरु को उनका वय लौटा दिया और स्वयं वैरागी हो गए।
      ययाति की चर्चा इसी परिप्रेक्ष्य में होती है कि भोग और तृष्णा कभी नहीं मरती। हमें इस सार्वभौमिक सत्य को ध्यान में रखना चाहिए। ययाति का चरित्र इस ज्ञानप्रकाश की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  
        जब गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' हाथ में आया तो मैं हयवदन के प्रयोगों से परिचित था। इसलिए मुझे कुछ चौंकाने वाले प्रसंगों की अपेक्षा थी। इस नाटक का आरम्भ भी देवयानी और शर्मिष्ठा के इसी तरह के लगभग झोंटा-झोंटव्वल से शुरू होता है। दो सखियों का संवाद- जो कालांतर में एक शर्तवश मालकिन और दासी की भूमिका में हैं- बहुत छिछले स्तर का है। हम राजघरानों या कुलीन परिवारों के विषय में ऐसी छवि के साथ रहते हैं कि यहां विवाद भी सभ्य शब्दावली में होते हैं लेकिन देवयानी और शर्मिष्ठा का संवाद सड़क छाप मवालियों जैसा है। यह कहीं से नहीं लगता कि यह मालिक और दास का संवाद है। फिर उनके पूर्व जीवन का प्रसंग ऐसा ध्वनित होता है जैसे दोनों में समलिंगी रिश्ता रहा हो। ययाति भी एक लुच्चे राजा की तरह चित्रित हुए हैं। शर्मिष्ठा छल से उन्हें आवेष्टित करती है। इसमें प्रसंग आया है कि देवयानी को शर्मिष्ठा ने ईर्ष्यावश कुंए में धकेल दिया था। वह कुंए में पड़ी कराह रही थी कि ययाति उधर से गुजरे। उन्होंने देवयानी का दाहिना हाथ पकड़ कर बाहर खींचा। देवयानी ने कहा कि दाहिना हाथ पकड़ने के प्रभाव से आप ने मुझे अंगीकृत किया है। ययाति देवयानी को ब्याह कर ले आये। शर्मिष्ठा भी आई। दासी बनकर। नाटक में शर्मिष्ठा वही जुगत लगाती है। वह जहर खाने का उपक्रम करती है और उसे बचाने में ययाति दाहिना हाथ पकड़कर रोकते हैं। वह इसी आधार पर उनसे प्रणय निवेदन करती है। ययाति उसके साथ आबद्ध हो जाते हैं। यह जानकर देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य के साथ चली जाती है। शाप मिलता है। उसी दिन पुरु अपनी नवविवाहिता चित्रलेखा के साथ लौटता है। चित्रलेखा ने पुरु का वरण राजसी ठाठबाट के चक्कर में किया है। वह पुरु को हीन मानती है। सब घटनाएं इस तरह पिरोई गयी हैं कि सभी पात्र छुद्र दिखने लगते हैं। पुरु ययाति का शाप ओढ़ लेता है। चित्रलेखा विषपान कर लेती है। तब ययाति पुरु को उसकी जवानी वापस कर देते हैं।
         नाटक में समयावधि को तर्कसंगत बनाने के लिए यह सब एक ही दिन में घटित होते हुए दिखाया गया है।  और ययाति इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान भोग की पराकाष्ठा पर पहुंचने से प्राप्त ज्ञान नहीं है- यह कलह से प्राप्त ज्ञान है। -"त्याग से डरकर भोग की ओर गया पर इस अकाल यौवन से वह भी प्राप्त नहीं हो सका।" 
        इस नाटक को पढ़ते हुए बारम्बार यही ध्यान बनता रहा कि क्षुद्र मानसिकता के साथ क्या महान विचार आ सकते हैं? कदापि नहीं।
गिरीश कर्नाड इसी न्यूनता का शिकार बन गए हैं।
      नाटक की भाषा भी गजब है। जहां वैचारिक स्तर पर क्षुद्रताओं का बोलबाला है, कोई सतही और स्तरहीन बात की जा रही है वहाँ भाषा श्लिष्ट और तत्सम प्रधान है। जहां वैचारिक रूप से कोई मूल्यवान अंकन किया जा रहा है वहाँ साधारण। नाटक के आखिर में ययाति कहते हैं- "अपने किए पापों को अरण्य में व्रत करके धोना है। यौवन इस नगर में बिताया है, बुढ़ापा अरण्य में बिताऊँगा।" मुझे यहां अरण्य शब्द का प्रयोग खटका। लेकिन यह तो एक बानगी है। समूचे नाटक में कई स्तरों पर कई ऐसे बिंदु मिलते हैं, जो खटकते हैं और विचार करने को उकसाते हैं कि आखिर इस नाटक को इस रूप में प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता थी!
       ययाति पढ़कर जैसी उद्विग्नता कल पूरे दिन रही- वैसा मैंने पिछले कुछ वर्षों में कभी अनुभूत न की थी।
       एक उदात्त अवधारणा का इतना पतनशील रूप - ओह!


मंगलवार, 14 जनवरी 2020

कथावार्ता : किस्सा किस्सा लखनउआ : अज़ीम शहर के अजीज किस्से

       किस्सा और चुटकुला में बुनियादी अंतर है। दोनों ही कहन की चतुराई चाहते हैं और दोनों में एक ऐसा बिन्दु रहता है-जहां से बात खुलती है। चुटकुले में खुलती है तो हास्य बनता है और किस्सा में आश्चर्य अथवा हास्य अथवा चौंकाने वाली कोई चीज हो सकती है। किस्सा में तफसील अधिक रहती है। किस्सागो का ध्यान उन वर्णन पर अधिक रहता है जिससे माहौल बनता है। चुटकुला में माहौल उतना  मायने नहीं रखता जितना किस्से में। किस्सा इस बात पर अधिक रोचक हो जाता है, जब यह हमारे जाने/अनजाने के किसी शख्सियत से सम्बद्ध हो जाता है।
       राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हिमांशु बाजपेयी की किताब "किस्सा किस्सा लखनउआ" लखनऊ के किस्सों की विशिष्ट पुस्तक है। इस किताब को पढ़ने के बाद आपको अपने शहर से प्यार हो जाएगा और  लखनऊ से रश्क। आप इन्हें पढ़ते हुए बारम्बार अपने शहर के किस्सों को याद करने की कोशिश करेंगे। लखनऊ के किस्सों को पढ़ते हुए मुझे अपने गाँव, शहर गाजीपुर, प्रयागराज, दुद्धी और इटावा के कई ऐसे वाकये याद आये जो बैठकबाज़ लोग रस ले लेकर सुनाते थे/हैं। हमलोगों ने मुल्ला नसीरुद्दीन, हातिमताई, तेनालीराम, अकबर-बीरबल आदि के किस्से खूब पढ़े/सुने हैं।  हमलोगों ने ग्रामीण लोगों से अकिला फुआ के बहुत से किस्से सुने हैं। किस्सा किस्सा लखनउआ इस मामले में विशिष्ट है कि यह किसी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं है। यह शहर पर केंद्रित है। और शहर भी कैसा? संस्कृति का एक जीता-जागता बाड़ा। लखनऊ इस मामले में भी विशिष्ट है कि इस शहर में पुराने के प्रति गहरा लगाव है तो नया बनने की गहरी छटपटाहट। नवाबी शान इतनी जबर चीज है और इसको इतना ग्लैमराइज किया गया है कि यह लखनऊ की विशेष पहचान बन गया है। शहर बनारस में फक्कड़पन है, मस्ती है जबकि लखनऊ में एक अदा है। यह अदा ही इस शहर को अद्भुत बनाता है। यहां का नवाब वाजिद अली शाह एक मिसाल बन गया है तो इस शहर के किस्से भी उसी के अनुरूप दिलचस्प और रोचक बन गए हैं।


     
        हिमांशु बाजपेयी की विशिष्टता यह है कि वह शहर लखनऊ के किस्से कहते हुए हर तरह के 'टेस्ट' को जगह देते चलते हैं। अमृतलाल नागर, 'सुरियाकांत तिरपाठा निराली', बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस से लेकर अदब की दुनिया के कई लोगों की कहानियों से लेकर पनेड़ी, चायवाले, इक्केवाले, कोठागोई आदि की कहानियां भी इसमें आ गयी हैं। अदब की दुनिया जहाँ नफासत वाली है, सड़क और गलियों की दुनिया वहीं रोचक हैं। हिमांशु बाजपेयी सबको उसी रस और भावभंगिमा के साथ सुनाते चलते हैं। हर किस्सा एक उम्दा शेर के साथ और मानीखेज होता गया है। लखनऊ की संस्कृति को अभिव्यक्त करते छोटे छोटे किस्से एक बैठक में पढ़/सुन लिए जाने के लिए उकसाते हैं।
       "किस्सा किस्सा लखनउआ" में लखनऊ है और अवध है। इसमें जो अवध है और जो जनसंख्या है वह मुग़लिया सल्तनत, इस्लाम और उर्दू के प्रभाव में है। शायद किस्सों की यही सीमा होगी। इस किताब में  जो अवध है वह पुराना तो है लेकिन बहुत पुराना नहीं है। इसमें मूल अवध का कोई किस्सा नहीं। शायद शासन ने लोगों की स्मृति पर एक कूँचा फेर दिया है।
"किस्सा किस्सा लखनउआ" एक बैठक में पढ़ जाने वाली किताब है। यह एक से एक किस्सों की पोटली है। इसे पढ़कर आपको उर्दू पोइट्री से और प्यार हो जाएगा। क्योंकि हर किस्से में किसी न किसी शायर की एक झलक है। इस शहर से प्यार हो जाएगा। आप लखनऊ जाएंगे तो वहां इसमें वर्णित तहजीब और तरतीब खोजेंगे। लेकिन जैसा कि नियति है- किसी भी शहर को जानना हो तो उस शहर में रमना पड़ता है- उसमें समय देना पड़ता है। आप पर्यटक बनकर उस शहर की नब्ज को नहीं पकड़ सकते। उस नब्ज को जानने/पकड़ने के लिए उस शहर का होना पड़ता है। आज जब हम एक ऐसी ग्लोबल और आवारा पूँजी प्रवाह के दौर में हैं, जहां एकरेखीय संस्कृति का हरओर विस्तार हो रहा है तब इस नब्ज को पकड़ना और भी कठिन है। हिमांशु बाजपेयी ने किस्सा किस्सा लखनउआ में उसे पकड़ने की कोशिश की है और यह बेहतरीन प्रयास है। हर उस व्यक्ति को, जो अपने आसपास को शिद्दत से चाहता है, उसे आसपास के किस्सों को लिपिबद्ध करना चाहिए। और जिसे यह प्यार करना सीखना है- उसे "किस्सा किस्सा लखनउआ" जरूर पढ़ना चाहिए।

फेसबुक पोस्ट और उसपर आई टिप्पणियों को यहाँ भी पढ़ सकते हैं। किस्सा किस्सा लखनउआ

शनिवार, 30 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण जीवन का आईना है - लोकऋण

        ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास लोकऋण कई मायने में विवेकी राय के ललित निबंधकार व्यक्तित्व का आईना है। ग्रामीण जीवन विवेकी राय के समूचे रचनाकर्म में बसा हुआ है और उसकी अभिव्यक्ति भी उन्होंने बहुत मार्मिक तथा ग्रामीण प्रगल्भता के साथ की है। उनके ललित निबंधों- विशेषकर- फिर बैतलवा डाल पर और मनबोध मास्टर की डायरी तथा वृहदाकार उपन्यास सोना-माटी में विवेकी राय का ग्रामीण जीवन बहुत कलात्मक अभिरुचि के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इस उपन्यास में भी यह यत्र-तत्र देखी जा सकती है।
     लोकऋण; देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण की तर्ज पर परिकल्पित है। जहाँ की मिट्टी में जन्म लिया, पले-बढ़े, यश और गौरव हासिल किया। एक निर्बाध और सफल जिंदगी जी, उस मिट्टी का, उस वातावरण का, उस परिवेश का, उसमें रचे-बसे आब-ओ-बतास का कर्ज लोकऋण है।
      उपन्यास में आजादी के बाद बह रहे विकास की अनियंत्रित बयार में गाँव में हो रहे बदलाव को रेखांकित करने की कोशिश की गयी है। आजादी के बाद लोगों में सामूहिकता की भावना के क्षय के कारण ग्रामीण जीवन में आ रही क्षुद्रताओं और उससे उत्पन्न स्थितियों की कथा इस उपन्यास में कही गयी है। यह उपन्यास सन 1971-72 के आस पास के समय को अपनी कथा का काल और गाजीपुर के एक गाँव 'रामपुर' को केंद्र ने रखकर लिखा गया है। कथा का प्रमुख चरित्र गिरीश इलाहाबाद में अध्यापन करता है और अपनी तमाम क्षुद्रताओं के बावजूद ग्रामीण जीवन के प्रति मोहाविष्ट है। वह गाँव की दिक्कतों से आजिज आकर इलाहाबाद में बसने की पूरी तैयारी कर लेता है, यहाँ तक की अवकाश की प्राप्ति के कुछ समय पहले वह एक घर अपने नाम लिखवा भी लेता है लेकिन मन उसका गाँव में रमता है।
       गाँव में सभापति का चुनाव होने को होता है और गिरीश सहित गाँव के गणमान्य व्यक्तियों का मानना है कि यह चुनाव सर्वसम्मति से होना चाहिए। लेखक गाँधीवादी विचारधारा का हिमायती है अतः वह स्पष्ट रूप से मानता है कि ग्रामीण समस्याएं आपस में मिल बैठकर हल की जानी चाहिए। इसीलिए चकबंदी के प्रकरण में या सुरेंद्र के रेहन रखे खेत के प्रकरण में यही होता दीखता भी है। सभापति के चयन में पूर्व सभापति और गिरीश के दबंग भाई के बीच मुकाबला होना लगभग तय हो जाता है और इसके लिए तमाम दुरभिसंधियां होने भी लगती हैं। गाँव खेमे में बंट जाता है और ऐसे माहौल में बहुत सी अप्रिय घटनाएं हो जाती हैं। गिरीश को ऐसे माहौल में ऐसे द्वंद्व का सामना करना पड़ता है कि वह आजिज आकर भाग जाता है लेकिन ऐन नामांकन से पहले लौटता है। गाँव के प्रबुद्ध लोगों की गंभीर सभा में यह तय होता है कि वह निर्विरोध सभापति बनेगा। इस निर्वाचन के समय ही उसकी अवकाश प्राप्ति है अतः कोई दूसरी बाधा भी नहीं है।
       अचानक, गिरीश के सभापति बनने की बात से एक चीज तो स्पष्ट लगती है और कथाकार ने ऐसी मान्यता रखी भी है कि पढ़े लिखे लोगों को वापस गाँव लौटना चाहिए ताकि वह 'लोकऋण' उतार सकें और अपनी सूझबूझ और दूरदृष्टि से ग्रामीण जीवन में उजाला भर सकें। सबको वापस लौटना ही चाहिए। गिरीश का लौटना इसी ऋण को उतारने के लिए है। वह शिक्षा की रोशनी को पुनः गाँव में लाना चाहता है और समरसता बनाने का इच्छुक है। पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान कोशिशों में एक पहल ग्रामीण जीवन में वापसी भी है, जहां अभी भी समाज पूरी तरह से उपभोक्तावादी नहीं हुआ है और प्रकृति की एक स्वाभाविक कड़ी गतिमान है।
        उपन्यास में विवेकी राय ने बहुत चतुराई से ऐसी संरचना की है कि आखिर में गिरीश गाँव लौट आये। यद्यपि रामपुर गाँव गाँधीवादी आंदोलनों से संचालित होता रहा है और ग्रामीण उत्थान के तमाम काम वहां शुरू हो चुके थे लेकिन कालांतर में यह क्षीण पड़ रही थी, जिसे और धार देने की जरूरत सब महसूस करते हैं।यह उपन्यास गाँधीवादी विचारधारा को लेकर चलता है और उसका सम्यक निर्वाह करता है। उपन्यास में ग्रामीण जीवन अपने कहन में बहुत ईमानदारी से मौजूद है और गाँव की सोंधी सुगंध को लेकर चलता है। कथाकार गाँव की कथाएं, कहावत और मुहावरे तथा लोकोक्तियों को बहुत रस लेकर कहता-सुनता चलता है। खासकर जहाँ सुर्ती-बीड़ी, नसा-पताई का जिक्र होता है, जहाँ कउड़ा जलने की बात होती है, पहल पड़ने और कथा कहने सुनने की बात होती है, वहां उनका ग्रामीण और निबंधकार मन खूब रमता है।
       गाँव की संस्कृति को जानना समझना हो तो इसे जरूर पढ़ा जाय।

शुक्रवार, 14 जून 2019

कथावार्ता : पालतू बोहेमियन यानी मनोहर श्याम जोशी की याद

जब मैं कोई अच्छी किताब पढ़ने लगता हूँ तो यह भावना मन में घर करने लगती है कि अगर यह जल्दी ही पढ़ ली जाएगी तो कैसा लगेगा! फिर एक उदासी, सूनापन, रिक्ति का अहसास घर करने लगता है क्योंकि उसे पढ़ते समय जैसी समृद्धि रहती है वैसी उसके आखिरी शब्द पढ़ने के बाद नहीं रहेगी। बीते दिन भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पानी पर पटकथा पढ़ते हुए भी यही भावना मन में थी और उसका एकाध निबंध अभी भी नहीं पढ़ सका हूँ।


आज उल्लेख करना है #प्रभात_रंजन की पुस्तक #पालतू_बोहेमियन की। यह कृति प्रख्यात साहित्यकार और धारावाहिक लेखक मनोहर श्याम जोशी को याद करते हुए लिखी गयी है। मैंने प्रभात रंजन द्वारा अनुदित एक किशोरी की डायरी पढ़ी है, उनका उपन्यास कोठागोई मुझे किस्सा शैली का बेहतरीन उदाहरण मानने में कोई संकोच नहीं होता। उनकी कहानियां, विशेषकर जानकीपुल ने बहुत कीर्ति अर्जित की है। यह कृति मनोहर श्याम जोशी को याद करते हुए लिखी गयी है तो इसे पढ़ने के कई कारण हैं। मनोहर श्याम जोशी को पसंद करने के कई कारण हैं। उनका उपन्यास 'कसप' किशोर जीवन का सबसे शानदार आख्यान है। जब हमने उनका उपन्यास 'हमजाद' एमए के दिनों में पढ़ा था तो हम उनसे मोहाविष्ट थे और हमजाद के चरित्रों को अपने आसपास खोजते और थुक्का फजीहत करते थे। उनकी और भी किताबें मसलन ट-टा-प्रोफेसर, क्याप और हरिया हरक्यूलिस की कहानी ने हमलोगों को बहुत आकर्षित किया था।
प्रभात रंजन की यह किताब अपने शीर्षक के कारण भी आकर्षक लगी थी और मन में इच्छा थी कि मनोहर श्याम जोशी जैसे 'असामाजिक' लेखक ने कैसा जीवन जिया, इसे जरूर जाना जाए। वह अपने लेखन के प्रति बहुत सजग थे और यही करना चाहते थे। यह समर्पण भाव उन्हें बड़ा भी बनाता है और उनके प्रति श्रद्धा भाव भी जगाता है।

प्रभात जी ने इसका हवाला देते हुए लिखा भी है कि जोशी जी अक्सर इस बात पर रंज प्रकट करते थे कि हिंदी में लेखन को लेकर समर्पण भाव का अभाव है, इसलिए उम्दा लेखन का भी टोटा रहता है।
पालतू बोहेमियन मनोहर श्याम जोशी के जीवन के कई पहलू उजागर करती है और प्रभात रंजन ने उनके साथ जिये समय को बहुत आत्मीयता और साफगोई से अभिव्यक्त किया है। यह किताब न सिर्फ जोशी जी के जीवन और लेखन के विविध पक्षों को उद्घाटित करती है अपितु लिखने,  लेखन के प्रबंधन और पढ़ने के तौर तरीके भी सिखाती है। इस किताब में कई ऐसे प्रसंग हैं जहां से नए और पुराने लेखकों को सबक मिल सकता है।
इस पुस्तक के विवरण से पता चलता है कि प्रभात रंजन उनके बेहद करीबी रहे हैं और उन्हें अच्छे से जानते बूझते रहे हैं। उन्होंने मनोहर श्याम जोशी के जीवन के कई ऐसे प्रसंगों पर विस्तार से लिखा है जब वह जरूरतमंद लोगों की आगे बढ़कर मदद करते थे और इसका श्रेय भी नहीं चाहते थे।
पालतू बोहेमियन कई दिन से पढ़ रहा था। एक अध्याय पढ़कर दूसरा कुछ पढ़ने लगता था, लेकिन आज मिले कुछ निराशाजनक खबरों के बीच इसे पढ़कर पूरा कर लिया। यह पुस्तक अपने आखिरी पन्नों में शोक विह्वल कर देती है जब मनोहर श्याम जोशी के न रहने का वृतांत लेखक शब्दबद्ध करता है।
अपने लिखे/पढ़े/अधूरा छोड़ दिये/योजना में शामिल साहित्य, पत्रकारिता, धारावाहिक और फ़िल्म को लेकर मनोहर श्याम जोशी की भावना का बेहतरीन अंकन करने में प्रभात रंजन कामयाब रहे हैं।
इस किताब की भूमिका पुष्पेश पंत ने लिखी है जो मनोहर श्याम जोशी को पहाड़ के दिनों से यानि उनके आरम्भिक संघर्ष और निर्माण के समय से जानते हैं। उनकी भूमिका इस किताब को पढ़ने का गवाक्ष भी देती है।
वैसे तो इस किताब में कई उल्लेखनीय प्रसंग और प्रेरक बाते हैं लेकिन 'क्याप' उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद लेखक को दी गयी प्रतिक्रिया उद्धृत कर इस अनुशंसा के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि यह किताब नवोदित और स्थापित सभी साहित्यकारों को जरूर पढ़नी चाहिए और उन लोगों को भी जो लेखकों के जीवन में झांककर उनका अंतर्मन और बाह्य जीवन जानने के इच्छुक हैं। लेखक ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद जब मनोहर श्याम जोशी को फोन किया तो  उन्होंने 'स्थितप्रज्ञ' भाव से कहा था- "इसमें बधाई की क्या बात है? हर बार एक ज्यूरी बैठती है और अपनी पसंद के किसी लेखक को पुरस्कार दे देती है। इस बार संयोग से ऐसी ज्यूरी थी जो मुझे पसंद करती थी। हिन्दी में पुरस्कारों का यही हाल है।"

पुस्तक का नाम- पालतू बोहेमियन मनोहर श्याम जोशी-एक याद
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 125₹
भूमिका- पुष्पेश पंत

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

कथावार्ता : ऐतिहासिक चरित गल्प- प्रेम लहरी

      अगर आप शाहजहांयुगीन मुगल दरबार और बनारस की कुछ अनछुई, अनकही कहानियाँ पढ़ना/गुनना चाहते हैं तो त्रिलोकनाथ पाण्डेय का उपन्यास 'प्रेम लहरी' जरुर पढ़ना चाहिए। वैसे तो यह उपन्यास पण्डितराज जगन्नाथ और उनकी प्रेयसी लवंगी को केंद्र में रखकर लिखा गया है। जगन्नाथ का मूल स्थान बनारस है, तो कहानी में बनारस अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक हलचल के साथ मौजूद है। लवंगी, शाहजहाँ और मुमताज महल की सबसे छोटी बेटी थी और सब जानते हैं कि मुगल बादशाही परम्परा में शाहजादियों का विवाह नहीं होता था; ऐसे में लवंगी अपने दरबारी कवि जगन्नाथ से प्रेम कर बैठती है और तब खुलती हैं परतें मुगल दरबार और हरम की।

     लवंगी और जगन्नाथ का प्रेम साहस और जोखिम की मिसाल है, साथ ही शाहजहाँ और दाराशिकोह की कोमल भावनाओं का भी। लवंगी मुमताज महल की आखिरी संतान होने का फायदा उठाती है और अपनी बड़ी बहन, पिता शाहजहाँ और भाई दाराशिकोह को इस बात के लिए लगभग मना लेती है कि वह उसका विवाह जगन्नाथ से कर दें। वह अपने महल में उससे बार बार मिलती है और यह अंतरंग मिलन मुगल हरमों की कहानियाँ कहता है।

        पण्डितराज जगन्नाथ की ख्याति संस्कृत में काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ के रूप में है। रस और साहित्य के विषय में उनका मत साहित्य में समादर से लिया जाता है। उन्होंने संस्कृत और ब्रजभाषा में बेहतरीन कविताएं लिखीं और लम्बी अवधि तक मुगल दरबार की शोभा रहे जहाँ उन्हें दारा शिकोह और लवंगी को शास्त्र सिखाने का अवसर मिला। इसी में यह प्रेम परवान चढ़ा और फिर उसकी एक विशेष परिणति हुई।

      यह उपन्यास हमें जगन्नाथ के कई अनजाने/अन्चीन्हे पहलुओं से परिचित कराता है जिसमें एक दिलचस्प है उनका पहलवानी का शौक। जगन्नाथ को दण्ड बैठक और कसरत का शौक था और लवंगी का हाथ देने के बदले शाहजहाँ ने अपने दरबार के प्रमुख पहलवान से उनका द्वन्द्व रखवा दिया था। जगन्नाथ ने उसे अपने शारिरिक और योगबल से पछाड़कर विशेष स्नेह और आदर की जगह प्राप्त की थी। प्रेम कहानी के इस उतार चढ़ाव के बीच इस उपन्यास में दर्ज है मुगल संस्कृति का बहुत सा स्याह पक्ष।

        प्रेम लहरी मुगल परिवारों में सेक्स, कुण्ठा, षड्यन्त्र, यौनशोषण, हीनताग्रंथि, हिंसा, इर्ष्या और ऐसी ही बहुत सी भावनाओं का बहुत प्रमाणिक चित्रण करती है। इस उपन्यास में मुगल बादशाह की यौनपिपासा है, परिवार में इस व्याधि से पीड़ित राजकुमारियां हैं और है उनका यौन बुभुक्षा शान्त करने का अवैध उपक्रम। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक सब शामिल हैं। शाहजहाँ की मझली बेटी तो इस मामले में सिरमौर है। वह न सिर्फ आकंठ यौन पिपासा में संलग्न है बल्कि वह औरंगजेब को खुफिया जानकारी भी देती है।
          
         मुगल परिवार में यह सब जो नंगा नाच चलता है, इसमें कोई व्यवधान नहीं डालता। हाँ, जो इसका अंग नहीं बनता उसे मरवा दिया जाता है। शाह परिवार की धौंस ऐसी है कि कोई चूं भी नहीं कर सकता।

         उपन्यासकार ने इस स्याह पक्ष को गाढ़ा उकेरने के लिए वैद्यजी की भूमिका को बहुत यादगार रंग दिया है। वैदक शास्त्र की स्थापना प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति की धाक जमाती है। वैद्यराज जब बादशाह का सफल इलाज करते हैं तो बादशाह उनसे यौन शक्ति बढाने वाली औषधि बनाने को कहते हैं और राजकुमारियां गर्भनिरोधक लेप। वैद्यराज ऐसा सफल काम करते हैं और सबके चहेते बन जाते हैं। प्रेम लहरी इस सब विशिष्टताओं के चित्रण के साथ मुगल परिवारों में सत्ता के संघर्ष, कला और साहित्य के उत्थान और उपलब्धि आदि पर भी प्रकाश डालती चलती है। वह बताती है कि स्वर्णयुग का दावा करने वाली मुगलिया सल्तनत में उत्तराधिकार को लेकर गजब घमासान है। औरंगजेब अपने भाई दारा शिकोह का सिर अपने पिता के पास भिजवा देता है, जो आगरा के किले में बन्द है। यह इस उपन्यास के लोमहर्षक दृश्यों में से एक है।

       पण्डितराज जगन्नाथ अपनी प्रेमिका लवंगी को लेकर बंगाल भाग जाते हैं और फिर वहाँ से वापस बनारस लौटते हैं। बनारस में उन्हें छिपकर रहना पड़ता है लेकिन एक दिन गंगा स्नान के अवसर पर उन्हें पहचान लिया जाता है और वह सपत्नीक जलसमाधि ले लेते हैं।

            जो लोग इस उपन्यास को जगन्नाथ के साहित्यिक यात्रा को ध्यान में रखकर पढ़ना चाहते हैं, उन्हें भी यह उपन्यास रंजनकारी लगेगा।

          नयी दृष्टि से, भारतीय दृष्टि से एक विशेष ऐतिहासिक चरित गल्प है प्रेम लहरी।

रविवार, 9 सितंबर 2018

कथावार्ता : रामवृक्ष बेनीपुरी: मील के पत्थर

     तरुणाई में पढ़े हुए किसी पाठ का, अगर वह भा गया हो और हमेशा बेहतर के लिए प्रेरित करता हो, असर लंबे समय तक बना रहता था। हिंदी पाठ्यक्रम में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित 'गेंहू बनाम गुलाब' ऐसा ही था। गेंहू श्रम का प्रतीक था और गुलाब विलासिता का। उस पाठ की पहली ही चर्चित पंक्ति  थी, 'गेंहू हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।' हम मेहनतकश लोगों में थे। गेंहू उगाते थे। हाड़तोड़ श्रम करते थे और खुश रहते थे। हमारा बड़ा सा दुआर था और गांव-जवार में प्रतिष्ठित परिवार के माने जाते थे, तो बाबूसाहबी में गुलाब की क्यारियां लगाते थे। नेहरू को अपने कोट में खोंसे हुए गुलाब के साथ चित्रों में देखते थे तो अपनी शर्ट के ऊपर वाली काज में खिले हुए गुलाब को अटकाए फिरते थे और रह-रहकर सूंघते थे। यह बताने में कोई लज्जत नहीं है कि हाथ से गोबर वाली गंध सुबह उठाने के बाद दिनभर बनी रहती थी। तो ऐसे में जब 'गेंहू बनाम गुलाब' पढ़ा गया तो सहज ही गेंहू के पक्ष में हो लिया गया। नेहरू विलासी लगने लगे। इत्र फुलेल बकवास लगने लगा। हम मेहनतकश थे और उनके साथ खड़े होने में अपनी शान समझने लगे। तब मिथुन और अमिताभ (मर्द, कुली और दीवार तथा कालिया वाला) हमें प्रिय लगने लगे। खैर, ऐसे में यह पाठ हमें बहुत प्रिय हो गया। माटी की मूरतें और गेंहू बनाम गुलाब के रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी हमारी स्मृति में अमिट हो गए। बाद में विद्यापति पदावली पर उनका काम हाथ लगा लेकिन शिवप्रसाद सिंह और नागार्जुन के काम के आगे बहुत नहीं रुचा। विद्यापति के कीर्तिलता पर अवधेश प्रधान की किताब ने विद्यापति के बारे में धारणा ही बदल दी।
    खैर, तो आज गेंहू बनाम गुलाब के उसी अप्रतिम रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर,1900 - 09 सितंबर,1968) की पुण्यतिथि है।
    बीते दिन बेनीपुरी की रेखाचित्र और संस्मरणों की पुस्तक 'मील के पत्थर' खरीद लाया था। विभिन्न विभूतियों पर लिखे उनके संस्मरण अद्भुत हैं। 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से माखनलाल चतुर्वेदी पर और 'दीवाली फिर आ गयी सजनी!' शीर्षक से जयप्रकाश नारायण और 'एक साहित्यिक सन्त' के नाम से शिवपूजन सहाय पर लिखे हुए उनके संस्मरण अप्रतिम हैं। इन संस्मरणों में आत्मीयता और समर्पण भावना झलकती है। अब जबकि एक साहित्यिक दूसरे की सार्वजनिक हत्या में विश्वास करता है और अपनी केकड़ा वृत्ति में उलझा हुआ है, गलीजपने को रेखांकित करने में अपनी सार्थकता समझता है, वैसे में रामवृक्ष बेनीपुरी के संस्मरण उदात्तता के सरस उदाहरण हैं। यूरोपीय रचनाओं और रचनाकार पर उनका लिखा उनके बहुपठित और सरस तथा गुणग्राही व्यक्तित्व का सूचक है। जब वह बनार्ड शॉ के बारे में इस वाक्य से शुरुआत करते हैं कि 'सभी आत्मकथाएं झूठी हैं' तो मन बरबस ही उत्सुक हो उठता है। बेनीपुरी का गद्य बहुत मार्मिक है। छोटे वाक्य किंतु भाव भंगिमा से भरे हुए। उनके संस्मरण और रेखाचित्र हिंदी साहित्य में अमूल्य निधि हैं। उनके निबंध लेखन में उनकी दृष्टि का पता चलता है। जब वह अपने साथियों को संत की तरह याद करते हैं तो उनकी छवि भी संत की तरह बन जाती है। आज उनके पुण्यतिथि पर उनको याद करते हुए ऐसा लग रहा जैसे किसी संत को श्रद्धांजलि देने के लिए हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जा रहे हैं।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

कथावार्ता : वाङ्मय : अब्दुल बिस्मिल्लाह पर केंद्रित अंक



तमाम शोरशराबे से अलग अलीगढ़ से निकलने वाली त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका वाङ्मय (संपादक- डॉ. ऍम फीरोज़ अहमद) ने इस दफा झीनी झीनी बीनी चदरिया फेम अब्दुल बिस्मिल्लाह पर केंद्रित अंक निकाला है। वाङ्मय इससे पहले आदिवासी साहित्य पर सीरीज में चार अंक निकाल चुका था। राही मासूम रज़ा, शानी, बदीउज्जमा, नासिरा शर्मा, कुसुम अंसल पर उसके विशेषांक बहुत सफल हुए थे। इस दफा अब्दुल बिस्मिल्लाह के ऊपर केंद्रित इस अंक में उल्लेखनीय है मेराज अहमद का लेख। उन्होंने झीनी झीनी बीनी चदरिया में बुनकरी जीवन से जुड़े शब्दों पर जो टिप्पणियाँ की हैं, वह एक नए तरह का अध्ययन है। सुन्दरम् शांडिल्य, मधुरेश, मूलचंद्र सोनकर, सीमा शर्मा, इकरार अहमद, एम फ़ीरोज़ खान के आलेख विशेष पठनीय हैं। सुन्दरम शांडिल्य ने अपवित्र आख्यान पर लिखा है। सीमा शर्मा ने रावी लिखता है पर बहुत गंभीरता से विचार किया है। मधुरेश प्रख्यात कथा समीक्षक हैं। उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों पर विचार करते हुए उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह को मुस्लिम जीवन के अन्तरंग का कथाकार कहा है। प्रताप दीक्षित, नगमा जावेद मलिक, इकरार अहमद, मूलचंद सोनकर, शिवचंद प्रसाद, अमित कुमार भर्ती और रमाकान्त राय ने उनकी कहानियों पर विचार किया है। कविताओं पर डी एस मिश्र, जसविंदर कौर बिंद्रा, शशि शर्मा, केवल गोस्वामी आदि ने लिखा है। ख़ास बात यह है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह के सभी रचना पर किसी न किसी ने लिखा है। अब्दुल बिस्मिल्लाह न सिर्फ एक ख्यातिलब्ध उपन्यासकार हैं, बल्कि कहानीकार और कवि भी हैं। उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा पहलू उनका सामाजिक चिंतन है।
कमी खली कि एक लेख उनके समग्र को रेखांकित करते हुए आना था। एक संस्मरण भी बनता था। झीनी झीनी बीनी चदरिया पर एक ताजा लेख लिखवाना था। अब इस उपन्यास के कई आयाम खुले हैं। भारत भारद्वाज का लेख बहुत पुराना है और समीक्षा भर है। झीनी झीनी बीनी चदरिया बिस्मिल्लाह जी के शब्दों में "केवल मुसलमान बुनकरों की कथा न होकर हस्तशिल्पियों की कथा है।" तो इसपर ठीक से विचार होना था।
अच्छा लगा कि एक बृहद साक्षात्कार है अंक में। यह कहकशाँ ए शाद ने संजोया है। इस साक्षात्कार से बहुत सी गुत्थियाँ सुलझती हैं। साक्षात्कार में एक बात खटकी कि अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने नए उपन्यास 'कुठावँ' के बारे में बताया है कि, "शरीर का ऐसा अंग जहाँ जोर से चोट पहुंचाई जाए तो व्यक्ति मर सकता है। जातिवाद हमारे समाज का कुठावँ है, उसपर चोट करने की जरूरत है।" वास्तव में, कुठावँ का अर्थ गलत जगह है। मारेसि मोहिं कुठावँ गुलेरी जी का प्रसिद्ध निबंध है। मुझे गलत जगह मारा, अर्थ यह हुआ। वह शरीर का अंग नहीं है। नींद न जाने ठाँव कुठावँ, बहुत चर्चित लोकोक्ति है। बहरहाल, उनके नए उपन्यास का स्वागत किया जायेगा।
अंक में एक लेख मैंने भी लिखा है। यह उनकी कहानी का नया संग्रह 'शादी का जोकर' पर है। मेरा मानना है कि बिस्मिल्लाह जी की कहानियाँ औपन्यासिक फलक लिए हुए हैं। उनका मानस उपन्यास लिखने में ज्यादा सुकूनदेह महसूस करता है।
अंक में सम्पादकीय कई गंभीर विषय को लेकर चलता है और अपनी चिन्ता जाहिर करता है। अल्पसंख्यकों को लेकर इन दिनों जो विमर्श चल रहे हैं, उनपर सार्थक हस्तक्षेप करता हुआ सम्पादकीय सुचिंतित तो है लेकिन इसे और व्यवस्थित होना था। अंक के सम्पादकीय पृष्ठ पर ही यह सूचना अंकित है कि अगला अंक साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कृतियों पर केन्द्रित होगा। जिस संकट में यह पुरस्कार इन दिनों है, उसमें अगला अंक और भी दिलचस्प होने की संभावना है।
मेरी सम्मति है कि इस अंक का स्वागत किया जायेगा और वाङ्मय  को हाथों हाथ लिया जायेगा।
                                         
                                          -डॉ रमाकान्त राय,
                                        असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी
                            भाऊराव देवरस राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
                                          दुद्धी, सोनभद्र,
                                     9415696300, 9838952426

सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.