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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

कथावार्ता : आज की फिल्म- पुलिसगिरी



     तीसरे दर्जे का सिनेमा बड़ी काम की चीज है। मैं जब बहुत थका हुआ होता हूँ या गहरे अवसाद में, तो तीसरे दर्जे के सिनेमा की शरण में जाता हूँ। तब मैं दबंग, रेडी, पार्टनर, सिंघम, खिलाड़ी ७८६ या इसी तरह की फ़िल्में देखता हूँ। तब मैं फूहड़ हास्य वाली फ़िल्में भी देखता हूँ। जब मैं टीवी देखता हूँ, समाचार चैनलों से ऊब जाता हूँ, गाने, बासी और खराब लगने लगते हैं, तो फ़िल्में देखना शुरू करता हूँ। अच्छी फिल्मों की तलाश में इधर-उधर टहलता हूँ और विज्ञापन आदि से ऊब कर उन फिल्मों को देखना शुरू करता हूँ, जो दक्षिण की फिल्मों से डब करके हिंदी में परोसी जाती हैं। वे बड़ी मजेदार होती हैं।
दरअसल ऐसी फिल्मों को देखते हुए एक सहूलियत रहती है कि आपको दिमाग नहीं लगाना पड़ता और न ही फिल्मों के संवाद के प्रति बहुत गंभीरता बरतनी पड़ती है। कोई पात्र कुछ बोले और हम न सुन पायें तो कोई टेंशन नहीं होती। आप गाने के प्रसारित होने को फारवर्ड करके (अगर सुविधा हो तो) आगे भी बढ़ सकते हैं। ये गाने बहुत जरूरी नहीं होते। आप उन गानों को बाद में कभी भी अपनी फुरसत में देख सकते हैं। मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि तीसरे दर्जे के सिनेमा के गाने मुगले-आजम के गानों की तरह नहीं होते कि अगर आपने ‘प्यार किया तो डरना क्या’ जैसे गीत को छोड़ दिया तो आप बाद में यह सोचकर हलकान होते रहेंगे कि आखिर अकबर गुस्से में यूं चीखा क्यों, या ऐसी प्रतिक्रिया क्यों दी। या अगर आपने लुटेरा जैसी फिल्मों के गीत भी मिस किये तो आपको कुछ अच्छे दृश्यों और प्रसंगों से वंचित होना पड़ेगा। अगर आप लंचबॉक्स जैसी फिल्म देख रहे हैं और अगर आपने एक भी डायलाग मिस किया तो आप बहुत देर तक फिल्म के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाएंगे। फिर आपको खीझ होने लगेगी। और यह व्यवधान बार-बार आया तो आप गुस्से से भर उठेंगे। अब अगर आपने एक बढ़िया फिल्म देखने के उद्देश्य से पैसा खर्च किया है, आनंद की तलाश में अपना समय खरच रहे हैं, तो उद्देश्य तो सिद्ध नहीं हुआ न!! इसलिए तीसरे दर्जे का सिनेमा, ऐसे में वरदान है। इसमें आप दबंग का गाना 'मुन्नी बदनाम हुई' कहीं भी रखकर देख सकते हैं क्या फरक पड़ता है कि चिंता-ता-चिता-चिता कहाँ गाया जा रहा है या फायर बिग्रेड मंगाने की बात गोरी कहाँ और क्यों कह रही है या फेविकोल की दरकार काहे खातिर है तारीफ यह भी है कि इस फिल्म को देखने पर आपको हीनताबोध जैसी कोई भावना नहीं होगी। हर तरफ से मजे ही मजे।
हमारे आदरणीय शिक्षक प्रो० सत्यप्रकाश मिश्र जी कहा करते थे कि उबाऊ और अनुर्वर समय में मैं जासूसी उपन्यास पढ़ता हूँ। हम आश्चर्य से भर जाते थे। हैं, जासूसी उपन्यास!! फिर, यह सोचते कि अपनी-अपनी रूचि और अपना-अपना शगल। सोचता हूँ कि उबाऊ और अनुर्वर समय में हमें पकाऊ काम करना चाहिए। पककर टपकने में सहूलियत रहती है। हम जल्दी ही इस नाकारापन से बाहर आ जाते हैं।
भूमिका बड़ी हो गयी। बात करना था- हाल में ही देखी फिल्म- पुलिसगिरी के विषय में। इसमें खलनायक ब्राण्ड और बाद में मुन्नाभाई की छवि वाले संजय दत्त ने लीड रोल किया है। लीड रोल लिखते-लिखते लीद लिखा जा रहा है। यह भी सही ही होता। लीद, घोड़े के गोबर को कहते हैं।

फिल्म क्या है, बकवास का अजायबघर है। बेसिर-पैर की बकवास। फिल्म दबंग और सिंघम का काकटेल है और वह भी ठीक से नहीं मिल पाया है। सिंघम में प्रकाश राज ने विलेन की जो भूमिका निभाई है, वह अद्वितीय है। दक्षिण के इस अभिनेता के पास हिन्दी को व्यक्त करने का विशेष अंदाज है। वे अपने शानदार अभिनय से नायकों को पीछे छोड़ देते हैं। फिल्म में किंगमेकर की भूमिका में प्रकाश राज उतना नहीं जमे हैं, जितना हर बार अपने घर में लल्लुओं-चप्पुओं से घिरे हुए किसी न किसी वाद्य-यंत्र पर अपना जलवा बिखेरते हुए जमे हैं। उन्हें वहां देखना वाकई रोचक है। उनकी संवाद अदायगी तो बहुत विशिष्ट है। फिल्म में राजपाल यादव भी हैं। वे हँसाते नहीं, चिढ़ाते हैं। और स्वयं संजय दत्त तो लीद कर ही रहे हैं। वे पुलिस ऑफिसर की भूमिका में हैं। कोम्बो। पुलिस भी गुण्डा भी। उनका डायलाग भी जब तब स्क्रीन पर आता रहता है। वे सबसे अपने कोम्बो चरित्र को बताते रहते हैं। वे रिश्वत लेते हैं ताकि वहाँ जमे रह सकें। न लेने पर उन्हें मालूम है कि उनका तबादला हो जायेगा। वे रिश्वत लेने के बावजूद बहुत ईमानदार हैं, क्योंकि वे इस पैसे की पाई-पाई का हिसाब रखते हैं। वे सब काम कर सकते हैं। वैसे भी हिंदी फिल्मों का नायक सारे काम कर सकता है। मैं उनके विषय में जितना लिखूंगा, कम पड़ेगा। ओम पूरी भी हैं। लेकिन वे क्यों हैं, यह नहीं पूछा जाना चाहिए। नायिका तो होनी ही चाहिए, प्राची देसाई को इसके लिए चुना गया है. वे न हों तो गाने और पप्पी-झप्पी कैसे दिखायेंगे, तो उसके लिए प्राची देसाई हैं। डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर का नाम जानने से क्या फायदा?
मैं हिन्दी फ़िल्में देखते हुए अक्सर सोचता हूँ कि खलनायक के गुर्गे नायक को मरने के लिए अत्याधुनिक हथियारों के होते हुए भी लाठी-डंडा, कुश्ती-कराटे या लातम-जूतम पर ज्यादा भरोसा क्यों करते हैं। बहुत हुआ तो चाकू या तलवार यानी अस्त्र का ही प्रयोग क्यों करते हैं। ऐसे जानलेवा शस्त्रों का उपयोग क्यों  नहीं करते जिसकी एक गोली से ही नायक का काम तमाम हो जाय। वे मशीनगन आदि कहाँ छिपाए रहते हैं और किस दिन के लिए। और अगर वे इनका प्रयोग करते हैं तो इतना कच्चा निशाना क्यों होता है उनका। मैं बहुत सारी चीजें सोचता हूँ।।
लेकिन यहाँ सवाल यह है कि मैं ऐसी फ़िल्में देखते हुए सोचता क्यों हूँ? क्या सोचते हुए मैं उस ऊब और अनुर्वरता से निकल चुका होता हूँ? मैं क्यों सोचता हूँ? मैं जब इस प्रश्न से जूझता हूँ तो फिर से एक अनुर्वर क्षेत्र में चला जाता हूँ। और तब मुझे बहुत सुकून मिलता है। मैं पूरी फिल्म देखते हुए, मुस्कराता रहता हूँ और यही ऐसी फिल्मों की सफलता होती है।

हमारे देश में संभवतः तीसरे दर्जे के सिनेमा के ढेरों दर्शक इसीलिए हैं कि वे दिमाग को तनाव से मुक्ति देना चाहते हैं। वे जानते हैं कि गंभीर सिनेमा कोई ख़ास हस्तक्षेप हमारे जीवन में नहीं करने वाला। इतने सारे बड़े-बड़े तोप खां और तुर्रम खां क्या उखाड़ ले रहे हैं? हो वही रहा है जो सत्ता चाहती है। वही जो, कुछ मुट्ठी भर लोग चाहते हैं। फिर हमें गंभीर सिनेमा, गंभीर साहित्य पढ़कर क्या कर लेना है। आखिर ऐसी फिल्मों का नायक इस सत्ता से लड़कर अपने तरीके का एक हल पेश तो करता है। वह अपनी पक्षधरता तो स्पष्ट करता है। पढ़े-लिखे गंभीर लोग तो जिन्दगी को और उलझाए दे रहे हैं। आमीन।।

--डॉ० रमाकान्त राय।

३६५ए-१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६

सद्य: आलोकित!

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