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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : झूला : मूल पाठ और व्याख्या

 

अम्मा आज लगा दे झूला

(मूल पाठ और व्याख्या)

-रीमा राय

अम्मा आज लगा दे झूला,

इस झूले पर मैं झूलूँगा।

उस पर चढ़कर, ऊपर बढ़कर,

आसमान को मैं छू लूँगा।

 

झूला झूल रही है डाली,

झूल रहा है पत्ता-पत्ता।

इस झूले पर बड़ा मज़ा है,

चल दिल्ली, ले चल कलकत्ता।

 

झूल रही नीचे की धरती,

उड़ चल, उड़ चल,

उड़ चल, उड़ चल।

बरस रहा है रिमझिम, रिमझिम,

उड़कर मैं लुटूँ  दल-बादल

इस प्यारी सी कविता में बालक अपनी माँ से आग्रह कर रहा है कि वह अपने बेटे के लिए एक झूला लगवा दे। झूला, जिसपर बैठकर वह बहुत ऊँचाई तक पींग भरे। बालक के मन में आकाश को लेकर गहरी उत्सुकता है और वह उस ऊँचाई तक पहुँचना चाहता है। झूले पर बैठकर वह आकाश को छू लेना चाहता है।  आसमान को छू लूँगा कहने से उसकी सहज महत्त्वाकांक्षा प्रकट हो रही है।

बालक अपने आसपास, प्रकृति के कई दृश्यों में झूला का रूप देख रहा है। डालियाँ हवा के असर से ऊपर नीचे हो रही हैं, उसके साथ-साथ पत्तियाँ भी तो बालक को प्रतीत होता है कि डाली और पत्तियाँ तक झूल रही हैं। झूले की ऊँची पींग को देखकर वह सोचता है कि इसपर बड़ा सुख मिलेगा, जैसे यात्रा करने पर प्राप्त होता है। बालक के मन में दो बड़े महानगरों- दिल्ली और कलकत्ता; की छवि है जो शान शौकत और ऊँची-ऊँची इमारतों के लिए प्रसिद्ध हैं।

झूले पर सवार बालक को नीचे आने पर लगता है कि धरती भी झूल रही है। फिर वह बहुत तेजी से ऊपर जाता है तो रोमांच से भर जाता है। ऊपर कविता में बालक की जो महत्त्वाकांक्षा व्यक्त हुई है, वह यहाँ स्पष्ट रूप से झलक रही है। 

आमतौर पर झूले का रिवाज सावन के महीने का है जब धरती पर वर्षा के बाद खूब हरियाली रहती है, बादल रिमझिम बरसते रहते हैं। कविता की आखिरी पंक्तियों में भी रिमझिम बरसते बादलों की स्मृति है। बालक कह रहा है कि रिमझिम बारिश में बहुत ऊँचाई पर जाकर वह बादलों के समूह को छू लेगा।

          बालक अपनी माँ से एक सहज अनुरोध कर रहा है। उसके अनुरोध में बालकोचित इच्छा है। आगे बढ़ाने और ऊँचाई तक जाने की आकांक्षा है। जब इतनी सहज माँग रहेगी तो कोई भी उसे पूरा करने का उपक्रम अवश्य करेगा। 

       इस कविता में विशेष ध्वन्यात्मकता है, जो लय के अनुरूप है। इसे बहुत आसानी से गाया जा सकता है और इसीलिए यह जल्दी ही याद हो जाती है। छोटे बालकों को यह बहुत मनोहर लगेगी।

(कक्षा एक की हिन्दी भाषा की पुस्तक में अम्मा आज लगा दे झूला शीर्षक कविता पाठ्यक्रम में रखी गयी है। इस कविता को समझने के लिए मूल पाठ और इसकी व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। व्याख्याकार श्रीमती रीमा राय अध्यापक हैं और बच्चों की अकादमिक और रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करती रहती हैं। उन्होंने आकाशवाणी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से बालकों के लिए कई वार्ताओं की प्रस्तुति भी की है।)

रविवार, 7 जून 2020

कथावार्ता : अकाल केन्द्रित तीन आधुनिक कवितायें

अकाल और उसके बाद
-नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

(1955)

अकाल
-रघुवीर सहाय

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।
लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।
पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।
जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।
मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।
दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!


(1967)

अकाल में दूब

-केदारनाथ सिंह

भयानक सूखा है
पक्षी छोड़कर चले गए हैं
पेड़ों को
बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे
चींटियाँ
देहरी और चौखट
पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं
घरों को छोड़कर

भयानक सूखा है
मवेशी खड़े हैं
एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए

 

कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाए
सुना नहीं कभी
दूब मगर मरती नहीं -
कहते हैं वे
और हो जाते हैं चुप

निकलता हूँ मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूँ परती-पराठ
झाँकता हूँ कुँओं में
छान डालता हूँ गली-चौराहे
मिलती नहीं दूब
मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े
बाल्टियाँ लोटे परात
झाँकता हूँ घड़ों में
लोगों की आँखों की कटोरियों में
झाँकता हूँ मैं
मिलती नहीं
मिलती नहीं दूब

अंत में
सारी बस्ती छानकर
लौटता हूँ निराश
लाँघता हूँ कुएँ के पास की
सूखी नाली
कि अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हाँ-हाँ दूब है -
पहचानता हूँ मैं

लौटकर यह खबर
देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी
दमक उठता है उनका चेहरा
'है - अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब...'
बुदबुदाते हैं वे

फिर गहरे विचार में
खो जाते हैं पिता।

(1988)


मंगलवार, 12 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ शमशेर बहादुर सिंह की कविता- उषा


शमशेर भाव और उसके सम्प्रेषण कला दोनों स्तर पर विशिष्ट हैं। उनकी एक छोटी सी कविता ‘उषा’ है (शमशेर बहादुर सिंह की कविता "उषा" यहाँ क्लिक करके पढ़ें।) जिसमें उनका प्रकृति के प्रति पवित्र अनुराग दिखाई पड़ता है। हम इस कविता के काव्य सौन्दर्य पर चर्चा करेंगे उससे पूर्व शमशेर के यहाँ रंग, गंध और गति सम्पन्न प्रकृति पर कुछ नोट्स साझा कर लेना जरूरी समझता हूँ।

शमशेर बहादुर सिंह

शमशेर की कविताओं में प्रकृति विविध रूपों में विद्यमान है जिसमें उसका रंग-बिरंगा कोमल रूप ही अधिक है। वह रंग उदासी, प्रेम, आनंद आदि किसी भी रूप में हो सकता है। उनकी प्रकृति रंग और गंध के साथ गतिशील रहती है और अंत में मानवीय संवेदनाओं का रूप ग्रहण कर लेती है। उन्होंने जितनी बारीकी से प्रकृति के रंगों की पहचान की है उतनी बारीकी से हिंदी के शायद ही किसी और कवि ने की है! जब वे प्रकृति में रमते हैं तो उनके कवि पर उनका चित्रकार रूप सबसे अधिक हावी रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कविता न लिखकर चित्र बना रहे हैं। उनकी कविता के इन चित्रों में रंग ही नहीं गति भी महसूस होती है। उनकी ‘संध्या’ कविता में रंग और गति का यह सौन्दर्य खिला हुआ है-
बादल अक्टूबर के
हलके रंगीन ऊदे
मद्धम मद्धम रूकते
रूकते से आ जाते
इतने पास अपने
शमशेर को ‘शाम’ बहुत पसंद है। उनकी अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनमें सायंकालीन आसमान का दृश्य अधिक आया हुआ है। ऐसा लगता है कि शमशेर अपने निजी अवसाद, अकेलेपन और दुःख को शाम के रंग में घोलकर कविता तैयार कर रहे हैं। दरअसल वे दृश्यों में इतना डूब जाते हैं कि पाठक उन्हीं की नजरों से उस दृश्य को देखने लगता है। उनकी कविताओं में जो रंग और दृश्य हैं वे मानव जीवन से इस तरह अटूट संबंध रखते हैं कि उन कविताओं का रस बोध वे पाठक भी सहजता से कर लेते हैं जो अर्थबोध में असमर्थ होते हैं। जैसे-
                                                   एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका पत्ता
यहाँ शाम और पतझर के पत्ते का ‘पीलापन’ एकमेक हैं जो उदासी और निराशा के भाव को प्रबल कर रहा है। जैसे शाम का पीलापन अँधेरे की पूर्वसूचना है, उसका पीलापन निराशा के अंधेरे में बदलने वाला है उसी तरह पतझर के पत्ते का पीलापन उसकी समाप्ति की पूर्वसूचना है। वास्तव में यह ‘पत्ता’ मृत्यु शैय्या पर पड़े जीवन का बोध करवा रहा है जिसका अस्तित्व पतझर के पीले पत्ते की भांति अब समाप्त होने ही वाला है। यहाँ केवल प्रतीकात्मकता ही नहीं है बल्कि उसमें गहरी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।
शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताओं पर रामविलास शर्मा आरोप लगाते हुए कहते हैं कि “शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताएँ प्रतीकात्मक हैं जो किताब पढ़कर भी रची जा सकती है। वे संवेदनालोक का हिस्सा नही है।” तो वह उनकी कविताओं की प्रतीकात्मकता को ही ध्यान में रखते हैं। जबकि ये दृश्य केवल शब्द चित्र नहीं हैं क्योंकि इनकी प्रकृति के दृश्य धीरे-धीरे संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। इसमें केवल एक दृश्य भर नहीं है अपितु कवि का पूरा संवेदनालोक भी है। जैसे ‘धूप की कोठरी के आईने में खड़ी है’ कविता में-
                             मोम-सा पीला
                             बहुत कोमल
                             एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को
                             उड़ गई
                             आज बचपन का
                             उदास माँ का मुख
                             याद आता है
‘मोम-सा पीला नभ’ आगे चलकर माँ के चेहरे की उदासी को याद दिलाता है जबकि मधुमक्खी का फूल हिलाकर उड़ना ‘कवि के मन’ को कुरेद जाता है। इस तरह प्रकृति को निहारते-निहारते कवि जीवन के पिछले पन्ने पर लौट जाता है।इससे पता चलता है कि उनके द्वारा रचे गए प्रकृति के दृश्य उनकी अनुभूतियों का हिस्सा हैं जो उनकी संवेदना की उपज है। इसलिए इस दृष्टि से रामविलास शर्मा का सारा आरोप बेमानी लगने लगता है। अपूर्वानंद लिखते हैं- “शमशेर के प्रकृति चित्रों को उन्हीं के नजरिए से देखना चाहिए न कि उस दृष्टि से जिससे केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन के प्रकृति चित्रणों को देखा जाता है। शाम की नीलाहट, रात का अँधेरा, जाड़े की सुबह की कोमल धूप, सागर की लहरें ये सब उनके संवेदनालोक के अभिन्न अंग हैं।”
शमशेर का शाम के प्रति  लगाव देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मन के किसी कोने में बैठा अवसाद उन्हें खींचकर ‘शाम के रंगों’ की तरफ ले जाता है लेकिन साथ ही उनके यहाँ प्रकृति के मधुर और आकर्षक रूप भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। एक कविता में वे ‘दिन’ के लिए जिस बिम्ब का प्रयोग करते हैं वह बहुत ही अनूठा है-
                   दिन
                   किशमिशी रेशमी गोरा
                   मुस्कराता
                   आब
                   मोतियों की छिपाए अपनी
                   पंखुड़ियों तले
दिन के लिए प्रयुक्त ‘किशमिशी रेशमी गोरा/मुस्कराता’ बहुत ही सुन्दर दृश्य बिम्ब है। पूरी कविता बिम्बों में ही खिली है। इसी तरह उनकी एक कविता ‘बसंत आया’ में बसंत के सौन्दर्य बड़े आकर्षक चित्र हैं। इस कविता को पढकर कभी-कभी निराला की ‘सखि, वसंत आया’ या ‘अट नहीं रही है’ जैसी कविताओं की याद आ जाती है -
                   फिर बाल बसंत आया, फिर लाल बसंत आया
                   फिर आया बसंत!
                   फिर पीले गुलाबों का, रस-भीने गुलाबों का
                   आया बसंत
शमशेर के प्रकृति संबंधी कविताओं पर इस विहंगम दृष्टि के बाद अब हमें ‘उषा’ कविता के सौन्दर्यबोध को समझना चाहिए जिसमें उन्होंने सुबह के सौन्दर्य का जादुई चित्र खींचा है। वह लोक-जीवन को ध्यान में रखते हुए सुबह के रंग बदलते आसमान का ऐसा चित्र उकेरते हैं कि भोर के साथ ही पूरा गँवई परिवेश साकार हो उठता है। इस कविता को पढ़ने से ऐसा लगता है कि मानो कोई चित्रकार अपने कैनवास पर सुबह के रंग और गति से भरे आसमान के चित्र को बड़ी जीवंतता से चित्रित कर रहा हो।
शमशेर का गाँव के जन-जीवन और प्रकृति से बढ़िया परिचय था। उनका काफी समय उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद में बीता था जहाँ उनके पिता सरकारी सेवा में थे। इसलिए गंवई प्रकृति और वहाँ का जन-जीवन उनके संवेदनालोक का अभिन्न अंग हैं।‘उषा’ कविता को इसी आलोक में देखने की कोशिश है। भोर की प्रथम बेला के आकाश से कविता का प्रारम्भ होता है - ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ - सुबह का प्रथम प्रहर है। आसमान की रंगत बदलनी शुरू हो गई है। उसमे नीलिमा लौट रही है लेकिन उसमें अँधेरे की कालिमा मिली हुई है। कवि उसकी कल्पना ‘शंख’ के रूप में करता है। आसमान बहुत नीला है लेकिन उसकी छवि ‘शंख’ जैसी है।कविता की इस पहली पंक्ति में प्रयुक्त बिम्ब ‘बहुत नीला शंख’ प्रात:कालीन आसमान के रंग-बोध के साथ-साथ वातावरण की शुद्धता और पवित्रता के लिए भी सार्थक है। यह भी संभव है कि इस दृश्य को उतारते हुए कवि के कानों में भोर की प्रथम बेला में मंदिरों से उठने वाली शंखध्वनि भी रही हो क्योंकि उत्तर-प्रदेश के गाँव की सुबह का यह यथार्थ है। प्राय: आज भी गाँव के बाहर मंदिरों में प्रात:काल की प्रथम बेला में शंख की आवाज को सुना जा सकता है।
पहली पंक्ति के बाद अंतराल है। उसके बाद कविता की अगली पंक्ति है “भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है)” शमशेर की कविताओं में अंतराल का विशेष महत्व है। उनकी कविताओं में पंक्तियों के अंतरालों में भी कविता चलती रहती है। वहाँ पाठक को सोचने का अवकाश रहता है कि इस अंतराल में क्या-क्या संभावनाएं हैं। इससे वह अगली पंक्ति के पूर्व के अर्थ की कल्पना कर लेते हैं। एक अर्थ में इन अंतरालों में पाठक सर्जक के काफी करीब होता है। यहाँ यह अंतराल एक तो समय परिवर्तन की ओर संकेत है कि थोड़ा-सा समय और व्यतीत हो जाने पर आसमान का रंग परिवर्तित हो गया। दूसरे वह गाँव के लोगों की कार्यशैली को भी व्यक्त करता प्रतीत होता है। जैसे भोर के प्रथम प्रहर में ही गाँव के लोग उठ जाते हैं, उनका दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ होजाता है। भोर का यह समय रात के अंधेरे और सुबह के उजाले का संधिस्थल है और इस समय आसमान का रंग ‘राख के रंग’ के समान प्रतीत होता है जिसमें ओस के कारण थोड़ी नमी है । यहाँ कोष्ठक में जिस गीलेपन की बात कवि ने की है वह ओस की नमी की ओर संकेत है। इस बिम्ब से यह संकेत मिलता है कि अब गाँव के घरों में लोग चौके को राख से लीप कर साफ़-सुथरा कर रहे हैं। यहाँ आसमान को राख से लीपे हुए चौके के बिम्ब में ‘लीपा’ और ‘चौका’ का प्रयोग बड़ा अनूठा और सार्थक है।
एक और अंतराल के बाद कविता पुन: आगे बढ़ती है ‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/ कि जैसे धुल गई हो’। आसमान में थोड़ी सी और हलचल होती है और सूर्योदय से पूर्व की लालिमा छाने लगती है। इस समय कवि को आसमान में ‘काली सिल पर घिसे हुए लाल केसर की लालिमा’ का बिम्ब दिखाई पड़ता है। ‘सिल’ ग्रामीण जीवन-शैली का अहम् हिस्सा होती है। वह उनके दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। ऐसा लग रहा है कि कवि गाँव की महिलाओं के चूल्हे-चौके की व्यस्तता और आसमान को एक साथ निहार रहा है और उनके चित्र को अंकित करता जा रहा है। आसमान की इस सुन्दर लालिमा के लिए उसकी नजर बच्चों के स्लेट पर भी पड़ती है जहाँ वे नन्हें-मुन्ने अपने हाथों से स्लेट को लाल खड़िया चाक(दुद्धी) से रंग रहे हैं। कवि लिखता है “स्लेट पर लाल खड़िया चाक / मल दी हो किसी ने” । यहाँ कवि की दृष्टि में गाँव के बच्चों का भोली-भाली छवि भी है जो सुबह-सुबह अपनी स्लेट और चाक के साथ पढ़ने बैठ जाते हैं। स्लेट जैसे आसमान में लाल खड़िया चाक का रंग जैसे इन ग्रामीण किसान के घरों के बच्चों के जीवन का सूर्योदय तय कर रहे हों कि इस शिक्षा से ही जीवन में लालिमा का संचार होगा।
कवि एक अन्तराल के बाद लिखता है कि “नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो” अर्थात थोड़ा सा समय और गुजर गया, सूर्योदय का प्रारम्भ हो रहा है लेकिन सूर्य अभी पूरी तरह निकला नहीं है।जब सूर्य निकल रहा है तो उसकी सुनहरी आभा नीले आसमान में ऐसे चमक रही है जैसे कोई गौर वर्ण का व्यक्ति स्वच्छ नील जल में स्नान कर रहा हो। पूरा आसमान नीले सरोवर की भाँति दिखाई पड़ता है और ‘सूर्य’ स्वर्णाभ शरीर की भांति। ठीक ऐसे ही जयशंकर प्रसाद के यहाँ भी आसमान को ‘पनघट’ कहा गया है जिसमें सुबह रूपी सुन्दरी तारे रूपी घड़े को डुबो रही है- “अम्बर पनघट में डुबो रही/ताराघट उषा नागरी।” लेकिन शमशेर के यहाँ यह बिम्ब थोड़ा बदल गया है क्योंकि वह अपने बिम्बों में सूर्योदय के आसमान के सौन्दर्य के साथ ही जमीनी कार्य-कलाप भी देख रहे हैं। जैसे लोग अब नहा-धोकर अपने भावी दिनचर्या के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। वे अब काम पर भी निकलने वाले हैं। कविता के इस पूरे बिम्ब में मानवीकरण का अद्भुत सौन्दर्य है।
इस कविता का आखिरी बंध पूरी कविता के सौन्दर्य को उद्घाटित कर देता है क्योंकि प्रात:काल के जिस जादुई सौन्दर्य के प्रभाव में कवि के साथ पूरा ग्रामीण समाज संचालित हो रहा है वह अब सूर्योदय के साथ टूट जाएगा और कवि के साथ पाठकों को भी उस दिव्य सौन्दर्य की अनुभूति करवा देगा जिसका अभी तक वे रस-पान कर रहे थे। कवि लिखता है “और / जादू टूटता है इस उषा का/ अब सूर्योदय हो रहा है।” यहाँ हम देखते हैं कि दो अन्तरालों के बीच में एक योजक शब्द ‘और’ है। यह ‘और’इस कविता की खूबसूरती है। यह प्रात:काल के जादुई प्रभाव और उसकी समाप्ति का संधिस्थल है। यह ‘और’ प्रात:कालीन सौन्दर्य की आभा को दिन की कठोर श्रमशीलता के यथार्थ से अलग करता है। इसलिए कवि ने सूर्योदय होने के साथ ही सुबह के दिव्य सौन्दर्य के टूट जाने की घोषणा की है। ग्रामीण लोग भी अब अपने दिन भर के कार्यों में व्यस्त हो जाएंगे।
इस तरह हम देखते हैं कि खूबसूरत बिम्बों से सजी यह कविता ‘प्रात:कालीन सौन्दर्य’ और ‘ग्रामीण जीवनचर्या’ को एक साथ लेकर चलती है। इस कविता के बिम्ब अनूठे हैं । यह हिंदी कविता में सुबह के सौन्दर्य को व्यक्त करने वाली कुछ विशिष्ट कविताओं में से एक है जिसमें रंग परिवर्तन अद्भुत सौन्दर्य और गाँव की दिनचर्या एक साथ व्यक्त हुई है। इसमें शमशेर ने एक प्रकार से बिम्बलोक की सर्जना की है। यह बिम्बलोक एक तरफ सर्वथा नया है तो दूसरी ओर बड़ा मानवीय भी है। इसके बिम्बों द्वारा कविता के अर्थ का विस्तार होता है। इसकी विशिष्टता से प्रभावित होकर अशोक वाजपेयी कहते हैं कि इस कविता में गहरा रोमान हैअनूठा बिम्ब है। मुझे नहीं मालूम की पहले किसी कवि ने चाहे संस्कृत मेंअपभ्रंश में या हिन्दी में हीआसमान को देखकर कहा हो कि वह राख से लिपा हुआ चौका जैसा लग रहा है। बड़ा कवि यही करता है कि  ब्रम्हाण्ड को संक्षिप्त करके आपकी मुट्ठी में ला देता है और कई बार पाठक को ऐसा साहस और कल्पनाशीलता देता है कि वह अपना हाथ बढ़ाकर आकाश को छू सके।”


(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। उन्होने शमशेर बहादुर सिंह की पुण्यतिथि पर उनकी एक बहुचर्चित कविता उषा ( यू ट्यूब पर यहाँ देखें) पर उन्होंने भाष्य किया है। यह भाष्य हिन्दी की बहुचर्चित कविताओं के भाष्य की शृंखला में दूसरा है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)

शनिवार, 9 मई 2020

कथावार्ता : उषा- शमशेर बहादुर सिंह


उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
 
भोर का नभ
 
राख से लीपा हुआ चौका
[अभी गीला पड़ा है]
 
बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गयी हो
 
स्‍लेट पर या लाल खड़िया चाक
                 मल दी हो किसी ने
 
नील जल में या किसी की
                 गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
 
और...
     जादू टटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।




उषा : शमशेर बहादुर सिंह की कविता

(महत्त्वपूर्ण कृतियों के भाष्य के क्रम में अगली प्रस्तुति शमशेर बहादुर सिंह की कविता उषा। भाष्यकार रहेंगे - डॉ शत्रुघ्न सिंह)

शुक्रवार, 1 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ अज्ञेय की कविता - नदी के द्वीप

(हिन्दी की एक बहुत चर्चित और विशिष्ट कविता नदी के द्वीप का भाष्य प्रस्तुत कर रहे हैं डॉ गौरव तिवारी- सम्पादक)


आधुनिक हिंदी साहित्य में अज्ञेय का व्यक्तित्व विशिष्ट है  हम उनकी एक बहुचर्चित काव्य कृति "नदी के द्वीप" की चर्चा कर रहे हैं  ('नदी के द्वीप' कविता को यहाँ क्लिक करके पढ़ें) "नदी के द्वीपकविता अज्ञेय द्वारा 11 दिसम्बर, 1949 को तत्कालीन इलाहाबाद में लिखी गई कविता है। यह कविता 1965 में आए उनके काव्य संग्रह 'हरी घास पर क्षण भरमें संकलित है। अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं जो साहित्य में नए-नए प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते रहे हैं  उनका मानना है की कई शताब्दियों से साहित्य में एक ही प्रकार के प्रतीकों और बिंबों के प्रयोग से विचारों और भावों के संप्रेषण में बाधा हुई है। अपनी एक कविता "कलगी बाजरे कीमें वह कहते भी हैं कि जिस प्रकार वासन को अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है उसी प्रकार किसी भी शब्द को प्रतीक या बिंब के रूप में एक सीमा से ज्यादा प्रयोग करने पर उसकी अर्थवत्ता वह नहीं रह जाती जो रचनाकार चाहता है। अपने इस विचार के मद्देनजर वे अपने साहित्य में प्रतीकों और बिंबों के स्तरों पर ढेर सारे प्रयोग करते हैं  उनके सभी प्रयोग बड़े सार्थक और उनके भावों का वहन करने वाले हैं 
          "नदी के द्वीपकविता व्यक्तिसंस्कृति/परंपराइतिहास और समाज के संबंधों को व्यक्त करने वाली कविता है। अज्ञेय के साहित्य के प्रत्येक रूप चाहें वह कविता होकहानी होउपन्यास होनिबंध साहित्य हो यात्रा या संस्मरण साहित्यसभी में व्यक्तित्वसंस्कृतिपरम्परासमाज आदि के अंतर्संबंधों को पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। अज्ञेय के साहित्यिक के रूप में आरम्भ से अंत तक ये विषय उनके चिन्तना के केंद्र में रहे हैं।
          कविता पर आने के पहले इस बात पर भी चर्चा कर लेना आवश्यक है कि अज्ञेय के साहित्य पर अंग्रेजी कवि और आलोचक टी एस इलियट का बहुत ज्यादा प्रभाव है  टी एस इलियट ने अपने साहित्य में परम्परा को बहुत महत्व दिया है। 'परंपरा का सिद्धांतदेते हुए वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है तो उस व्यक्तित्व की निर्मित में ना सिर्फ उसकी मेधाउसकी समझउसके ज्ञानउसके परिवेश का प्रभाव होता है बल्कि वह अपने इतिहास और परंपरा से भी निर्मित होता है। अज्ञेय इलियट की इस बात से न सिर्फ प्रभावित हैं बल्कि बहुत सहमत भी हैं। इसके अतिरिक्त इनकी यह भी मान्यता है कि ' संस्कृति मूलतः  एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने वाले निर्माता प्रभावों का नाम हैउन सभी निर्माता प्रभावों का जो समाज कोव्यक्ति कोपरिवार कोसबके आपसी सम्बन्धों कोश्रम और सम्पत्ति के विभाजन और उपयोग कोप्राणिमात्र से ही नहींवस्तुमात्र से हमारे सम्बन्धों कोनिरूपित और निर्धारित करते हैं।उनका यह भी मानना है कि 'संस्कृतियाँ लगातार बदलती हैंक्योंकि भौतिक परिस्थितियाँ भी लगातार बदलती हैं।' (संस्कृति की चेतनानिबंध)
          यह पूरी कविता प्रतीकात्मक है।  इस कविता में नदी परंपरा या संस्कृति का प्रतीक है तो द्वीप व्यक्तित्व का प्रतीक है।  नदी के किनारे हमारा इतिहास भी हो सकते हैं और समाज भी। कविता शुरू होती है'हम नदी के द्वीप हैं।/हम नहीं कहते कि हम को छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय।/वह हमें आकार देती है। हमारे कोणगलियाँ अंतरीपउभारसैकत कूल/सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।' कवि बताता है कि हम नदी के द्वीप के समान हैं। चारो तरफ से जल से घिरा भूस्थल द्वीप कहलाता है।  जिस प्रकार नदी द्वारा लाई गई मिट्टीबालू आदि से द्वीप को एक रूप और आकार की प्राप्ति होती है उसी प्रकार हमारा व्यक्तित्व भी हमारी परम्परा या संस्कृति से रूप और आकार प्राप्त करता है। अपने उद्गम स्थल से द्वीप तक पहुँचते-पहुँचते नदी विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों से गुजरती है। जिस प्रकार विभिन्न उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई नदी अपने साथ विभिन्न प्रकार की मिट्टी और रेत आदि से द्वीप का निर्माण करती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी अपने लंबे और विभिन्न प्रकार के ज्ञान अनुभवों से हमारा निर्माण करती है। हमारे चाहे अनचाहे हमारा व्यक्तित्व हमारी परम्परा से जुड़ जाता है। हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न रूप (कोण), हमारे मन का सकरापन या तुच्छता (गलियां), हमारी हरे-भरेपन और जीवंतता से युक्त टापू रूपी कोई विशिष्टता (अंतरीप), हमारी उदात्तता (उभारऔर हमारे व्यक्तित्व का वह रेतीलापन जो हमें बंजर सा बना देता है (सैकत कूलये सब अपनी-अपनी इयत्ता के साथ इसी परम्परा द्वारा निर्मित हैं। इसलिए हम अपनी परम्परा को खुद से अलगाने की बात कह ही नहीं सकते।  कवि यहाँ यह सीधे बताता है कि किसी के व्यक्तित्व की जो भी विशिष्टताबड़प्पनअच्छाईन्यूनता या बुराई होती है उसके निर्माण में उसकी परम्परा का भी हाथ होता है । इसलिए अपनी परम्परा से खुद को एकदम से काट लेना सम्भव नहीं है।
          कवि कहता है - 'माँ है वह। हैइसी से हम बने हैं।' कविता का यह वाक्य अपने पहले और बाद के अन्तरे से अलग है। मतलब सीधा है। कवि इस बात को अपनी विशिष्ट बात की तरह जोर देते हुए प्रस्तुत कर रहा है। वह एक व्यक्ति के लिए उसकी परम्परा का स्थान माँ के बराबर मानता है। जिस प्रकार माँ न सिर्फ अपने बच्चे को जन्म देती है बल्कि उसका भरण पोषण करके उसे तैयार करती है उसी प्रकार परम्परा भी एक व्यक्तित्व को रूप देती है और अपने विभिन्न तत्वों से उसका पोषण करती है।
 अपनी परम्परा के प्रति इतनी आस्था के बावजूद कवि काव्यक्तित्व की विशिष्टता के प्रति और उसकी स्वतंत्र पहचान के प्रति सजगता है। अज्ञेय का मानना है कि एक ही संस्कृति या परम्परा से एक ही समय में अनेक व्यक्तित्वों की निर्मिति होती है। ये सभी व्यक्तित्व या रूप किसी सांचे में ढले नहीं होते। ये अपनी परम्परा के भिन्न-भिन्न तत्वों से अलग अलग प्रकार से निर्मित होते हैं। इनकी विशिष्टता अलग-अलग होती है इसलिए प्रत्येक व्यक्तित्व परम्परा का अंग होता हुआ भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसलिए वह कहता है'किंतु हम हैं द्वीप।/हम धारा नहीं हैं।स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी केकिंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।हम बहेंगे तो हम रहेंगे ही नहीं।/पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जायेंगे।और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?/ रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।अनुपयोगी ही बनाएंगे।' यहाँ कवि द्वीप होना और धारा होने की विशिष्टता को अलग अलग रेखांकित कर रहा है और बता रहा है कि जिस प्रकार धारा का अंग या धारा की निर्मिति होते हुए भी द्वीप की अपनी वह विशिष्टता होती है जो उसकी पहचान को धारा से अलग आधार देती है उसी प्रकार परम्परा की निर्मित होते हुए भी व्यक्तित्व की एक विशिष्ट पहचान होती है । इसलिए परम्परा के प्रति व्यक्तित्व के समर्पण की सीमा निश्चित है। अगर हम गाँधी और बुद्ध के उदाहरण से समझें  तो दिखेगा कि महात्मा गाँधी ने अपनी परम्परा के बुद्ध से अहिंसा को ग्रहण किया। यह अहिंसा बुद्ध की भी एक पहचान बनी थी और बाद में गांधी की भी पहचान बनी। गाँधी की निर्मिति में बुद्ध की भी भूमिका है। लेकिन गाँधी का बुद्ध के प्रति एक स्थिर समर्पण है। गाँधी बुद्ध की ज्यों की त्यों नकल नहीं करते। अगर गाँधी बुद्ध का ज्यों का त्यों नकल करते तो उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान नहीं बनती। सम्भव है ज्यों का त्यों नकल में वे बौद्ध भिक्षुओं की भीड़ का कोई भिक्षु बनकर रह जाते। वे अहिंसा को मन की वृत्ति से बड़ा फलक देते हैं। वे उसे आंदोलन बनाते हैं। हथियार बनाते हैं। उसे सत्याग्रह से भी जोड़ते हैं। बुद्ध से गाँधी तक आते आते अहिंसा की मूल आत्मा तो वही रहती है लेकिन युग के अनुरूप उसकी शक्ति का विस्तार होता है। और यही बात गांधी को अलग व्यक्तित्व का रूप भी देती है। इसीलिए कवि कहता है कि परम्परा के अंग तो हैं किंतु परम्परा का अंग होते हुए भी एकदम से परम्परा ही नहीं हैं। हमारे अंदर कुछ और विशिष्टताएं हैं जो हमारी अलग पहचान बनाती हैं। हमारी यदि अलग विशिष्टता नहीं हुई तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। हम नदी की रेत की तरह भीड़ का शुष्कअनुपजाऊ हिस्सा बनकर ही रह जाएंगे। अपनी अलग विशिष्टता के कारण ही हमारा वजूद है। अन्यथा हमारी न कोई पहचान होगी और न वजूद। हम भीड़ बनकर बह जाएंगे। कवि यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात रेखांकित करता है। वह कहता है कि अपनी परम्परा से पोषण पाकर जो लोग अपनी अलग पहचान नहीं बनातेरेत के समान सिर्फ बहते या जीते चले जाते हैं वे अपनी परम्परा को गन्दा ही करते हैं।
          कवि आगे कहता है'द्वीप हैं हम। / यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में। / वह बृहद भूखंड से हमको मिलाती है। / और वह भूखंड अपना पितर है।' यहाँ कवि ने परम्परा और व्यक्तित्व को नदी और द्वीप के प्रतीक से प्रस्तुत करते हुए बताया है कि विशिष्ट व्यक्तित्व होना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य की बात है। वह कहता है कि  हमारे व्यक्तित्व को हमारी परम्परा हमारे समाज और इतिहास से जोड़ती है। वह यदि परम्परा और संस्कृति को माँ का स्थान देता है तो हमारे समाज और इतिहास को पिता के रूप में रखता है। वह कहता है कि जैसे नदी अपने गोद में द्वीप को धारण करती है उसी प्रकार एक परम्परा की गोद में एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। और जिस प्रकार नदी द्वीप और बड़े भूखंड को जोड़ती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी हमारे समाज और हमारे इतिहास से हमें जोड़ती है। यहाँ कवि स्पष्ट करता हुआ दिखता है कि किसी व्यक्तित्व के निर्माण में सिर्फ परम्परा की नहीं बल्कि समाज और इतिहास की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाप होना माँ होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
          कवि परम्परा के आगे बढ़ते चले जाने की बात करता हुआ कहता है कि - 'नदीतुम बहती चलो। / भूखंड से जो दाय हमको मिला हैमिलता रहा है, / माँजतीसंस्कार देती चलो'  अर्थात परम्परा प्रवाहमान रहे। समाज और इतिहास से व्यक्ति जो प्राप्त करता है उसकी कमियोंबुराइयोंगंदगियों को साफ करती और सुन्दर रूप देती चले। प्रत्येक समाज के अंदर समय के साथ अनेक बुराइयाँ आ जाती हैं। कवि स्पष्ट कह रहा है कि हमारे समाज के अंदर आयी बुराइयों को दूर करने के तत्व हमारी परम्परा में ही मौजूद होते हैं और इन तत्वों के सहारे समाज में आ गई बुराइयों से मुक्ति पाई जा सकती है।
          एक निबंध में अज्ञेय संस्कृति पर चर्चा करते हुए कहते हैं - 'संस्कृति व्यक्तित्व का विस्तार और प्रसार माँगती हैसंकोच या छँटाव नहीं। संस्कारी व्यक्ति बराबर नयी उपलब्धियों को आत्मसात करता चलता है।' (प्राची-प्रतीची)। वे सिर्फ आंतरिक कारणों से समाज में आ गई बुराइयों पर नजर नहीं रखते। वे कहते हैं - 'यदि ऐसा कभी हो / तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से - अतिचार से-/ तुम बढ़ोप्लवन तुम्हारा घरघरा उठे, / यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय / तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर / फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे। / कहीं फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार। / मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।'कभी-कभी कोई समाज अति-आत्मविश्वास से इतना भर जाता है कि वह इसके कारण अनेक बातों पर नजर नहीं रख पाता। हमारी अत्यधिक प्रसन्नता या अत्यधिक श्रेष्ठता का भाव भी कई बार समाज में अनेक कमियों के आने का कारण बन जाता है। हम खुद को बड़ा और श्रेष्ठ मानने के कारण इतने लापरवाह या दम्भी हो जाते हैं कि सब कुछ नष्ट होना अनिवार्य हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी के चिन्ता सर्ग में ऐसी ही स्थिति की देव संस्कृति के ध्वंस की बात की है जो जीवन के विभिन्न आयामों की श्रेष्ठता को प्राप्त करने के बाद अपनी वासना के आह्लाद में ऐसी डूबी की सब कुछ नष्ट हो गया। वे लिखते हैं कि देवताओं की संस्कृति का रूप ऐसा था कि - 'कीर्तिदीप्तिशोभा थी नचती अरुण किरण सी चारो ओर,/ सप्तसिंधु के तरल कणों मेंद्रुम दल मेंआनंद विभोर।शक्ति रही हाँ शक्तिप्रकृति थी पड़-तल में विनम्र विश्रांत, / कँपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत!' प्रसाद वर्णन करते हैं कि मनु कहते है - 'स्वयं देव थे हम सबतो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?' कामायनी में देव संस्कृति के नष्ट होने का प्रसंग आह्लाद के कारण किसी संस्कृति के नष्ट होने का श्रेष्ठ उदाहरण है।
          आगे कवि बताता है कि कभी किसी देश या समाज को किसी दूसरे देश या समाज के क्रूर स्वेच्छाचारिता या अत्याचार का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कोई परम्परा किसी बाहरी तत्वकिसी विस्तारवादी नीति वाली संस्कृतिकिसी आक्रमणकारी,  किसी आततायी या किसी भी अन्य के सम्पर्क में आकर भी अनेक बुराइयों से युक्त हो जाती है। कभी सत्ता के बल पर या कभी किसी अन्य प्रकार की कुटिलता के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से जैसे किसी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए वह बारिश या अन्य बाहरी कारणों से उफनाई हुई नदी द्वारा किसी द्वीप या समाज को डुबो देने का उदाहरण देता है। वह कहता है कि यह सब कर्मनाशा नदी की तरह भी हो सकता हैकि उसके जल के स्पर्श मात्र से सभी पुण्य समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार का कोई झंझा भी यदि संस्कृति या परम्परा को वह रूप को प्रदान कर ले कि उसके अंदर समाजहंता बुराइयां आ जाएंवह परम्परा कई युगों में प्राप्त सभी अच्छाइयों को नाश करने वाली हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं है। हम इस स्थिति को भी यह सोचकर स्वीकार कर लेंगेकि हमें अपने अंदर आई इन कमियों से मुक्त होना है। हमारे व्यक्तित्व की विशिष्टता यदि इस विपरीत स्थिति में समाप्त हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं। हमें इस बात के लिए धैर्य धारण करना होगा कि हमारी परम्परा या संस्कृति में इतनी शक्ति है कि अपने आंतरिक सकारात्मक तत्वों के सहयोग से वह हमें फिर कोई रूप देगी। हमारे अंदर की गंदगियों को वह दूर करेगी। फिर कोई व्यक्ति अपने लिए किसी आधार को बनाएगा और इस आधार पर किसी बड़े व्यक्तित्व का निर्माण होगा जो समाज में आ चुकी कमियों और बुराइयों को दूर करने का प्रयास करेगा और  दूसरों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा।
          कविता की अंतिम पंक्ति में अज्ञेय अपनी परम्परा और संस्कृति को बड़ी आत्मीयता से माँ सम्बोधन देते हैं। और कहते हैं कि ऐ मेरी संस्कृतिपरम्परा रूपी माताइस नए बनते व्यक्तित्व के निर्माण में फिर तुम्हारी आवश्यकता होगी और तुम उसे अपने संस्कारो से निर्मित करना। इस कविता के आरम्भ में भी उन्होंने एक पंक्ति के अलग बन्ध में नदी रूपी संस्कृति को माँ सम्बोधन देते हुए कहा है कि एक व्यक्तित्व की सभी अच्छाईयों और न्यूनताओं के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका माँ की होती है।
          जिस प्रकार "असाध्य वीणामहान रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसके आस्वादन की प्रक्रिया को बताने वाली महान रचना है उसी प्रकार "नदी के द्वीपकवितापरम्परा और सांस्कृति के अंदर आए उतार चढ़ावों के बीच सार्थक व्यक्तित्वों के निर्माण में उसकी भूमिका को बताने वाली कविता है। कवि इस कविता में संस्कृति के तत्वों को ग्रहण करके खुद को सार्थक व्यक्तित्व बनाने की बात कर रहा है और कह रहा है कि यदि हम खुद को सार्थक नहीं बनाए तो जिस प्रकार रेत नदी के जल को गन्दा करता है उसी प्रकार निरर्थक व्यक्ति के रूप में हम अपनी परम्परा और संस्कृति को गन्दा करेंगे।




लेखक परिचय- 

डॉ गौरव तिवारी भगवान बुद्ध और प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय की पावन धरती कुशीनगर के निवासी हैं। वह हिंदी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य  समीक्षक और गंभीर अध्येता हैं। साहित्यिक रचनाएं आपके संस्पर्श से अपने भाव और संवेदना के साथ खिल उठती हैं। डॉ गौरव तिवारी ने उच्च शिक्षा 'हिंदी साहित्य के तीर्थ' इलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज से प्राप्त की है। उन्हें हिंदी साहित्य के ख्यातिलब्ध विद्वान आचार्य सत्यप्रकाश मिश्र के सानिध्य में डी. फिल. की उपाधि प्राप्त हुई। आपकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मुस्लिम उपन्यासकार : परिवेश और उपन्यास' प्रकाशित हो चुकी है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक आलेख एवं शोध-आलेख विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हैं। आपके कुशल सम्पादन में शीघ्र ही निबंध विधा पर आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। आप देश-प्रदेश की अनेक सभा, संगोष्ठियों एवं संस्थाओं में मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित होते रहते हैं। सम्प्रति बुद्ध पी जी कॉलेज, कुशीनगर में सहायक आचार्य, हिन्दी के रूप में समाज और साहित्य की सेवा में समर्पित हैं।


सद्य: आलोकित!

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 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

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