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शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : टेसू और झेंझी : लोक के उत्सव

  शरद पूर्णिमा पर बाहर निकला तो बच्चों ने घेर लिया। सहयोग कीजिये। उनके हाथ में मूर्तियां थीं। मैं इन्हें नहीं जानता था। दरयाफ्त की तो ज्ञात हुआ, यह टेसू और झेंझी थे। यह भी पता चला कि टेसू-झेंझी का विवाह होना है। कौन थे टेसू और झेंझी? इटावा और आसपास के लोक में इनकी कहानियाँ कई कई संस्करणों में हैं।  

टेसू और झेंझी के विवाह का चंदा एकत्र करना एक मजेदार काम है।

टेसू और झेंझी का विवाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज में सहालग के आरम्भ का सूचक है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह देवोत्थान एकादशी से शुरू होता है। गाँव-गाँव में यह विवाह रचाया जाता है। उसके लिए चंदा जुटाते हैं। शाम ढले विवाह का उतसाव आरंभ हो जाता है। विधिवत बारात आती है। स्वागत होता हैलोकाचार के सभी कर्मकाण्ड किए जाते हैंलौंडा नाच होता है। यथासामर्थ्य भोज-भात या प्रसाद वितरण होता है। लोग जुटते हैं और यह विवाह सम्पन्न कराया जाता है। 

टेसू (Tesu)

टेसू-झेंझी के विवाह में मुझे यह गीत सुनने को मिला-

          मेरा टेसू झंई अड़ा,

          खाने को मांगे दही बड़ा।

          दही बड़े में पन्नी,

          धर दो बेटा अठन्नी।

         अठन्नी अच्छी होती तो ढोलकी बनवाते,

         ढोलकी की तान अपने यार को सुनाते।

टेसू की टेक

          टेसू और झेंझी का विवाह संपन्न हो जाने पर मिठाई बंटती है। नाच-गाना चलता रहता है।

         दूल्हा राजा बने हैं टेसू

शरद पूर्णिमा पर खीर भी बनती है। कहते हैंआज चन्द्रमा से अमृत बरसता है। सबसे अधिक धवल और उज्ज्वल चन्द्रमा शरद पूर्णिमा का ही रहता है। अपनी प्रकृति से हमारा कैसा घनिष्ठ रिश्ता है। सभ्यता के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की जयन्ती भी शरद पूर्णिमा पर ही पड़ती है। वह रामकथा के सबसे पहले उद्गाता हैं।


          भारत में लोक के पास हजारो मौके हैं- उत्सव के। हमने इन्हें 'लोकलही रहने दिया है। 'ग्लोबलकरते तो 'भेलेन्टाइनसे अधिक अपीलिंग आख्यान गली-गली  मिल जाते। हमने इसे जिया है- दूसरों के लिए जाल नहीं बनाया है। यही बात हमारी सनातनता को अधिक समृद्ध और श्रेष्ठ बनाती है। हम विश्व-बन्धुत्व और सर्वे भवन्तु सुखिन: के ध्वजवाहक बनते हैं।

 

-डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

9838952426royramakantrk@gmail.com

 

 

रविवार, 21 जून 2020

कथावार्ता : ललित निबन्ध : सूर्यग्रहण और हमारे मिथक

-डॉ रमाकान्त राय 

          आज सूर्यग्रहण निश्चित है।

          वैसे तो यह एक खगोलीय घटना है लेकिन इसका मिथकीय स्वरूप बहुत दिलचस्प है। वह समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम से सम्बद्ध है। राहु-केतु से जुड़ा हुआ। राहु सूर्य को और केतु चंद्रमा को जब तब ग्रसने के लिए उद्धत होते हैं। गाँव में तो ग्रहण को सूर्य भगवान और चन्द्र देव पर संकट की तरह माना जाता है और मैंने देखा है कि कई धर्मपरायण लोग ऐसी अवधि में एक पैर पर खड़ा होकर उग्रह होने के लिए तपस्या करते हैं, पानी के परात में उनपर आए संकट को देखा जाता है और उसके कटने तक धार्मिक कथाओं का श्रवण किया जाता है। इस अवधि में भोजन आदि ग्रहण नहीं किया जाता और कोई ऐसा खाद्य पदार्थ है तो उसमें तुलसीदल डालकर शुद्ध रखने का प्रयास किया जाता है।

          महाभारत युद्ध की एक घटना को मैं इसी सूर्यग्रहण से जोड़कर देखता हूँ। अभिमन्यु के वीरगति के बाद अर्जुन शपथ लेते हैं कि अगले दिन के सूर्यास्त से पहले वह इस हत्या के जिम्मेदार जयद्रथ को यमपुरी पहुँचा देंगे। ऐसा न कर सके तो अग्नि समाधि ले लेंगे।

          यह एक कठिन शपथ है। अत्यन्त आवेश में लिया गया। पुत्रशोक में अर्जुन ने सबके समक्ष इसे दुहराया। कौरव पक्ष के लिए यह अवसर है। आपदा में अवसर। कुटिल लोगों के लिए आपदा में अवसर इसी तरह का होता है। सहज सामान्य लोगों के लिए ऐसे में जीवन को मजबूत करने का उपाय खोजना/नये अनुसंधान करना, समय का सदुपयोग करना अवसर है तो कुटिल, खल और कामी जन के लिए इसमें अपने लिए "अवसर" है। अवसर एक लचीला शब्द है। इसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है। स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूँद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर बनती है, सीप के मुख में पड़कर मोती और साँप के पास जाकर विष! यह पात्र पर निरभर करता है कि वह अवसर को कैसे लेता है। खैर,

          कौरव पक्ष के पास यह अवसर है कि अगर जयद्रथ को बचा लिया गया तो अर्जुन स्वतः जल मरेगा। जिस काम को बड़े बड़े योद्धा बड़ी कोशिश के बाद भी नहीं कर पा रहे हैं, वह निमिष मात्र में हो जायेगा। बस रणनीति बनानी है। आपदा में अपने लिए जगह बनाना है। कौरव पक्ष ने पिछले दिन सुशर्मा को इसके लिए राजी किया था कि वह अर्जुन को प्रातः काल ही युद्ध के लिए ललकारेगा और युद्ध भूमि से इतनी दूर ले जायेगा कि सूर्यास्त तक अर्जुन कुरुक्षेत्र में चक्रव्यूह तक ही न पहुँच सके। चक्रव्यूह में ही अभिमन्यु को मारा गया है।

          फिर जयद्रथ विशेष गुण सम्पन्न योद्धा है। उसे मारना एक अलग ही कौशल की अपेक्षा रखता है। उसके पिता ने अपने बेटे के लिए विशेष आयुष कवच बनाया है। जो मारेगा, जिसके हाथ से उसका सिर धराशायी होगा, वह तत्क्षण भस्म हो जायेगा। अर्जुन की चुनौती बड़ी है। उसे इसका ध्यान भी रखना है कि विषाणु का उन्मूलन करते हुए स्वयं संक्रमित न हो जाए।

          उस दिन सभी कुरुवीर जयद्रथ की रक्षा में सन्नद्ध हो गए थे। जयद्रथ के आगे कई छोटी छोटी चुनौतियाँ भी थीं। आप एक बड़ा काम करने चलते हैं तो राह में छोटी-छोटी बाधाएँ उपस्थित हो ही जाती हैं। विद्वान कहते हैं कि उससे किनारा कर लेना ही उचित है लेकिन कूटनीति और राजनीति के विद्वान कौटिल्य/चाणक्य कुछ दूसरा ही सोचते थे। कहते हैं कि चाणक्य विवाह करने जा रहे थे। दूल्हा बने थे। जामा जोड़ा पहनकर सज धज कर जा रहे थे। राह में एक कुश की नोक उनके पैर में चुभ गयी। यह उनके लिए पीड़ादायी था। कहाँ सुख के लिए दल बल चला है, बारात सजी है और कहाँ पैरों में कांटा चुभ रहा है! चाणक्य ने माथे पर सजा मौर उतारा और कुश उन्मूलन में लग गया। कुश की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। उसकी नोक भी बहुत तीक्ष्ण होती है। एक जमाने में कुश लाने वाले लोग प्रशिक्षित होते थे। उन्हें 'कुशल' कहा जाता था। अब तो कोई भी व्यक्ति जो अपने काम में निष्णात है, कुशल कहा जाता है और उसके 'कौशल' की चर्चा की जाती है। कुशल शब्द का खूब अर्थ विस्तार हुआ है।

          तो चाणक्य ने कुश उन्मूलन शुरू किया। जब हाथ से, उपकरणों से वह सफल न हुआ तो उसकी जड़ों में मट्ठा डालने लगा। उसने बारात स्थगित कर दी। पहले यह कर लेगा तभी बियाह करेगा। वह दूसरे ही तरीके का ब्राह्मण था। उसकी प्राथमिकतायें सुस्पष्ट थीं। तभी वह मगध के महाप्रतापी राजा महापद्मनंद का राज एक सामान्य लड़के चंद्रगुप्त की मदद से मिटा सका।

          आज के युद्ध के प्रारम्भ में ही कृष्ण ने बताया था कि आपका लक्ष्य क्या है? कृष्ण ने शुरू में सलाह दी कि आज तुमने कुछ शपथ ली है लेकिन बाद में वह अपने रथी की आज्ञा का अनुपालन करने लगे। एक सारथि का यही कर्तव्य है। उसे शल्य बनने से बचना चाहिए। शल्य कर्ण का सारथी बने तो हर बात पर उसे कहते रहते कि तुम्हें ऐसा नहीं, बल्कि वैसा करना चाहिए। कर्ण शल्य को रथ पूर्व दिशा में ले चलने को कहता तो वह बताने लगते कि उधर जाने में क्या हानि होगी। कहते हैं कि अंग्रेज राजा अपने मंत्रियों से कहते थे कि वह गलत नहीं हो सकता। अब राजा के विश्वस्त लोगों का काम है कि वह राजा के काम के औचित्य को सिद्ध करें और उसे ही न्यायसंगत बतायें। ताकत यही करती है। वह अपना इतिहास इसी तरह बनवाती है। कृष्ण ने एक बार बलराम से कहा था कि अगर कौरव युद्ध जीत जाते तो वह द्यूत क्रीड़ा और द्रोपदी के चीर हरण को भी तार्किक और विधि सम्मत सिद्ध कर देते।

          कृष्ण रथ बढ़ाते गये और अर्जुन कौरवों से युद्ध में उलझ गया। आज तो सभी योद्धा जयद्रथ की रक्षा में लग गए थे। इतने योद्धाओं के रहने पर कृष्ण जानते हैं कि जयद्रथ को मारना सम्भव नहीं! तब वह विधि को अनुकूल कर लेते हैं। अचानक सूर्यास्त हो जाता है। सब भौंचक हैं। अभी तो दिन ढलने में समय है। ऐसे कैसे सूर्यास्त हो सकता है? सभी पाण्डव आश्चर्यचकित हैं। शोकाकुल हो रहे हैं। अर्जुन को अग्निसमाधि लेनी पड़ेगी। राम अपने भाई के शक्ति बाण लगने पर फूट फूट कर रोते हैं- मेरो सब पुरुषारथ थाको! उनकी चिंता में भ्राता से विछोह के दुख के साथ-साथ अपना वचन न पूरा कर पाने का कष्ट भी है। लेकिन राम और उनकी कहानी शुद्ध लौकिक है। रामायण में चमत्कार कम हैं, न के बराबर। वह पुरुषार्थ से सम्पन्न होता है। महाभारत में पारलौकिक सत्ता का हस्तक्षेप बहुत अधिक है। चमत्कारिक ताकतें बहुत हैं।



          अर्जुन के इस गति से कौरव अत्यन्त प्रसन्न हैं। जश्न मनने लगता है। सभी वीर अर्जुन के पास आ जाते हैं। उसे याद दिलाने लगते हैं कि उसने कल प्रतिज्ञा की थी। अर्जुन भी गान्डीव रख चुका है। थक कर बैठ गया है। एक तरफ कौरव दल ने चिता सजा दी है। सब तमाशा देखने एकत्र हैं। जयद्रथ सबसे आगे खड़ा है। उसकी वजह से कौरव लगातार दूसरे दिन युद्ध में आगे हैं। आज तो एक शानदार 'अवसर' है। तभी सूर्य उदित हो जाते हैं। दिन निकल आता है। सब स्पष्ट हो जाता है। कृष्ण कहते हैं- 'अर्जुन! उठो। देखो, सूर्य आसमान में चमक रहे हैं, अभी दिन नहीं ढला है। जयद्रथ ठीक तुम्हारे सामने ही है। तुम्हारे पास प्रतिज्ञा पूरी करने का यह "अवसर" है। ध्यान रखना- शत्रु विशेष प्रकृति वाला है। इसका नाश करने के लिए विशेष पीपीई किट चाहिए।'

          क्या हुआ होगा उस समय? मैं जब इस प्रसंग के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सूर्यग्रहण की याद आती है। उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण रहा होगा। कुछ घड़ी के लिए ऐसी ही खगोलीय घटना हुई होगी। पिछला सूर्यग्रहण इतना जबरदस्त था कि पक्षी अपने नीड़ की ओर चल पड़े थे। सूरजमुखी के फूलों ने अपना पट बन्द कर लिया था। एक विशेष अन्धकार हर तरफ व्याप्त हो गया था। उस काल में यह ग्रहण बहुत विकट रहा होगा। सभी योद्धा इस खगोलीय घटना के प्रति उदासीन रहे होंगे। लेकिन फिर सोचता हूँ कि क्या वाकई? उन उद्भट विद्वानों को यह पता नहीं रहा होगा? जरुर रहा होगा! तो क्या वाकई श्री कृष्ण ने अपना चक्र चलाया था? वह सूर्य के प्रकाश को आच्छादित कर सकता था?

          एकादश रुद्रावतार हनुमान के बारे में भी यह कथा है कि उन्होंने सूर्य को निगल लिया था। मुझे लगता है कि यह भी सूर्यग्रहण का ही समय रहा होगा जिसकी कल्पना कवि ने उनके पराक्रम का वर्णन करने के लिए किया है। कवि की कल्पना मानस का निर्माण करने में सक्षम है। इसीलिए कवि की भूमिका बहुत मायने रखती है। लेकिन यूनानी विचारक प्लेटो तो कवियों से बहुत चिढ़ता है। उन्हें राज्य से बाहर फेंक देने के लिए राजा को उकसाता है लेकिन भारतीय परम्परा में वह परिभू: स्वयंभू कहे गये हैं! नयी सृष्टि के रचनाकार।

          लेकिन मेरा उद्देश्य यह सब विवेचन करना नहीं। मैं तो आज के सूर्यग्रहण के मिथकीय काव्य प्रयोग पर अपनी उधेड़बुन आपके समक्ष रख रहा था। आप बताइये तो!


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com



बुधवार, 18 मार्च 2020

कथावार्ता : साफ–सफाई, गोबर, गौमूत्र और हम


देश - दुनिया की बड़ी जनसंख्या एक समयांतराल के बाद यह कतई नहीं मानेगी कि हम अपने घरों को साफ और पवित्र करने के लिए गाय के गोबर से लीपते थे। चौका पूरने के लिए गोबर से लीपना अपरिहार्य था। पंचगव्य एक आवश्यक औषधि थी। इसमें दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र का प्रयोग होता था। मेरे एक मित्र को बवासीर हो गया था तो वह स्वमूत्र चिकित्सा करते थे और अपने पेशाब से शौच करते थे। जब हम छोटे थे तो खेलने कूदने में कहीं चोटिल हुए तो चोट ग्रस्त स्थान पर सूसू कर लेते थे कि यह बहुत अच्छा एंटीसेप्टिक है। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई तो स्वमूत्र को औषधि की तरह लेते थे।
हम यह भी नहीं मानेंगे कि अपने घरों की दीवार गड़ही की मिट्टी से पोता करते थे और वह चमकदार लगती थी। कि सबसे अच्छी खाद मल से बनती थी। हमने वह जगह खूब अच्छे से देखी है जहां निरन्तर मूत्र विसर्जन करने से खेत का एक हिस्सा पीला पड़ जाता था और हम विज्ञान की भाषा सीखते हुए कहा करते थे कि यूरिया के प्रभाव से यह होता है और यह अच्छा उर्वरक है। गोइंठा, उपला, चिपरी, गोहरौर यह सब हमारी रसोई का अनिवार्य ईंधन था और सब गाय/भैंस के गोबर से बनता था। एलपीजी ने इसे भी हतोत्साहित किया है।
स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत बनाए जाने वाले शौचालयों ने ऊपरी तौर पर भले हमें एक साफ-सुथरी दुनिया उपलब्ध कराई है लेकिन उसने एक स्वाभाविक चेन को तोड़ दिया है। यह अच्छा है कि इन शौचालयों में एकत्रित मल वहीं बनाए एक टंकी में एकत्रित होता रहता है और भविष्य में उसका उपयोग कर लिया जाएगा लेकिन तब भी वह जो एक इकोसिस्टम बना था, वह इस क्रम में टूट जाएगा। हम जानते हैं कि माला का एक भी मोती अगर अपनी जगह से हटता है तो वह समूची संरचना को प्रभावित कर तहस नहस कर देता है। शौचालय, तो एकबारगी हमें ठीक भी लगेगा लेकिन जिस तरह हम गोबर और पशुओं के उत्सर्जित अपशिष्टों से घृणास्पद व्यवहार कर रहे हैं, वह हमें एक दूसरी ही दुनिया में धकेल रहा है।
हमारा इकोसिस्टम : एक समावेशी चेन

दरअसल
, हमने अपनी जीवनशैली ऐसी बदल ली है, हम ऐसे उपभोक्ता में परिणत हो गए हैं कि हम परम्परागत समावेशी प्रणाली से दूर हो गए हैं। हम भारी मात्रा में कूड़ा उत्पादक जीव बने हैं। ऐसे में हमने "घृणा" की एक सर्वथा नवीन चीज डेवलप की है। इससे हमने एक नए तरीके का स्वच्छता वाला माहौल भी बनाया है। इसमें उपयोगिता वाला तत्त्व विलुप्त हो गया है। हमने कूड़ा का एक अद्भुत संसार बनाया है। महज तीस साल पहले यह कूड़ा उपयोगी था। आवश्यक हिस्सा था। अब वह घृणा की वस्तु में परिवर्तित हो चुकी है।
          हमारी उपभोक्ता वाली जीवन प्रणाली सबसे घातक प्रणाली है। हम चीजों का उपभोग कर रहे हैं। यही मानसिकता हमें समावेशी विकास पद्धति से दूर करती है। याद कीजिये, बीस पच्चीस साल पहले कितना कम कचरा हमारे आसपास होता था और हम घूरा को एक संपत्ति की तरह देखते थे। दीपावली पर तो हम एक दिन पहले यम का दिया निकालते थे और घूरा को प्रकाशित करते थे। वह खेत की मिट्टी की संरचना ही बदलने में सक्षम था।  आज हमारा घूरा एक घृणास्पद स्थल है। यह सब हमने नयी शिक्षा पद्धति में सीखा और आत्मसात किया है। इनसे घृणा सीखाने वाले उस शिक्षा पद्धति के सबसे उज्ज्वल मोती हैं।
         

बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : बासन कब धोया जाए?

      बासन कब धोया जाए?

     दुनिया के कई कठिन सवालों में से एक बड़ा सवाल है। क्या भोजनोपरांत बर्तन धो दिया जाए अथवा अगला आहार पकाने से पहले? आप क्या सोचते हैं?

 
  हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय को बासन धोने का अनुभव था। एक कविता में लिखते हैं- "कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।" लेकिन वह यह नहीं बताते कि इसे कब धोना चाहिए। अज्ञेय की एक कहानी है- रोज। पहले यह कहानी 'गैंग्रीन' के नाम से छपी थी। बहुत चर्चित हुई थी। उसमें जो लड़की है, मालती; वह प्रमुख चरित्र है कहानी में- उसने बासन माँज दिए हैं लेकिन नल का पानी चला गया है। वह अपने सहपाठी के साथ बैठी है। सहपाठी लंबे समय के बाद मिलने ही आया है। एक जमाने में घनिष्ठ रहे मित्र की उपस्थिति में भी वह बरतन धोने के विषय में सोचती रहती है। जब बूंद बूंद पानी आने लगता है, वह धोने जाती है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में किसी अन्य कथाकार ने इस बुनियादी पहलू पर इतने व्यवस्थित और तफसील से कलम चलाई है।
         मेरे बचपन के दिनों में एक सीनियर मिले। वह कुछ रहस्यमयी तरीके से कहानी के अंत में स्थापना रखते थे कि खाने के बाद बर्तन धोने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने बताया था कि 'मैं तो ठोकर मार देता हूँ।' मेरे बालपन की वह बात मुझे अक्षरशः याद है। लेकिन मैं यह कभी नहीं कर पाया। मुझे यह कभी खयाल भी नहीं आया। मैं शायद उनकी रहस्यमयी वाणी का मर्म न जान सका। उनकी बात वैसी ही थी जैसी धर्मवीर भारती के उपन्यास 'सूरज का सातवां घोड़ा' उपन्यास में माणिक मुल्ला स्थापनाएं करता है। जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा था तो मुझे उन सीनियर की बहुत याद आयी थी। खैर, तो बासन कब धोया जाए? मेरे घर में भी यह सवाल उठता रहता है।
       महाभारत में पांडव जब वनवास कर रहे थे तो उन्हें सूर्य द्वारा एक अक्षय पात्र मिला था।  यह ताँबे का था। कहानी में आता है कि वह पात्र खाली नहीं होता था। द्रोपदी सबको भरपेट भोजन कराने के बाद स्वयं खाती थीं। द्रोपदी के खाने के बाद वह पात्र खाली हो जाता था और अगले जून फिर से भर जाया करता। एक दिन ऋषि दुर्वासा अपने समूह सहित उधर से गुजरे। वह भूखे थे। अक्षय पात्र खाली हो चुका था। घर में राशन नहीं था। उतने बड़े समूह के लिए सुस्वादु भोजन पकाने की व्यवस्था कठिन थी। दुर्वासा बहुत क्रोधी स्वभाव के ऋषि थे। पांडव इससे परिचित थे। वह शक्ति संचयन कर रहे थे। दुर्वासा के शाप का अर्थ था- भविष्य की योजनाओं पर तुषारापात!
       कृष्ण को याद किया गया। आते ही उन्होंने ऋषि समूह को स्नानादि के लिए भेजा और अक्षय पात्र मंगवाया। द्रोपदी बहुत पहले ही भोजन कर चुकी थीं। उस पात्र में अन्न का एक कण बचा था। तो सवाल वही उठा कि वह अक्षय पात्र कब माँजा जाता था? अगर भोजनोपरांत ही माँजा जाता तो उसमें अन्न का कण न रहता। अतः दृष्टांत बन सकता है कि द्रोपदी भी भोजनोपरांत बासन नहीं धोती थीं। लेकिन वाशवेशिन में जूठन अच्छा भी तो नहीं लगता!
       तो सवाल फिर से वहीं आकर गले पड़ता है किबासन कब माँजा जाए।

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शनिवार, 4 जनवरी 2020

कथावार्ता : साहित्य की धर्मवादी राजनीति

   
बीते दिन एक शॉपिंग मॉल के पास से निकल रहा था तो बुल्ले शाह का वह प्रसिद्ध गीत पॉप धुन में सुनाई पड़ा- बुल्ला की जाणा मैं कौण। बुल्लेशाह का यह और अन्य कुछ दूसरे गीत गायकों की पसंद हैं। अमीर खुसरो के गीत भी धुन बदल-बदल कर बहुतों द्वारा गाई गयी है। इस्लामी (सूफी) गायकों ने और उससे प्रभावित हो कर दूसरे गायकों ने भी कई ऐसे साधकों के गीत भिन्न-भिन्न अंदाज में पेश किया है। पिछले दिनों फैज़ अहमद फैज़ की वह नज़्म भी पाकिस्तान की टोली 'कोक स्टूडियो' ने खूब झूमकर गाया था और वह  खूब मकबूल हुआ। इकबाल बानों का गाया हुआ और उनका किस्सा तो रोमानियत की मिसाल बन गयी है। मज़ाज़, इक़बाल, टिन्ना पिन्ना के गाने भी बहुत मन से गाये गए हैं। हिंदी फिल्मों में भी इनका बोलबाला रहा है।
        उसके मुकाबिले हिंदी/संस्कृत के गीतों को साधने की कोशिश बहुत कम है। तुलसी-सूर को कोई गाने की कोशिश करता है तो 'चंचल' बन जाता है। उनका तरीका भी वही भ्रष्ट शास्त्रीय रहता है। पॉप और जैज़ के खाँचे में डालने की बात सोचना भी हमने जरूरी नहीं समझा है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले और रवीन्द्र जैन ने कुछ ढंग का गाया तो है लेकिन वह "भक्ति" के दायरे में रख दिया गया है और युवाओं से परे कर दिया गया है। कोई नया आयाम देकर गाने की कोशिश भी नहीं करता।
        इसके पीछे एक बड़ी वजह "मानसिकता" की है। ट्रेंड बनाने की है। राजकीय प्रश्रय की है। इस्लामी गायकों ने 'रूढ़ि' को भी ताकत बना लिया। हम मठ और गढ़ तोड़ने में मशगूल रहे। किसी कवि ने नहीं कहा कि हम शरिया आदि का भी ख़ात्मा करेंगे। हम कुरआन और हदीस के आसमानी मान्यताओं को नहीं मानते। यह सब बकवास है। बल्कि "मार्क्सवादी शायर" फैज़ तो "बस नाम रहेगा अल्लाह का" लिखकर और "सब बुत उठवाए जाएंगे" लिखकर भी "क्रांतिकारी" हैं।
     तो कहने का आशय यह है कि यह पैराडाइम एक लंबे डिस्कोर्स से बना है। उसे ध्वस्त करने के लिए सूक्ष्म और तार्किक तथा संगठित और रचनात्मक लड़ाई करनी होगी। उटपटांग के आरोप-प्रत्यारोप से यह और मजबूत होगा।
    आइए सैय्यद इब्राहिम रसखान की यह कविता पढ़ते हैं- मनुष्य के जीवन की सार्थकता क्या है-

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

#Faiz

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

कथावार्ता : चल टमकिया टामक टुम


(डिक्लेरेशन-इस कहानी के कई संस्करण हो सकते हैं)

     चल टमकिया टामक टुम

एक थी बुढ़िया।
बहुत सयानी।
घाट घाट का पीकर पानी।
बन गयी थी सबकी नानी।
एक दिन की बात है।
सच्ची-सच्ची बात है।
नहीं है कुछ भी झूठा-मूठा
पतियाओ या चूसो अंगूठा।
वह चली अपने मायके।
बहुत समय बितायके।
राह में मिल गया एक सियार।
बोला अपना दाँत चियार।
'बुड्ढी तुझको खाऊंगा।
अपनी क्षुधा मिटाऊंगा।'
बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार!
मैं जाती अपने गाँव
लौटूंगी उलटे पाँव।
जब मैं वापस आऊँगी
तब मुझको खा लेना
अभी बहुते काम है
बाद में क्षुधा मिटा लेना।
सियार का दिल पसीज गया
  वह कुछ सोचा फिर रीझ गया।

बुढ़िया उसके बाद अपने गाँव गयी। वह थोड़ा परेशान थी। उसके भाई-भतीजे मिले। सबने आशीष लिया। सबने कुशल क्षेम जाना। भौजाई ने ठिठोली की। भाई ने चिन्ता का कारण पूछा। बुढ़िया ने सब कहानी कह सुनाई।
तब भाई ने मंगाया एक कद्दू। 
एक बड़ा कद्दू। 
एक बहुत बड़ा कद्दू।
कद्दू को काटकर बनाई गई एक टमकी। बुढ़िया उसी में बैठकर वापस लौटी।
वह टमकी गाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?
टमकी गाती जाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?

तब बुढ़िया संगत करती और जवाब देती-
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।

टमकी लुढ़कते लुढ़कते चली। सियार का डेरा आ गया। वह जबर खुश हो गया। उसने गाना सुना तो नाचने लगा।- 'आज सुरन्ह मोहि दीन्हि अहारा'...

बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार, हमने अपना वचन पूरा किया है। अब तुम मुझे अपना आहार बना सकते हो। लेकिन अच्छा यह रहेगा कि मैं गंगा स्नान कर आऊँ। पवित्र हो जाऊँ और आखिरी प्रार्थना भी कर लूं।'

सियार ने कहा- 'ठीक बात! आई विल वेट!'

बुढ़िया गंगा स्नान को गयी और जितना नहाया- उससे अधिक समय उसने अपने पिछवाड़े में बालू भरने में लगाया। जब खूब बालू भर लिया तो आयी। सियार अपने दांत तेज कर चुका था। बुढ़िया ने अपने को प्रस्तुत करते हुए पूछा- 'सिर की तरफ से खाओगे या धुसू की तरफ से?' 

अब सियार का माथा चकराया।
इसका रहस्य क्या है, उसने हाथ नचाया।
बुढ़िया ने कहा-
जो तीता-तीता खाना है तो सिर की तरफ से खाओ।
और मीठा मीठा पाना है तो धुसू की तरफ़ मुंह लाओ।
सियार ने सोचा-इसमें क्या बुरा है।
अच्छा शिकार है और डेरे में सुरा है।
तो उसने कहा- धुसू की तरफ से खाऊँगा।
बुढ़िया ने कहा- तब हो जाओ तैयार।
ज्योंहि सियार ने मुँह लगाया- 
बुढ़िया बोली भड़ाम
बालू छोड़ी धड़ाम!

सब बालू सियार के आंख-मुँह में भर गया। वह रोते बिलखते भागा..


गुरुवार, 28 नवंबर 2019

कथावार्ता : आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की

     
दोपहर को भोजन पर बैठे तो थाली सामने आने से पहले ही वसु ने जल ग्रहण करना शुरू कर दिया। उन्हें सबने मना किया कि 'खाना खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए।
          "क्यों?" वसु का सहज और तुरंता सवाल था। सब मेरा मुँह देखने लगे। मैंने कहा कि, "भोजन से पहले जल ग्रहण करने से जठराग्नि मद्धिम पड़ जाती है। अतएव भोजन ठीक से नहीं पचता।" 
          "पापा, यह जठराग्नि क्या होती है?" वसु पूछ बैठे। हमने कहा कि, भोजन कर लेने के बाद इसका उत्तर दिया जाएगा। हमारी परम्परा में भोजन के समय वार्तालाप की मनाही है। यद्यपि मैंने कुछ विदेशी संस्कृति को रेखांकित करने वाली पुस्तकें पढ़ीं तो उसमें देखा कि कठिन मसले डाइनिंग टेबल पर ही सुलझाए जाते हैं। खैर, तो हमने कहा कि खाना खा लिया जाए तो बताऊंगा। भोजन के उपरांत वही सवाल मेरे सामने था। अग्नि के स्थान भेद से कई रूप हैं। जंगल में लगे तो दावाग्नि, पानी में लगे तो बड़वाग्नि, पेट में लगे तो जठराग्नि। तुलसी बाबा का एक बहुत प्रसिद्ध पद है। 'आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की।' बहुत पहले एक अध्यापक ने बड़वाग्नि के बारे में बताया था कि वह आग जो पानी में लगती है। 
          "पानी में कौन आग लगती है भला?" 
          "समुद्र में कई बार खनिज तेल तिरते रहते हैं, उन्हीं में आग लग जाती है, वही बड़वाग्नि है। बहुत खतरनाक होती है।" शिक्षक ने बताया था। हमने वही मान लिया था। बाद में इस व्याख्या को अक्षम माना हमने और अग्नि का अर्थ ऊर्जा, क्षमता, पॉवर से लगाया और पानी की ताकत को बड़वाग्नि कहा। तुलसीदास कहते हैं कि पेट की आग, पानी की आग से भी बड़ी होती है। सही बात है। पेट की आग तो मानवीयता तक को भस्म कर सकती है। खैर
          "जठराग्नि, भूख लगने पर जाग्रत होती है। जब हम पानी पी लेते हैं तो क्षुधा कुछ समय के लिए तृप्त हो जाती है। और फिर खाद्य पदार्थ पेट में जाकर सही पाचन नहीं कर पाते।" वसु मुँह खुला रखकर कुछ सोचते रहे तो मैंने महाभारत से अग्नि देवता से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया। -"एक बार अग्नि देवता को यज्ञ का घी खाते खाते अजीर्ण हो गया।" 
          "अजीर्ण माने?" वसु ने पूछा। 
          "भूख न लगने की बीमारी।" 
          "यह क्या होता है?"
       "एक बीमारी होती है, जिसमें भोजन करने की इच्छा नहीं होती।"
          ......

          "तो अग्नि अजीर्ण के कारण पीले पड़ गए। जब अग्नि सबसे मद्धिम होती है तो उसकी लौ पीली होती है। "अच्छा बताओ, जब सबसे तेज होती है तो किस रंग की होती है?"
          "नीले रंग की!" वसु की माँ ने वसु की मदद की। 
          "हाँ! नीला रंग सबसे शक्तिशाली और रहस्यमयी होता है। 
          "तो, अग्नि ने इसकी शिकायत अश्विनी कुमारों से की। अश्विनी कुमारों ने इन्द्र को बताया और इन्द्र ने कहा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण से मिलिए। वह लोग खाण्डव वन जला देंगे। यह वह समय था जब अर्जुन पांडवों को ताकतवर बनाने के लिए गली गली घूम रहे थे और सबसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर रहे थे। अग्नि ने अर्जुन से कहा। अर्जुन और कृष्ण ने खाण्डव वन को घेर लिया और आग लगा दी। जीव जन्तु जलकर भस्म होने लगे। हाहाकार मच गया। वन में ही तक्षक नाग परिवार सहित रहता था। उसने इन्द्र को पुकारा। इन्द्र मदद के लिए भागे आये। वह वर्षा के देवता हैं तो बारिश शुरू कर दी। आग मद्धिम पड़ने लगी। अग्नि ने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने कृष्ण की तरफ। अब अर्जुन और इन्द्र में द्वन्द्व छिड़ गया। किसी किसी तरह तक्षक को बचाने पर सहमति बनी। खाण्डव जलकर खाक हो गया। अग्नि ताकतवर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को कई आग्नेयास्त्र दिए। उधर तक्षक नाग ने अर्जुन से दुश्मनी साध ली। और जब महाभारत युद्ध हुआ तो वह कर्ण के पास पहुँचा। उसने कहा कि मुझे एक बाण पर संधान करके छोड़ो। मैं जाकर अर्जुन को डंस लूंगा। कर्ण ने ऐसा ही किया। कृष्ण अच्छे सारथी थे। उन्होंने ऐन वक्त पर रथ एक बित्ता जमीन में गड़ा दिया। बाण सहित तक्षक अर्जुन के मुकुट को ले उड़ा। अर्जुन बच गए। तक्षक ने फिर से कर्ण से अनुरोध किया लेकिन इस बार कर्ण ने उसकी बात न मानी। "तो इस तरह से अग्नि को भी प्रज्ज्वलित करने के लिए खाद्य सामग्री चाहिए होती है।" 
          कहानी खत्म हो गई थी। भोजन भी सम्पन्न हो चुका था। सब अपने काम पर लग गए।


शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

कथावार्ता : देवोत्थान एकादशी और हम

     
आज देवोत्थान एकादशी है। व्रत रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन भगवान विष्णु चातुर्मास के शयन के बाद जागरण की अवस्था में आते हैं। एकादशी का पौराणिक महत्त्व चाहे जो हो, हमारी तरफ यह एक ऐसा अवसर रहता है, जिस दिन व्रत रहा जाता है। हमारी तरफ गन्ना चूसने की शुरुआत आज से होती है। अब छठ की उपस्थिति ने गन्ना चूसना पांच दिन पहले कर दिया है नहीं तो यह दिन नेवान का रहता था। एक बार मैंने एकादशी पर व्रत रहना निश्चित किया। लालच था कि शाम को पारण में फलाहार करने को मिलेगा। तब फलों का बहुत क्रेज था और आम भारतीय परिवार में फल मौके-महाले खरीदा जाता था। मौसमी फल ही हमारे लिए उपलब्ध थे। एकादशी की शाम को फलाहार और उसमें भी कन्ना (मीठा आलू) उबाला मिलता था। अहा! क्या दिव्य स्वाद था उसका। तो उसी लालच में हमने तय किया कि एकादशी व्रत रहेंगे। 
एकादशी व्रत में करना क्या है- दिन भर उपवास ही तो करना है। हम संकल्पबद्ध हो गए। सुबह उस दिन जल्दी हो गयी। स्नानादि कर लिया गया। अब सूरज निकल आया। क्रमशः चढ़ने लगा। इधर कुछ खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। फिर हर क्षण बलवती होने लगी। घर में रहना दूभर होने लगा। दस बजते बजते छटपटाने लगे। ऐसी स्थिति के लिए हमलोगों ने प्लान 'बी' बनाया था। इसके तहत यह था कि भूख लगते ही गन्ना चूसने खेतों में निकल जाएंगे। आज से गन्ना चूसना 'वैध' हो जाता है। और एकादशी व्रत वाले इसे चूस सकते हैं क्योंकि यह फल में गिना जाता है। हमलोगों ने भरपेट गन्ना चूसा। जब तृप्त हो गए तो बाल मन कुछ करने को मचलने लगा।
      हमलोगों ने तय किया कि गुल्ली-डण्डा खेला जाए। यह बहुत मजेदार खेल है। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी इसी नाम से है। गुल्ली और डण्डा की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत आसान है। हम तो बाग और खलिहान की तरफ थे। साथियों में से एक सोझुआ हँसुआ ले आया था। उसे चारा भी काटना था। हम इसी शस्त्र से गन्ना भी काट रहे थे। हंसुआ की मदद से बेहया के पौधे से गुल्ली डण्डा बनाना तय हुआ। मुझसे छोटे मौसेरे भाई ने कहा कि मैं काटता हूँ तो मैंने बड़े भाई होने की धौंस जमाते हुए हंसुआ ले लिया। उसने कहा कि तुम शहरी लड़के हो, और यह हंसुआ थोड़ा अलग है। हमने फिर भी हंसुआ ले लिया और काटने उतरा। पहला भरपूर वार मैंने बेहया के पौधे पर निशाना साधते हुए किया। बेहया के डंठल पर तो यह बेअसर रहा, मेरे दाहिने पैर के घुटने पर हंसुआ का नुकीला सिरा जा धँसा। जब हमने उसे पैर से निकाला- खून की एक मोटी धार फव्वारे जैसी चली। अब मारे दर्द, भय और आशंका के 'मार खा रोई नहीं' वाली हालत हो गयी। रोना आ रहा था लेकिन भय वश रूलाई नहीं छूट रही थी। अब क्या हो? सबके हाथ-पाँव फूलने लगे। 
तब हमने अपनी मेधा का प्रयोग किया। हमने सुना था कि देश की मिट्टी औषधीय गुणों की खान है। वह रक्तप्रवाह रोक देती है। हमने बहुत सारा धूल कटे पर लगाया। लेकिन खून रुकने की बजाय मटमैला होकर बहने लगा। यह उससे भयावह स्थिति थी। हम घर की ओर भागे। राह में ट्यूबवेल का पानी खेतों में लगाया जा रहा था। हमने घाव को उस पानी से धोया तो नाली रक्तरंजित हो गयी। जब हम घर पहुंचे तो सब बहुत परेशान हुए। माँ ने घी का लेप किया। पट्टी बाँधी गयी। चिकित्सक बुलाया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद दवा की टिकिया मिली। सलाह थी कि कुछ अन्न ग्रहण कर दवा ली जाए। यह धर्मसंकट था। एकादशी का व्रत था और अन्न ग्रहण करना था। मैंने साफ मना कर दिया। यह नहीं हो सकता। तब दीदी संकटमोचक बनी।दीदी ने धीरे से कान में बताया कि शाम को तुम्हारे हिस्से का फल तो रहेगा ही, मेरे भाग का आधा भी तुमको मिलेगा। यह प्रस्ताव आकर्षक था। हमने दवा ली। शाम को छककर प्रसाद पाया। भरपेट कन्ना खाया। एकादशी का व्रत पूरा हुआ। वह घाव बहुत दिन तक रहा।अब भी उसका दाग है। हर एकादशी उसकी याद आती है।

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

कथावार्ता : क्रिसमस इव पर विशेष

      बीते दिन अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की यह तस्वीर देखने को मिली। बराक संता की भूमिका में हैं। इस तस्वीर को देखते हुए विचारों की श्रृंखला बन गयी। 
      अव्वल तो यह खयाल आया कि अमरीका और यूरोपीय देशों के राजनयिक यह सब सहजता से कर सकते हैं तो विकासशील देशों विशेषतः भारत जैसे देश के राजनेता ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकते। धर्मनिरपेक्षता एक घटिया बहाना है। उनका स्टेटस और वीआईपी बने रहने की चाह और वोट बैंक की परवाह बड़ा कारण है।
     ईसाइयत इतनी शक्तिशाली धारा है कि दुनिया के सभी दूसरे धर्म भीषण दबाव में हैं। हिन्दू धर्म टिका है तो अपनी समृद्ध और शानदार बौद्धिक परम्परा की वजह से। इस्लाम ताकत और कट्टरता से सहज प्रतिरोधी है। जिन देशों में बौद्ध धर्म है, वह सबसे अधिक संकट से जूझ रहे हैं। शेष पर कभी संता गिफ्ट देने के बहाने हावी है तो कभी, चर्च की नौटंकी, यीशु के दरबार, अस्पताल, पब्लिक स्कूल, पढ़ाई, पाठ्यक्रम के जरिये हमलावर है। पढ़ाई लिखाई में उसने मदरसों और आश्रमों की व्यवस्था को पोंगापंथी घोषित करवा रखा है और बुद्धिविलासियों की एक जमात खड़ी कर दी है। जब हमने कहा कि एक गड़ेरिये (ईसा) की जयंती का उत्सव दुनिया भर में एक सप्ताह से अधिक मनाया जा सकता है तो देश के प्रधानमंत्री चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती का उत्सव दो दिन लगातार क्यों नहीं मना सकते, तो श्रोताओं में से कुछ ने 'धिक्कार' कहा। कुछ ने कहा कि सोचने की बात है। एक ने पूछा कि तारीख में BC अगर ईसा से पहले है तो इसे MC के तुरंत बाद शुरू हो जाना चाहिए। MC माने मैरी क्रिसमस। तो इसका जवाब यह है कि ईसा का जन्मोत्सव एक सप्ताह मनाने के बाद नए वर्ष की शुरुआत मान ली जाए, इसलिए।
      ओबामा की यह छवि बेहद खूबसूरत है। वह अपने पिटारे में रखकर चलता है बाइबिल। रात के समय जब आप सोते रहते हैं, वह आपके मेधा पर छा जाता है। कहता है- विज्ञान, चिकित्सा, शिक्षा, नौकरी, रोजगार सबका स्रोत है बाइबिल। बाइबिल की भाषा है अंग्रेजी। आपको अंग्रेजी नहीं आती- कोई बात नहीं। आप सीखें- हेलो, गुड मॉर्निंग, गुड नाईट, (गुड फ्राइडे भी!) हैप्पी बर्थडे, rip, ओके भी। उसके बाद तो आप हगी-मुत्ति सब सीख लेंगे।
ओबामा जब यह लेकर निकला है तो वह संता को घर घर पहुंचा रहा है। उस गड़ेरिये को घर घर में प्रवेश दे रहा है। हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं? दलित, जाट, मुसलमान, आतंकवादी आदि इत्यादि खांचे में बांट रहे हैं। एक उठता है तो कहेगा कि राम की कहानी काल्पनिक है और दूसरा उठकर बताएगा कि कृष्ण ने कौरवों से छल किया। गांधी का एक अध्येता गोमांस भक्षण करते हुए अतिशय गौरव महसूस करेगा।
      तो ओबामा की यह छवि विशेष है। जब वह चुनाव लड़ रहे थे तो उनके खिलाफ दो बातें जा रही थीं- 1. वह मुसलमान हैं, 2. वह अश्वेत हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि मुसलमान तो नहीं हैं, अश्वेत होने से अधिक वह अमरीकन हैं और उससे भी अधिक ईसाइयत के आक्रांता प्रचारक हैं।
      सच कहूं तो मुझे यह तस्वीर पसंद है। चाहता हूँ कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी इस पूरे सप्ताह औरंगजेब के शासनकाल में हुए सिख दमन और सिखों की वीरता को याद करते हुए आगे आएं। प्रणब मुखर्जी दुर्गापूजा में मन से शामिल हों। हामिद अंसारी ईदगाह में सामूहिक नमाज में शरीक हों। दूसरे माननीय स्थानीय पर्व उत्सव में खूब भागीदारी करें। 
भारत की विविधधर्मी संस्कृति को खूब रंगें, उसे और रंगीन और समृद्ध बनाएं।

सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.