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सोमवार, 25 मार्च 2024

कवीश्वर कपीश्वरौ - आचार्य कुबेरनाथ राय का निबन्ध

                                                                                                                 -आचार्य कुबेरनाथ राय


मानस’ का मंगलाचरण कई अर्थों में बेजोड़ है। यह स्वयं में एक ‘नानापुराण-निगमागम् सम्मतम्’ मंगलाचरण है। प्रथम श्लोक में गणेश-सरस्वती की वंदना है तथा ‘मंगलानाम्’ द्वारा भारत की लोकायत संस्कृति का संकेत किया गया है क्योंकि ‘मंगल’ का अर्थ होता है मांगलिक ‘वस्तुएं’ और ‘मांगलिक उपचार’। द्वितीय श्लोक में शंकर-भवानी की वंदना आगम परंपरा के अनुकरण में है। ‘शक्ति’ अर्थात् ‘इ’ कार से संयुक्त होकर शव का ‘श+ इ +व’ ‘शिव’ हो जाता है। यदि यह भवानी रूपा ‘इ’ कार न रहे तो शव’ का ‘शव ही रह जाएगा जो शिव का निष्क्रिय रूप है। इस तत्त्व का उद्घाटन ‘सौंदर्य लहरी’ के, जो ‘श्री विद्या’ का प्रतिनिधि ग्रंथ है, प्रथम श्लोक में ही हुआ है। इसी बात को गोसाईंजी ‘भवानी शंकरौ’ को युगबद्ध रूप में रखकर मानस के द्वितीय श्लोक में उपस्थित करते हैं। तृतीय श्लोक में ‘बोधमयं नित्यं गुरुम्’ की वंदना की गई है। यह वंदना ज्ञान मार्ग (निगमागम सांख्य) की द्योतक है जिसके अनुरूप गुरु ही साक्षात् ‘सांख्य’ अर्थात् ‘बोध’ है, गुरु के आश्रम से ही जीव को अपने नित्य स्वरूप का बोध होता है और वह ‘गुरु’ स्वयं ‘परम संवित’ या ‘परम शिव’ ही है। फिर आता है चौथा श्लोक अर्थात् ‘कवीश्वर कपीश्वरौ’ की वंदना वाला श्लोक । यह वंदना ‘सांख्य’ या ज्ञान से भिन्न ‘योग मार्ग’ की द्योतक है क्योंकि इसमें ‘विशुद्ध विज्ञान’ की चर्चा है। विज्ञान का अर्थ होता है ‘योगियों द्वारा अनुभूत विशिष्ट ज्ञान’ । इसी योगानुभूति का ही एक विशिष्ट संस्करण है ‘काव्य’ और दूसरा संस्करण है ‘भक्ति’ काव्य और भक्ति दोनों बुद्धि या प्रज्ञा पर निर्भर नहीं हैं। दोनों सांख्य मत के विपरीत अनुभूति-प्रधान और राग-प्रधान प्रक्रियाओं की उपलब्धियां हैं। पांचवां श्लोक है विशिष्टाद्वैत की परंपरा में सीता की राम से संबद्ध (युगबद्ध रूप में) चिद्चिद् विशिष्ट ‘परमा प्रकृति’ या ‘महामाया’ के रूप में वंदना और अंतिम श्लोक रामचंद्र का ‘रामाख्यं ईशम् हरिम्’ ‘राम’ नामधारी ‘ईश्वर’ (शिव) और ‘हरि’ (विष्णु) दोनों के प्रतीक अर्थात् निगम पंथ का ‘परम ब्रह्म’ मानकर उनके वेदांती रूप, को व्यक्त करता है। राम ‘तम’ हैं, ‘शेष’ हैं, ‘कारण’ हैं और ‘ईश्वर’ हैं। राम ‘तम’ (चरम) होते हुए भी तथा सब कुछ के समाप्त हो जाने पर भी ‘शेष’ (हिरण्य- गर्भ) रह जाते हुए भी, वेदांतियों का निष्क्रिय निर्विकार ब्रह्म नहीं, ‘कारण’ ब्रह्म हैं, वे सारी सृष्टि के निमित्त कारण हैं, जबकि उपादान कारण है चिद्-चिद् विशिष्ट परमा प्रकृति। मंगलाचरण के प्रथम दो श्लोक आगम मार्ग से संबंधित हैं तो ये दोनों अंतिम श्लोक निगम मार्ग से। बीच के दोनों श्लोक ‘सांख्य-योग’ हैं जो आगम और निगम दोनों पंथों की संयुक्त संपत्ति हैं। ये सांख्य योग निगमागम-ओतप्रोत हैं और साथ ही निगम और आगम के बीच की कड़ी या संयोजक भी हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि गोसाईंजी का यह मंगलाचरण लोकायत धर्म, आगम, सांख्य योग और निगम, इन सबका प्रतीक है, इन सबके तत्त्वों का सूक्ष्म संकेत इसके अंदर विद्यमान है और हम कह सकते हैं कि यह महाकाव्य तो ‘नानापुराणनिगमागम सम्मतम्’ है ही, ‘मंगलाचरण’ भी निगमागम सम्मतम् है। हम यहां पर इसके चौथे श्लोक की कुछ विस्तृत चर्चा कर रहे हैं।

सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ ।

वन्दे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ ।।”

इस श्लोक में कवीश्वर अर्थात् वाल्मीकि और कपीश्वर अर्थात् हनुमान जी की वंदना है। इन दोनों को कवि ने विशुद्ध विज्ञानी कहा है। ये दोनों ‘सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य’ में विहार करते हैं। हनुमान तो शाखा मृग हैं ही, वाल्मीकि भी परंपरा से कविता-वन के सिंह हैं और कविता शाखा के ‘कोकिल’ भी।

वाल्मीकि मुनि सिंहस्य कविता वन चारिणः,

शृणुवन् रामकथानाद को न यान्ति परागतिम् ।

कूजतं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्

आसध्य कविता शाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम् ।।”

 


गोसाईंजी ने मुख परंपरा से प्रचलित इन विरुदों को सुनकर ही उनको भी ‘पुण्यारण्य विहारी’ माना है और आरण्यक देवता हनुमान के साथ कर दिया है। वाल्मीकिजी वीर गाथा के कवि हैं। सिंह जैसी महिमा, बल, तेज और साहस वाले चरित्रों की सृष्टि उन्होंने की है। वाल्मीकि के काव्य में कोई भी श्वान-शृगाल नहीं, यहां तक कि उनके द्वारा अंकित प्रतिपक्षी रावण और उसका सारा राक्षस कुल भी हीनता और क्षुद्रता से मुक्त है। जिस हीनता और क्षुद्रता का आरोपण बाद के अन्य कवियों ने किया है, वह वाल्मीकि के काव्य में अनुपस्थित है। रावण के अंदर उन्होंने एक ट्रेजडी का ‘बीज’, एक मोह-बीज अवश्य स्थापित किया है, परंतु उसे श्वान-शृगाल की श्रेणी में रखना उन्होंने उचित नहीं समझा। उनकी सिसृक्षा के भीतर ‘सिंहत्व’ के ही समानांतर करुण रस से ओतप्रोत एक गीतात्मकता (Lyricism) भी चलती है और इसके कारण उन्हें कविता कोकिल कहा गया है। यह करुण गीतात्मकता राम के जीवन के माध्यम से व्यक्त हुई है। राम के इसी चरित्र के ढांचे को भवभूति विकसित करके अपने नाटक ‘उत्तरराम चरित’ में ‘पुटपाक प्रतीकाश रामस्य करुणो रसः’ की स्थापना करते हैं। रामायण वीर-रस और करुण-रस दोनों रसों का महाकाव्य है। साथ ही इसमें दांपत्य-प्रेम, मातृ-प्रेम, सखा-प्रेम आदि अनेक कोमल भावों को भी पर्याप्त स्थान मिला है। इसी से यह संपूर्ण दैनंदिन जीवन का महाकाव्य भी ज्ञात होता है। इसी दैनंदिन जीवन का महाकाव्य (Epic of day-today life) के तथ्य को रवीन्द्रनाथ ‘पारिवारिक जीवन का महाकाव्य’ कहकर व्यक्त करते हैं। क्योंकि इसके भीतर ‘समस्त जीवन का कल कूजन समाविष्ट हो गया है।’ ऐसी अवस्था में वाल्मीकि को कविता कानन का कल कूजन कहना उचित ही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मीकि मुनि कोमल-कठोर दोनों रूपों में स्थित हैं। भारतीय संस्कृति की महत्ता, उपलब्धियां, आरण्यक उपलब्धियां हैं। वाल्मीकि का अरण्य है सीता-राम-गुणग्राम का पुण्यारण्य । इसके तृण, तरु, लता और पुष्प सीता-राम के शीलमण, रूपगण और आदर्शगण सौंदर्य को व्यक्त करते हैं। वाल्मीकि और हनुमान दोनों के मानस लोक में स्थित सीता राम का यह चरित्र उपवन या छोटी-सी वाटिका नहीं बल्कि एक सघन अरण्य है, एक महिमामय अगम-अथाह विस्तीर्ण महाकांतार है जिसमें नित्य सरयू प्रवाहित है, नित्य अयोध्या है, नित्य पंचवटी है; नित्य अश्रुसिक्त गोदावरी-तट और नित्य पंपा-सलित प्रत्यक्ष होता है; नित्य माल्यवंत गिरि, नित्य सागरवेला, नित्य सुबेल शैल और बार-बार भस्म होती हुई भी नित्य-स्वर्ण लंका है; सबसे बढ़कर नित्य राम-रावण समर है और नित्य भरत मिलाप पुण्याभिषेक और रामराज्य स्थापना है। इस नित्य लीला को मानसभूमि में प्रतिदिन देखते हुए कवि और भक्त विचार करते हैं। इस अगम, उदात्त, आकाश-स्पर्शी महाशाखाओं वाली, सर्वफलदायिनी कल्पवृक्षों वाली लीला-अरण्यानी का उनके मन में नित्य निवास है। इसी से महाकवि और महाभक्त वाल्मीकि हनुमान के लिए गोसाईजी ने लिखा है : ‘सीता- राम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ’। इस काव्यांश में ‘सीताराम’ शब्द उस ‘पुण्यारण्य’ की ‘नित्यता’ का भाव संकेत द्वारा व्यक्त करता है।

 


श्लोक का सारा रहस्य केंद्रित है ‘कवीश्वर-कपीश्वरौ’ की उपाधि ‘विशुद्ध- विज्ञानौ’ पर। ‘विशुद्ध विज्ञान’ या ‘विज्ञान’ एक विशिष्ट शब्द है। आज इसको Science के प्रतिशब्द के रूप में ग्रहण करते हैं। परंतु इसका मौलिक अर्थ भिन्न है। ‘विज्ञान’ शब्द का साधारण अर्थ है विशेष प्रकार का ज्ञान। भारतीय वाङ्मय में इसका प्रयोग दो प्रकार का है। एक तो है औपनिषदिक परंपरा में पंचकोषात्मक अस्तित्व की चर्चा के संबंध में। और दूसरा ‘अमर- कोष’ में शिल्पादि के ज्ञान के अर्थ में। भारतीय दर्शन में अस्तित्व को पंच-कोषात्मक माना गया है। अन्नमय (Physical) प्राणमय (Vital ( अर्थात् प्राण, श्वास, स्नायु, संबंधी मनोमय (Mental), विज्ञानमय (Supra-mental), आनंदमय (Spiritual)। अस्तित्व के एक कोष के भीतर दूसरा कोष है समकेंद्रिक वृत्तों की भांति। केंद्र है ‘आत्मा’ का निर्विकार शांत आनंदमय कोष। ये पांच श्लोक मिलकर सारे ‘अस्तित्व’ या सारी ‘सत्ता’ को रचते हैं। यहां विज्ञान का अर्थ है सामान्य मानसिक जगत् से ऊर्ध्वतर की मानसिक प्रक्रियाएं। यदि मनोमय कोष को हम ‘नार्मल मन’ मान लें, तो विज्ञानमय कोष में ‘अवचेतन’ और ‘ऊर्ध्वचेतन’, स्वप्न, प्रातिभज्ञान, (Revelation) अंतर्भुक्त माने-जाने जाएंगे। योगियों की अनुभूतियां, कवियों की कल्पना और सिद्धों का मानसिक वैभव इसी ‘विज्ञान’ के अंतर्गत कहा जाता है। ‘अवचेतन’ की धारणा नवीन है। अतः भारतीय वाङ्मय में विज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है सिर्फ ऊर्ध्वचेतन (Super concious) के अर्थ में, जिसकी मानसिक प्रक्रियाएं ही ‘प्रातिभज्ञान’ (Intuition) और ‘दिव्य दृष्टि’ (Revelation) कही जाती है। यही विज्ञान आनंदमय कोष या आध्यात्मिक जगत् का प्रवेश-द्वार है। यह ‘विज्ञान जगत्’ ही योगियों का मनोलोक है, प्रज्ञा पारमिता की दस भूमियां इसी में स्थित हैं, भक्तगण और कविगण इसी लोक में स्थित होकर प्राप्त करते हैं। इस विज्ञान की अनुभूति प्रारंभ होती है मूलाधार में सुप्त कुंडलिनी जगने पर अथवा भक्ति के महाभाव में स्थित होने पर और कवि के विषय में भावानुप्रवेश करने पर। विज्ञान का लोक कुंडलिनी से आज्ञा चक्र तक है। इसके बाद आती है सहस्रार में प्रवेश की अवस्था और वही है आनंदमय कोष की स्थिति। अतः ‘विज्ञान’ का अर्थ हुआ योगी अथवा योगियों जैसे ही अति मानसिक (Supra-mental) गति मार्ग पर विहार करने वाले अन्य प्राणी यथा ‘भक्त’ और ‘कवि’। तीनों में अवश्य ही साधन-भेद और मात्रा-भेद है। योगी का साधन है ‘हठयोग’, भक्त का ‘महाभाव’ और कवि का ‘भाव’। योगी और भक्त जितनी ऊंचाई तक चढ़ते हैं उतनी ऊंचाई तक कवि का गमन नहीं हो सकता। पर है वह भी सतीर्थ्य और समानधर्मा इसी से वाल्मीकि और हनुमान दोनों को ‘विशुद्ध विज्ञानी’ कहा गया है।

 

उपनिषदों के बाद महत्त्वपूर्ण श्रुति है ‘गीता’। क्योंकि परंपरा से यह भी पुरुषोत्तम के मुख से संभव है। गीता के सातवें अध्याय में ज्ञान और विज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है। परंतु गीताकार ने ज्ञान-विज्ञान के भेद की अपेक्षा शुद्ध ज्ञान और शुद्ध विज्ञान की एकता पर ही जोर दिया है। गीता की दृष्टि में असत्व योग और असत्व सांख्य परस्पर विरोधी नहीं बल्कि एक तथ्य के दो रूपांतर हैं; वैसे ही ज्ञान और विज्ञान भी शुद्ध रूप में एक ही हैं। ज्ञान-विज्ञान के भेद जानने के लिए गीता के मूल पाठ की अपेक्षा गीता के भाष्यकारों से अधिक सहायता मिलेगी। प्रथम महत्त्वपूर्ण भाष्यकार हैं भगवत्पाद शंकराचार्य। उन्होंने कहा है कि शब्द के साधन से, परोक्ष रीति से जो प्राप्त होता है (अर्थात् जो आप्तवाक्य, शास्त्रवाक्य और अनुमान द्वारा लब्ध होता है) वह है ‘ज्ञान’ और जो प्रत्यक्षानुभूति द्वारा प्राप्त होता है वह है, ‘विज्ञान’ अर्थात् विशेष ज्ञान। निर्विशेष ब्रह्म का ज्ञान शुद्ध शब्दाश्रित है वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अतः यह ‘ज्ञान’ का विषय हुआ। परंतु सविशेष ब्रह्म का ज्ञान और माया जगत् का ज्ञान प्रत्यक्षानुभूति हो सकता है। अतः ये ‘विज्ञान’ के विषय हैं। योगीगण और कविगण प्रत्यक्षानुभूति द्वारा बोध प्राप्त करते हैं अतः उनका बोध भी ‘विज्ञान’ है। परंतु जो तर्क, बुद्धि या प्रज्ञा द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है वह है ज्ञान। स्मरण रहे कि यहां प्रत्यक्षानुभूति की सीमा ऐंद्रियक अनुभवों से विस्तृत है और कल्पना, प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि आदि मानसिक अनुभवों को भी इसी श्रेणी में रखते हैं। संक्षेप में तर्क या बुद्धि पर आश्रित ज्ञान ‘ज्ञान’ है और प्रत्यक्ष (ऐंद्रियक या काल्पनिक या प्रातिभ) अनुभूति ‘विज्ञान’ है। विज्ञान ‘साक्षात्कार’ है, ‘स्वानुभव’ है पर ज्ञान एक बौद्धिक उपलब्धि है। संक्षेप में शंकराचार्य ने जो कुछ कहा है उसका मतलब यही है। शंकराचार्य के बाद दूसरे महत्त्वपूर्ण भाष्यकार हैं श्रीमद् रामानुजाचार्य। उनके अनुसार सत्ता के स्वरूप का ज्ञान (विविधता के मध्य ‘एक’ सत्ता का ज्ञान) ही ‘ज्ञान’ है। परंतु उसी सत्ता के चिद्चिद् रूप का पृथक-पृथक ज्ञान (स्वयं सत्ता के भीतर घटित होती हुई विविधता का ज्ञान) विज्ञान है। अतः गीता के अध्याय 7, श्लोक 4 और 5 में वर्णित अष्टधा प्रकृति का ज्ञान ‘विज्ञान’ है और अगले श्लोकों (6 और 7 ) में व्यक्त प्रकृति की उस विविधता के माध्यम एक परमात्मा का ज्ञान ‘ज्ञान’ है पर यह बोध शब्द या शुद्ध चिंतन या तर्क से ही नहीं प्राप्त हो सकता। यह भक्त की अनुभूति से भी प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार रामानुज ने ज्ञान और विज्ञान की एक नयी धारणा उपस्थित की। शंकराचार्य ने ज्ञान-विज्ञान का भेद तकनीक के आधार पर किया है ज्ञान अर्थात् शब्द-आश्रित बोध, विज्ञान अर्थात् प्रत्यक्षानुभूति-आश्रित बोध।  रामानुज ने इस भेद को विषयगत कर दिया है। ‘ज्ञान’ अर्थात् एक परमात्मा का बोध; ‘विज्ञान’ अर्थात् विविधता यानी उसी परमात्मा की आस्था प्रकृति का पृथक- पृथक बोध। अर्थात् परमात्मा की चरम सत्ता का ज्ञान ‘ज्ञान’ है और उनकी चिदचिद् अपरा प्रकृति का ज्ञान ‘विज्ञान’ है।’

 


विज्ञान’ शब्द की आधुनिक घारणा का बीज ‘अमरकोश’ की परिभाषा में विद्यमान है : “मोक्षेधीर्ज्ञानं अन्य विज्ञानं शिल्पशास्त्रयो”- मोक्षवती प्रज्ञा को ‘ज्ञान’ तथा शिल्पशास्त्र के ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। परंतु इस धारणा के पीछे भी ‘विज्ञान’ की उपर्युक्त दार्शनिक धारणा ही है। यदि शंकर और रामानुज के मतों को मिलाकर हम देखें तो ज्ञात होगा, प्रत्यक्षानुभूति पर आश्रित (शंकरमतानुरूप) और अपरा प्रकृति के तत्त्वों का पृथक-पृथक ज्ञान (रामानुज मतानुसार) ही ‘विज्ञान’ है। शंकर-रामानुज के इस सम्मिलित सूक्ष्म आइडिया को ‘अमरकोश’ में बहुत स्थूल ढंग से कह दिया गया है कि मोक्ष का ज्ञान ‘ज्ञान’ है, शेष शिल्पशास्त्रविद् ज्ञान ‘विज्ञान’ है। परमहंसों, योगियों, कवियों, अवैदिक विद्याओं-शिल्पों और दर्शनों के आविष्कर्ता मुनिगण, आगमपंथी, साधकगण और आचार्यगण (जिनके लिए ‘मुनि’ शब्द आता है जबकि ‘ऋषि’ शब्द मूलतः वैदिक विद्याओं के आचार्यों के लिए सुरक्षित है), ये सभी के सभी विज्ञानी हैं और ‘विज्ञान’ शब्द का अर्थ ‘विशिष्ट ज्ञान’, ‘अपरा प्रकृति का ज्ञान’, ‘अति मानवीय’ ‘दिव्यदृष्टि’ (Revelation), योगदृष्टि, प्रातिभ ज्ञान (Intuition) और कल्पना के साथ-साथ ‘भिन्न’ (विशिष्ट) प्रकार का ज्ञान तथा शिल्प आयुर्वेदादि का ज्ञान, यह सभी कुछ हो सकता है। शब्द को मूलतः तो सूक्ष्मतम प्रातिभ अनुभूतियों के बोध के लिए प्रयोग किया गया था। पर बाद में इसका विकास स्थूल अर्थ तक हो गया ।

 

गोसाईजी ‘विज्ञानी’ शब्द का प्रयोग ‘अमरकोश’ वाले स्थूलार्थ में नहीं करते हैं। उनके ‘विज्ञानी’ का संबंध सीधे-सीधे ‘अतिमानस’ और ‘पराभौतिक’ जगत् से है जो योगियों और कवियों का अनुभव जगत् है। योग और प्रत्यक्षानुभूति है। योग का अर्थ ही है प्रमाता और प्रमेय के प्रत्यक्ष योग-सूत्र की स्थापना। योगी अपने का प्रत्यक्षदर्शी होता है वह अनुमान या शब्द प्रमाण के फेर में नहीं पड़ता। गोसाईजी ने ‘विज्ञानी’ शब्द को इसी ‘योगी’ और ‘मुनि’ के अर्थ में लिया है। ‘उचित कहेउ मुनिवर विज्ञानी।’ ‘वैद न देइ सुनहु मुनि योगी।’ ‘तुम विज्ञान रूप नहिं मोहा।’ आदि प्रयोगों में तथा भगवान् को बार-बार ‘विज्ञान धामा वुभौ’ कहने से पता चलता है कि गोसाईंजी ने ‘विज्ञान’ शब्द का प्रयोग इसके प्राचीन एवं सूक्ष्म अर्थ में ही किया है और इसका संबंध ‘ऊर्ध्वचेतन’ (Super-concious) से है जो सारे प्रातिभ ज्ञानों (Intuition) और दिव्य दृष्टियों (Revelation) का मूल है एवं जिसे श्रीमद्भागवत ने ‘सरस्वती’ या ‘सिसृक्षा-प्रज्ञा’ के रूप में देखा है :

 

प्रचोदिता येन पुरा ‘सरस्वती’ वितन्वता कस्य स्मृति हृदि

स्वलक्षणा प्रादुर्भूत किलास्यतः समें ऋषीणाम् ऋषभः प्रसीदताम्।”

 

यहां ‘सरस्वती’ का तात्पर्य है ‘विज्ञान’ (प्रातिभज्ञान और दिव्यदृष्टि) जिसको ब्रह्मा के मन में प्रभु ने आदिकाल में ही जागृत किया। यह ‘विज्ञान’ या ‘सरस्वती’ तर्कबुद्धि (Reason) प्रमाण और बुद्धि पर आश्रित नहीं बल्कि उससे अधिक श्रेष्ठता, मानसिक शक्ति हैं जो पंडितों और ज्ञानमार्गी संन्यासियों को नहीं; बल्कि मुनियों, कवियों और योगियों तथा मंत्रों को ही प्राप्त होती हैं। इसी से गोसाईंजी कहते हैं :

 

तिन्हमँह द्विज, द्विज मँह श्रुतिधारी।

तिनमँह निगम धर्म-अधिकारी।।

तिनमँह पुनि विरक्त पुनि ज्ञानी।

ज्ञानिहुँ ते प्रिय मोंहि विज्ञानी।।

तिन्हते प्रिय पुनि मोहि निजदासा।

जेहि गति मोहि न दूसर आसा।।”

यहां ‘द्विज’ का अर्थ है ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य’। श्रुतिधारी का अर्थ है वैदिक विद्याओं का ज्ञाता ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य। निगम-धर्म अधिकारी का अर्थ है संस्कार प्राप्त द्विज (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) जिसे वैदिक धर्म पालन करने का अधिकार है। मुनि का अर्थ है अवैदिक विद्याओं का, सांख्ययोगादि शास्त्रों का एवं काव्य-संगीत-शिल्प आदि का पंडित। ये गृहस्थ भी हो सकते हैं, विरक्त भी। विरक्त मुनियों में दानी श्रेष्ठतर है और ज्ञानी विरक्तों में भी जो ‘विज्ञानी’ है, जो ‘योगी’ है, जिसे सांख्य-योग-काव्य आदि की मूल अनुभूतियों का प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि पाने की क्षमता प्राप्त है, वे श्रेष्ठतर हैं। परंतु इन सारे लोगों से परमशरणागति में आश्रित भक्त ही श्रेष्ठतर है चाहे वह जिस जाति, कुल, शिक्षा और पदवी वाला हो। भक्त चाहे डोम-चमार- धोबी क्यों न हो, चाहे वह निरक्षर और भिखमंगा क्यों न हो, वह किसी भी द्विज, विरक्त, मुनि, ज्ञानी, विज्ञानी से श्रेष्ठतर है। यही गोसाईजी की उक्तियों का मर्म है। जीव गोस्वामी का ‘रासपंचाध्यायी’ की टीका में कथन है कि ब्रह्म से श्रेष्ठ है परमात्मा, परमात्मा से श्रेष्ठ है भगवान्। अतः ब्रह्म के ज्ञाता ‘ज्ञानी’ से श्रेष्ठ है परमात्मा का ज्ञाता ‘विज्ञानी’ (योगी) और ‘विज्ञानी’ या योगी से भी श्रेष्ठतर है भगवान् के प्रति समर्पित ‘भक्त’। ‘विज्ञानी’ तो ज्ञान की ‘बुद्धि’ से भी श्रेष्ठतर मनोभूमि ऊर्ध्वचेतन, प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि से संपन्न होता है।

 


          वाल्मीकि कवि हैं और हनुमान यती और भक्त। यतता और जितेंद्रियता दोनों योग मार्ग के गुण हैं। ये दोनों गुण मारुति में विद्यमान हैं परंतु इनसे भी बढ़कर उनके चरित्र का केंद्रीय गुण है ‘भक्ति’। योग दर्शन के विभूति पाद में वर्णित काव्य संपदा (रूपलावण्यबलवज्ज्र संहननत्वादि… जितेंद्रियता, मनोजवित्व, पंचभूत-जय, अष्टसिद्धि आदि) मारुति को उपलब्ध है। परंतु ये सब उनकी प्रासंगिक विशेषताएं हैं। मूल विशेषता है ‘भक्ति’। भक्ति का योगानुभूति से क्या संबंध है? योग-दर्शन के अनुसार समाधि दो प्रकार की होती है- सविकल्प और निर्विकल्प। भक्ति और काव्य दोनों ‘सविकल्प समाधि’ से संबंधित है। ‘विकल्प’ का अर्थ है, ‘विकल्पना’ या ‘कल्पना’। पातंजलि योगदर्शन में कहा गया है: “शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।” अर्थात् विकल्प का ज्ञान शब्द (संज्ञा-सर्वनाम-क्रियादि) के अनुरूप ही होता है परंतु वह वस्तु शून्यता में (वस्तु की अनुपस्थिति या आवर्त्तमानता में) घटित होता है। अर्थात् अविद्यमान वस्तु की ज्ञात शब्द-बिम्बों के आधार पर कल्पना करना विकल्प है। जब समाधि में स्थूल रूपों (यथा फूल, चंदन, तारा, नारी, मनुष्यलोक, गंधर्वलोक आदि) का विकल्प प्राप्त हो तो वह ‘सविकल्प’ समाधि है। जब समाधि में सूक्ष्म रूपों का या ईश्वर को अशरीरी उपस्थिति के आभास का या निर्वैयक्तिक परम सत्ताओं का (जैसे गीता का विभूति दर्शन योग) विकल्प प्राप्त होने लगे तो यह ‘सविचार’ समाधि है। ‘सविचार’ और ‘सविकल्प’ दोनों प्रकार की समाधियां ‘सबीज’ समाधि के भेद हैं। कवि और योगी का प्रवेश दोनों में है, परंतु प्रथम है काव्य की मूल मनोभूमि और दूसरी है योगी की। भक्त की अबाधगति दोनों क्षेत्रों में है। योगी इनके अतिरिक्त निर्विकल्प -निर्विकार समाधियों में विचरण करता है तथा इन चारों को पार कर शुद्ध निराकार निर्गुण की भूमि ‘निर्बीज’ समाधि में भी प्रवेश कर जाता है। परंतु कवि को ‘सविकल्प’ और ‘सविचार’ समाधियों से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ‘निर्बीज’ समाधि तो शब्दातीत, रूपातीत, निर्गुण, निराकार, अनुभवों का क्षेत्र है जिसकी भाषा है मौन, एक ऐसा अगाध-अतल मौन जिसकी अभिव्यक्ति देने में भाषा के सारे बिंब और अनुभव के सारे ‘सांचे’ अक्षम हैं। अतः उस समाधि से भाषा के उपासक कवि का और सगुण परमात्मा के उपासक भक्त का क्या सरोकार? कवि और भक्त को तो ‘भावानुप्रवेश’ और ‘ध्यान’ चाहिए और ध्यान-योग के सारे उपकरण सविकल्प और सविचार समाधियों में ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके आगे की समाधि में योगीजन प्रवेश करते हैं। कवि और भक्त का उद्देश्य इतने से ही सिद्ध हो जाता है। इसके बाद यदि भक्त को कुछ चाहिए तो वह है भगवद् करुणा। वह योग, यत्न या प्रयत्न से नहीं आती बल्कि वह ऊपर से बरसती है। यह भगवद् करुणा योगी के लिए भी आवश्यक है। इसके बिना उसका योग मात्र हठयोग रह जाता है। रामचरितमानस में कवि वाल्मीकि और भक्त हनुमान को ‘विज्ञानी’ अर्थात् ‘योगी’ कहकर कविता और भक्ति की इसी यौगिक ‘मर्मी’ विशेषता या ‘रहस्य’ को उद्घाटित किया गया है। यह ‘विशुद्ध विज्ञानौ’ उपाधि इस बात का संकेत करती है कि कविता, भक्ति और योग तीनों के बीच मात्रागत भेद अवश्य है परंतु तत्त्वतः तीनों एक ही प्रकार की उपासनाएं हैं जिनका प्रस्थान एक है। भगवान् की भक्ति स्वयं में एक कविता है, संभवतः विशुद्धतम कविता। इसी अर्थ में किसी ने कहा है: “Christionity is a pathetic poem sung by Jesus.” सारा वैष्णव धर्म ही एक मनोहर ‘काव्य’ है और एक रागतरंगायित ‘भाव-योग’ है।

 

अनेक ज्ञानमार्गी आचार्यों ने भी भक्ति को ज्ञान से योग से बढ़कर कहा है और ज्ञान से भी श्रेष्ठतर माना है। मधुसूदन सरस्वती जैसे वेदांती ने, जिन्होंने सुरेश्वराचार्य के वार्तिक की टीका लिखी है, अपने निर्गुण निराकार ब्रह्म को मानते हुए भी अंत में स्वीकार किया है-

 

ध्यानाभ्यास वशीकृतेन मनसा यत् निर्गुणं निष्क्रियं।

ज्योतिः किञ्चन योगिनो यत् परं पश्यन्ति पश्यन्तुते।

अस्माकं तु तदैवलोचन चमत्काराय भूयाच्चिरम्।

कालिन्दी पुलिनेषु यत् किमपि तन्नीलमहो धावति।”

 

यह सही है कि ‘निर्विकार’ समाधि के बाद ‘ऋतंभरा प्रज्ञा’ का उदय होता है जो ‘निर्बीज’ समाधि का द्वार खोल देती है और योगी को महाविदेहा स्थिति में ले जाती है एवं कैवल्य परम पद प्राप्त करती है। परंतु भक्तिमार्गी इस कैवल्य परम पद को बार-बार अस्वीकृत करके पुनः पुनः जन्म लेना चाहता है लीला-रस के आस्वादन के लिए। इसी से वैष्णव लोगों के अनुसार ऋतंभरा प्रज्ञा-प्राप्त योगीगण भी भक्तों से नीचे हैं। भक्त ‘विज्ञानी’ या ‘योगी’ से भी श्रेष्ठतर विशुद्ध विज्ञानी होता है। महाविदेह स्थिति के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ बोध में ‘अहं’ रह ही जाता है यद्यपि उस अहं में नाम-रूप-आकृति सब कुछ विराट् ब्रह्ममय हो जाता है। परंतु भक्ति में इतनी क्षमता है कि ब्रह्म या भगवान् से भिन्न रहकर भी भक्त अपने ‘अहं’ को प्रसाद बना देता है और उसे समस्त सृष्टि में जन-जन को बांट देता है। यह स्वयं का वितरण निश्चय ही ‘अहं’ के दमन द्वारा त्याग से श्रेष्ठतर और स्वस्थतर है।

 


परमहंसों, योगियों और गोसाइयों का सौंदर्यबोध श्रेष्ठतम काव्य होता है। ये सविकल्प समाधि में प्रवेश करके अपने ‘ह्लादिनी’ बोध या सौंदर्यबोध को काव्य-रूपक में प्रस्तुत करते हैं। जीवात्मा अपने जन्म-जन्मांतर की मधुमयी रात्रियों का मधु एक बिंदु पर केंद्रित करके अपनी विकल्प रूपी प्रेमिकाओं के साथ इसी सविकल्प समाधि के भीतर रास रचती है। यह जीवात्मा ही प्रत्येक हृदय में स्थित श्रीकृष्ण है और ‘ह्लादिनी’ के विविध बिंब, जो सविकल्प समाधि में उदित होते हैं, विविध ‘लीला-वधुएं’ हैं। सविकल्प समाधि एक क्षीर समुद्र है जिस पर यह नित्य काव्यानुभूति अभिनीत होती है। वल्लभाचार्य ने अपनी ‘कारिका’ के प्रारंभ में इसी तथ्य का संकेत किया है-

 

नमामि हृदयशेषे लीला क्षीराब्धि शायिनम्,

लक्ष्मी सहस्र लीलाभिः सेव्यमानं कलानिधिम्।”

 

सौंदर्यबोध ‘योग’ का ही एक भेद है जिसे जीवात्मा की सोमकला रूप ‘श्रीकृष्ण’ नित्य भोग रहे हैं, परंतु इस भोग का सचेत अनुभव होता है कवि को सविकल्प समाधि में प्रवेश करके। योगानुभूति और काव्यानुभूति दोनों सजातीय हैं। अवश्य ही शुद्ध रसबोध की स्थिति में ही यह संभव है जब मन रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वोद्रेक से समृद्ध होता है और वासना-पंक से रहित और निर्मल रहता है। नित्यनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का क्षेत्र योग की सविकल्प समाधि ही है। डॉ0 नगेन्द्र का मत है कि काव्यशास्त्र में प्रचलित ‘प्रतिभा’ की धारणा का विकास योगदर्शन की ‘प्रज्ञा’ और प्रातिभ-ज्ञान की धारणाओं के आधार पर कल्पित हुआ ज्ञात होता है ।

 

गोसाइँजी के दोनों विशुद्ध ‘विज्ञानी’ कवि वाल्मीकि और भक्त हनुमान सीताराम के गुणग्राम के पुण्यारण्य में नित्य विहार करते हैं। यह पुण्यारण्य है भक्त का अपना मानस चित्रकूट, जिसमें मानसी मंदाकिनी प्रवाहित है। अयोध्याकांड में रामचंद्र वाल्मीकि से पूछते हैं कि वे अपने अरण्यवास के लिए आश्रम कहां पर निर्मित करें। इस प्रश्न का वाल्मीकि जो उत्तर देते हैं वह चमत्कारपूर्ण होने के साथ-साथ उस ‘मानस चित्रकूट’ का सांगोपांग वर्णन है (अयोध्याकांड : दोहा संख्या 126 से 130 तक)। इन चौपाइयों में भक्ति के 14 आदर्श उपस्थित किए गए हैं और वाल्मीकि का निवेदन है कि ऐसे लक्षणों से संपन्न मानस अरण्य में ही राम अपना ‘बासा’ बांधे। उनकी उपस्थिति से समृद्ध मानस अरण्य में भक्त भी नित्य विहार करता है, क्योंकि भक्त वहीं रहेगा जहां उसका भगवान्। एक समय था कि वाल्मीकि अपने काम, क्रोध, लोभ आदि संगियों के साथ नित्य घोर अरण्य-विहार करते थे। उन्हें ज्ञात नहीं था कि उनके मन में ही कल्पवृक्षों का एक अद्भुत वन उगाया जा सकता है। तब उनका मानस एक तृषा-दग्ध मरु था। परंतु राम-राम जपते हुए उन्होंने इस मर्म को आविष्कृत किया कि उनके मानस मरु में कल्पवृक्षों के अंकुर फूट रहे हैं और जब यह जप चरम सीमा पर पहुंचा तो वे अंकुर कल्प-पारिजातों में परिवर्धित हो गए और उन्होंने उस कल्प-पारिजात वन के मध्य अपने परम पवित्र देवता और नायक का सिंहासन स्थापित किया ‘रामायण’ लिखकर।  इसी मानस कल्पवन् या मानस चित्रकूट को इस श्लोक में ‘पुण्यारण्य’ कहा गया है। यह पुण्यारण्य प्रत्येक कवि, कलाकार और भक्त के मन में सहज रूप से और अनिवार्य रूप से आता है और वृद्धि पाता है। यही सविकल्प समाधि का चित्रकूट है। वाल्मीकि और हनुमान ही नहीं, गोसाईं तुलसीदास के मानस लोक में भी ऐसा ही एक पुण्यारण्य था, जिसके कल्पवृक्षों के पत्तों पर ‘मानस पत्रिका’, ‘कवितावली’ आदि लिख-लिखकर उन्होंने अपने अंतर की तमसा को पराजित किया और बाहर-बाहर के युग के हृदय में व्याप्त तमोगुण से लड़ने की प्रेरणा भविष्य के उत्तरकालीन पुरुषों को प्रदान की है। यही कारण है कि महाकाव्य के अंतिम श्लोक में उन्होंने ‘स्वांतः तमः शान्तये’ की बात की है ‘स्वांतः सुखाय’ की नहीं । यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो ‘सुख’ अंतर की क्रुद्ध तमसा की ‘शांति’ का ही दूसरा नाम है।


                             

(जनवरी 1975, वीणा में पहली बार प्रकाशित। ‘महाकवि की तर्जनी’ संग्रह में संकलित )

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