शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

एक रहें ईर.- संदीप सक्सेना की प्रस्तुति



(कुछ गीत हमारे दिलो-दिमाग पर इस तरह छा जाते हैं कि हम हमेशा इनके प्रभाव में रहते हैं. हरिबंश राय बच्चन का लिखा हुआ यह गीत पढ़िए और फिर आखिर में दिए गए लिंक पर चटका लगाकर इसे अमिताभ बच्चन की आवाज में सुनिए और देखिये. गीत में उन्होंने अपनी प्रस्तुति भी बेहतरीन की है.
यह गीत इस तरह लिखकर हमारे संदीप सक्सेना सर ने फेसबुक पर लगाया था. मूल प्रस्तुति उनकी मानी जाय.)
 
संदीप सक्सेना (EDR at Capital Enterprise)

इक रहें ईर
एक रहेंन बीर
एक रहें फत्ते
एक रहें हम
ईर कहेंन चलो लकड़ी काट आई
बीर कहेंन चलो लकड़ी काट आई
फत्ते कहेंन चलो लकड़ी काट आई
हम कहें चलो, हमहू लकड़ी काट आई

ईर काटें ईर लकड़ी
बीर काटें बीर लकड़ी
फत्ते काटें तीन लकड़ी
हम काटा करिलिया

ईर कहिन् चलो गुलेल बनाई
बीर कहिन् चलो गुलेल बनाई
फत्ते कहिन् चलो गुलेल बनाई
हम कहा चलो, हमहू गुलेल बनाई

ईर बनायेन ईर गुलेल
बीर बनायेन बीर गुलेल
फत्ते बनायेन तीन गुलेल
और हमार कट-कुट गयेयी

ईर कहेंन चलो चिड़िया मार आई
बीर कहेंन चलो चिड़िया मार आई
फत्ते कहेंन चलो चिड़िया मार आई
हम कहा चलो, हमहू चिड़िया मार आई

ईर मारेंन ईर चिड़िया
बीर मारेन बीर चिड़िया
हम मारा ....फुदकिया

ईर कहेंन चलो भूंजी पकाएं
बीर कहेंन चलो भूंजी पकाएं
फत्ते कहेंन चलो भूंजी पकाएं
हम कहा, हमहू भूंजी पकाएं

ईर भुन्जेंन ईर चिड़िया
बीर भुन्जेंन बीर चिड़िया
फत्ते भुन्जेंन तीन चिड़िया
हमार जल-जुल गयी

ईर कहेन चलो राजा के सलाम करी आई
बीर कहेन चलो राजा के सलाम करी आई
फत्ते कहेन चलो राजा के सलाम करी आई
हम कहा हमहू चलो, राजा के सलाम करी आई

ईर किहेंन ईर सलाम
बीर किहेंन बीर सलाम
फत्ते किहेंन तीन सलाम
और हम ....ठेंगुया दिखाए

ईर कहेंन चलो घोडा खरीद आयें
बीर कहेंन चलो घोडा खरीद आयें
फत्ते कहेंन चलो घोडा खरीद आयें
हम कहा चलो, हमहू घोडा खरीद आयें

ईर खरीदेंन तीन घोडा
बीर खरीदेंन तीन घोडा
फत्ते खरीदेंन तीन घोडा
और हम का ख़रीदे?.... गदहिया

ईर कहेंन घोड़े को पानी पिला आयें
बीर कहेंन घोड़े को पानी पिला आयें
फत्ते कहेंन घोड़े को पानी पिला आयें
हम कहे चलो, हमहू कहेंन घोड़े को पानी पिला आयें

ईर पिलायेंन ईर घाट
बीर पिलायेंन बीर घाट
फत्ते पिलायेंन तीन घाट
और हम पिलाया ....... धोबी घाट

ईर का बोले ...ही ही ही
बीर का का बोले ...ही ही ही
फत्ते का बोले ...ही ही ही
ओउर हम बोले .....
ही ..हा हा !!


(गीत को यहाँ अमिताभ बच्चन की आवाज में सुना जा सकता है. बाली सागू का संगीत निर्देशन और अमिताभ की आवाज तथा अभिनय ने इसे एक संग्रहणीय गीत बना दिया है.)


शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

कथावार्ता : आज की फिल्म- पुलिसगिरी



     तीसरे दर्जे का सिनेमा बड़ी काम की चीज है। मैं जब बहुत थका हुआ होता हूँ या गहरे अवसाद में, तो तीसरे दर्जे के सिनेमा की शरण में जाता हूँ। तब मैं दबंग, रेडी, पार्टनर, सिंघम, खिलाड़ी ७८६ या इसी तरह की फ़िल्में देखता हूँ। तब मैं फूहड़ हास्य वाली फ़िल्में भी देखता हूँ। जब मैं टीवी देखता हूँ, समाचार चैनलों से ऊब जाता हूँ, गाने, बासी और खराब लगने लगते हैं, तो फ़िल्में देखना शुरू करता हूँ। अच्छी फिल्मों की तलाश में इधर-उधर टहलता हूँ और विज्ञापन आदि से ऊब कर उन फिल्मों को देखना शुरू करता हूँ, जो दक्षिण की फिल्मों से डब करके हिंदी में परोसी जाती हैं। वे बड़ी मजेदार होती हैं।
दरअसल ऐसी फिल्मों को देखते हुए एक सहूलियत रहती है कि आपको दिमाग नहीं लगाना पड़ता और न ही फिल्मों के संवाद के प्रति बहुत गंभीरता बरतनी पड़ती है। कोई पात्र कुछ बोले और हम न सुन पायें तो कोई टेंशन नहीं होती। आप गाने के प्रसारित होने को फारवर्ड करके (अगर सुविधा हो तो) आगे भी बढ़ सकते हैं। ये गाने बहुत जरूरी नहीं होते। आप उन गानों को बाद में कभी भी अपनी फुरसत में देख सकते हैं। मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि तीसरे दर्जे के सिनेमा के गाने मुगले-आजम के गानों की तरह नहीं होते कि अगर आपने ‘प्यार किया तो डरना क्या’ जैसे गीत को छोड़ दिया तो आप बाद में यह सोचकर हलकान होते रहेंगे कि आखिर अकबर गुस्से में यूं चीखा क्यों, या ऐसी प्रतिक्रिया क्यों दी। या अगर आपने लुटेरा जैसी फिल्मों के गीत भी मिस किये तो आपको कुछ अच्छे दृश्यों और प्रसंगों से वंचित होना पड़ेगा। अगर आप लंचबॉक्स जैसी फिल्म देख रहे हैं और अगर आपने एक भी डायलाग मिस किया तो आप बहुत देर तक फिल्म के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाएंगे। फिर आपको खीझ होने लगेगी। और यह व्यवधान बार-बार आया तो आप गुस्से से भर उठेंगे। अब अगर आपने एक बढ़िया फिल्म देखने के उद्देश्य से पैसा खर्च किया है, आनंद की तलाश में अपना समय खरच रहे हैं, तो उद्देश्य तो सिद्ध नहीं हुआ न!! इसलिए तीसरे दर्जे का सिनेमा, ऐसे में वरदान है। इसमें आप दबंग का गाना 'मुन्नी बदनाम हुई' कहीं भी रखकर देख सकते हैं क्या फरक पड़ता है कि चिंता-ता-चिता-चिता कहाँ गाया जा रहा है या फायर बिग्रेड मंगाने की बात गोरी कहाँ और क्यों कह रही है या फेविकोल की दरकार काहे खातिर है तारीफ यह भी है कि इस फिल्म को देखने पर आपको हीनताबोध जैसी कोई भावना नहीं होगी। हर तरफ से मजे ही मजे।
हमारे आदरणीय शिक्षक प्रो० सत्यप्रकाश मिश्र जी कहा करते थे कि उबाऊ और अनुर्वर समय में मैं जासूसी उपन्यास पढ़ता हूँ। हम आश्चर्य से भर जाते थे। हैं, जासूसी उपन्यास!! फिर, यह सोचते कि अपनी-अपनी रूचि और अपना-अपना शगल। सोचता हूँ कि उबाऊ और अनुर्वर समय में हमें पकाऊ काम करना चाहिए। पककर टपकने में सहूलियत रहती है। हम जल्दी ही इस नाकारापन से बाहर आ जाते हैं।
भूमिका बड़ी हो गयी। बात करना था- हाल में ही देखी फिल्म- पुलिसगिरी के विषय में। इसमें खलनायक ब्राण्ड और बाद में मुन्नाभाई की छवि वाले संजय दत्त ने लीड रोल किया है। लीड रोल लिखते-लिखते लीद लिखा जा रहा है। यह भी सही ही होता। लीद, घोड़े के गोबर को कहते हैं।

फिल्म क्या है, बकवास का अजायबघर है। बेसिर-पैर की बकवास। फिल्म दबंग और सिंघम का काकटेल है और वह भी ठीक से नहीं मिल पाया है। सिंघम में प्रकाश राज ने विलेन की जो भूमिका निभाई है, वह अद्वितीय है। दक्षिण के इस अभिनेता के पास हिन्दी को व्यक्त करने का विशेष अंदाज है। वे अपने शानदार अभिनय से नायकों को पीछे छोड़ देते हैं। फिल्म में किंगमेकर की भूमिका में प्रकाश राज उतना नहीं जमे हैं, जितना हर बार अपने घर में लल्लुओं-चप्पुओं से घिरे हुए किसी न किसी वाद्य-यंत्र पर अपना जलवा बिखेरते हुए जमे हैं। उन्हें वहां देखना वाकई रोचक है। उनकी संवाद अदायगी तो बहुत विशिष्ट है। फिल्म में राजपाल यादव भी हैं। वे हँसाते नहीं, चिढ़ाते हैं। और स्वयं संजय दत्त तो लीद कर ही रहे हैं। वे पुलिस ऑफिसर की भूमिका में हैं। कोम्बो। पुलिस भी गुण्डा भी। उनका डायलाग भी जब तब स्क्रीन पर आता रहता है। वे सबसे अपने कोम्बो चरित्र को बताते रहते हैं। वे रिश्वत लेते हैं ताकि वहाँ जमे रह सकें। न लेने पर उन्हें मालूम है कि उनका तबादला हो जायेगा। वे रिश्वत लेने के बावजूद बहुत ईमानदार हैं, क्योंकि वे इस पैसे की पाई-पाई का हिसाब रखते हैं। वे सब काम कर सकते हैं। वैसे भी हिंदी फिल्मों का नायक सारे काम कर सकता है। मैं उनके विषय में जितना लिखूंगा, कम पड़ेगा। ओम पूरी भी हैं। लेकिन वे क्यों हैं, यह नहीं पूछा जाना चाहिए। नायिका तो होनी ही चाहिए, प्राची देसाई को इसके लिए चुना गया है. वे न हों तो गाने और पप्पी-झप्पी कैसे दिखायेंगे, तो उसके लिए प्राची देसाई हैं। डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर का नाम जानने से क्या फायदा?
मैं हिन्दी फ़िल्में देखते हुए अक्सर सोचता हूँ कि खलनायक के गुर्गे नायक को मरने के लिए अत्याधुनिक हथियारों के होते हुए भी लाठी-डंडा, कुश्ती-कराटे या लातम-जूतम पर ज्यादा भरोसा क्यों करते हैं। बहुत हुआ तो चाकू या तलवार यानी अस्त्र का ही प्रयोग क्यों करते हैं। ऐसे जानलेवा शस्त्रों का उपयोग क्यों  नहीं करते जिसकी एक गोली से ही नायक का काम तमाम हो जाय। वे मशीनगन आदि कहाँ छिपाए रहते हैं और किस दिन के लिए। और अगर वे इनका प्रयोग करते हैं तो इतना कच्चा निशाना क्यों होता है उनका। मैं बहुत सारी चीजें सोचता हूँ।।
लेकिन यहाँ सवाल यह है कि मैं ऐसी फ़िल्में देखते हुए सोचता क्यों हूँ? क्या सोचते हुए मैं उस ऊब और अनुर्वरता से निकल चुका होता हूँ? मैं क्यों सोचता हूँ? मैं जब इस प्रश्न से जूझता हूँ तो फिर से एक अनुर्वर क्षेत्र में चला जाता हूँ। और तब मुझे बहुत सुकून मिलता है। मैं पूरी फिल्म देखते हुए, मुस्कराता रहता हूँ और यही ऐसी फिल्मों की सफलता होती है।

हमारे देश में संभवतः तीसरे दर्जे के सिनेमा के ढेरों दर्शक इसीलिए हैं कि वे दिमाग को तनाव से मुक्ति देना चाहते हैं। वे जानते हैं कि गंभीर सिनेमा कोई ख़ास हस्तक्षेप हमारे जीवन में नहीं करने वाला। इतने सारे बड़े-बड़े तोप खां और तुर्रम खां क्या उखाड़ ले रहे हैं? हो वही रहा है जो सत्ता चाहती है। वही जो, कुछ मुट्ठी भर लोग चाहते हैं। फिर हमें गंभीर सिनेमा, गंभीर साहित्य पढ़कर क्या कर लेना है। आखिर ऐसी फिल्मों का नायक इस सत्ता से लड़कर अपने तरीके का एक हल पेश तो करता है। वह अपनी पक्षधरता तो स्पष्ट करता है। पढ़े-लिखे गंभीर लोग तो जिन्दगी को और उलझाए दे रहे हैं। आमीन।।

--डॉ० रमाकान्त राय।

३६५ए-१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

कथावार्ता : यूपीए सरकार की कुछ तुगलकी नीतियां



यूपीए सरकार की आर्थिक विभ्रमता को हाल-फिलहाल के कुछ तुगलकी फैसलों से पहचाना जा सकता है. अभी महीना भर भी नहीं बीता कि हम आर्थिक मंदी की आहट महसूस कर रहे थे. केंद्र के कुछ मंत्री सोना गिरवी रखने की बात कर रहे थे. वित्त मंत्री लोगों से अपील कर रहे थे कि वे सोना न खरीदें. हम स्वयं आर्थिक आपातकाल के आसन्न संकट को देख रहे थे. सरकार ने भी इस खतरे को देखते हुए कई उपाय करने की घोषणा की थी. इन उपायों में सरकारी नौकरियों में एक साल तक भर्ती में रोक लगाने का फरमान भी था. कुछ ऐसे फैसले थे, मसलन मंत्रियों की ऐय्याशियों में कुछ कटौती, पञ्च सितारा होटलों में से ऑफिस आदि हटाना, बैठक न करना, इकोनामी क्लास में यात्रा करना, परिजनों से सुविधा छीन लिया जाना आदि जो अमूमन दो-तीन साल में एक बार सादगी दिखाने के गरज से भी लिया जाता है.
अब इस आर्थिक आपातकाल के मनहूस समय में, जब रुपया ऐतिहासिक गिरावट दर्ज रहा है (यद्यपि इन दिनों इसमें सुधार है), महँगाई अपने चरम पर है, डीजल, पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं, शेयर बाजार में भारी उथल-पुथल का दौर है और कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, सरकार ने आनन-फानन में सातवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दे दी है. ध्यान रहे कि अभी कुछ दिन पहले तक सरकार की कार्ययोजना में यह शामिल नहीं था. यद्यपि यह समय की मांग होती है तब भी इसे बिना किसी कार्ययोजना के लागू किया जाना समझ में नहीं आता! कहा जा रहा है कि सरकार के इस फैसले से अस्सी लाख कर्मचारियों को लाभ मिलेगा. एक मंत्री ने तो यहाँ तक कहा कि इससे सरकारी नौकरियों के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा. सच है. ये मंत्रीगण आम लोगों को ध्यान में रखकर फैसले करते/ नीतियां बनाते तो उन्हें पता चलता कि मध्यवर्ग और निम्न वर्ग में सरकारी नौकरियों के प्रति कितना आकर्षण है. यहाँ विवेच्य यह है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें जब लागू होंगी तो उनसे कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही फायदा होगा. तब निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों के यहाँ किस तरह का ग़दर मचेगा, आसानी से समझा जा सकता है. सातवें वेतन आयोग के गठन की सिफारिशें ऐसे समय में की गई हैं, जब अभी छठे वेतन आयोग की विसंगतियों को ठीक से दूर भी नहीं किया जा सका है. उसके दुष्परिणामों का ठीक से आकलन भी नहीं किया जा सका है. यह आने वाली सरकार पर एक तरह से भीषण दबाव उत्पन्न करेगा.
खाद्य सुरक्षा की गारंटी देने वाला विधेयक भी इसी समय में आया है. यह विधेयक अपने उद्देश्य में जितना भी अच्छा क्यों न हो, यह हमपर एक अतिरिक्त बोझ की तरह पड़ने वाला है. इसमें सबसे तुगलकी बात यह है कि इसे लागू करने में एक बड़ी धनराशि खर्च होगी. यह योजना को लागू करने पर व्यय होगी.
सरकार ने रिजर्व बैंक के हवाले से एक सूची जारी की है जिसमें विकसित, अल्पविकसित और अविकसित राज्यों के नाम हैं. दुर्भाग्य से अपना उत्तम प्रदेश भी इसमें शामिल है. बिहार तो मान लीजिये कि उसका हकदार ही है. गुजरात को अल्प विकसित राज्यों की सूची में रखा गया है. जहाँ के विकास की धूम मची है. उत्तराखंड को विकसित कहा गया है. इस सूची में अनेकों विसंगतियां हैं. यह शुद्ध रूप से राजनीतिक गुणा-गणित को ध्यान में रखकर बनाई गई है. इस सूची के जारी होने का मतलब है, अविकसित राज्यों को खजाने से धन मुहैया कराना. बिहार के लोग तो इसे विशेष राज्य के दर्जा की तरह परिभाषित कर रहे हैं. सरकार की नजर वैसे भी बिहार पर पहले से है. उत्तर प्रदेश में भी जिस तरह से मुलायम सिंह पर सीबीआई जांच हटाकर सरकार मेहरबान हुई है, वह आसानी से समझा जा सकता है. गुजरात को अल्पविकसित राज्यों में गिनने का भी राजनीतिक मकसद है. यह बताने की कोशिश कि जिस गुजरात के मुख्यमंत्री विकास का ढिंढोरा पीट रहे हैं, उस गुजरात को रिजर्व बैंक अविकसित की श्रेणी में रखता है. यह गुजरात के गुब्बारे की हवा निकालने की तरह है.
क्या कोई बता सकता है कि चुनावी शिगूफों के अलावा इन घोषणाओं का लक्ष्य क्या है? इनका महत्व क्या है? रणनीतिकार कहते हैं कि यह चुनावी साल में यूपीए सरकार का तोहफा है. क्या वाकई इसे तोहफा माना जाना चाहिए? ऐसे समय में जब पूँजी बाजार पर बाहरी ताकतों का कब्ज़ा बढ़ता जा रहा है. सरकार कई निर्णय लेने में हिचक रही है और लिए जा रहे तमाम निर्णय हमें और ज्यादा बड़े दुश्चक्र में उलझा रहे हैं, इस तरह के निर्णय एक दूसरे तरह के दुश्चक्र में फंसा रहे हैं. आप देखें कि सरकार के तमाम निर्णयों में की जा रही देरी और इस तरह के लोक-लुभावन घोषणाएं एक तरह का अनिश्चितता भरा माहौल बना रही हैं. ऐसे अनिश्चितता भरे माहौल में हमें अंतिम विकल्प दिया जायेगा कि हम अपने तमाम क्षेत्रों को विदेशी पूँजी निवेश के आसान शर्तों पर खोल दें. अभी यह बीमा, उड्डयन, संचार, और इसी तरह के अन्यान्य क्षेत्रों के लिए खोला भी जा रहा है और उसकी पृष्ठभूमि भी बनाई जा रही है.
कोई रास्ता बचता है क्या?


--डॉ. रमाकान्त राय.

३६५ ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
      ९८३८९५२४२६  



रविवार, 6 अक्तूबर 2013

हम तो लुट गए तेरे प्यार में- लूटेरा

         #Lootera निःसंदेह सोनाक्षी सिन्हा की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म है. तमाम लटके-झटके से अलग इसमें सोनाक्षी न सिर्फ सुन्दर लगी हैं बल्कि उनका अभिनय भी कमाल का है. आँखों पर उभर आये काले धब्बे, उनकी कमजोर होती काया और पस्त हो जाने का भाव उनके चेहरे पर जिस तरह से आता है वह पात्र से पूरा न्याय करता है.

           मैं इसे देखते हुए कभी भी प्रेम कहानी की तरह नहीं देख पाया. यद्यपि है इसमें वही. फिल्म देखते हुए यह खयाल आता रहा कि सिर्फ हिन्दी फिल्मों का नायक ही पत्ती को पेड़ पर टांकने के लिए इतनी कोशिश कर सकता है. एक ऐसी कोशिश जो, फिजूल सी लगे. इसे कहने वाले कहेंगे कि प्रेम का प्रतीक बनती है वह पत्ती. लेकिन मुझे मूर्खता का अहसास कराती हुई सी प्रतीत हुई. बाद में पता चला कि यह ओ हेनरी की एक कहानी The Last leaf से प्रेरित है. क्या पता कि उसमें कितना कैसे आया है.

         फिल्म में उल्लेखनीय था, लूटने का नया तरीका. यह अनूठा था. इसका फिल्मांकन भी गजब. लगा ही नहीं कि वे ठग हैं. हिंदी फिल्मो का नायक वैसे भी हरफनमौला होता है.

        दूसरी बात खटकी और अच्छी भी लगी कि ठग नायक वरुण, पाखी के साथ नागार्जुन की कविता एक साथ दुहराता है. १९५३ के नवम्बर के दिनों की इस कथा में १९५२ में लिखी हुई कविता 'अकाल और उसके बाद' बंगाल में एक जमींदार परिवार में रूचि से पढ़ी जा रही है. जनवादी कविता, सामन्ती परिवेश. फिर इतने कम समय में यह कविता इस तरह से लोकप्रिय हो गयी? मैंने आधी रात को किताबें खंगाली और पाया कि असंगत नहीं है. जमींदारी का जाना, कविता का फिल्म में यूं आना. यह सब आश्चर्यजनक किन्तु सुखद था. एक अच्छी फिल्म..



सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.