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बुधवार, 4 मई 2022

बौद्ध धर्म को संकुचित करते आधुनिक बौद्ध

-पीयूष कान्त राय

संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सर्विसेज एक्जाम 2016 बैच की टॉपर टीना डाबी ने हाल ही में सीनियर आईएएस अधिकारी प्रदीप गवांडे के साथ शादी कर ली । यह उनका दूसरा विवाह है। उनकी शादी कई कारणों से चर्चा में रही और आए दिन ट्विटर एवं अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए इसका प्रचार भी हुआ। अब उनके विवाह की तस्वीरें सुर्खियां बनी हुई है। बौद्ध भिक्षु कश्यप आनंद द्वारा बौद्ध पद्धति से शादी समारोह संपन्न कराया गया जिसके साक्षी के रूप में भगवान बुद्ध की छोटी सी मूर्ति के साथ बाबा साहब अंबेडकर की बड़ी तस्वीर रखी गई थी।

इसमें कोई शक नहीं है कि भगवान बुद्ध ने अपने जीवन काल में तपोबल और ज्ञान से जो दर्शन दिया वह संपूर्ण रूप से ग्राह्य है। बौद्ध धर्म के प्रचार में महान सम्राट अशोक ने जिस  दूरदर्शी दृष्टि का परिचय दिया उसने आगे चलकर बौद्ध धर्म  को अपने मूल रूप से जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । अशोक के अलावा भी कई शासकों एवं दार्शनिकों ने बौद्ध धर्म के विषय में सकारात्मक रुख अपनाए। लेकिन आज के दौर में महात्मा बुद्ध के बाद बौद्ध धर्म में अंबेडकर का स्थान हो गया है। अंबेडकर आजीवन हिंदू रहे। उन्होंने हिंदू रहते हुए इसकी कुरीतियों को दूर करने का हरसंभव प्रयत्न किया। जीवन की संपूर्ण कृतियां उन्होंने हिंदू रहते ही उद्धेलित की थी। अपनी मृत्यु से केवल कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपने समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अंगीकार किया था। देखा जाए तो बौद्ध दर्शन, चिंतन एवं इसके प्रचार-प्रसार में अंबेडकर का कोई योगदान नहीं रहा है। इसके बावजूद आज एक प्रतिक्रियावादी समूह अंबेडकर को बौद्ध दर्शन के प्रणेता के रूप में स्थापित करने में अपना सामर्थ्य झोंक दिया है। यह दृष्टि बौद्ध दर्शन जैसे महान मूल्यों के प्रति संकुचित दृष्टि पैदा करता है, जो हिंदुओं में एक खास वर्ग को लक्षित करके प्रचारित किया जाता है। अंबेडकर ने एक बार कहा था कि "मैं पैदा तो हिंदू हुआ हूँ लेकिन मैं हिंदू मरूँगा नहीं।" इस बात में उन्होंने कहीं भी बौद्ध धर्म का जिक्र नहीं किया है। 

यह जानना आवश्यक है कि अपने जीवन काल में गांधी और अंबेडकर दोनों को इस्लाम और ईसाई मत में दीक्षित करने के कई प्रयास हुए। गांधी ने तो गीता के "स्वधर्मे निधनं श्रेय" कहकर सच्चा हिंदू बने रहने का संकल्प किया किंतु भीम राव अम्बेडकर ने हिंदू न रहने के संकल्प का पालन किया। हालांकि यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने ईसाई अथवा इस्लाम स्वीकार नहीं किया।

वास्तव में धर्म के मसले पर अंबेडकर स्वयं ही अस्पष्ट थे। उन्होंने इस्लाम और ईसाई समुदाय की तीखी आलोचना की है। हालाँकि मृत्यु के कुछ दिन पहले उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया ,लेकिन वह सिर्फ उनकी हिंदू धर्म के प्रति कुंठा का प्रतिक्रियावादी स्वरूप था । आज भी उनके कट्टर समर्थकों में वही प्रतिक्रियावादी विचारधारा का समावेश झलकता है। यह पूरा मामला अपने आप में विचारणीय है।

पीयूष कान्त राय

(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है। टीना डाबी प्रकरण में नव बौद्ध वृत्ति पर समसामयिक घटनाक्रम पर उनकी यह विशेष टिप्पणी।)

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

हास्य का फूहड़ स्वरूप चिंताजनक है!

- पीयूष कान्त राय

  इस बार ऑस्कर अवॉर्ड सेरेमनी में उपजे विवाद ने महिलाओं के सौंदर्यबोध एवं उससे जुड़ी चर्चा के साथ-साथ कॉमेडी के वर्तमान स्वरूप को भी बहसतलब बना दिया है। ऐसा नहीं है कि नारीवाद संबंधी बहसों में यह कोई नया अध्याय है। इस तरह की चर्चा समय समय पर होती रही है और सौन्दर्य के मानकों पर जब तब प्रश्न चिह्न खड़े किए जाते रहे हैं।  लेकिन यह विवाद जो दिन प्रतिदिन नाटकीय स्वरूप ले रहा है उसने ह्यूमर या कॉमेडी के नाम पर भद्देपन के बाजार को फिर से गरमा दिया है। क्रिस रॉक, जो एक जाना माना मसखरा (स्टैंड अप कोमेडियन) हैं और प्रसिद्ध ऑस्कर अवार्ड सेरेमनी में मंच संचालन कर रहे थे, ने उस मंच से जैडा पिंकेट (विल स्मिथ, प्रसिद्ध अभिनेता और किंग रिचर्ड फिल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार विजेता की पत्नी) का मजाक बनाया और वहां मौजूद सभी दर्शक हंसने लगे। क्रिस रॉक ने जैडा पिंकेट के बाल विहीन सिर को लक्षित कर अपशब्द कहे, जिससे आहत होकर विल स्मिथ ने उन्हें मंच पर ही घूंसा मार दिया। ऑस्कर के आयोजकों ने इस अभद्र व्यवहार पर विल स्मिथ को दस वर्ष के लिए ऑस्कर समारोह में आने से प्रतिबंधित कर दिया। इस घटना के बाद कॉमेडी के औचित्य पर प्रश्न चिह्न खड़े होने लगे हैं।

कॉमेडी जनित हास्य दुनिया की परेशानियों से लड़ने का जज्बा प्रदान करता है लेकिन उस कॉमेडी का क्या मतलब रह जाता है जिसके पीछे नफरत या संकुचित भावना के प्रसार की मंशा छिपी हो। दूसरों का मजाक बनाना अब कॉमेडी की नई परिभाषा बन गया है। एक निश्चित एवं सामाजिक मान्यताप्राप्त मापदंड में स्त्रियों को पारंपरिक रूप से देखने की आदत बन चुकी है। इस विषय पर नारीवादी लेखिका सिमोन द बुववॉर ने प्रतीकात्मक व्यंग्योक्ति करते हुए कहा है कि "सबसे पहले तो उसके पंख काट दिए गए, इसके बाद उसे कोसा जाने लगा कि वो उड़ना नहीं जानती है"। क्रिस रॉक ने भी यही किया। उन्हें जैडा पिंकेट का बाल विहीन सिर हास्यास्पद लगा। स्त्री के सौन्दर्य बोध का पारंपरिक रूप से इतर रूप उसे हास्यास्पद क्यों लगा?

जैडा पिंकेट और विल स्मिथ

महान हास्य कलाकार चार्ली चैपलिन के बारे में कहा जाता है कि वह जब सबसे अधिक खुश होते थे तब वह स्वयं का ही मजाक उड़ाते थे। पर्दे पर अपने आप को ऊल-जुलूल स्थिति में परोसकर उन्होंने मूक फिल्मों में कॉमेडी के उच्चतम आयाम तय किये। 17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी लेखक मोलिएर ने अपने साहित्य एवं सशक्त भाषा के माध्यम से कॉमेडी का जो आख्यान किया, वह व्यक्तिकेंद्रित न होकर समाज में फैली कुरीतियों पर कटाक्ष होता था। मोलिएर के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह लुई 14वां का दरबारी था। दरबार के उस मध्यकालीन दौर में अपने गुणवत्तापूर्ण कॉमेडी नाटकों के माध्यम से उसने फ्रांसीसी भाषा को वैश्विक पहचान दिलाई। इसके इतर आज का कॉमेडी व्यक्ति, धर्म या लिंगविशेष पर केंद्रित है। कॉमेडी के इस दौर ने स्त्रियों के विषय में संकुचित धारणा बना दी है। वह कॉमेडियन्स का सहज लक्ष्य हैं।

भारत जैसे देश में इस विधा को निम्न कोटि का बना दिया गया है। स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर भद्दी गालियां परोसी जा रही हैं जो दर्शकों द्वारा खूब सराही भी जा रही हैं। धर्म विशेष खासकर हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाना कॉमेडी में प्रगतिवाद का प्रतीक बनता जा रहा है। खास बात यह है कि इस तरह के शो में अच्छी खासी भीड़ जुट रही है। कॉमेडी के नाम पर गाली, अपशब्दों का प्रयोग, व्यक्तिविशेष का अपमान एवं धर्म जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे का मजाक बनाने के खिलाफ कोई सेंसर बोर्ड नहीं है।

जब तक व्यक्ति केंद्रित फूहड़पन को बड़े मंचों से कॉमेडी का नाम दिया जाएगा तथा इसका समर्थन किया जाएगा तब तक इस तरह के ओछे मजाक करके अपना जेब भरने वालों की गाड़ी चलती रहेगी। इस तरह के वाहियात एवं संकुचित मानसिकता वाले कॉमेडियंस का हर माध्यम से बहिष्कार करने की जरूरत है ताकि ऐसे सामाजिक जहर को फैलने से रोका जा सके एवं साफ-सुथरी कॉमेडी को मुख्यधारा में जगह दी जा सके।

पीयूष कान्त राय

(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। NET परीक्षा उत्तीर्ण हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है। 

ऑस्कर समारोह के ताज़ा विवाद पर उनकी विशेष टिप्पणी।)

बुधवार, 9 जून 2021

नन्हें राजकुमार की बड़ी बातें


पीयूष कान्त राय

"नन्हा राजकुमार" फ्रांसीसी लेखक सैंतेक्जूपैरि द्वारा मूलतः बच्चों के लिए लिखी गयी किताब हैजिसमें एक 6-7 साल के बच्चे के माध्यम से तथाकथित द्वितीय विश्व युद्ध के कतिपय गंभीर विषयों को व्यंग्य द्वारा पेश किया गया है।

सर्वप्रथम सन 1943 ई० में अमेरिका में प्रकाशित हुई इस किताब का पहला पन्ना ही आकर्षित करता हैजहाँ लेखक यह पुस्तक अपने वयस्क मित्र को समर्पित करने से पहले बच्चों से क्षमा माँगते हुए कहता है कि फ्रांस का वयस्क फिलहाल भूख और सर्दी से जूझ रहा है। किसी वयस्क को समर्पित करने हेतु लेखक दूसरा तर्क यह देता है कि "वह सब कुछ समझ सकता है।" दूसरे, तर्क में छिपे व्यंग्य का पता तब चलता है जब लेखक कथावाचक के माध्यम से यह दर्शाता है कि छः साल की उम्र में उसके द्वारा बनाई गई तस्वीर को आज तक किसी वयस्क ने नहीं समझा जिसमें अजगर एक हाथी को निगलकर पचाने की कोशिश करता है। अजगर के पेट में हाथी एक विशेष प्रतीक है।अजगर के पेट में हाथी दिखाने के पीछे शायद लेखक की संभवत: मंशा यह भी रही हो कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने फ्रांस के एक बड़े भाग को अपने कब्जे में ले रखा था जिसे पचा पाना उसे मुश्किल हो रहा था।

नन्हा राजकुमार

इस कहानी का रोमांच शुरू होता है सहारा के रेगिस्तान सेजहाँ कथावाचक का जहाज़ खराब हो गया है और उस जहाज़ में वह अकेला होता है। उसके पास सिर्फ 8 दिन तक पीने योग्य पानी बचा है। उसे एक बच्चा मिलता हैप्यारा साजो उस निर्जन स्थान पर बिना डर या भय की मुद्रा के कथावाचक को एक भेंड़ की तस्वीर बनाने के लिए कहता है। भेड़ों की एक खास बात होती है कि जहाँ एक भेंड़ चलने लगे सभी उसका अनुसरण करने लगती हैं। यहाँ भी लेखक ने भेंड़ का जिक्र करके दुनिया के अन्धानुसरण की तरफ संकेत किया है और इस तरह कथावाचक का उस बच्चे (नन्हें राजकुमार ) साथ परिचय होता है। जब नन्हें राजकुमार को पता चलता है कि कथावाचक हवाई जहाज़ सहित नीचे गिरा है तब वह हँसता हुआ पूछता है, “तू आसमान से गिरा है?” इसके माध्यम से लेखक ने इस उपन्यास में भद्र लोगों की निकृष्ट सोच को भी बड़े ही कोमलता से दिखाया है।

बातचीत मेंकथावाचक को उस 'नन्हें राजकुमारके विषय मे पता चलता है कि वह किसी दूसरे ग्रह से आया है जो बहुत छोटा है और एक घर जितना ही बड़ा है। वह अपने ग्रह पर बाओबाब के पौधों को लेकर चिंतित है क्योंकि बाओबाब के पौधे बहुत विशाल होते हैं। बाओबाब के पौधों से उसके ग्रह के फटने की भी संभावना है। इन पौधों के एक बार बड़े हो जाने पर नष्ट करना भी मुश्किल होता है। नन्हा राजकुमार बताता है कि प्रत्येक ग्रह पर अच्छे और बुरे दोनों तरह के बीज होते हैं जिन्हें काफी संभाल कर रोपण की आवश्यकता होती है। वास्तव में लेखक यहाँ बच्चों की शिक्षा एवं संस्कारों की बात करता हैजिसे समय-समय पर देखते रहने और उसमें सुधार करते रहने की जरूरत होती है।

उपन्यास में कथावाचक ने कुछ नन्हें राजकुमार की बातों और कुछ अपनी कल्पना से  सोचना शुरू किया कि कैसे वह राजकुमार अपने द्वारा लगाए लगे किसी फूल से नाराज होकर अपना ग्रह छोड़  दिया होगा। अनेकों ग्रहों का चक्कर लगाते हुए वह इस ग्रह पर आ गया होगा। आगे की कहानी में एक-एक ग्रह पर नन्हें राजकुमार की उपस्थिति के एवं वहाँ रह रहे लोगों से उसकी बातचीत के द्वारा राज्यसत्तान्यायसामाजिक व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार इत्यादि के विषय मे बात की गई है ।

कई ग्रहों पर अपना ठिकाना ढूंढने में असफल होने के पश्चात यात्रा के सातवें चरण में राजकुमार पृथ्वी पर आता है। राजकुमार का फूललोमड़ी एवं लाइनमैन के साथ वार्तालाप के माध्यम से लेखक सामाजिकआर्थिक एवं राजनैतिक मूल्यों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है और इस तरह "बच्चों के लिए लिखे गएइस उपन्यास की गंभीरता का आभास होता है और यह आज 21वीं सदी के तथाकथित आधुनिक दौर में भी प्रासंगिक लगता है।

मूल रूप से फ्रेंच में लिखा गया यह उपन्यास दुनिया के लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हो चुका है। इसकी भाषा न सिर्फ सहजता से कथ्य का बोध कराती है बल्कि इसकी व्यंग्यात्मक शैली पाठकों को बाँधे रखती है।

यह उपन्यास इतना छोटा है कि किसी बड़ी कहानी जैसा लगता है। इतने कम शब्दों में समाज में उपजी कुरीतियों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों को उजागर करना दुनियाँ के कुछ ही लेखकों के सामर्थ्य में है और सैंतेक्जूपैरि को इस कला में महारत हासिल है।

पीयूष कान्त राय

पाद-टिप्पणी- 

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) का अन्त जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ 08 मई1945 में हुआ। हिटलर ने 1933ई० के अक्तूबर में ब्रिटेन और फ्रांस के साथ निरस्त्रीकरण की वार्ताएं भंग कर दी और लीग ऑफ नेशन्स की सदस्यता भी छोड़ दी। इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी पर कई अपमानजनक संधियाँ थोप दी गयी थींजिसके बोझ तले जर्मनी कराह रहा था। समूचा यूरोप दुनियाभर में अपना उपनिवेश बनाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध कर निकल पड़ा था जिसमें इंग्लैण्डफ्रांसपुर्तगाल और हॉलैंड ने सबसे अधिक सफलता प्राप्त की। अधिकार की इस अंतहीन लड़ाई में जर्मनी कसमसा रहा था। इसकी प्रतिक्रिया में हिटलर ने कुछ ऐसे कदम उठाए जो विश्व के दूसरे कई देशों को नागवार गुजरे। आस्ट्रिया और जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही अपमानित अनुभव कर रहे थे।

       जब हिटलर प्रतिकार करने के लिए उठ खड़ा हुआ तो तथाकथित मित्र राष्ट्रों ने अपने औपनिवेशिक राज्य विस्तार पर भी खतरा अनुभव किया। इसके अतिरिक्त हिटलर बहुत तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा था। यदि हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध घृणा नहीं की होती तो दुनिया की तस्वीर कुछ दूसरी होती और इस पुस्तक का नैरेशन भी पृथक होता। तब हाथी और अजगर का प्रतीक दूसरी कहानी कह रहा होता।

       हम इतिहास की घटनाओं को यदि प्रचलित मान्यताओं से किंचित इतर देखें तो कई चीजें विमर्श का विषय बनेंगी और ज्ञान जगत में नए गवाक्ष खुलेंगे।

      इस कृति और समीक्षा को उक्त के आलोक में भी पढ़ने की आवश्यकता है- संपादक

      (पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुरउत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयकाशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषायात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहाससंस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है।

          सैंतेक्जूपैरि की पुस्तक नन्हा राजकुमार को उन्होंने मूल रूप में यानि फ्रेंच वर्जन पढ़ा है और कथावार्ता के लिए विशेष रूप से यह समीक्षा लिखी है। इससे पहले वह रामचन्द्र गुहा की पुस्तक भारत : गांधी के बाद की समीक्षा कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी कथावार्ता के लिए कर चुके हैं।

          इस समीक्षा पर आपकी प्रतिक्रिया उन्हें उत्साहित करेगी।)

मंगलवार, 19 मई 2020

कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी


-पीयूष कान्त राय

वैचारिक निरपेक्षता के साथ अपने आप को किसी कालखंड विशेष में रखकर इतिहास लेखन करना दुरूह कार्य है। यह काम तब और कठिन हो जाता है जब हमारे पास बहुस्तरीय सामग्री मौजूद हो। हालांकि इस किताब की प्रस्तावना में लेखक खुद को किसी विचारधारा से न जोड़कर तथा व्यक्ति विशेष से प्रेरित हुए बिना आज़ादी मिलने के बाद के भारत का इतिहास लिखने की पुष्टि करते हैं लेकिन प्रस्तावना का शीर्षक ही 'एक अस्वाभाविक राष्ट्र" रखकर वैचारिक पृष्ठभूमि पर सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। एक अस्वाभाविक राष्ट्र के पक्ष में यूरोपीय विद्वानों एवं राजनीतिज्ञों के कथनों को रखा गया है। यूरोपीय लोगों के कथनों के साथ समस्या यह है कि पूर्वी यूरोप से पश्चिमी यूरोप तक सम्पूर्ण क्षेत्र में शायद उतनी विविधता नहीं है जितनी अकेले भारत देश में है। भारत की विविधता को उसकी अस्वाभाविकता मानने से पहले 1857 की महान क्रांति के एक पक्ष को समझना जरूरी है, जहाँ अलग-अलग जगहों के क्रांतिकारियों ने एकमत में दिल्ली में बैठे मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को अपना शासक माना। यह एकमात्र तथ्य भी इसका संकेतक हो सकता है कि हमारा देश एक स्वाभाविक राष्ट्र है। हम पेंगुइन बुक्स से छपी, जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब 'भारत : गांधी के बाद' की चर्चा कर रहे हैं।


                यह पुस्तक "आज़ादी और राष्ट्रपिता की हत्या" अध्याय के साथ शुरू होती है और बड़े ही रोचक एवं व्यवस्थित ढंग से घटनाओं एवं तथ्यों की जाँच करते हुए आगे बढ़ती है। उसके बाद देश के विभाजन का विश्लेषण "विभाजन का तर्क'' नामक अध्याय में करती हुई रियासतों एवं रजवाड़ों के एकीकरण का विवरण "टोकरी में सेब" शीर्षक में होता है। इसके बाद कश्मीर समस्या पर लिखे अध्याय "एक रक्तरंजित हसीन वादी" और शरणार्थी समस्या पर "शरणार्थी समस्या और गणराज्य" नामक शीर्षकों वाले अध्याय को गहन शोध के बाद लिखा गया है । हालांकि सभी घटनाओं एवं तथ्यों को तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदर्भ में परखा जाना इस पुस्तक को इतिहास की जगह इतिवृत्तात्मक उपन्यास की शक्ल में बदल देता है जहाँ एक केंद्रीय पात्र के इर्दगिर्द सभी घटनाएं घूम रही हैं एवं उसके मरणोपरांत सब खत्म हो गया है।
          इस पुस्तक में रामचंद्र गुहा ने देश के बंटवारे के बाद के दर्द को तथ्यात्मक रूप से बखूबी उल्लिखित किया है, बंटवारे के बाद पलायन कर रहे लाखों लोगों को मुख्य धारा में जोड़ने के प्रयासों के राजनैतिक संघर्ष को भी लेखक ने बेहद खूबसूरत एवं व्यवस्थित तरीके से सामने रखा है जो पाठक को बांधे रखता है। तात्कालिक परिस्थितियों में राजनैतिक संघर्षों के उस दौर में भिन्न-भिन्न मुद्दों पर नियमित रूप से चल रहे हड़ताल एवं उग्र आंदोलनों का पूरा विवरण इस पुस्तक में मिलता है जिनमें मुख्य रूप से भाषायी आधार पर राज्यों का बंटवारा, उत्तर-पूर्वी भारत में अलग देश को लेकर चल रहा आंदोलन एवं कश्मीर मुद्दे शामिल हैं। इस पुस्तक में आज़ादी मिलने के तुरंत बाद के भारत में जहाँ एक तरफ स्वाभाविक व्याकुलता,अराजकता एवं झुंझलाहट को दर्शाया गया है, वहीं उस कालखंड की प्रमुख उपलब्धियों पर भी विशेष रूप से बल दिया गया है जैसे देश को एकता के सूत्र में बंधना हो या उत्तर-पूर्वी राज्यों के आंदोलनों को शांत करना, भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा हो अथवा आत्मनिर्भर बनने के प्रयासों पर अमल करना इन सभी मुद्दों पर लेखक ने बड़ी बेबाकी से अपना मत दिया है। हालांकि इसके बावजूद लेखक कई मुद्दों से बचता नजर आया है, जैसे कश्मीर एवं तात्कालिक भारतीय गुटनिरपेक्षता की वास्तविकता को ऊपर- ऊपर ही विश्लेषित किया गया है।
          भारत से तात्कालिक अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक आयामों को "राष्ट्र और विश्व" अध्याय में व्यवस्थित एवं गहन शोध के बाद रखा गया है। जिसमें अमेरिका, रूस, ब्रिटेन के साथ रिश्तों को तर्कों की कसौटी पर कसा है एवं भारत के पड़ोसी देश चीन के साथ ऐतिहासिक रिश्ते को पूर्ण रूप से निरपेक्षता के साथ दर्शाया गया है।
          भारतीय आर्थिक नीतियों के व्यवहार पर भी यह पुस्तक एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जैसे पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत, कल कारखानों की तरफ आकर्षण एवं ब्रिटेन, रूस तथा अमेरिका जैसे परस्पर विरोधी स्वभाव के आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों वाले देशों के साथ आर्थिक सहयोग पर विवेचना मिलती है।
      "एक नए भारत की परिकल्पना" नाम से लिखे एक अध्याय में संविधान सभा के गठन, उसके स्वरूप, भिन्न-भिन्न समुदाय से आने वाले लोगों का चित्रण एवं संविधान सभा के विषय में विद्वानों के व्यक्तव्यों को बड़े ही रोचक ढंग से दिखाया गया है, जिसे पढ़ते वक्त पाठक को अपने सामने घटनाओं के सजीव चित्रण का आभास होता है। वहीं "इतिहास का सबसे बड़ा दाँव" अध्याय में भारत में हुए पहले आम चुनावों में तथ्यों और घटनाओं का दिलचस्प वर्णन मिलता है। जहाँ एक तरफ इस पुस्तक में चुनाव कराने में सरकार की दिक्कतों का जिक्र है तो दूसरी तरफ लोगों का देश के पहले आम चुनाव में बढ़- चढ़कर भागीदारी करने का काफी मनोरंजक दृश्य प्रस्तुत किया गया है। "देश का पुनर्गठन" अध्याय में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की गंभीरता को दर्शाया गया है जिसके तुरंत बाद "प्रकृति पर विजय" में भारतीय अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि का वर्णन मिलता है। भारतीय संविधान के कुछ विवादास्पद एवं चटपटे विषय जैसे समान नागरिक संहिता एवं हिन्दू कोड बिल के संदर्भ में जानकारी "कानून और इसके निर्माता" अध्याय में मिलती है। कश्मीर समस्या पर लिखे एक और अध्याय "कश्मीर की रक्षा में” लेखक ने मुख्य रूप से शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता तथा डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर अभियान  का जिक्र किया है। "आदिवासी समस्या" अध्याय में आदिवासियों की समस्याओं पर भी एक विस्तृत जानकारी दी गयी है।
            अपनी पुस्तक के तीसरे एवं अंतिम भाग में लेखक ने चार महत्वपूर्ण अध्यायों को रखा है जिनमें पहले "दक्षिण से चुनौती" अध्याय में केरल में कम्युनिस्टों की जीत का राष्ट्रीय प्रभावों पर मुख्य रूप से चर्चा की गई है।  भारत-चीन युद्ध का विवरण "पराजय का अनुभव" एवं उसके बाद शांति के लिए किए जा रहे प्रयासों पर "शांति का प्रयास" नामक अध्याय में गहनता के साथ विवरण प्रस्तुत किया गया है। और अंत में "अल्पसंख्यक और दलित" नामक अध्याय में बड़े ही रोचक और दिलचस्प विवरणों सहित तात्कालिक भारत मे मुसलमान एवं दलित समाज का जिक्र मिलता है।
          आज़ादी मिलने के बाद के भारत के इतिहास पर व्यवस्थित तरीके से लिखित इतिहास कम ही मिलता है । ऐसे में इस पुस्तक के व्यवस्थित एवं सुसंगठित लेखनी से यह कमी दूर होती दिखती है। हालाँकि यह पुस्तक बहुत हद तक नेहरूवाद की तरफ झुकी हुई नजर आती है एवं पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि 20वीं सदी के दूसरे भाग में नेहरू के सम्मुख न सिर्फ भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में कोई बड़ा नेता नहीं है। राष्ट्रीय,अन्तराष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सभी तरह की घटनाओं को पंडित नेहरू के संदर्भ में विश्लेषण करने के कारण यह पुस्तक एक खास मानसिकता का आईना हो गयी है जिसे पढ़ते हुए इसकी निरपेक्षता के संदर्भ में किये जा रहे दावों पर शंका होने लगती है। नेहरूवाद की तरफ अत्यधिक झुकाव के कारण इस पुस्तक के शीर्षक पर भी सवालिया निशान खड़ा होता है एवं "भारत गांधी के बाद" के स्थान पर "नेहरू का भारत" शीर्षक ज्यादा सार्थक लगता है। "इस पुस्तक में व्यक्त दिए गए विचार लेखक के हैं और इसके लिए प्रकाशक जिम्मेदार नहीं है" इस कथन के साथ प्रकाशक ने अपने आप को जिम्मेदारियों से अलग कर लिया है लेकिन मूल पुस्तक के सुशांत झा द्वारा किये गए हिंदी अनुवाद में वर्तनी की अनगिनत अशुद्धियाँ हैं जो इसे पढ़ते हुए हिंदी भाषी पाठक के मन में खीझ पैदा करती हैं। और तो और, इसकी जिम्मेदारी न तो अनुवादक ने और न ही प्रकाशक ने ली है।
     हालांकि उपरोक्त खामियों के बावजूद 525 पृष्ठों की यह भारी-भरकम पुस्तक भारत की आज़ादी के बाद के तात्कालिक राजनैतिक हालातों, सामाजिक संघर्षों, जनसांखिकी एवं अर्थव्यवस्था के आधार को समझने का एक उपयोगी माध्यम है। पुस्तक की मुख्य विशेषता घटनाचक्र को क्रमबद्ध करने के बजाए मुद्दों को क्रमबद्ध किया जाना है जिससे एक आम पाठक भी अपने आप को इस किताब से जुड़ा हुआ पाता है।

समीक्षित कृति- भारत : गांधी के बाद
लेखक- रामचन्द्र गुहा
अनुवाद- सुशांत झा
प्रकाशक- पैंगविन बुक्स
मूल्य- 450रु



(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। वह साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में स्नातक तृतीय वर्ष के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। उनका एक विशेष नजरिया है। यहाँ उन्होंने हमारे अनुरोध पर यह उत्कृष्ट समीक्षा की है। आप पढ़कर अपनी सम्मति दें और उनकी हौसला-अफजाई करें- संपादक)


सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

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