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बुधवार, 16 सितंबर 2020

जिउतिया : जीवित्पुत्रिका व्रत

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“ए अरियार, का बरियार, सीता से कहिह भेंट अकवार, हमार पूत मारि आवें, मरा न आवें, ओरहन लेके कब्बो न आवें”।

सतपुतिया/सरपुतिया

माताएं बरियार वृक्ष (यद्यपि यह एक तरह की झाड़ीनुमा पौधा होता था, लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं. इसे उखाड़ने में दम साधना पड़ता था.) से बतियाती हुई अपने बेटे के लिए पराक्रमी होने का आशीष मांगती थीं. उनका आशीष भी ख़ासा दिलचस्प होता था. बेटे को पराक्रमी देखने के लिए वे मनौती करती थीं कि वे रणक्षेत्र में जीत कर आयें, मार कर आयें. पिटकर, हारकर न लौटें, वे शहीद होकर न लौटें. और तो और वे उलाहना लेकर भी न लौटें. उलाहना क्यों? लड़ाई-भिड़ाई में/ धर्मक्षेत्र में वह धर्मयुद्ध करे, छल-कपट से नहीं जीतें. अब यह खासा रोचक और अप्रासंगिक लग सकता है लेकिन कुछ साल पहले तक जब सामंती समाज अपने पूरे रोब-दाब पर था, यह और इसकी प्रासंगिकता समझी जा सकती थी.

कल जिउतिया है. आज सतपुतिया की सब्जी और टिकरा खाकर माँ कल निर्जला व्रत रहेंगी. हमारे लिए. हम भाइयों के लिए. मेरे यहाँ बहन के लिए भी. 

लिखे जा रहे एक निबंध का अंश..

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