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शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

स्वामी सानंद : एक मनीषी का महापरिनिर्वाण

हमने उन्हें उसी दिन जाना. जब उनका सम्भाषण संपन्न हुआ तो हमने सहज जिज्ञासा की कि यह ओजपूर्ण वाणी किसकी है? उनके सम्भाषण में जिसतरह विज्ञान के उद्धरण थे वह परम्परागत भारतीय आचार्य परम्परा में नहीं मिलता. जब हमने उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया था तो कम से कम मुझे नहीं मालूम था कि यह प्रो जी डी अग्रवाल हैं. आइआइटी कानपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर. गंगा बचाओ अभियान के लिए उनको देश भर में पहचान मिली थी. वह स्वामी सानंद हो गए थे. इसी रूप/नाम से अपनी पहचान चाहने लगे थे. सुदूर उत्तर प्रदेश के आखिरी सीमावर्ती जनपद सोनभद्र के एक अत्यन्त  दुर्गम इलाके में आदरणीय प्रेम भाई द्वारा स्थापित आश्रम, वनवासी कल्याण आश्रम, गोविंदपुर में रह रहे थे. वहां उन्होंने जैविक खेती शुरू कराई थी. मृदा और जल परीक्षण तथा बीजशोधन की प्रयोगशाला का निर्देशन कर रहे थे. लोगों को गांधीवादी तरीके से जीवन जीने के गुर सिखा रहे थे और उनके लिए स्वावलम्बन की अनेक योजनाएं क्रियान्वित कर रहे थे.
वह सोनभद्र के सबसे बड़े जलाशय रिहन्द के बुनियादी अभियन्ता थे. उनकी देखरेख में ही बाँध बना था. हालांकि बाँध बनने से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान से बेहद व्यथित. उन्होंने बिरला के उपक्रम हिंडाल्को, नॉदर्न कोल फील्ड्स, और नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन (एनटीपीसी) को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में घसीटा था और सोनभद्र समेत आसपास के लोगों के जीवन को नरक बना रहे प्रदूषण को दूर करने के लिए समुचित उपाय करने के लिए दबाव डाल रहे थे. 
सोनभद्र के लोग जानते हैं कि उन्होंने समेकित प्रयास से ग्रामीणों का जीवन कितना बदल दिया था. वह गंगा की अविरल धारा के लिए बीते 111 दिन से अनशनरत थे. लम्बी आयु के बावजूद उनकी सक्रियता देखते बनती थी. वह निरंतर यात्रा में रहते थे और यह सब यात्रायें एक बड़े उद्देश्य के लिए थीं.
स्वामी सानंद का जाना महज गंगा की अविरलता के लिए प्रयास करने वाले एक ऋषि का जाना नहीं है, बल्कि सोनभद्र के लोगों का अनाथ हो जाना भी है. मैं नहीं जानता कि उनके जाने से कितने लोगों के जीवन पर कोई सीधा प्रभाव है या नहीं लेकिन सोनभद्र के अपने प्रवास के अनुभव से कह सकता हूँ कि उनका न रहना सोनभद्र वासियों को बहुत खलेगा.
संगोष्ठी के बाद मैं अक्सर गोविंदपुर जाता था और उनके होने का समाचार हमारे लिए सुकूनदेह होता था. वह गोविन्दपुर आश्रम के सहज न्यासी थे. बीते दिन जब उनसे भेंट हुई थी तो वह रत्नागिरी, महाराष्ट्र के एक ऐसे ही संत के साथ सत्संग कर रहे थे. सत्संग-जिसमें लोक का भौतिक और आत्मिक कल्याण समाहित था.
उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि. 
(चित्र में मैं अपने प्राचार्य प्रो सुरेश कुमार श्रीवास्तव का स्वागत कर रहा हूँ.)

रविवार, 9 सितंबर 2018

कथावार्ता : रामवृक्ष बेनीपुरी: मील के पत्थर

     तरुणाई में पढ़े हुए किसी पाठ का, अगर वह भा गया हो और हमेशा बेहतर के लिए प्रेरित करता हो, असर लंबे समय तक बना रहता था। हिंदी पाठ्यक्रम में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित 'गेंहू बनाम गुलाब' ऐसा ही था। गेंहू श्रम का प्रतीक था और गुलाब विलासिता का। उस पाठ की पहली ही चर्चित पंक्ति  थी, 'गेंहू हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।' हम मेहनतकश लोगों में थे। गेंहू उगाते थे। हाड़तोड़ श्रम करते थे और खुश रहते थे। हमारा बड़ा सा दुआर था और गांव-जवार में प्रतिष्ठित परिवार के माने जाते थे, तो बाबूसाहबी में गुलाब की क्यारियां लगाते थे। नेहरू को अपने कोट में खोंसे हुए गुलाब के साथ चित्रों में देखते थे तो अपनी शर्ट के ऊपर वाली काज में खिले हुए गुलाब को अटकाए फिरते थे और रह-रहकर सूंघते थे। यह बताने में कोई लज्जत नहीं है कि हाथ से गोबर वाली गंध सुबह उठाने के बाद दिनभर बनी रहती थी। तो ऐसे में जब 'गेंहू बनाम गुलाब' पढ़ा गया तो सहज ही गेंहू के पक्ष में हो लिया गया। नेहरू विलासी लगने लगे। इत्र फुलेल बकवास लगने लगा। हम मेहनतकश थे और उनके साथ खड़े होने में अपनी शान समझने लगे। तब मिथुन और अमिताभ (मर्द, कुली और दीवार तथा कालिया वाला) हमें प्रिय लगने लगे। खैर, ऐसे में यह पाठ हमें बहुत प्रिय हो गया। माटी की मूरतें और गेंहू बनाम गुलाब के रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी हमारी स्मृति में अमिट हो गए। बाद में विद्यापति पदावली पर उनका काम हाथ लगा लेकिन शिवप्रसाद सिंह और नागार्जुन के काम के आगे बहुत नहीं रुचा। विद्यापति के कीर्तिलता पर अवधेश प्रधान की किताब ने विद्यापति के बारे में धारणा ही बदल दी।
    खैर, तो आज गेंहू बनाम गुलाब के उसी अप्रतिम रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर,1900 - 09 सितंबर,1968) की पुण्यतिथि है।
    बीते दिन बेनीपुरी की रेखाचित्र और संस्मरणों की पुस्तक 'मील के पत्थर' खरीद लाया था। विभिन्न विभूतियों पर लिखे उनके संस्मरण अद्भुत हैं। 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से माखनलाल चतुर्वेदी पर और 'दीवाली फिर आ गयी सजनी!' शीर्षक से जयप्रकाश नारायण और 'एक साहित्यिक सन्त' के नाम से शिवपूजन सहाय पर लिखे हुए उनके संस्मरण अप्रतिम हैं। इन संस्मरणों में आत्मीयता और समर्पण भावना झलकती है। अब जबकि एक साहित्यिक दूसरे की सार्वजनिक हत्या में विश्वास करता है और अपनी केकड़ा वृत्ति में उलझा हुआ है, गलीजपने को रेखांकित करने में अपनी सार्थकता समझता है, वैसे में रामवृक्ष बेनीपुरी के संस्मरण उदात्तता के सरस उदाहरण हैं। यूरोपीय रचनाओं और रचनाकार पर उनका लिखा उनके बहुपठित और सरस तथा गुणग्राही व्यक्तित्व का सूचक है। जब वह बनार्ड शॉ के बारे में इस वाक्य से शुरुआत करते हैं कि 'सभी आत्मकथाएं झूठी हैं' तो मन बरबस ही उत्सुक हो उठता है। बेनीपुरी का गद्य बहुत मार्मिक है। छोटे वाक्य किंतु भाव भंगिमा से भरे हुए। उनके संस्मरण और रेखाचित्र हिंदी साहित्य में अमूल्य निधि हैं। उनके निबंध लेखन में उनकी दृष्टि का पता चलता है। जब वह अपने साथियों को संत की तरह याद करते हैं तो उनकी छवि भी संत की तरह बन जाती है। आज उनके पुण्यतिथि पर उनको याद करते हुए ऐसा लग रहा जैसे किसी संत को श्रद्धांजलि देने के लिए हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जा रहे हैं।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

चॉकलेट दिवस पर ग्रामवासिनी प्रिया से।

(चॉकलेट दिवस पर विशेष)

मेरी ग्रामवासिनी प्रिया
जब चौका बासन हो जाए
और लिपा जाये चूल्हा
कहीं दूर पूरब में झींगुर सनसनाने लगें
और निचाट सन्नाटा अम्मा को डराने लगे
मेरे बारे में सोचना
.
जब पौ फटे
गाय को सानी पानी करके
बछ्ड़े को छोड़ देना
दूध की एक धार बाल्टी में
दूसरी गाय के मुँह पर डालोगी तो
मुझे याद करना
.
मेरी ग्रामवासिनी प्रिया
जब गोबर पाथना
तब ऐसे थपकी देना
जैसे मेरी पीठ पर थपकी देती थी माँ,
यह मेरे श्रम का परिहार करती है।
.
मेरी ग्रामवासिनी प्रिया
मैं चैत्र में आऊँगा
उस समय आसमान भी हमारे बारे में सोचता है।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

कथावार्ता : उल्टा पड़ाईन


एक कहानी कहता हूँ. हमारे तरफ ख़ूब कही जाती है.
एक पंडिताइन मईया थीं. उनकी खासियत यह थी कि पंडीजी जो कुछ कहते, मईया ठीक उसका उल्टा करतीं. जैसे पंडीजी कहते, आज व्रत रहा जाएगा. पंडिताइन मईया कहतीं, हुँह, क्यों ब्रत रहा जायेगा? आज तो व्यंजन पकेगा. और वही पकता. पंडी जी कहते, आज खिचड़ी पका दो, बहुत मन है खाने का. पंडिताइन कहतीं, नहीं. आज तो छननमनन होगा. पंडीजी कहते- सुनो हो, मैं जरा बाहर जा रहा हूँ, तुम इसी बीच नैहर मत चली जाना. मईया कहतीं, काहे नहीं. हम नैहर जईबे करेंगे. और पंडीजी से पहले वे चली जातीं.
पंडीजी परेशान. करें तो का करें. फिर उन्होंने एक तरीका खोजा. वे इस तकनीक को समझ गए कि पंडिताइन ठीक उल्टा करती हैं तो उनने स्वयं उल्टा कहना शुरू किया. मसलन, जब उनका मन छनन मनन खाने का होता, वे कहते- आज सत्तू मिल जाता, या खिचड़ी या कुछ हल्का-फुल्का तो बहुत सही रहता. पंडिताइन पहले झनकती पटकती और फिर छनन मनन पकता. जब उन्हें आराम करना होता, वे कहते- आज ही मैं जाना चाहता हूँ. पंडिताइन कहतीं- आज कैसे जाओगे. आज नहीं जाना है. पंडीजी ने पंडिताइन की नस पकड़ ली थी.
फिर एक बार गंगा नहान का मौका आया. दंपत्ति नहाने चला. किनारे पहुँचकर पंडीजी ने कहा- सुनो, किनारे किनारे ही नहाना. भीतर पानी गहरा है. पंडिताइन ने कहा- हुँह! किनारे किनारे क्या नहाना. और वे आगे बढ़ती गयीं. पंडीजी मना करते जाते और पंडिताइन और गहरे बढ़ती जातीं..
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फिर?
फिर क्या! पंडिताइन नदी के तेज बहाव में अपनी जमीन खो बैठीं. लगीं 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाने. पंडीजी उन्हें बचाने कूदे. पंडिताइन दक्खिन की और बह रही थीं. और पंडीजी उत्तर की ओर छपाका मारते जाते!
अंततः पंडिताइन बह गयीं. पंडीजी बाहर निकल आये. सबने पंडीजी की खूब लानत मलामत की. 'आप देख रहे थे कि मईया दक्खिन बह रही हैं तो बचाने के लिए हाथ-पाँव उत्तर की तरफ क्यों मार रहे थे?'
पंडीजी ने कहा- पंडिताइन ने जीते-जी मेरी कोई बात नहीं मानी. मरते समय भी मुझे पक्का भरोसा था कि वह धारा के विपरीत ही लगेगी. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
...
(मुझे यह कहानी क्यों याद आ रही है? बस सुना रहा हूँ. आप तो जानते ही हैं- सुनने वाला सच्चा, कहने वाला झूट्ठा. लेकिन;कहनी गईल वने में, सोच अपनी मने में!)

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.