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रविवार, 13 मार्च 2022

कश्मीरी पंडितों का यथार्थ है इस फ़ाइल में

       -गौरव तिवारी

        #the_Kashmir_Files

        हमने देखा है, लाज़िम था तो हमने भी देखा है।

        कश्मीर फाइल्स कश्मीर पर बनी एक जरुरी फ़िल्म है। निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने साहस और शोध दोनों को लेकर यह फ़िल्म बनाई है। उनका कहना है कि फ़िल्म के एक एक दृश्य पुष्ट और प्रामाणिक होने पर ही खींचे गए हैं। फ़िल्म की कोई बात लफ्फाजी नहीं है । दिखाई गई प्रत्येक घटना के दस्तावेज/ प्रमाण उनके पास हैं।

        फ़िल्म का रचनाकार कश्मीर के पंडितों की समस्या पर बेचैन है और बहुत कुछ कहने के लिए व्याकुल भी। 30 वर्ष पूर्व साम्प्रदायिकता और जेहाद के झंडाबरदारों द्वारा एक समुदाय विशेष के लोगों को बहुत ही अमानुषिक ढंग से कश्मीर से निकाला गया। फ़िल्म कहती है कि "इस जन्नत को जहन्नुम बनाने वाले ने भी जिहाद इसलिए किया कि उन्हें जन्नत मिले" और दुनिया देखती रही।

डॉ गौरव तिवारी

    कश्मीर पर विधु विनोद चोपड़ा जैसे महारथी के द्वारा मिशन कश्मीर, शिकारा जैसी फिल्में भी बनी। अन्यों ने भी बनाया। लेकिन मूल समस्या और पीड़ितों के पक्ष को इतनी तन्मयता से नहीं दिखाया गया था। उनमें प्रेम कहानी के नेपथ्य में कश्मीरियत की छौंक थी।

        देश में प्रगतिशील और सेकुलर चादर ओढ़े कलाकार/ रचनाकार/ बुद्धिजीवी जिस औजार से, जिस हथियार से, जिस ढंग से अपने पक्ष को रखने के लिए जाने जाते रहे हैं, यह फ़िल्म उन सबका इस्तेमाल करके उनको उनकी भाषा में प्रत्युत्तर देने की सफल कोशिश है। कश्मीर फाइल्स को देखते हुए मुझे जाने क्यों बार बार लग रहा था कि "अंधेरे में" कविता में जिस प्रकार मुक्तिबोध बहुत कुछ कहने के लिए, शोषितों का पक्ष बनने के लिए, शोषकों को नंगा करने के लिए बेचैन हैं और अनेक दृश्यों, फ्लैशबैक पद्धतियों, नाटकीयता और प्रतीकात्मकता के साथ अपनी बात कहते जाते हैं, वैसे ही लेखक और निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री भी यहां उपस्थित हैं।

        यह फ़िल्म कश्मीर की मूल समस्या को भुलाकर उसके लिए अलग ढंग का नैरेटिव गढ़ कर समस्या के प्रत्यक्ष या परोक्ष कारणों के विक्टिम (पीड़ित) बनाने के दर्द को, सही खबर छुपाकर फेक खबर को बार-बार कहते जाने और फिर उसे ही सही मान लिए जाने की पीड़ा को लिये हुए है। तथ्यों के सहारे इनका पर्दाफाश करते हुए यह फ़िल्म कहती भी है कि "यह नरेटिव का वार है बहुत खराब वार है यह। तथाकथित सेकुलरों और प्रगतिशील लोगों द्वारा विक्टिमहुड की कहानियां खरीदी और बेची जाती हैं यहां।" और उसी ने एक पर्दा लगा रखा है जिससे कश्मीरी विस्थापितों की पीड़ा लोग नहीं देख पाते। फ़िल्म कहती भी है कि "हम पीड़ित थे लेकिन हमने हथियार नहीं उठाया।.... दुनिया ने हमें सुनने की, हमारी पीड़ा को जानने की कोशिश भी नहीं की।"

        कश्मीर का प्राचीन इतिहास, वहाँ की समृद्धि संस्कृति, वहाँ की ज्ञान परम्परा, उसकी कश्मीरियत, वहाँ की "नदरु" आदि को कलात्मकता और कहीं कहीं नैरेशन के साथ बताती यह फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की जरूरत थी।

        कश्मीर को धर्म विशेष की अफीम को चखने और उसमें डूबे रहने वाले आतंकियों ने किस हैवानियत के साथ समाप्त कर दिया और "फ्रेंडशिप विफोर नेशन" वाली नेताओं की थियरी ने कैसे उसे नष्ट होने में भूमिका अदा की यह फ़िल्म इसका पर्दाफाश करती है। "धर्मान्तरण करो, छोड़ दो या मर जाओ", "कश्मीर को पाकिस्तान बनाना है, उनके मर्दों के बिना, उनकी औरतों के साथ" जैसे नारे के बीच वहाँ की लोमहर्षक हैवानियत "कश्मीर में जिंदा रहने से ज्यादा मुश्किल का काम कोई है नहीं पंडितों के लिए" के साथ यह फ़िल्म यह भी बताती है कि कैसे उदार कहे जाने वाले सूफियों के तलवारों से हिंदुओं को यहाँ धर्मांतरित किया गया। यासीन मलिक के किरदार का महिला को उसके पति के खून से सने चावल खिलाने और 24 महिला, पुरुष, बच्चों को माथे पर गोली से उड़ा देने का दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला है।

        "देश की तकदीर वही बदल सकता है जिसके पास पॉवर है, पोलिटिकल पॉवर है। बाकी सब बकवास है।" जैसे संवादों के बीच अपनी मिट्टी में वापस जाने की कश्मीरियों की उस पॉवर की ओर टकटकी इस फ़िल्म में है।

        इस फ़िल्म का एक पात्र जो अपने पिता की हत्या के बाद माँ और दादा के निर्वासित होने के लिए अभिशप्त था, जब प्रगतिशील शिक्षा संस्थानों में नए गढ़े गए नैरेशन्स में वहाँ की वास्तविकता से अनभिज्ञ होता है और "इनमें से मेरे पैरेंट्स कौन हैं" की स्थिति में आ जाता है तब यह फ़िल्म आज की पीढ़ी के अपने जड़ो से कट जाने की बेचारगी को भी दर्शाती है। और उसे अपनी जड़ों का ज्ञान होने पर "मेरी माँ का नाम शारदा (ज्ञान की देवी सरस्वती) था यह उसकी कहानी है, मेरे भाई का नाम शिव (भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि व्यक्तित्व) था यह उसकी कहानी है।" कहते हुए दुनिया के सामने अपने दर्द को बयाँ करता है तो फ़िल्म अति यथार्थ और संकेत के साथ थोड़े में बहुत कुछ कहती भी दिखती है।

        आज जब जड़ों से कटकर भौतिक सुख में रहना, आज को ही ओढ़ना, आज को ही बिछाना, आज ही में सोचना, अपने इतिहास, संस्कृति से कटकर सब कुछ पूरी दुनिया में एक जैसा होता जा रहा है। यह फ़िल्म हमें अपनी जड़ों से जुड़ने का माद्दा भी दे रही है।

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        जो लोग कह रहे कि यह फ़िल्म प्रत्येक हिन्दू को देखना चाहिए मैं उनसे असहमत हूँ। प्रत्येक भारतीय को यह फ़िल्म देखना चाहिए।

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        (डॉ गौरव तिवारी ने दी कश्मीर फाइल्स फिल्म देखकर यह त्वरित प्रतिक्रिया की। यह कई मायने में एक बेहतरीन समीक्षा है। वह कथावार्ता के लिए लिखते रहे हैं। आप उनकी इस समीक्षा पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत अवश्य कराइएगा।)


-एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी

(सम्बद्ध) गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

 

शुक्रवार, 1 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ अज्ञेय की कविता - नदी के द्वीप

(हिन्दी की एक बहुत चर्चित और विशिष्ट कविता नदी के द्वीप का भाष्य प्रस्तुत कर रहे हैं डॉ गौरव तिवारी- सम्पादक)


आधुनिक हिंदी साहित्य में अज्ञेय का व्यक्तित्व विशिष्ट है  हम उनकी एक बहुचर्चित काव्य कृति "नदी के द्वीप" की चर्चा कर रहे हैं  ('नदी के द्वीप' कविता को यहाँ क्लिक करके पढ़ें) "नदी के द्वीपकविता अज्ञेय द्वारा 11 दिसम्बर, 1949 को तत्कालीन इलाहाबाद में लिखी गई कविता है। यह कविता 1965 में आए उनके काव्य संग्रह 'हरी घास पर क्षण भरमें संकलित है। अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं जो साहित्य में नए-नए प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते रहे हैं  उनका मानना है की कई शताब्दियों से साहित्य में एक ही प्रकार के प्रतीकों और बिंबों के प्रयोग से विचारों और भावों के संप्रेषण में बाधा हुई है। अपनी एक कविता "कलगी बाजरे कीमें वह कहते भी हैं कि जिस प्रकार वासन को अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है उसी प्रकार किसी भी शब्द को प्रतीक या बिंब के रूप में एक सीमा से ज्यादा प्रयोग करने पर उसकी अर्थवत्ता वह नहीं रह जाती जो रचनाकार चाहता है। अपने इस विचार के मद्देनजर वे अपने साहित्य में प्रतीकों और बिंबों के स्तरों पर ढेर सारे प्रयोग करते हैं  उनके सभी प्रयोग बड़े सार्थक और उनके भावों का वहन करने वाले हैं 
          "नदी के द्वीपकविता व्यक्तिसंस्कृति/परंपराइतिहास और समाज के संबंधों को व्यक्त करने वाली कविता है। अज्ञेय के साहित्य के प्रत्येक रूप चाहें वह कविता होकहानी होउपन्यास होनिबंध साहित्य हो यात्रा या संस्मरण साहित्यसभी में व्यक्तित्वसंस्कृतिपरम्परासमाज आदि के अंतर्संबंधों को पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। अज्ञेय के साहित्यिक के रूप में आरम्भ से अंत तक ये विषय उनके चिन्तना के केंद्र में रहे हैं।
          कविता पर आने के पहले इस बात पर भी चर्चा कर लेना आवश्यक है कि अज्ञेय के साहित्य पर अंग्रेजी कवि और आलोचक टी एस इलियट का बहुत ज्यादा प्रभाव है  टी एस इलियट ने अपने साहित्य में परम्परा को बहुत महत्व दिया है। 'परंपरा का सिद्धांतदेते हुए वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है तो उस व्यक्तित्व की निर्मित में ना सिर्फ उसकी मेधाउसकी समझउसके ज्ञानउसके परिवेश का प्रभाव होता है बल्कि वह अपने इतिहास और परंपरा से भी निर्मित होता है। अज्ञेय इलियट की इस बात से न सिर्फ प्रभावित हैं बल्कि बहुत सहमत भी हैं। इसके अतिरिक्त इनकी यह भी मान्यता है कि ' संस्कृति मूलतः  एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने वाले निर्माता प्रभावों का नाम हैउन सभी निर्माता प्रभावों का जो समाज कोव्यक्ति कोपरिवार कोसबके आपसी सम्बन्धों कोश्रम और सम्पत्ति के विभाजन और उपयोग कोप्राणिमात्र से ही नहींवस्तुमात्र से हमारे सम्बन्धों कोनिरूपित और निर्धारित करते हैं।उनका यह भी मानना है कि 'संस्कृतियाँ लगातार बदलती हैंक्योंकि भौतिक परिस्थितियाँ भी लगातार बदलती हैं।' (संस्कृति की चेतनानिबंध)
          यह पूरी कविता प्रतीकात्मक है।  इस कविता में नदी परंपरा या संस्कृति का प्रतीक है तो द्वीप व्यक्तित्व का प्रतीक है।  नदी के किनारे हमारा इतिहास भी हो सकते हैं और समाज भी। कविता शुरू होती है'हम नदी के द्वीप हैं।/हम नहीं कहते कि हम को छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय।/वह हमें आकार देती है। हमारे कोणगलियाँ अंतरीपउभारसैकत कूल/सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।' कवि बताता है कि हम नदी के द्वीप के समान हैं। चारो तरफ से जल से घिरा भूस्थल द्वीप कहलाता है।  जिस प्रकार नदी द्वारा लाई गई मिट्टीबालू आदि से द्वीप को एक रूप और आकार की प्राप्ति होती है उसी प्रकार हमारा व्यक्तित्व भी हमारी परम्परा या संस्कृति से रूप और आकार प्राप्त करता है। अपने उद्गम स्थल से द्वीप तक पहुँचते-पहुँचते नदी विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों से गुजरती है। जिस प्रकार विभिन्न उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई नदी अपने साथ विभिन्न प्रकार की मिट्टी और रेत आदि से द्वीप का निर्माण करती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी अपने लंबे और विभिन्न प्रकार के ज्ञान अनुभवों से हमारा निर्माण करती है। हमारे चाहे अनचाहे हमारा व्यक्तित्व हमारी परम्परा से जुड़ जाता है। हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न रूप (कोण), हमारे मन का सकरापन या तुच्छता (गलियां), हमारी हरे-भरेपन और जीवंतता से युक्त टापू रूपी कोई विशिष्टता (अंतरीप), हमारी उदात्तता (उभारऔर हमारे व्यक्तित्व का वह रेतीलापन जो हमें बंजर सा बना देता है (सैकत कूलये सब अपनी-अपनी इयत्ता के साथ इसी परम्परा द्वारा निर्मित हैं। इसलिए हम अपनी परम्परा को खुद से अलगाने की बात कह ही नहीं सकते।  कवि यहाँ यह सीधे बताता है कि किसी के व्यक्तित्व की जो भी विशिष्टताबड़प्पनअच्छाईन्यूनता या बुराई होती है उसके निर्माण में उसकी परम्परा का भी हाथ होता है । इसलिए अपनी परम्परा से खुद को एकदम से काट लेना सम्भव नहीं है।
          कवि कहता है - 'माँ है वह। हैइसी से हम बने हैं।' कविता का यह वाक्य अपने पहले और बाद के अन्तरे से अलग है। मतलब सीधा है। कवि इस बात को अपनी विशिष्ट बात की तरह जोर देते हुए प्रस्तुत कर रहा है। वह एक व्यक्ति के लिए उसकी परम्परा का स्थान माँ के बराबर मानता है। जिस प्रकार माँ न सिर्फ अपने बच्चे को जन्म देती है बल्कि उसका भरण पोषण करके उसे तैयार करती है उसी प्रकार परम्परा भी एक व्यक्तित्व को रूप देती है और अपने विभिन्न तत्वों से उसका पोषण करती है।
 अपनी परम्परा के प्रति इतनी आस्था के बावजूद कवि काव्यक्तित्व की विशिष्टता के प्रति और उसकी स्वतंत्र पहचान के प्रति सजगता है। अज्ञेय का मानना है कि एक ही संस्कृति या परम्परा से एक ही समय में अनेक व्यक्तित्वों की निर्मिति होती है। ये सभी व्यक्तित्व या रूप किसी सांचे में ढले नहीं होते। ये अपनी परम्परा के भिन्न-भिन्न तत्वों से अलग अलग प्रकार से निर्मित होते हैं। इनकी विशिष्टता अलग-अलग होती है इसलिए प्रत्येक व्यक्तित्व परम्परा का अंग होता हुआ भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसलिए वह कहता है'किंतु हम हैं द्वीप।/हम धारा नहीं हैं।स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी केकिंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।हम बहेंगे तो हम रहेंगे ही नहीं।/पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जायेंगे।और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?/ रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।अनुपयोगी ही बनाएंगे।' यहाँ कवि द्वीप होना और धारा होने की विशिष्टता को अलग अलग रेखांकित कर रहा है और बता रहा है कि जिस प्रकार धारा का अंग या धारा की निर्मिति होते हुए भी द्वीप की अपनी वह विशिष्टता होती है जो उसकी पहचान को धारा से अलग आधार देती है उसी प्रकार परम्परा की निर्मित होते हुए भी व्यक्तित्व की एक विशिष्ट पहचान होती है । इसलिए परम्परा के प्रति व्यक्तित्व के समर्पण की सीमा निश्चित है। अगर हम गाँधी और बुद्ध के उदाहरण से समझें  तो दिखेगा कि महात्मा गाँधी ने अपनी परम्परा के बुद्ध से अहिंसा को ग्रहण किया। यह अहिंसा बुद्ध की भी एक पहचान बनी थी और बाद में गांधी की भी पहचान बनी। गाँधी की निर्मिति में बुद्ध की भी भूमिका है। लेकिन गाँधी का बुद्ध के प्रति एक स्थिर समर्पण है। गाँधी बुद्ध की ज्यों की त्यों नकल नहीं करते। अगर गाँधी बुद्ध का ज्यों का त्यों नकल करते तो उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान नहीं बनती। सम्भव है ज्यों का त्यों नकल में वे बौद्ध भिक्षुओं की भीड़ का कोई भिक्षु बनकर रह जाते। वे अहिंसा को मन की वृत्ति से बड़ा फलक देते हैं। वे उसे आंदोलन बनाते हैं। हथियार बनाते हैं। उसे सत्याग्रह से भी जोड़ते हैं। बुद्ध से गाँधी तक आते आते अहिंसा की मूल आत्मा तो वही रहती है लेकिन युग के अनुरूप उसकी शक्ति का विस्तार होता है। और यही बात गांधी को अलग व्यक्तित्व का रूप भी देती है। इसीलिए कवि कहता है कि परम्परा के अंग तो हैं किंतु परम्परा का अंग होते हुए भी एकदम से परम्परा ही नहीं हैं। हमारे अंदर कुछ और विशिष्टताएं हैं जो हमारी अलग पहचान बनाती हैं। हमारी यदि अलग विशिष्टता नहीं हुई तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। हम नदी की रेत की तरह भीड़ का शुष्कअनुपजाऊ हिस्सा बनकर ही रह जाएंगे। अपनी अलग विशिष्टता के कारण ही हमारा वजूद है। अन्यथा हमारी न कोई पहचान होगी और न वजूद। हम भीड़ बनकर बह जाएंगे। कवि यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात रेखांकित करता है। वह कहता है कि अपनी परम्परा से पोषण पाकर जो लोग अपनी अलग पहचान नहीं बनातेरेत के समान सिर्फ बहते या जीते चले जाते हैं वे अपनी परम्परा को गन्दा ही करते हैं।
          कवि आगे कहता है'द्वीप हैं हम। / यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में। / वह बृहद भूखंड से हमको मिलाती है। / और वह भूखंड अपना पितर है।' यहाँ कवि ने परम्परा और व्यक्तित्व को नदी और द्वीप के प्रतीक से प्रस्तुत करते हुए बताया है कि विशिष्ट व्यक्तित्व होना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य की बात है। वह कहता है कि  हमारे व्यक्तित्व को हमारी परम्परा हमारे समाज और इतिहास से जोड़ती है। वह यदि परम्परा और संस्कृति को माँ का स्थान देता है तो हमारे समाज और इतिहास को पिता के रूप में रखता है। वह कहता है कि जैसे नदी अपने गोद में द्वीप को धारण करती है उसी प्रकार एक परम्परा की गोद में एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। और जिस प्रकार नदी द्वीप और बड़े भूखंड को जोड़ती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी हमारे समाज और हमारे इतिहास से हमें जोड़ती है। यहाँ कवि स्पष्ट करता हुआ दिखता है कि किसी व्यक्तित्व के निर्माण में सिर्फ परम्परा की नहीं बल्कि समाज और इतिहास की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाप होना माँ होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
          कवि परम्परा के आगे बढ़ते चले जाने की बात करता हुआ कहता है कि - 'नदीतुम बहती चलो। / भूखंड से जो दाय हमको मिला हैमिलता रहा है, / माँजतीसंस्कार देती चलो'  अर्थात परम्परा प्रवाहमान रहे। समाज और इतिहास से व्यक्ति जो प्राप्त करता है उसकी कमियोंबुराइयोंगंदगियों को साफ करती और सुन्दर रूप देती चले। प्रत्येक समाज के अंदर समय के साथ अनेक बुराइयाँ आ जाती हैं। कवि स्पष्ट कह रहा है कि हमारे समाज के अंदर आयी बुराइयों को दूर करने के तत्व हमारी परम्परा में ही मौजूद होते हैं और इन तत्वों के सहारे समाज में आ गई बुराइयों से मुक्ति पाई जा सकती है।
          एक निबंध में अज्ञेय संस्कृति पर चर्चा करते हुए कहते हैं - 'संस्कृति व्यक्तित्व का विस्तार और प्रसार माँगती हैसंकोच या छँटाव नहीं। संस्कारी व्यक्ति बराबर नयी उपलब्धियों को आत्मसात करता चलता है।' (प्राची-प्रतीची)। वे सिर्फ आंतरिक कारणों से समाज में आ गई बुराइयों पर नजर नहीं रखते। वे कहते हैं - 'यदि ऐसा कभी हो / तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से - अतिचार से-/ तुम बढ़ोप्लवन तुम्हारा घरघरा उठे, / यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय / तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर / फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे। / कहीं फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार। / मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।'कभी-कभी कोई समाज अति-आत्मविश्वास से इतना भर जाता है कि वह इसके कारण अनेक बातों पर नजर नहीं रख पाता। हमारी अत्यधिक प्रसन्नता या अत्यधिक श्रेष्ठता का भाव भी कई बार समाज में अनेक कमियों के आने का कारण बन जाता है। हम खुद को बड़ा और श्रेष्ठ मानने के कारण इतने लापरवाह या दम्भी हो जाते हैं कि सब कुछ नष्ट होना अनिवार्य हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी के चिन्ता सर्ग में ऐसी ही स्थिति की देव संस्कृति के ध्वंस की बात की है जो जीवन के विभिन्न आयामों की श्रेष्ठता को प्राप्त करने के बाद अपनी वासना के आह्लाद में ऐसी डूबी की सब कुछ नष्ट हो गया। वे लिखते हैं कि देवताओं की संस्कृति का रूप ऐसा था कि - 'कीर्तिदीप्तिशोभा थी नचती अरुण किरण सी चारो ओर,/ सप्तसिंधु के तरल कणों मेंद्रुम दल मेंआनंद विभोर।शक्ति रही हाँ शक्तिप्रकृति थी पड़-तल में विनम्र विश्रांत, / कँपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत!' प्रसाद वर्णन करते हैं कि मनु कहते है - 'स्वयं देव थे हम सबतो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?' कामायनी में देव संस्कृति के नष्ट होने का प्रसंग आह्लाद के कारण किसी संस्कृति के नष्ट होने का श्रेष्ठ उदाहरण है।
          आगे कवि बताता है कि कभी किसी देश या समाज को किसी दूसरे देश या समाज के क्रूर स्वेच्छाचारिता या अत्याचार का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कोई परम्परा किसी बाहरी तत्वकिसी विस्तारवादी नीति वाली संस्कृतिकिसी आक्रमणकारी,  किसी आततायी या किसी भी अन्य के सम्पर्क में आकर भी अनेक बुराइयों से युक्त हो जाती है। कभी सत्ता के बल पर या कभी किसी अन्य प्रकार की कुटिलता के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से जैसे किसी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए वह बारिश या अन्य बाहरी कारणों से उफनाई हुई नदी द्वारा किसी द्वीप या समाज को डुबो देने का उदाहरण देता है। वह कहता है कि यह सब कर्मनाशा नदी की तरह भी हो सकता हैकि उसके जल के स्पर्श मात्र से सभी पुण्य समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार का कोई झंझा भी यदि संस्कृति या परम्परा को वह रूप को प्रदान कर ले कि उसके अंदर समाजहंता बुराइयां आ जाएंवह परम्परा कई युगों में प्राप्त सभी अच्छाइयों को नाश करने वाली हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं है। हम इस स्थिति को भी यह सोचकर स्वीकार कर लेंगेकि हमें अपने अंदर आई इन कमियों से मुक्त होना है। हमारे व्यक्तित्व की विशिष्टता यदि इस विपरीत स्थिति में समाप्त हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं। हमें इस बात के लिए धैर्य धारण करना होगा कि हमारी परम्परा या संस्कृति में इतनी शक्ति है कि अपने आंतरिक सकारात्मक तत्वों के सहयोग से वह हमें फिर कोई रूप देगी। हमारे अंदर की गंदगियों को वह दूर करेगी। फिर कोई व्यक्ति अपने लिए किसी आधार को बनाएगा और इस आधार पर किसी बड़े व्यक्तित्व का निर्माण होगा जो समाज में आ चुकी कमियों और बुराइयों को दूर करने का प्रयास करेगा और  दूसरों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा।
          कविता की अंतिम पंक्ति में अज्ञेय अपनी परम्परा और संस्कृति को बड़ी आत्मीयता से माँ सम्बोधन देते हैं। और कहते हैं कि ऐ मेरी संस्कृतिपरम्परा रूपी माताइस नए बनते व्यक्तित्व के निर्माण में फिर तुम्हारी आवश्यकता होगी और तुम उसे अपने संस्कारो से निर्मित करना। इस कविता के आरम्भ में भी उन्होंने एक पंक्ति के अलग बन्ध में नदी रूपी संस्कृति को माँ सम्बोधन देते हुए कहा है कि एक व्यक्तित्व की सभी अच्छाईयों और न्यूनताओं के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका माँ की होती है।
          जिस प्रकार "असाध्य वीणामहान रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसके आस्वादन की प्रक्रिया को बताने वाली महान रचना है उसी प्रकार "नदी के द्वीपकवितापरम्परा और सांस्कृति के अंदर आए उतार चढ़ावों के बीच सार्थक व्यक्तित्वों के निर्माण में उसकी भूमिका को बताने वाली कविता है। कवि इस कविता में संस्कृति के तत्वों को ग्रहण करके खुद को सार्थक व्यक्तित्व बनाने की बात कर रहा है और कह रहा है कि यदि हम खुद को सार्थक नहीं बनाए तो जिस प्रकार रेत नदी के जल को गन्दा करता है उसी प्रकार निरर्थक व्यक्ति के रूप में हम अपनी परम्परा और संस्कृति को गन्दा करेंगे।




लेखक परिचय- 

डॉ गौरव तिवारी भगवान बुद्ध और प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय की पावन धरती कुशीनगर के निवासी हैं। वह हिंदी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य  समीक्षक और गंभीर अध्येता हैं। साहित्यिक रचनाएं आपके संस्पर्श से अपने भाव और संवेदना के साथ खिल उठती हैं। डॉ गौरव तिवारी ने उच्च शिक्षा 'हिंदी साहित्य के तीर्थ' इलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज से प्राप्त की है। उन्हें हिंदी साहित्य के ख्यातिलब्ध विद्वान आचार्य सत्यप्रकाश मिश्र के सानिध्य में डी. फिल. की उपाधि प्राप्त हुई। आपकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मुस्लिम उपन्यासकार : परिवेश और उपन्यास' प्रकाशित हो चुकी है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक आलेख एवं शोध-आलेख विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हैं। आपके कुशल सम्पादन में शीघ्र ही निबंध विधा पर आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। आप देश-प्रदेश की अनेक सभा, संगोष्ठियों एवं संस्थाओं में मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित होते रहते हैं। सम्प्रति बुद्ध पी जी कॉलेज, कुशीनगर में सहायक आचार्य, हिन्दी के रूप में समाज और साहित्य की सेवा में समर्पित हैं।


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : सात दिन सात किताबें- चयन डॉ गौरव तिवारी

                               

पहला दिन
पुस्तक का नाम- परम्परा का मूल्यांकन
लेखक-रामविलास शर्मा

      अगर यह खेल है तो यह बहुत प्यारा खेल है। आज के मोबाइल और सोशलमीडिया के युग में इस तरह के खेल बहुत जरूरी हैं। एंड्रॉयड फोन के माध्यम से इतना कुछ हमारी मुट्ठी में हो गया है कि लोगों और किताबों से वास्तविक रूप से कटते हुए हम खुद इसकी मुट्ठी में हो गए हैं । ऐसे में उन किताबों, जिन्होंने हमें प्रभावित किया है -की बातें करना अपने अंदर झांकना भी है।
मित्र शंखधर दुबे जी ने सात दिन सात किताबों की अपनी शृंखला में आज मुझे जोड़ा है तो सबसे पहले मैं उस किताब की बात करूंगा जिसने मुझे बहुत हद तक बदला। यह किताब है "परम्परा का मूल्यांकन"। इसके लेखक हैं डॉ रामविलास शर्मा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की कक्षाओं के दौरान मित्र नीलाभ के माध्यम से हिंदी के बड़े अध्येता और आलोचक डॉ नन्दकिशोर नवल सर से परिचय हुआ। नवल जी पटना से इलाहाबाद में संगोष्ठी में आते थे। उनके आने पर हम दोनों उनके आगे पीछे लगे रहते थे। उनके साथ रहना हमें सहज रूप से बहुत अच्छा लगता था। वे सुदर्शन व्यक्तित्व के बुजुर्ग विद्वान थे।  हम लोगों के प्रति उनका स्नेह इतना था कि हर बार हमारे लिए वे कोई न कोई किताब भी लाते थे। हम उनके थकने तक उनसे बात करते। उनकी ट्रेन पटना कुर्ला एक्सप्रेस के रात 12 बजे के आसपास आने तक स्टेशन पर उनसे लिपटे रहते। उनसे जुड़ी कई बातें हैं वे फिर कभी।
एक बार जब वे आए हुए थे। सहज जिज्ञासा से यह पूछने पर कि कुछ ऐसी किताबें बताइये जिन्हें हमें पढ़ना चाहिए। उन्होंने रामविलास जी की "परम्परा का मूल्यांकन" और "भाषा और समाज" का नाम लिया। हमने तुरन्त परम्परा का मूल्यांकन का पेपरबैक संस्करण लिया और उसे पढ़ गए। मुझे लगता है यह 1999-2000 की बात है। उस वक्त मैं बीए भाग तीन में था।
आज सोचता हूँ तो महसूस होता है कि इस किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसने मुझसे हिंदी साहित्य और भारतीय परम्परा का नए ढंग से परिचय कराया। हमें खूब पढ़ने की प्रेरणा दी और भारतीयता के प्रति गर्व की भावना भरी। इस पुस्तक से प्राप्त ज्ञान से हमारी मानसिक बुनावट ही नहीं प्रभावित हुई विषय विशेष पर लिखने का संस्कार भी मिला। जबसे थोड़ी बहुत समझ बनी है तबसे मुझे लगता है कि वाक्य निर्माण, विराम चिह्नों का प्रयोग, पैराग्राफ बदलने का संस्कार आदि बहुत कुछ मुझे इस पुस्तक से प्राप्त हुआ। ऐसी पुस्तक को पढ़कर भी यदि नालायक हूँ तो यह मेरी सीमा है। मुझे लगता है कि साहित्य के विद्यार्थियों को ही नहीं, सबको यह किताब पढ़नी चाहिए। आज एक अध्यापक के रूप में जब मैं अपनी कक्षाओं में टेस्ट लेता हूँ तो सबसे ज्यादा नम्बर पाने वाले के लिए मेरा एक उपहार "परम्परा का मूल्यांकन" भी होता है।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं मित्र रमाकान्त राय डॉ रमाकान्त राय जी जो कि खूब पढ़ते हैं, को जोड़ता हूँ।

दूसरा दिन
पुस्तक का नाम- आधा गाँव
लेखक- राही मासूम रज़ा

सात दिन सात किताब शृंखला के अंतर्गत मित्र शंखधर दुबे द्वारा दिये गए उत्तरदायित्व के अंतर्गत आज मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहूंगा वह है  डॉ राही मासूम रजा का उपन्यास "आधा गाँव"। स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात के बदलते भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव 'गंगौली' के शिया मुस्लिम परिवारों की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मुझे 'हिंदी के मुस्लिम उपन्यासकारों के उपन्यास' पर शोध कार्य करने पर मजबूर होना पड़ा।
मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि पिछले कई दशकों से भारतीय समाज में अलग अलग धर्मों को लेकर इतना खुलापन नहीं है कि भिन्न भिन्न धर्मों के सामान्य लोगों में अपने से भिन्न धर्म वालों के लिए अनेक अफवाहें न हों। मुस्लिम समाज के प्रति मुझ जैसे पृष्टभूमि वाले सामान्य गैर मुस्लिमों में ढेर सारी जिज्ञासाएं और अफवाहें तैरती थीं। इसलिए 'आधा गाँव' मेरे लिए एक अपरिचित दुनिया खोलने वाला उपन्यास था। इसके पहले मेरे लिए मुहर्रम सिर्फ हुसैन साहब की याद में लगने वाला मेला मात्र था। मुहर्रम मेले से ज्यादा एक अलग दुनिया भी है, यह 'आधा गाँव' ने बताया। देश में अलगाव के बीज कैसे बोए गए, परिवार कैसे तबाह हुए, गंगा यमुनी तहजीब को कैसे कलंकित करने की पटकथा रची गई यह सब इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। स्वतंत्रता पूर्व के भारत में हिन्दू मुस्लिम सह अस्तित्व का स्वरूप, गांवों और परिवारों में अवैध सम्बन्धों की दुनिया, भारत विभाजन का दंश, समय के साथ तादात्म्य न बैठा पाने के कारण पतनोन्मुख होते मुस्लिम जमीदार परिवार के साथ  जिंदादिल और मनबढ़ पत्रों की बेलौस-बिंदास गालियाँ, ये सब एक वास्तविक दुनिया की आत्मीय सैर कराते हैं।
मुझे लगता है आज के दौर में साहित्य के प्रत्येक प्रेमी को तो इस उपन्यास को पढ़ना ही चाहिए। यह उपन्यास मुहर्रम की तरह आपको गमगीन भी करेगा और एक अलग दुनिया में लेजाकर मेला भी कराएगा।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं सात अलग अलग किताबों की चर्चा के लिए मैं अपने पढ़ाकू मित्र डॉ अखिलेश शंखधर जी को नामित करता हूँ।

तीसरा दिन
पुस्तक का नाम- दीवार में एक खिड़की रहती थी 
लेखक-विनोद कुमार शुक्ल

सात दिन सात किताब शृंखला में मेरी आज की किताब है हिन्दी के विशिष्ट कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास "दीवार में एक खिड़की रहती थी"। विनोद कुमार शुक्ल हिंदी में अपने तरह के अकेले लेखक हैं। भाव और भाषा में वे इतने सरल हैं कि अर्थ गाम्भीर्य के प्रतिमान बन जाते हैं।
उक्त उपन्यास के नायक रघुवर प्रसाद हैं जो एक छोटे कस्बे के महाविद्यालय में अध्यापक हैं।  वे नवविवाहित हैं ।उनकी पत्नी का नाम सोनसी है। दोनों एक कमरे के मकान में किराये पर रहते हैं। यह कमरा ही रघुवर और सोनसी की दुनिया है। इसी कमरे में उनका चूल्हा-चौका और शयनकक्ष हैं। कमरे में एक दरवाजा और एक ही खिड़की है। कमरे के अंदर उनकी वास्तविक दुनिया है तो खिड़की के बाहर उनकी कल्पना की दुनिया। कमरे में जीवन का यथार्थ है तो खिड़की के बाहर प्रकृति की गोद में प्यार का आकाश है। खिड़की से बाहर जाने पर रघुवर और सोनसी को एकांत और प्यार के क्षण मिलते हैं। रघुवर जब दरवाजे से बाहर  निकलते हैं तो उनके साथ निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति का संघर्ष होता है और जब खिड़की से बाहर निकलते हैं तो निम्नमध्यवर्गीय प्यार,आशाएं और आकांक्षाएं होती हैं।
कथा कहने की विनोद जी की अपनी शैली है। यह शैली इतनी विशिष्ट है कि उपन्यास पढ़ते-पढ़ते नायक-नायिका से ही नहीं, लेखक से भी प्यार हो जाता है । पहली बार पढ़ने के बाद यह उपन्यास मुझे इतना पसंद आया कि मैंने अपने अनेक मित्रों को उपहार रूप में भी दिया। पतला सा यह उपन्यास आपसे आपका एकांत मांगकर आपको अपने एकांत में ले जाता है। इस एकांत में आज के समय की आपाधापी और शोर-शराबा नहीं है। तेज आँधी वाले आज के चिलचिलाते समय में यह उपन्यास फूलों की वादियों से निकली हुई भोर की शीतल मंद बयार है। अगर आपने यह उपन्यास नहीं पढ़ा तो हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि से वंचित रह गए।
सात दिन सात उपन्यास की इस शृंखला को बढ़ाने के लिए आज मैं अनुज मित्र https://www.facebook.com/profile.php?id=100007161274232 को नामित करता हूँ।

चौथा दिन
पुस्तक का नाम- सत्य के साथ मेरे प्रयोग
लेखक- महात्मा गांधी

सात दिन सात किताबें के चौथे दिन मैं जिस किताब के बारे में बात कर रहा हूँ वह महात्मा गाँधी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" है।
आधुनिक भारत में गाँधी का व्यक्तित्व वटवृक्ष के समान है। वटवृक्ष सही मायनों में भारतीय संस्कृति का प्रतीक हो सकता है। एक विशाल वटवृक्ष का निर्माण सदियों में होता है और उसकी शाखाएं एक नए वृक्ष का रूप धारण कर सदियों तक अपनी छाया में रहने वालों को शीतलता प्रदान करती हैं। गांधी जी ऐसे ही थे। गीता, ईशावास्योपनिषद और बुद्ध ने ही नहीं अन्य धर्मों के सांस्कृतिक ग्रन्थों ने भी उनका निर्माण किया था। वे आधुनिक भारत में भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में स्थापित होते हैं और आगे की पीढ़ियों के लिए प्रतिमान रखते हैं। उनसे निकलने वाली शाखाएं अर्थात सच्ची गांधीवादी धारा भी वैसी ही शीतलता प्रदान करती है।
गांधी मनुष्य थे और गलतियां उनसे भी हुई हैं। इन गलतियों के बावजूद वे बहुत बड़े हैं। उनकी निर्मित सामान्य मनुष्य की निर्मिति नहीं है। उनकी निर्मिति को समझने के लिए उक्त पुस्तक आधार पुस्तक है। अगर आज के रीढ़हीन, मूल्यहीन और मनुजताहीन होते समय में हमें महान भारतीय संस्कृति को यदि उसके स्वभाविकता के साथ बचाए रखना है तो हम गांधी को छोड़ नहीं सकते। गांधी को इस पुस्तक के बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता। इस पुस्तक में वे अपनी श्रेष्ठता और न्यूनता के साथ सामने आते हैं।
चुँकि यह पुस्तक भारत की प्रायः प्रत्येक भाषा में उपलब्ध है इसलिए प्रत्येक भारतीय को इस पुस्तक  को जरूर पढ़ना चाहिए।

सात दिन सात किताबों की इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपने मित्र आलोक तिवारी https://www.facebook.com/alok.tiwari.79656921 को नामित करता हूँ।

पांचवाँ दिन
पुस्तक का नाम- हिन्दी कहानी संग्रह
लेखक/सम्पादक- भीष्म साहनी

सात दिन सात किताबें शृंखला के पाँचवे दिन मैं एक सम्पादित किताब का जिक्र करना चाहता हूँ। यह किताब है प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी द्वारा सम्पादित "हिन्दी कहानी संग्रह" जिसे साहित्य अकादमी ने छापा है।
कहने को तो यह एक किताब है लेकिन कथाभूमि और संवेदना के स्तर पर यह विशाल फलक को स्पर्श करती है। साथ ही एके साथ आपको अनेक किताबों से मिलने वाला सुख देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लिखी गई हिंदी की तीस श्रेष्ठ कहानियों को आप यहाँ पर एक साथ पा सकते हैं। ये सभी कहानियां अपने में बेजोड़ हैं और अपने रचनाकारों की रचनात्मकता का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व करती हैं। रेणु जी की "लाल पान की बेगम", निर्मल वर्मा की "परिन्दे", मोहन राकेश की "मलबे का मालिक", अमरकांत की "दोपहर का भोजन ", शानी की "दोज़खी", शैलेश मटियानी की "प्रेत मुक्ति", भीष्म साहनी की "वाङ्गचू", राजेन्द्र यादव की "जहाँ लक्ष्मी कैद है", मन्नू भंडारी की "त्रिशंकु", कृष्णा सोबती की "बादलों के घेरे", उषा प्रियम्वदा की "वापसी", मार्कण्डेय की "हंसा जाई अकेला", गिरिराज किशोर की "पेपरवेट", शेखर जोशी की "कोसी का घटवार"...... एक से बढ़कर एक कहानियां हैं। इन कहानियों से गुजरते हुए आप भावनाओं के समंदर में गोते लगाने को मजबूर होंगे। इनमें से अधिकांश कहानियां आपको हिला देंगी और आपको मनुष्य बनने पर मजबूर करने का प्रयास करेंगी। अगर आप स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हिंदी कहानियों में कुछ को नहीं पढ़ पाए हैं या अधिकांश को पढ़ना चाहते हैं तो यह संग्रह आपके लिए है। इसी तरह का एक और कहानी संग्रह एक दुनिया समानांतर भी है जिसे राजेन्द्र यादव ने सम्पादित किया है। दोनों संग्रहों की लगभग आधी कहानियां समान हैं लेकिन यहां जिस संग्रह की बात की जा रही है उसमें "एक दुनिया समानांतर" से सात-आठ अधिक महत्वपूर्ण कहानियां हैं और इसका मूल्य भी उसके एक तिहाई है।

आज मैं इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पढ़ाकू मित्र और एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व Bano Sahiba को इस आशा से नामित करता हूँ कि उनके चयन हमें समृद्ध करेंगे।
छठा दिन
पुस्तक का नाम- मुर्दहिया
लेखक- तुलसीराम
सात दिन सात किताब शृंखला में आज छठें दिन मेरे द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली आज की किताब एक बहुत महत्वपूर्ण आत्मकथा है इसका नाम "मुर्दहिया" है। इसके लेखक प्रो तुलसीराम हैं जो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में आचार्य रहे हैं।
"मुर्दहिया" हमारे समाज की अत्यंत गरीब और  अस्पृश्य समझी जा रही जाति में जन्में एक ऐसे व्यक्ति के संघर्षों की दास्तान है जो हमारे समाज की गंदगी के कारण सामाजिक रूप से उपेक्षा और घृणा का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दलित समझी माने जाने वाली जाति में में जन्में डॉ तुलसीराम जो बचपन में ही चेचक की गिरफ्त में आकर काने और बदसूरत हो गए थे, ने कलेजा निकाल लेने वाली अपनी इस आत्मकथा में हमारे इस समाज की विद्रूपता और दोमुंहेपन को नंगा करते हुए प्रस्तुत किया है।
दलित कही जाने वाली जातियों के साथ सवर्ण और सामंती कहे जाने वाले लोगों का पाशविक आचरण और व्यवहार हमारे समाज की एक ऐसी सचाई रही है जिससे मुक्ति की कामना के साथ सिर्फ शर्मिंदा ही हुआ जा सकता है। समाज में शिक्षा और आर्थिक स्थिति में हुए परिवर्तनों ने यद्यपि कि इसकी अमानवीय प्रवृत्ति को बहुत कम किया है लेकिन अभी इस दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
डॉ तुलसीराम इस आत्मकथा में अपनी जन्मभूमि के इतिहास और भूगोल के साथ ही नहीं वहाँ के रीति-रिवाज, भाषा, रहन-सहन और समाज की कुरीतियों के साथ उपस्थित होते हैं। उन्होंने अपनी इस कृति में बड़े संयत भाव और ईमानदारी से अपने जीवन संघर्ष को प्रस्तुत किया है।
मुझे लगता है जातिगत भेदभाव से युक्त अपने समाज में प्रत्येक व्यक्ति को इस कृति को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह कृति हमें स्नेह पूर्वक शर्मिंदा करते हुए अपनी न्यूनताओं से मुक्त होने के लिए उत्प्रेरित करती है और समतामूलक समाज के स्थापना की प्रेरणा देती है।

इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए मैं अध्ययनशील और विवेकवान Pritosh Paritosh Mani सर को नामित करता हूँ।

सातवाँ दिन
पुस्तक का नाम- राग दरबारी
लेखक- श्रीलाल शुक्ल

सात दिन सात किताब शृंखला के सातवें दिन मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहता हूँ वह व्यंग्य विधा की शास्त्रीय कृति 'राग दरबारी'  है। 'राग दरबारी' हिंदी उपन्यास साहित्य का एक बहुमूल्य नगीना है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर चर्चा के दौरान व्यंग्य की परिभाषा देते हुए व्यंग्य उसे माना है जब व्यंग्यकार अधरोष्ठों से मुस्करा रहा हो सुनने वाला तिलमिला जाय लेकिन उसके पास जबाब न हो।
व्यंग्य चुटकुला नहीं है। चटकुला में केवल हास्य होता है। व्यंग्य में व्यवस्था के प्रति पीड़ा से युक्त आक्रोश होता है जो हास्य के भाव के साथ उपजता है। व्यंग्य वह सागर है जो ऊपर से खिलखिलाता तो है लेकिन हृदय में जो है उसे बदलने के लिए बेचैनी और रुदन के साथ। राग दरबारी भी ऐसा ही उपन्यास है।
अटल बिहारी बाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो रविवार को रेडियो पर उनके साक्षात्कार का प्रसारण हो रहा था। साक्षात्कार लेने वाले ने उनसे पूछा कि आप खाली समय में क्या करते हैं ? उन्होंने जबाब दिया कि रागदरबारी पढ़ता हूँ। उन्होंने यह टिप्पणी भी की कि रागदरबारी में जो व्यंग्य है वह अद्वितीय है। उसी साक्षात्कार से प्रभावित होकर मैंने रागदरबारी खरीदा।

रागदरबारी का सबसे प्रमुख पात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक कस्बा शिवपालगंज है। यह शिवपालगंज देश का कोई भी कस्बा हो सकता है। इस कस्बे की पूरी व्यवस्था जिसमें ग्राम प्रधानी भी है और विद्यालय भी, सहकारी बैंक भी है और कारोबार भी, सामंतवाद भी है और अनेक सरकारी अमले भी, पुलिस भी है और न्यायपालिका भी -को  उनके स्वभाविक पतित रूप में लेखक ने सिद्धहस्तता के साथ प्रस्तुत किया है। व्यवस्था में जड़ जमा चुकी अनैतिकता इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है। उपन्यास का प्रत्येक पात्र व्यवस्था को अपने अनुसार करने के लिए कृतसंकल्पित है। ऐसा वह इतनी स्वभाविक निर्लज्जता से करना चाहता है कि व्यंग्य का रूप धारण कर हमारे सामने उपस्थित होता है।
इस उपन्यास के पात्र इतने स्वभाविक हैं कि हम आज भी प्रत्येक दूसरे या तीसरे कस्बे में वैद्य जी, प्रधानाचार्य, रंगनाथ, रुप्पन बाबू, लंगड़, छोटा पहलवान और शनिचर आदि को देख लेते हैं। ये पात्र इतने जीवंत हैं कि उपन्यास पढ़ते हुए आप उन्हें जीने लगते हैं। यह उपन्यास एक ऐसी काल्पनिक कथा है जो किसी प्रमाणिक दस्तावेज से भी अधिक प्रमाणिक है। व्यवस्था के प्रति ऐसा मोहभंग, इतनी निर्ममता और उसे व्यक्त करने की इतनी प्रतिबद्धता मुझे और कहीं नहीं दिखती। रबरस्टम्प जैसे लोगों से व्यवस्था पर नियंत्रण, आर्थिक ताकत और बाहुबल से व्यवस्था को मुट्ठी में रखना, सबसे भ्रष्ट और अनैतिक व्यक्ति द्वारा मञ्च पर सबसे आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत होना आदि अनेक ऐसी बातें हैं जो आज भी वैसी की वैसी बनी हुई हैं। पचास वर्ष पूर्व लिखे गए इस उपन्यास के ढेर सारे रूप पूरे देश में आज भी वैसे ही मौजूद हैं।
यह उपन्यास हम जैसे कइयों का प्यार है। इसलिए कि यह उसी तरह नंगा है जैसे हम अपनी नजरों में होते हैं। इलाहाबाद में मित्रों के साथ पढ़ाई के दौरान देर रात को जब हम थक जाते थे तो हमारा मनोरंजन यह उपन्यास होता था। हम मित्रों में कोई एक, कोई भी चार-छः पृष्ठ वाचन करता था और इन पृष्ठों के व्यंग्य से जो ठहाके निकले थे वे पेट के दर्द और आंखों से निकले आंसुओं के बाद भी देर तक शांत नहीं होते थे। यह उपन्यास कई मामलों में अद्वितीय है। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा तो यह आपका दुर्भाग्य है।

सात दिन सात किताबों में यह मेरी सातवीं किताब थी। आज मैं इस शृंखला को बढ़ाने के लिए खूब पढ़ने लिखने वाले https://www.facebook.com/vivekanand.upadhyay.73 सर को नामित करता हूँ।
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मैंने जिन सात पुस्तकों की चर्चा सात दिनों में की है  वह उन सातों की अलग अलग विशिष्टता के कारण की है। मैं इन सातों से खुद बहुत प्रभावित हूँ। इनमें गांधी जी की आत्मकथा को छोड़कर शेष सभी स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हैं।
इस चर्चा में रामचरित मानस, राग-विराग, गोदान, शेखर : एक जीवनी, मेरा देश : मेरा जीवन, महाभोज, नाच्यौ बहुत गोपाल, स्त्री उपेक्षिता आदि का जिक्र भी मैं करना चाहता था लेकिन जिनकी चर्चा मैंने की वह फिलहाल मुझे ज्यादा जरूरी लगी।
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सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

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आपने जब देखा, तब की संख्या.