सोमवार, 19 अगस्त 2013

अर्थव्यवस्था पर विचार करते हुए.

देश में बन रहे १९९१ जैसे हालात के लिए यूपीए सरकार किसी को जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकती. आखिरकार वह पिछले नौ सालों से भारतीय जनता के सीने पर मूँग दलती आई है. अभी भी जोर-शोर से यही कर रही है. ये जो रुपये में डालर के मुकाबले गिरावट है और शेयर बाजार में तरलता की कमी आई है, वह उस दौर के आर्थिक मंदी की सुगबुगाहट है. अभी कुछ ही दिन हुए, जब वैश्विक आर्थिक मंदी की लहर में तमाम सेवा क्षेत्रों में अभूतपूर्व कटौतियां हुई थीं. क्या हम यह कह सकते हैं कि उस मंदी के दौर से बहार निकलने के बाद पुनः सेवा क्षेत्र में रोजगार पुनःसृजित हुए? क्या उन कंपनियों ने वापस अपने कर्मचारियों को बुलाने का कोई उपक्रम किया? क्या हम वापस अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सके?
मुझे लगता है कि नहीं. हमने फौरी उपाय किये. तुरंता के इन उपायों ने हमें बस उस जगह से गिरने नहीं दिया. हम थिर रहे. सरकार ने हमें दूसरे मुद्दों में उलझा कर यह समझाया कि हम आर्थिक विकास की अपेक्षित गति हासिल कर ले रहे हैं. जबकि वास्तविकता यह है बीते कई सालों से हमने तय किये हुए लक्ष्य को हासिल ही नहीं किया. आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ जानते हैं, कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार जो उपाय कर रही है वह फ़ूड सप्लीमेंट की तरह है. हम किसी कुपोषित बच्चे को पौष्टिक आहार देने की जगह रिवाइटल खिलाते रहें तो जो परिणाम मिलेंगे, हमारी अर्थव्यवस्था कमोबेश उसी तरह के परिणाम दे रही है.
इसलिए जब मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के इतिहास की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए यह बता रहे हों कि देश में १९९१ जैसे हालात नहीं हैं और देश का विदेशी मुद्रा भण्डार छः-सात महीने के लिए है, और चिंता करने की बात नहीं है तो हमें चिंता करना शुरू कर देना चाहिए.आपको याद होगा कि चिदंबरम जी ने कुछ दिन पहले देशवासियों से सोना खरीदने से परहेज करने की सलाह दी थी. उन्हें लगता था कि यह डालर का अन्प्रोडक्टिव इन्वेस्टमेंट है. आखिर सोना आयात करने में विदेशी मुद्रा ही काम आती है. बहरहाल.
देश एक गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के होने के बावजूद इस गह्वर से निकलने की कोई राह नहीं दिख रही है. दिक्कत यह है कि १९९१ के जो हालात थे, उसमें हम निकलने में सफल हो गए क्योंकि आर्थिक सुधारों ने बहुत सारे सरकारी क्षेत्रों को बाजार में खुली प्रतिस्पर्धा के लिए छोड़ दिया था.
असली चुनौती आगामी सरकार के लिए है. यह लगभग पक्का है कि यूपीए सरकार पुनः नहीं आने वाली. हालाँकि यह कोई असंभव भी नहीं है. लेकिन अगर कोई दूसरी सरकार चुन कर आएगी तो उसके लिए शुरूआती दो साल भारी चुनौती के साल रहेंगे. उस पर तमाम उपाय करने का दबाव रहेगा और संभव है कि अर्थव्यवस्था चरमरा भी जाए. आप देखिएगा, तब हमें लगेगा कि यूपीए सरकार ही बेहतर थी. ऐसा इसलिए लगेगा कि हमने दूर तक देखने-समझने का हुनर खो दिया है. और अगर यही सरकार दुबारा बनी तो फिर क्या कहियेगा और किस मुंह से कहियेगा. जार-जार रोइए, कि कहिये क्या??

रविवार, 20 जनवरी 2013

किसकी है जनवरी किसका अगस्त है.

अभी कुछ देर पहले सीमावर्ती राज्य झारखण्ड के गढ़वा जिले से लौटा हूँ. बीहड़ और निखालिस गाँव दिखे. जीवन कितना दुरूह है फिर भी है. मूलभूत समस्याएँ बरकरार हैं. पानी नहीं है, बिजली नहीं है.जंगलों में महुआ के पेड़ हैं जिसके चूए हुए फूल से जहाँ तहां रस निकाले जा रहे हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा वहां लुटाकर हमारे नागरिक समस्याओं को ठेंगा दिखा रहे हैं, टुन्न पड़े हैं.(ये मत कहियेगा कि आजकल तो सीजन नहीं है. धंधा है यह) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और मनरेगा की टूटी-फूटी सड़कें हैं और और सड़कों पर जान जोखिम में डाल कर सवारियां ढोती जीप और बसें हैं. दरिद्रता का साम्राज्य एकछत्र बना हुआ है. लोग हताश और निराश हैं. बाबा नागार्जुन की कविता याद आ रही है.
"किसकी है जनवरी और किसका अगस्त है."

''किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है

चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है

कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है

जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है

उसी की जनवरी छब्बीस

उसी का पंद्रह अगस्त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है

कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है

खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा

मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है

सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है

उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!

देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है

गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है

धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है

कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है

मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है

उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है..''


हम गणतंत्र के ६४वें वर्ष की दहलीज पर हैं.

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

दशहरे का एक दिन बनारस में.



इस दशहरे में एक दिन बनारस में लहुराबीर पर रहा कुछ समय. हमारे सर और प्रिय मित्र आनंद तिवारी ने कहा कि वहां की दुर्गा पूजा और पंडाल की बहुत धूम है. हम अगले कुछ मिनटों में लहुराबीर थे. वहां की दुर्गा प्रतिमा और पंडाल ने मुझे बहुत निराश किया और सच बात यह है कि मैं कभी भी इस कदर निराश नहीं हुआ था. अपनी समग्र भव्यता में वहां खटक रहा था बुद्ध का होना.
जी हाँ! पंडाल के बाहर बुद्ध की बड़ी सी मूर्ति थी और पंडाल में/पर सैकड़ों की संख्या में बुद्ध विराजमान थे. जातक कथाओं के कई चित्र भीतर उकेरे गए थे और दुर्गा प्रतिमा भी महिषासुर का वध न करने की मुद्रा में बोधियुक्त शांति से लीन लगीं. बज रहे संगीत में बुद्धं शरणं गच्छामि , संघं शरणं गच्छामि, धम्मम शरणं गच्छामि...का उद्घोष था..
बुद्ध के धर्म को यूँ घालमेल करके परोसना अच्छा नहीं लगा..
हाँ, कल्पना करने वाले के मानस पर आश्चर्य भी हुआ और रीझा भी गया...

रसूल हमजातोव की एक खूबसूरत पंक्ति.

बड़ा साहित्य तरकारी खरीदने की भाषा में लिखा जाता है -- यानी निपट सरल, सहज भाषा में!
 

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

शोध की नयी पत्रिका

इस १४ दिसम्बर, २०१० को हम लोगों ने तय किया की शोध को समर्पित एक पत्रिका निकालेंगे।
वास्तव में,
इसके लिए दो प्रेरणा काम कर रही थी,
१- हमारे इलाहबाद शहर से एक भी कायदे की शोध पत्रिका नहीं है और
२- I S S N नंबर की पत्रिका निकालने वाले लोग इसे व्यवसाय की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। 
यह बात देखने में आ रही है कि वे लोग शोध पत्र के नाम पर कूड़ा छाप रहे हैं और बदले में एक अच्छी रकम चाह रहे हैं। यू जी सी का नया नियम, कि शोध पत्र के प्रकाशन में इस नंबर का होना जरुरी है, इस प्रवृति को बढ़ावा दे रहा है। इसे ध्यान में रख कर हम लोगों ने सोचा कि क्यों न कुछ सार्थक प्रयास किया जाय।

आप अपने उत्कृष्ट शोध पत्र हमें इस ईमेल पर भेजे या संपर्क करें-
०९८३८९५२४२६
हमारे इस काम में सहयोग कर रहे हैं डा रूपेश सिंह , कुलभूषण मौर्या और शत्रुघ्न सिंह।
क्या आप हमारे साथ नहीं आयेंगे?


एक शेर के साथ बात ख़त्म करूँगा-
मुझे मालूम है तेरी  दुआएं साथ       चलती हैं
सफ़र में मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

हमारा शहर इलाहाबाद

हमारा शहर इलाहाबाद अजीब सा चरित्र वाला है।
इस शहर में रहने वाले दावा तो करते हैं कि वो बुद्धिजीवी हैं लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि ये शहर अभी संक्रमण से गुजर रहा है।
यहाँ स्त्री विमर्श पर बात करने वाले लोग स्त्री अधिकारों का मखौल उड़ाते नज़र आयेंगे।
आधुनिकता पर चर्चा करने वाले लोग दूसरों कि जिंदगी में ताक झांक करते नज़र आयेंगे।
और सबसे खास बात ये कि चटखारे लेकर वैयक्तिक मामलों में उलझते नज़र आयेंगे।
मुझे बहुत तरस आता है, जब मैं ये देखता हूँ कि अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी इस रस चर्चा में भागीदार होते हैं और कहने को मासूम और सयाने एक साथ नज़र आयेंगे।
खैर,
जैसा भी है, अपना शहर है और हम इसे बहुत चाहते हैं।
आमीन!
एक शेर कहूँगा -
सलवटें उभरती हैं दोस्तों के माथे पर
बैठकर के महफिल में मेरे मुस्कराने से.

शनिवार, 1 मई 2010

Kathavarta : नीलम शंकर की कहानी का नया संग्रह 'सरकती रेत'.....

युवा कहानीकार नीलम शंकर की कहानियों का नया संग्रह सरकती रेतवाणी प्रकाशन, दिल्ली से छपकर आया है।

          नीलम शंकर की अधिकांश कहानियों का तानाबाना हमारे आसपास के परिवेश से लेकर बुना गया है। इन कहानियों में समाज का निम्न और मध्यम तबका प्रमुख रूप से उभरकर सामने आता है। मशहूर स्त्रीवादी लेखिका वर्जिनिया वूल्फ का मानना है कि स्त्री का लेखन स्त्रीवादी ही होगा। अपने सर्वोत्तम रूप में वह स्त्री का लेखन होने से बच नहीं सकता। नीलम जी कि अधिकांश कहानियों में स्त्रीवादी स्वर मिलेगा। हालांकि यह स्वर हमारे दौर की प्रचलित तथाकथित बोल्ड और देहवादी विमर्श से इतर है, उनमें पितृसत्ता से मुक्ति की बेचैनी, आत्मनिर्भर होने की जद्दोजहद, स्वनिर्णय करने की बेकरारी साफ़ झलकती है। उनकी कहानियो में लगभग हर महिला पात्र अपनी अलग पहचान के लिए बेक़रार नज़र आती है। अपना रास्ता लो बाबा!, विडम्बना, ठूंठ, अंततोगत्वा, मरदमारन जैसी कहानियों में इसे सहज ही देखा जा सकता है।

          उनकी कहानी रामबाई इस दृष्टिकोण से भी उल्लेखनीय है कि नायिका रामबाई न सिर्फ अपने सौन्दर्य बोध से परिचित है बल्कि उसे इसकी शक्ति का अहसास भी है। खास बात यह है कि वह अपने सौन्दर्य का बेजा फायदा नहीं उठाती। उनकी यह कहानी नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व को बखूबी आंकती है। उनकी कहानी में खास बात भी यही है कि उनको मानव मन के द्वंद्व के अंकन की महारत हासिल है।

          मुझे उनकी कहानी विडम्बना सबसे अच्छी लगी।

सरकती रेत

          कुछ बाते खटकने वाली भी हैं लेकिन अब मैं उनको न कहूँगा, ऐसा भी तो किया जा सकता है कि उनकी ओर संकेत किये बिना भी टिप्पणी की जा सकती है....

          कल यानि ३० अप्रैल को महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से पुस्तक चर्चा हुई। इस परिचर्चा में मैंने उपरोक्त बात रखी और मेरे बाद प्रो अनीता गोपेश, कवि बद्रीनारायण, प्रो अली अहमद फातमी तथा श्री दूधनाथ सिंह ने अपना वक्तव्य रखा। मैंने अपनी और भी बातें कीं, जिसे खासा सराहा गया।

          विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय भी इस अवसर पर बतौर अध्यक्ष विराजमान रहे....

सद्य: आलोकित!

हनुमान चालीसा: चौथी चौपाई

 कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा।। चौथी चौपाई श्री हनुमान चालीसा की चौथी चौपाई में हनुमान जी के रूप का वर्णन है। उन्हें कंचन अ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.