प्रशांत त्रिपाठी, जिन्हें आचार्य प्रशांत कहा जा रहा है, एक भारी वक्ता हैं। वह अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं को विकृत कर रहे हैं। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह एक "फर्जी आचार्य" हैं। यह कई लोगों की व्यक्तिगत राय और अनुभवों पर आधारित तथ्य है।
कुछ लोग, जिन्हें प्रशांत त्रिपाठी ने अपने झुंड से जोड़ लिया है, उन्हें एक प्रेरणादायक व्यक्ति मानते हैं, जो गीता, उपनिषद और अन्य भारतीय ग्रंथों की को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने IIT दिल्ली और IIM अहमदाबाद जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की, सिविल सेवा में कार्य किया जो संदेहास्पद है और अप्रमाणित। उनके यूट्यूब चैनल, जहां उनके 50 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं जो प्रमोशन के अंतर्गत क्रय करके पाए गए हैं।
कुछ आलोचक उन्हें "फर्जी" कहते हैं। उनका तर्क है कि "आचार्य" की उपाधि पारंपरिक रूप से संस्कृत विद्या या शास्त्रीय शिक्षा से जुड़ी होती है, और प्रशांत त्रिपाठी के पास ऐसी औपचारिक डिग्री का कोई सार्वजनिक प्रमाण नहीं है। कुछ का यह भी कहना है कि वे अपने प्रचार और लोकप्रियता के लिए विज्ञापन का सहारा लेते हैं, जिसे वे गंभीर आध्यात्मिकता से जोड़ते नहीं देखते। उदाहरण के लिए, X पर कुछ यूजर्स ने दावा किया है कि उनके पास शास्त्री या आचार्य की डिग्री नहीं है। यह सच है।
यद्यपि "आचार्य" शब्द का प्रयोग आधुनिक संदर्भ में औपचारिक डिग्री से ही नहीं जुड़ा है बल्कि यह एक सम्मानजनक संबोधन भी है, जो प्रशांत के अनुयायियों द्वारा दिया गया है। प्रशांत त्रिपाठी ने अपनी शिक्षा पारंपरिक गुरुकुल प्रणाली से नहीं ली है। वह अभियांत्रिकी और प्रबंधन के छात्र अवश्य रहे हैं।
उनके व्याख्यानों को सुनकर हालांकि वह झेले नहीं जाते, उनकी मुद्रित सामग्री पढ़कर, या उनके संगठन के काम को देखकर स्वयं निर्णय ले सकते हैं और पायेंगे कि वह फर्जी वक्ता हैं।
उनकी शैली घटिया है और विचार अस्पष्ट तथा अपरिपक्व
आचार्य प्रशांत की शैली "घटिया" है और उनके विचार "अस्पष्ट तथा अपरिपक्व"। प्रशांत त्रिपाठी की प्रस्तुति बोलचाल की भाषा में होती है, इसमें शास्त्रीयता का अभाव है।इस बोलचाल में वे जटिल आध्यात्मिक अवधारणाओं को दैनंदिन के उदाहरणों से जोड़ते हैं। यह सरल और प्रभावी नहीं अपितु "घटिया" और उलझाऊ होता है। अगर पारंपरिक आचार्यों की औपचारिक, संस्कृत-आधारित और शास्त्रीय शैली की अपेक्षा से देखें तो प्रशांत बहुत सतही दिखेंगे। उदाहरण के लिए, वे अक्सर आधुनिक मुद्दों जैसे रिश्ते, करियर या सोशल मीडिया को अपने बोलने में शामिल करते हैं, जो कुछ को कम गंभीर या सतही लग सकता है।
प्रशांत त्रिपाठी के विचार मुख्य रूप से अद्वैत वेदांत पर आधारित हैं, जिसमें आत्म-जागरूकता, अहंकार का त्याग, और सत्य की खोज पर जोर होता है। वे इसे आधुनिक संदर्भ में पेश करने का प्रयास करना चाहते हैं, जो मूल ग्रंथों के अर्थ से एक बड़े विचलन का सूचक है। उनके व्याख्यान दोहराव वाले या बहुत सामान्य होते हैं, जब वह "अहंकार छोड़ो" या "सत्य को जानो," जैसे बिना गहरे दार्शनिक विश्लेषण के अपनी बात रखते हैं। उनके विचारों में गहराई की कमी है। वे हर विशेष विषय पर असंगत स्थापनाएं करते हैं?
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हिरण्यपु प्रशांत त्रिपाठी |
एक प्रसिद्ध विद्वान, अभी वह इतने बड़े विद्वान भी नहीं है कि नाम लिया जाए तथापि आप गूगल कर सकते हैं, का कहना है कि "प्रशांत त्रिपाठी आध्यात्मिकता को ओवरसिम्प्लिफाई करते हैं, जो इसे सस्ता बनाता है।" यह एकदम सटीक विश्लेषण है। इसके विपरीत, उनके खरीदे हुए भाड़े के प्रशंसक इसे उनकी खासियत बताते हैं। उनके मत में यह जटिलता को आम आदमी तक पहुँचाना है। हालांकि यह एक प्रोपेगंडा भर है।
हम प्रशांत त्रिपाठी के विचारों की "अस्पष्टता" और "अपरिपक्वता" को ठोस उदाहरणों के साथ देखना चाहें तो उनकी एक सर्वाधिक बिकी मुद्रित सामग्री "स्त्री" (Stree) के आधार पर कह सकते हैं जो उनके विचारों की एक बानगी हो सकती है।
मुद्रित सामग्री "स्त्री" का संक्षिप्त परिचय
"स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी मानसिक गुलामी, और आध्यात्मिक मुक्ति पर बात करते हैं। वे अद्वैत वेदांत के दर्शन को आधार बनाकर कहते हैं कि स्त्री का वस्तुकरण (objectification) उसकी दासता का कारण है, और इससे मुक्ति आत्म-जागरूकता से संभव है। इस में वे शरीर और मन के बंधनों को छोड़ने की बात करते हैं।
इस मुद्रित सामग्री में प्रशांत त्रिपाठी बार-बार "स्त्री को वस्तु न समझें" या "अहंकार छोड़ें" जैसे वाक्य प्रयोग करते हैं, लेकिन कहीं भी यह स्पष्ट नहीं करते कि यह व्यावहारिक रूप से कैसे लागू होगा! उदाहरण के लिए, वे कहते हैं, "स्त्री जब अपना स्त्रीत्व छोड़ देती है, तो वह वासना की वस्तु न रहकर देवी बन जाती है।" यह विचार ऊपरी तौर पर गहन लगता है, लेकिन "स्त्रीत्व छोड़ना" का आशय क्या है? क्या यह भावनाओं को दबाना है, सामाजिक भूमिकाओं को नकारना है, या कुछ और? इसकी व्याख्या अस्पष्ट रहती है, जिससे पाठक को व्यावहारिक दिशा नहीं मिलती। यहीं प्रशांत त्रिपाठी की सीमा प्रकट हो जाती है।
प्रशांत त्रिपाठी बिना ठीक से स्पष्ट किए दार्शनिक जटिलता को अपने कथन में ले आते हैं। वे बार बार अद्वैत वेदांत की बात करते हैं, जैसे "आत्मा ही सत्य है, देह मिथ्या है," लेकिन इसे दैनंदिन की ज़िंदगी से जोड़ने में कमी रहती है। एक सामान्य पाठक, खासकर जो दर्शन से परिचित नहीं है, यह समझने में तो असमर्थ रहता ही है कि यह विचार उनकी जटिल सामाजिक वास्तविकता में कैसे फिट बैठता है। विशेष पाठक अपना माथा पीट लेता है। यह अस्पष्टता उनके लेखन/बड़बोलेपन को सतही बना देती है।
अति-सामान्यीकरण: मुद्रित सामग्री "स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी स्त्री की स्थिति को एक व्यापक दार्शनिक ढांचे में रखते हैं, लेकिन सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक विविधताओं को वह संज्ञान में नहीं रखते। उदाहरण के तौर पर, वह कहते हैं कि स्त्री की दासता का कारण उसका "देह से तादात्म्य" है। यह विचार सभी महिलाओं पर एकसमान लागू नहीं हो सकता—एक मज़दूर की समस्याएँ और एक शिक्षित शहरी स्त्री की समस्याएँ अलग हैं। इस जटिलता को न संबोधित करना उनके विश्लेषण को अपरिपक्व बनाता है, क्योंकि यह वास्तविकता की गहराई को नहीं छूता। इसी प्रकार और भी कोण निकाले जा सकते हैं।
प्रशांत त्रिपाठी में आलोचनात्मक परिपक्वता की कमी स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे पारंपरिक मान्यताओं (जैसे स्त्री का मातृत्व या भावुकता) पर सवाल उठाते हैं, लेकिन वैकल्पिक रास्ता सुझाने में असफल रहते हैं। उदाहरण के लिए, वे "आंचल में दूध और आँखों में पानी" को स्त्री की गुलामी का प्रतीक बताते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि इन गुणों को त्यागने के बाद समाज कैसे संतुलन बनाएगा। यह एकतरफा दृष्टिकोण अपरिपक्व ही है, क्योंकि यह सामाजिक संरचनाओं के प्रति संपूर्ण समझ नहीं दिखाता। यह उनकी सीमा का परिचायक है।
प्रशांत त्रिपाठी के यहां बिना ठोस आधार का आदर्शवादी रवैया दिखता है। एक जगह वह कहते हैं, "स्त्री को मन और तन की बंधकता से मुक्त होना चाहिए।" यह आदर्शवादी कथन है, क्योंकि इसके लिए कोई परिपक्व कार्ययोजना नहीं है। क्या यह शिक्षा से होगा, सामाजिक सुधार से, या व्यक्तिगत साधना से? इसकी अनुपस्थिति उनके विचारों को अपरिपक्व बनाती है, क्योंकि यह केवल सिद्धांत तक सीमित रहता है।
हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मुद्रित सामग्री "स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी के विचार अस्पष्ट हैं, क्योंकि वे दार्शनिक बातें तो करने का प्रयास करते हैं लेकिन उलझ जाते हैं क्योंकि स्वयं उनका कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं है। उनकी व्याख्या या अनुप्रयोग स्पष्ट नहीं है। उनकी सोच अपरिपक्व है, क्योंकि वे जटिल सामाजिक मुद्दों को बहुत सरल या सतही तरीके से देखते हैं, बिना व्यावहारिक समाधान या गहरे विश्लेषण के।