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सोमवार, 25 मार्च 2024

कवीश्वर कपीश्वरौ - आचार्य कुबेरनाथ राय का निबन्ध

                                                                                                                 -आचार्य कुबेरनाथ राय


मानस’ का मंगलाचरण कई अर्थों में बेजोड़ है। यह स्वयं में एक ‘नानापुराण-निगमागम् सम्मतम्’ मंगलाचरण है। प्रथम श्लोक में गणेश-सरस्वती की वंदना है तथा ‘मंगलानाम्’ द्वारा भारत की लोकायत संस्कृति का संकेत किया गया है क्योंकि ‘मंगल’ का अर्थ होता है मांगलिक ‘वस्तुएं’ और ‘मांगलिक उपचार’। द्वितीय श्लोक में शंकर-भवानी की वंदना आगम परंपरा के अनुकरण में है। ‘शक्ति’ अर्थात् ‘इ’ कार से संयुक्त होकर शव का ‘श+ इ +व’ ‘शिव’ हो जाता है। यदि यह भवानी रूपा ‘इ’ कार न रहे तो शव’ का ‘शव ही रह जाएगा जो शिव का निष्क्रिय रूप है। इस तत्त्व का उद्घाटन ‘सौंदर्य लहरी’ के, जो ‘श्री विद्या’ का प्रतिनिधि ग्रंथ है, प्रथम श्लोक में ही हुआ है। इसी बात को गोसाईंजी ‘भवानी शंकरौ’ को युगबद्ध रूप में रखकर मानस के द्वितीय श्लोक में उपस्थित करते हैं। तृतीय श्लोक में ‘बोधमयं नित्यं गुरुम्’ की वंदना की गई है। यह वंदना ज्ञान मार्ग (निगमागम सांख्य) की द्योतक है जिसके अनुरूप गुरु ही साक्षात् ‘सांख्य’ अर्थात् ‘बोध’ है, गुरु के आश्रम से ही जीव को अपने नित्य स्वरूप का बोध होता है और वह ‘गुरु’ स्वयं ‘परम संवित’ या ‘परम शिव’ ही है। फिर आता है चौथा श्लोक अर्थात् ‘कवीश्वर कपीश्वरौ’ की वंदना वाला श्लोक । यह वंदना ‘सांख्य’ या ज्ञान से भिन्न ‘योग मार्ग’ की द्योतक है क्योंकि इसमें ‘विशुद्ध विज्ञान’ की चर्चा है। विज्ञान का अर्थ होता है ‘योगियों द्वारा अनुभूत विशिष्ट ज्ञान’ । इसी योगानुभूति का ही एक विशिष्ट संस्करण है ‘काव्य’ और दूसरा संस्करण है ‘भक्ति’ काव्य और भक्ति दोनों बुद्धि या प्रज्ञा पर निर्भर नहीं हैं। दोनों सांख्य मत के विपरीत अनुभूति-प्रधान और राग-प्रधान प्रक्रियाओं की उपलब्धियां हैं। पांचवां श्लोक है विशिष्टाद्वैत की परंपरा में सीता की राम से संबद्ध (युगबद्ध रूप में) चिद्चिद् विशिष्ट ‘परमा प्रकृति’ या ‘महामाया’ के रूप में वंदना और अंतिम श्लोक रामचंद्र का ‘रामाख्यं ईशम् हरिम्’ ‘राम’ नामधारी ‘ईश्वर’ (शिव) और ‘हरि’ (विष्णु) दोनों के प्रतीक अर्थात् निगम पंथ का ‘परम ब्रह्म’ मानकर उनके वेदांती रूप, को व्यक्त करता है। राम ‘तम’ हैं, ‘शेष’ हैं, ‘कारण’ हैं और ‘ईश्वर’ हैं। राम ‘तम’ (चरम) होते हुए भी तथा सब कुछ के समाप्त हो जाने पर भी ‘शेष’ (हिरण्य- गर्भ) रह जाते हुए भी, वेदांतियों का निष्क्रिय निर्विकार ब्रह्म नहीं, ‘कारण’ ब्रह्म हैं, वे सारी सृष्टि के निमित्त कारण हैं, जबकि उपादान कारण है चिद्-चिद् विशिष्ट परमा प्रकृति। मंगलाचरण के प्रथम दो श्लोक आगम मार्ग से संबंधित हैं तो ये दोनों अंतिम श्लोक निगम मार्ग से। बीच के दोनों श्लोक ‘सांख्य-योग’ हैं जो आगम और निगम दोनों पंथों की संयुक्त संपत्ति हैं। ये सांख्य योग निगमागम-ओतप्रोत हैं और साथ ही निगम और आगम के बीच की कड़ी या संयोजक भी हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि गोसाईंजी का यह मंगलाचरण लोकायत धर्म, आगम, सांख्य योग और निगम, इन सबका प्रतीक है, इन सबके तत्त्वों का सूक्ष्म संकेत इसके अंदर विद्यमान है और हम कह सकते हैं कि यह महाकाव्य तो ‘नानापुराणनिगमागम सम्मतम्’ है ही, ‘मंगलाचरण’ भी निगमागम सम्मतम् है। हम यहां पर इसके चौथे श्लोक की कुछ विस्तृत चर्चा कर रहे हैं।

सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ ।

वन्दे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ ।।”

इस श्लोक में कवीश्वर अर्थात् वाल्मीकि और कपीश्वर अर्थात् हनुमान जी की वंदना है। इन दोनों को कवि ने विशुद्ध विज्ञानी कहा है। ये दोनों ‘सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य’ में विहार करते हैं। हनुमान तो शाखा मृग हैं ही, वाल्मीकि भी परंपरा से कविता-वन के सिंह हैं और कविता शाखा के ‘कोकिल’ भी।

वाल्मीकि मुनि सिंहस्य कविता वन चारिणः,

शृणुवन् रामकथानाद को न यान्ति परागतिम् ।

कूजतं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्

आसध्य कविता शाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम् ।।”

 


गोसाईंजी ने मुख परंपरा से प्रचलित इन विरुदों को सुनकर ही उनको भी ‘पुण्यारण्य विहारी’ माना है और आरण्यक देवता हनुमान के साथ कर दिया है। वाल्मीकिजी वीर गाथा के कवि हैं। सिंह जैसी महिमा, बल, तेज और साहस वाले चरित्रों की सृष्टि उन्होंने की है। वाल्मीकि के काव्य में कोई भी श्वान-शृगाल नहीं, यहां तक कि उनके द्वारा अंकित प्रतिपक्षी रावण और उसका सारा राक्षस कुल भी हीनता और क्षुद्रता से मुक्त है। जिस हीनता और क्षुद्रता का आरोपण बाद के अन्य कवियों ने किया है, वह वाल्मीकि के काव्य में अनुपस्थित है। रावण के अंदर उन्होंने एक ट्रेजडी का ‘बीज’, एक मोह-बीज अवश्य स्थापित किया है, परंतु उसे श्वान-शृगाल की श्रेणी में रखना उन्होंने उचित नहीं समझा। उनकी सिसृक्षा के भीतर ‘सिंहत्व’ के ही समानांतर करुण रस से ओतप्रोत एक गीतात्मकता (Lyricism) भी चलती है और इसके कारण उन्हें कविता कोकिल कहा गया है। यह करुण गीतात्मकता राम के जीवन के माध्यम से व्यक्त हुई है। राम के इसी चरित्र के ढांचे को भवभूति विकसित करके अपने नाटक ‘उत्तरराम चरित’ में ‘पुटपाक प्रतीकाश रामस्य करुणो रसः’ की स्थापना करते हैं। रामायण वीर-रस और करुण-रस दोनों रसों का महाकाव्य है। साथ ही इसमें दांपत्य-प्रेम, मातृ-प्रेम, सखा-प्रेम आदि अनेक कोमल भावों को भी पर्याप्त स्थान मिला है। इसी से यह संपूर्ण दैनंदिन जीवन का महाकाव्य भी ज्ञात होता है। इसी दैनंदिन जीवन का महाकाव्य (Epic of day-today life) के तथ्य को रवीन्द्रनाथ ‘पारिवारिक जीवन का महाकाव्य’ कहकर व्यक्त करते हैं। क्योंकि इसके भीतर ‘समस्त जीवन का कल कूजन समाविष्ट हो गया है।’ ऐसी अवस्था में वाल्मीकि को कविता कानन का कल कूजन कहना उचित ही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मीकि मुनि कोमल-कठोर दोनों रूपों में स्थित हैं। भारतीय संस्कृति की महत्ता, उपलब्धियां, आरण्यक उपलब्धियां हैं। वाल्मीकि का अरण्य है सीता-राम-गुणग्राम का पुण्यारण्य । इसके तृण, तरु, लता और पुष्प सीता-राम के शीलमण, रूपगण और आदर्शगण सौंदर्य को व्यक्त करते हैं। वाल्मीकि और हनुमान दोनों के मानस लोक में स्थित सीता राम का यह चरित्र उपवन या छोटी-सी वाटिका नहीं बल्कि एक सघन अरण्य है, एक महिमामय अगम-अथाह विस्तीर्ण महाकांतार है जिसमें नित्य सरयू प्रवाहित है, नित्य अयोध्या है, नित्य पंचवटी है; नित्य अश्रुसिक्त गोदावरी-तट और नित्य पंपा-सलित प्रत्यक्ष होता है; नित्य माल्यवंत गिरि, नित्य सागरवेला, नित्य सुबेल शैल और बार-बार भस्म होती हुई भी नित्य-स्वर्ण लंका है; सबसे बढ़कर नित्य राम-रावण समर है और नित्य भरत मिलाप पुण्याभिषेक और रामराज्य स्थापना है। इस नित्य लीला को मानसभूमि में प्रतिदिन देखते हुए कवि और भक्त विचार करते हैं। इस अगम, उदात्त, आकाश-स्पर्शी महाशाखाओं वाली, सर्वफलदायिनी कल्पवृक्षों वाली लीला-अरण्यानी का उनके मन में नित्य निवास है। इसी से महाकवि और महाभक्त वाल्मीकि हनुमान के लिए गोसाईजी ने लिखा है : ‘सीता- राम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ’। इस काव्यांश में ‘सीताराम’ शब्द उस ‘पुण्यारण्य’ की ‘नित्यता’ का भाव संकेत द्वारा व्यक्त करता है।

 


श्लोक का सारा रहस्य केंद्रित है ‘कवीश्वर-कपीश्वरौ’ की उपाधि ‘विशुद्ध- विज्ञानौ’ पर। ‘विशुद्ध विज्ञान’ या ‘विज्ञान’ एक विशिष्ट शब्द है। आज इसको Science के प्रतिशब्द के रूप में ग्रहण करते हैं। परंतु इसका मौलिक अर्थ भिन्न है। ‘विज्ञान’ शब्द का साधारण अर्थ है विशेष प्रकार का ज्ञान। भारतीय वाङ्मय में इसका प्रयोग दो प्रकार का है। एक तो है औपनिषदिक परंपरा में पंचकोषात्मक अस्तित्व की चर्चा के संबंध में। और दूसरा ‘अमर- कोष’ में शिल्पादि के ज्ञान के अर्थ में। भारतीय दर्शन में अस्तित्व को पंच-कोषात्मक माना गया है। अन्नमय (Physical) प्राणमय (Vital ( अर्थात् प्राण, श्वास, स्नायु, संबंधी मनोमय (Mental), विज्ञानमय (Supra-mental), आनंदमय (Spiritual)। अस्तित्व के एक कोष के भीतर दूसरा कोष है समकेंद्रिक वृत्तों की भांति। केंद्र है ‘आत्मा’ का निर्विकार शांत आनंदमय कोष। ये पांच श्लोक मिलकर सारे ‘अस्तित्व’ या सारी ‘सत्ता’ को रचते हैं। यहां विज्ञान का अर्थ है सामान्य मानसिक जगत् से ऊर्ध्वतर की मानसिक प्रक्रियाएं। यदि मनोमय कोष को हम ‘नार्मल मन’ मान लें, तो विज्ञानमय कोष में ‘अवचेतन’ और ‘ऊर्ध्वचेतन’, स्वप्न, प्रातिभज्ञान, (Revelation) अंतर्भुक्त माने-जाने जाएंगे। योगियों की अनुभूतियां, कवियों की कल्पना और सिद्धों का मानसिक वैभव इसी ‘विज्ञान’ के अंतर्गत कहा जाता है। ‘अवचेतन’ की धारणा नवीन है। अतः भारतीय वाङ्मय में विज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है सिर्फ ऊर्ध्वचेतन (Super concious) के अर्थ में, जिसकी मानसिक प्रक्रियाएं ही ‘प्रातिभज्ञान’ (Intuition) और ‘दिव्य दृष्टि’ (Revelation) कही जाती है। यही विज्ञान आनंदमय कोष या आध्यात्मिक जगत् का प्रवेश-द्वार है। यह ‘विज्ञान जगत्’ ही योगियों का मनोलोक है, प्रज्ञा पारमिता की दस भूमियां इसी में स्थित हैं, भक्तगण और कविगण इसी लोक में स्थित होकर प्राप्त करते हैं। इस विज्ञान की अनुभूति प्रारंभ होती है मूलाधार में सुप्त कुंडलिनी जगने पर अथवा भक्ति के महाभाव में स्थित होने पर और कवि के विषय में भावानुप्रवेश करने पर। विज्ञान का लोक कुंडलिनी से आज्ञा चक्र तक है। इसके बाद आती है सहस्रार में प्रवेश की अवस्था और वही है आनंदमय कोष की स्थिति। अतः ‘विज्ञान’ का अर्थ हुआ योगी अथवा योगियों जैसे ही अति मानसिक (Supra-mental) गति मार्ग पर विहार करने वाले अन्य प्राणी यथा ‘भक्त’ और ‘कवि’। तीनों में अवश्य ही साधन-भेद और मात्रा-भेद है। योगी का साधन है ‘हठयोग’, भक्त का ‘महाभाव’ और कवि का ‘भाव’। योगी और भक्त जितनी ऊंचाई तक चढ़ते हैं उतनी ऊंचाई तक कवि का गमन नहीं हो सकता। पर है वह भी सतीर्थ्य और समानधर्मा इसी से वाल्मीकि और हनुमान दोनों को ‘विशुद्ध विज्ञानी’ कहा गया है।

 

उपनिषदों के बाद महत्त्वपूर्ण श्रुति है ‘गीता’। क्योंकि परंपरा से यह भी पुरुषोत्तम के मुख से संभव है। गीता के सातवें अध्याय में ज्ञान और विज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है। परंतु गीताकार ने ज्ञान-विज्ञान के भेद की अपेक्षा शुद्ध ज्ञान और शुद्ध विज्ञान की एकता पर ही जोर दिया है। गीता की दृष्टि में असत्व योग और असत्व सांख्य परस्पर विरोधी नहीं बल्कि एक तथ्य के दो रूपांतर हैं; वैसे ही ज्ञान और विज्ञान भी शुद्ध रूप में एक ही हैं। ज्ञान-विज्ञान के भेद जानने के लिए गीता के मूल पाठ की अपेक्षा गीता के भाष्यकारों से अधिक सहायता मिलेगी। प्रथम महत्त्वपूर्ण भाष्यकार हैं भगवत्पाद शंकराचार्य। उन्होंने कहा है कि शब्द के साधन से, परोक्ष रीति से जो प्राप्त होता है (अर्थात् जो आप्तवाक्य, शास्त्रवाक्य और अनुमान द्वारा लब्ध होता है) वह है ‘ज्ञान’ और जो प्रत्यक्षानुभूति द्वारा प्राप्त होता है वह है, ‘विज्ञान’ अर्थात् विशेष ज्ञान। निर्विशेष ब्रह्म का ज्ञान शुद्ध शब्दाश्रित है वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अतः यह ‘ज्ञान’ का विषय हुआ। परंतु सविशेष ब्रह्म का ज्ञान और माया जगत् का ज्ञान प्रत्यक्षानुभूति हो सकता है। अतः ये ‘विज्ञान’ के विषय हैं। योगीगण और कविगण प्रत्यक्षानुभूति द्वारा बोध प्राप्त करते हैं अतः उनका बोध भी ‘विज्ञान’ है। परंतु जो तर्क, बुद्धि या प्रज्ञा द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है वह है ज्ञान। स्मरण रहे कि यहां प्रत्यक्षानुभूति की सीमा ऐंद्रियक अनुभवों से विस्तृत है और कल्पना, प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि आदि मानसिक अनुभवों को भी इसी श्रेणी में रखते हैं। संक्षेप में तर्क या बुद्धि पर आश्रित ज्ञान ‘ज्ञान’ है और प्रत्यक्ष (ऐंद्रियक या काल्पनिक या प्रातिभ) अनुभूति ‘विज्ञान’ है। विज्ञान ‘साक्षात्कार’ है, ‘स्वानुभव’ है पर ज्ञान एक बौद्धिक उपलब्धि है। संक्षेप में शंकराचार्य ने जो कुछ कहा है उसका मतलब यही है। शंकराचार्य के बाद दूसरे महत्त्वपूर्ण भाष्यकार हैं श्रीमद् रामानुजाचार्य। उनके अनुसार सत्ता के स्वरूप का ज्ञान (विविधता के मध्य ‘एक’ सत्ता का ज्ञान) ही ‘ज्ञान’ है। परंतु उसी सत्ता के चिद्चिद् रूप का पृथक-पृथक ज्ञान (स्वयं सत्ता के भीतर घटित होती हुई विविधता का ज्ञान) विज्ञान है। अतः गीता के अध्याय 7, श्लोक 4 और 5 में वर्णित अष्टधा प्रकृति का ज्ञान ‘विज्ञान’ है और अगले श्लोकों (6 और 7 ) में व्यक्त प्रकृति की उस विविधता के माध्यम एक परमात्मा का ज्ञान ‘ज्ञान’ है पर यह बोध शब्द या शुद्ध चिंतन या तर्क से ही नहीं प्राप्त हो सकता। यह भक्त की अनुभूति से भी प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार रामानुज ने ज्ञान और विज्ञान की एक नयी धारणा उपस्थित की। शंकराचार्य ने ज्ञान-विज्ञान का भेद तकनीक के आधार पर किया है ज्ञान अर्थात् शब्द-आश्रित बोध, विज्ञान अर्थात् प्रत्यक्षानुभूति-आश्रित बोध।  रामानुज ने इस भेद को विषयगत कर दिया है। ‘ज्ञान’ अर्थात् एक परमात्मा का बोध; ‘विज्ञान’ अर्थात् विविधता यानी उसी परमात्मा की आस्था प्रकृति का पृथक- पृथक बोध। अर्थात् परमात्मा की चरम सत्ता का ज्ञान ‘ज्ञान’ है और उनकी चिदचिद् अपरा प्रकृति का ज्ञान ‘विज्ञान’ है।’

 


विज्ञान’ शब्द की आधुनिक घारणा का बीज ‘अमरकोश’ की परिभाषा में विद्यमान है : “मोक्षेधीर्ज्ञानं अन्य विज्ञानं शिल्पशास्त्रयो”- मोक्षवती प्रज्ञा को ‘ज्ञान’ तथा शिल्पशास्त्र के ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। परंतु इस धारणा के पीछे भी ‘विज्ञान’ की उपर्युक्त दार्शनिक धारणा ही है। यदि शंकर और रामानुज के मतों को मिलाकर हम देखें तो ज्ञात होगा, प्रत्यक्षानुभूति पर आश्रित (शंकरमतानुरूप) और अपरा प्रकृति के तत्त्वों का पृथक-पृथक ज्ञान (रामानुज मतानुसार) ही ‘विज्ञान’ है। शंकर-रामानुज के इस सम्मिलित सूक्ष्म आइडिया को ‘अमरकोश’ में बहुत स्थूल ढंग से कह दिया गया है कि मोक्ष का ज्ञान ‘ज्ञान’ है, शेष शिल्पशास्त्रविद् ज्ञान ‘विज्ञान’ है। परमहंसों, योगियों, कवियों, अवैदिक विद्याओं-शिल्पों और दर्शनों के आविष्कर्ता मुनिगण, आगमपंथी, साधकगण और आचार्यगण (जिनके लिए ‘मुनि’ शब्द आता है जबकि ‘ऋषि’ शब्द मूलतः वैदिक विद्याओं के आचार्यों के लिए सुरक्षित है), ये सभी के सभी विज्ञानी हैं और ‘विज्ञान’ शब्द का अर्थ ‘विशिष्ट ज्ञान’, ‘अपरा प्रकृति का ज्ञान’, ‘अति मानवीय’ ‘दिव्यदृष्टि’ (Revelation), योगदृष्टि, प्रातिभ ज्ञान (Intuition) और कल्पना के साथ-साथ ‘भिन्न’ (विशिष्ट) प्रकार का ज्ञान तथा शिल्प आयुर्वेदादि का ज्ञान, यह सभी कुछ हो सकता है। शब्द को मूलतः तो सूक्ष्मतम प्रातिभ अनुभूतियों के बोध के लिए प्रयोग किया गया था। पर बाद में इसका विकास स्थूल अर्थ तक हो गया ।

 

गोसाईजी ‘विज्ञानी’ शब्द का प्रयोग ‘अमरकोश’ वाले स्थूलार्थ में नहीं करते हैं। उनके ‘विज्ञानी’ का संबंध सीधे-सीधे ‘अतिमानस’ और ‘पराभौतिक’ जगत् से है जो योगियों और कवियों का अनुभव जगत् है। योग और प्रत्यक्षानुभूति है। योग का अर्थ ही है प्रमाता और प्रमेय के प्रत्यक्ष योग-सूत्र की स्थापना। योगी अपने का प्रत्यक्षदर्शी होता है वह अनुमान या शब्द प्रमाण के फेर में नहीं पड़ता। गोसाईजी ने ‘विज्ञानी’ शब्द को इसी ‘योगी’ और ‘मुनि’ के अर्थ में लिया है। ‘उचित कहेउ मुनिवर विज्ञानी।’ ‘वैद न देइ सुनहु मुनि योगी।’ ‘तुम विज्ञान रूप नहिं मोहा।’ आदि प्रयोगों में तथा भगवान् को बार-बार ‘विज्ञान धामा वुभौ’ कहने से पता चलता है कि गोसाईंजी ने ‘विज्ञान’ शब्द का प्रयोग इसके प्राचीन एवं सूक्ष्म अर्थ में ही किया है और इसका संबंध ‘ऊर्ध्वचेतन’ (Super-concious) से है जो सारे प्रातिभ ज्ञानों (Intuition) और दिव्य दृष्टियों (Revelation) का मूल है एवं जिसे श्रीमद्भागवत ने ‘सरस्वती’ या ‘सिसृक्षा-प्रज्ञा’ के रूप में देखा है :

 

प्रचोदिता येन पुरा ‘सरस्वती’ वितन्वता कस्य स्मृति हृदि

स्वलक्षणा प्रादुर्भूत किलास्यतः समें ऋषीणाम् ऋषभः प्रसीदताम्।”

 

यहां ‘सरस्वती’ का तात्पर्य है ‘विज्ञान’ (प्रातिभज्ञान और दिव्यदृष्टि) जिसको ब्रह्मा के मन में प्रभु ने आदिकाल में ही जागृत किया। यह ‘विज्ञान’ या ‘सरस्वती’ तर्कबुद्धि (Reason) प्रमाण और बुद्धि पर आश्रित नहीं बल्कि उससे अधिक श्रेष्ठता, मानसिक शक्ति हैं जो पंडितों और ज्ञानमार्गी संन्यासियों को नहीं; बल्कि मुनियों, कवियों और योगियों तथा मंत्रों को ही प्राप्त होती हैं। इसी से गोसाईंजी कहते हैं :

 

तिन्हमँह द्विज, द्विज मँह श्रुतिधारी।

तिनमँह निगम धर्म-अधिकारी।।

तिनमँह पुनि विरक्त पुनि ज्ञानी।

ज्ञानिहुँ ते प्रिय मोंहि विज्ञानी।।

तिन्हते प्रिय पुनि मोहि निजदासा।

जेहि गति मोहि न दूसर आसा।।”

यहां ‘द्विज’ का अर्थ है ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य’। श्रुतिधारी का अर्थ है वैदिक विद्याओं का ज्ञाता ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य। निगम-धर्म अधिकारी का अर्थ है संस्कार प्राप्त द्विज (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) जिसे वैदिक धर्म पालन करने का अधिकार है। मुनि का अर्थ है अवैदिक विद्याओं का, सांख्ययोगादि शास्त्रों का एवं काव्य-संगीत-शिल्प आदि का पंडित। ये गृहस्थ भी हो सकते हैं, विरक्त भी। विरक्त मुनियों में दानी श्रेष्ठतर है और ज्ञानी विरक्तों में भी जो ‘विज्ञानी’ है, जो ‘योगी’ है, जिसे सांख्य-योग-काव्य आदि की मूल अनुभूतियों का प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि पाने की क्षमता प्राप्त है, वे श्रेष्ठतर हैं। परंतु इन सारे लोगों से परमशरणागति में आश्रित भक्त ही श्रेष्ठतर है चाहे वह जिस जाति, कुल, शिक्षा और पदवी वाला हो। भक्त चाहे डोम-चमार- धोबी क्यों न हो, चाहे वह निरक्षर और भिखमंगा क्यों न हो, वह किसी भी द्विज, विरक्त, मुनि, ज्ञानी, विज्ञानी से श्रेष्ठतर है। यही गोसाईजी की उक्तियों का मर्म है। जीव गोस्वामी का ‘रासपंचाध्यायी’ की टीका में कथन है कि ब्रह्म से श्रेष्ठ है परमात्मा, परमात्मा से श्रेष्ठ है भगवान्। अतः ब्रह्म के ज्ञाता ‘ज्ञानी’ से श्रेष्ठ है परमात्मा का ज्ञाता ‘विज्ञानी’ (योगी) और ‘विज्ञानी’ या योगी से भी श्रेष्ठतर है भगवान् के प्रति समर्पित ‘भक्त’। ‘विज्ञानी’ तो ज्ञान की ‘बुद्धि’ से भी श्रेष्ठतर मनोभूमि ऊर्ध्वचेतन, प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि से संपन्न होता है।

 


          वाल्मीकि कवि हैं और हनुमान यती और भक्त। यतता और जितेंद्रियता दोनों योग मार्ग के गुण हैं। ये दोनों गुण मारुति में विद्यमान हैं परंतु इनसे भी बढ़कर उनके चरित्र का केंद्रीय गुण है ‘भक्ति’। योग दर्शन के विभूति पाद में वर्णित काव्य संपदा (रूपलावण्यबलवज्ज्र संहननत्वादि… जितेंद्रियता, मनोजवित्व, पंचभूत-जय, अष्टसिद्धि आदि) मारुति को उपलब्ध है। परंतु ये सब उनकी प्रासंगिक विशेषताएं हैं। मूल विशेषता है ‘भक्ति’। भक्ति का योगानुभूति से क्या संबंध है? योग-दर्शन के अनुसार समाधि दो प्रकार की होती है- सविकल्प और निर्विकल्प। भक्ति और काव्य दोनों ‘सविकल्प समाधि’ से संबंधित है। ‘विकल्प’ का अर्थ है, ‘विकल्पना’ या ‘कल्पना’। पातंजलि योगदर्शन में कहा गया है: “शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।” अर्थात् विकल्प का ज्ञान शब्द (संज्ञा-सर्वनाम-क्रियादि) के अनुरूप ही होता है परंतु वह वस्तु शून्यता में (वस्तु की अनुपस्थिति या आवर्त्तमानता में) घटित होता है। अर्थात् अविद्यमान वस्तु की ज्ञात शब्द-बिम्बों के आधार पर कल्पना करना विकल्प है। जब समाधि में स्थूल रूपों (यथा फूल, चंदन, तारा, नारी, मनुष्यलोक, गंधर्वलोक आदि) का विकल्प प्राप्त हो तो वह ‘सविकल्प’ समाधि है। जब समाधि में सूक्ष्म रूपों का या ईश्वर को अशरीरी उपस्थिति के आभास का या निर्वैयक्तिक परम सत्ताओं का (जैसे गीता का विभूति दर्शन योग) विकल्प प्राप्त होने लगे तो यह ‘सविचार’ समाधि है। ‘सविचार’ और ‘सविकल्प’ दोनों प्रकार की समाधियां ‘सबीज’ समाधि के भेद हैं। कवि और योगी का प्रवेश दोनों में है, परंतु प्रथम है काव्य की मूल मनोभूमि और दूसरी है योगी की। भक्त की अबाधगति दोनों क्षेत्रों में है। योगी इनके अतिरिक्त निर्विकल्प -निर्विकार समाधियों में विचरण करता है तथा इन चारों को पार कर शुद्ध निराकार निर्गुण की भूमि ‘निर्बीज’ समाधि में भी प्रवेश कर जाता है। परंतु कवि को ‘सविकल्प’ और ‘सविचार’ समाधियों से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ‘निर्बीज’ समाधि तो शब्दातीत, रूपातीत, निर्गुण, निराकार, अनुभवों का क्षेत्र है जिसकी भाषा है मौन, एक ऐसा अगाध-अतल मौन जिसकी अभिव्यक्ति देने में भाषा के सारे बिंब और अनुभव के सारे ‘सांचे’ अक्षम हैं। अतः उस समाधि से भाषा के उपासक कवि का और सगुण परमात्मा के उपासक भक्त का क्या सरोकार? कवि और भक्त को तो ‘भावानुप्रवेश’ और ‘ध्यान’ चाहिए और ध्यान-योग के सारे उपकरण सविकल्प और सविचार समाधियों में ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके आगे की समाधि में योगीजन प्रवेश करते हैं। कवि और भक्त का उद्देश्य इतने से ही सिद्ध हो जाता है। इसके बाद यदि भक्त को कुछ चाहिए तो वह है भगवद् करुणा। वह योग, यत्न या प्रयत्न से नहीं आती बल्कि वह ऊपर से बरसती है। यह भगवद् करुणा योगी के लिए भी आवश्यक है। इसके बिना उसका योग मात्र हठयोग रह जाता है। रामचरितमानस में कवि वाल्मीकि और भक्त हनुमान को ‘विज्ञानी’ अर्थात् ‘योगी’ कहकर कविता और भक्ति की इसी यौगिक ‘मर्मी’ विशेषता या ‘रहस्य’ को उद्घाटित किया गया है। यह ‘विशुद्ध विज्ञानौ’ उपाधि इस बात का संकेत करती है कि कविता, भक्ति और योग तीनों के बीच मात्रागत भेद अवश्य है परंतु तत्त्वतः तीनों एक ही प्रकार की उपासनाएं हैं जिनका प्रस्थान एक है। भगवान् की भक्ति स्वयं में एक कविता है, संभवतः विशुद्धतम कविता। इसी अर्थ में किसी ने कहा है: “Christionity is a pathetic poem sung by Jesus.” सारा वैष्णव धर्म ही एक मनोहर ‘काव्य’ है और एक रागतरंगायित ‘भाव-योग’ है।

 

अनेक ज्ञानमार्गी आचार्यों ने भी भक्ति को ज्ञान से योग से बढ़कर कहा है और ज्ञान से भी श्रेष्ठतर माना है। मधुसूदन सरस्वती जैसे वेदांती ने, जिन्होंने सुरेश्वराचार्य के वार्तिक की टीका लिखी है, अपने निर्गुण निराकार ब्रह्म को मानते हुए भी अंत में स्वीकार किया है-

 

ध्यानाभ्यास वशीकृतेन मनसा यत् निर्गुणं निष्क्रियं।

ज्योतिः किञ्चन योगिनो यत् परं पश्यन्ति पश्यन्तुते।

अस्माकं तु तदैवलोचन चमत्काराय भूयाच्चिरम्।

कालिन्दी पुलिनेषु यत् किमपि तन्नीलमहो धावति।”

 

यह सही है कि ‘निर्विकार’ समाधि के बाद ‘ऋतंभरा प्रज्ञा’ का उदय होता है जो ‘निर्बीज’ समाधि का द्वार खोल देती है और योगी को महाविदेहा स्थिति में ले जाती है एवं कैवल्य परम पद प्राप्त करती है। परंतु भक्तिमार्गी इस कैवल्य परम पद को बार-बार अस्वीकृत करके पुनः पुनः जन्म लेना चाहता है लीला-रस के आस्वादन के लिए। इसी से वैष्णव लोगों के अनुसार ऋतंभरा प्रज्ञा-प्राप्त योगीगण भी भक्तों से नीचे हैं। भक्त ‘विज्ञानी’ या ‘योगी’ से भी श्रेष्ठतर विशुद्ध विज्ञानी होता है। महाविदेह स्थिति के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ बोध में ‘अहं’ रह ही जाता है यद्यपि उस अहं में नाम-रूप-आकृति सब कुछ विराट् ब्रह्ममय हो जाता है। परंतु भक्ति में इतनी क्षमता है कि ब्रह्म या भगवान् से भिन्न रहकर भी भक्त अपने ‘अहं’ को प्रसाद बना देता है और उसे समस्त सृष्टि में जन-जन को बांट देता है। यह स्वयं का वितरण निश्चय ही ‘अहं’ के दमन द्वारा त्याग से श्रेष्ठतर और स्वस्थतर है।

 


परमहंसों, योगियों और गोसाइयों का सौंदर्यबोध श्रेष्ठतम काव्य होता है। ये सविकल्प समाधि में प्रवेश करके अपने ‘ह्लादिनी’ बोध या सौंदर्यबोध को काव्य-रूपक में प्रस्तुत करते हैं। जीवात्मा अपने जन्म-जन्मांतर की मधुमयी रात्रियों का मधु एक बिंदु पर केंद्रित करके अपनी विकल्प रूपी प्रेमिकाओं के साथ इसी सविकल्प समाधि के भीतर रास रचती है। यह जीवात्मा ही प्रत्येक हृदय में स्थित श्रीकृष्ण है और ‘ह्लादिनी’ के विविध बिंब, जो सविकल्प समाधि में उदित होते हैं, विविध ‘लीला-वधुएं’ हैं। सविकल्प समाधि एक क्षीर समुद्र है जिस पर यह नित्य काव्यानुभूति अभिनीत होती है। वल्लभाचार्य ने अपनी ‘कारिका’ के प्रारंभ में इसी तथ्य का संकेत किया है-

 

नमामि हृदयशेषे लीला क्षीराब्धि शायिनम्,

लक्ष्मी सहस्र लीलाभिः सेव्यमानं कलानिधिम्।”

 

सौंदर्यबोध ‘योग’ का ही एक भेद है जिसे जीवात्मा की सोमकला रूप ‘श्रीकृष्ण’ नित्य भोग रहे हैं, परंतु इस भोग का सचेत अनुभव होता है कवि को सविकल्प समाधि में प्रवेश करके। योगानुभूति और काव्यानुभूति दोनों सजातीय हैं। अवश्य ही शुद्ध रसबोध की स्थिति में ही यह संभव है जब मन रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वोद्रेक से समृद्ध होता है और वासना-पंक से रहित और निर्मल रहता है। नित्यनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का क्षेत्र योग की सविकल्प समाधि ही है। डॉ0 नगेन्द्र का मत है कि काव्यशास्त्र में प्रचलित ‘प्रतिभा’ की धारणा का विकास योगदर्शन की ‘प्रज्ञा’ और प्रातिभ-ज्ञान की धारणाओं के आधार पर कल्पित हुआ ज्ञात होता है ।

 

गोसाइँजी के दोनों विशुद्ध ‘विज्ञानी’ कवि वाल्मीकि और भक्त हनुमान सीताराम के गुणग्राम के पुण्यारण्य में नित्य विहार करते हैं। यह पुण्यारण्य है भक्त का अपना मानस चित्रकूट, जिसमें मानसी मंदाकिनी प्रवाहित है। अयोध्याकांड में रामचंद्र वाल्मीकि से पूछते हैं कि वे अपने अरण्यवास के लिए आश्रम कहां पर निर्मित करें। इस प्रश्न का वाल्मीकि जो उत्तर देते हैं वह चमत्कारपूर्ण होने के साथ-साथ उस ‘मानस चित्रकूट’ का सांगोपांग वर्णन है (अयोध्याकांड : दोहा संख्या 126 से 130 तक)। इन चौपाइयों में भक्ति के 14 आदर्श उपस्थित किए गए हैं और वाल्मीकि का निवेदन है कि ऐसे लक्षणों से संपन्न मानस अरण्य में ही राम अपना ‘बासा’ बांधे। उनकी उपस्थिति से समृद्ध मानस अरण्य में भक्त भी नित्य विहार करता है, क्योंकि भक्त वहीं रहेगा जहां उसका भगवान्। एक समय था कि वाल्मीकि अपने काम, क्रोध, लोभ आदि संगियों के साथ नित्य घोर अरण्य-विहार करते थे। उन्हें ज्ञात नहीं था कि उनके मन में ही कल्पवृक्षों का एक अद्भुत वन उगाया जा सकता है। तब उनका मानस एक तृषा-दग्ध मरु था। परंतु राम-राम जपते हुए उन्होंने इस मर्म को आविष्कृत किया कि उनके मानस मरु में कल्पवृक्षों के अंकुर फूट रहे हैं और जब यह जप चरम सीमा पर पहुंचा तो वे अंकुर कल्प-पारिजातों में परिवर्धित हो गए और उन्होंने उस कल्प-पारिजात वन के मध्य अपने परम पवित्र देवता और नायक का सिंहासन स्थापित किया ‘रामायण’ लिखकर।  इसी मानस कल्पवन् या मानस चित्रकूट को इस श्लोक में ‘पुण्यारण्य’ कहा गया है। यह पुण्यारण्य प्रत्येक कवि, कलाकार और भक्त के मन में सहज रूप से और अनिवार्य रूप से आता है और वृद्धि पाता है। यही सविकल्प समाधि का चित्रकूट है। वाल्मीकि और हनुमान ही नहीं, गोसाईं तुलसीदास के मानस लोक में भी ऐसा ही एक पुण्यारण्य था, जिसके कल्पवृक्षों के पत्तों पर ‘मानस पत्रिका’, ‘कवितावली’ आदि लिख-लिखकर उन्होंने अपने अंतर की तमसा को पराजित किया और बाहर-बाहर के युग के हृदय में व्याप्त तमोगुण से लड़ने की प्रेरणा भविष्य के उत्तरकालीन पुरुषों को प्रदान की है। यही कारण है कि महाकाव्य के अंतिम श्लोक में उन्होंने ‘स्वांतः तमः शान्तये’ की बात की है ‘स्वांतः सुखाय’ की नहीं । यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो ‘सुख’ अंतर की क्रुद्ध तमसा की ‘शांति’ का ही दूसरा नाम है।


                             

(जनवरी 1975, वीणा में पहली बार प्रकाशित। ‘महाकवि की तर्जनी’ संग्रह में संकलित )

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

इतिहास और शुक-सारिका कथा

                              -कुबेरनाथ राय    

    आज का साधारण भारतीय, विशेषतः मूर्तिपूजक वर्ग, अपनी बुद्धि को भारतीय राजनीति के केंद्रीय और प्रांतीय पुरोहितों के चरणों पर सौंपकर बड़े मौज की तंद्रा में लीन है। आखिर जब घोड़ा बेच ही दिया तो फिर जुम्मन को घास काटने की फिक्र क्यों सताये! इधर गत वर्ष देश में प्रांतीयता और ‘मजहब’ के नाम पर काफी रक्तपात हुआ। श्वान-पुच्छ न्याय से पुरानी बातें फिर लौटी। सरदार पटेल और गांधी जी भी सभी को याद आने लगे। राष्ट्र के कर्णधारों ने सोच समझकर तथ्य ढूंढ निकाला कि इन सारे खुराफातों की जड़ इस देश का इतिहास ही है। अतः क्यों न सर्वप्रथम उसे ही दुरुस्त किया जाए! फिर क्या था ? गली-कूचे, बाग-बाजार हर जगह, लोकसभाई विधानसभाई बंधुओं से लेकर प्रांत-पतियों और भारत-भाग्य-विधाता के मनसबदारों तक, सभी एक स्वर से कीर-वचन बोल उठे। राष्ट्रीयता का सैलाब आ गया। ‘भावात्मक एकता’ की चर्चा ऐसी चली कि राष्ट्र का सारा बौद्धिक समाज डूब गया। सबने महसूस किया, इतिहास फिर से लिखा जाय। जितने संघर्षपूर्ण स्थल हैं उन्हें या तो हटा दिया जाय या इस रूप में संशोधित किया जाए कि वे ‘कुश्ती’ की जगह ‘आलिंगन’ प्रतीत हों । प्रस्ताव की भलमनसाहत से किसी को एतराज नहीं ! बिल्कुल भोली-भाली बात है, -बाल-सुलभ, हर एक अर्थ में बाल-सुलभ। पर इतिहासकार का दायित्व क्या है ? क्या यह सिद्धांततः उचित है कि साहित्य और इतिहास, जो विशेषज्ञों से संबंधित क्षेत्र हैं, एक विशेष नीति या पूर्वाग्रह स्थापित करके लिखे जाएँ चाहे उस नीति का सामाजिक महत्त्व कितना भी अधिक क्यों न हो ? क्या यह संभव नहीं कि व्यक्तिगत रूप से ऐसी छूट पा जाने पर इतिहासकार गण अपने वर्गों के निहित स्वार्थों के लिए इस सद्भावना पूर्ण लक्ष्य का दुरुपयोग करेंगे ? क्या यह कदम मार्क्सवादियों की इतिहास की “पॉजीटिव व्याख्या” ‘पुनराकलन’ (रिवीजन) और ‘दिमाग परिष्कार’ (ब्रेनवाशिंग) का रूप आगे चल कर नहीं धारण कर सकता? इतिहासकार की अपनी एक मर्यादा होती है। उस मर्यादा को सरकारी नीति से निगड़-बद्ध करने की यह प्रथम ‘भूमिका’ (यदि ‘प्रयास’ नहीं तो) समस्त भारत के बुद्धिजीवियों के सामने एक चुनौती, एक प्रश्नचिह्न उपस्थित करती है।

Kubernath Rai

प्रस्ताव का कल्पित अर्थ और फल

तथ्यों के ज्ञापन या अध्ययन की दो प्रक्रियाएँ होती हैं। ‘रिजनिंग’ (विवेचन) और ‘रेशनलाइजेशन’ (ऊहा)। किसी सच्ची बात को सिद्ध करने के लिए जो तर्क पेश किए जाते हैं वह तो है ‘रिजनिंग’। किसी मिथ्या की वकालत के लिए जो तर्क बनाए जाते हैं वह है ‘ऊहा’ या ‘रेशनलाइजेशन’। ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकारी इतिहास नीति ‘ऊहा’ की ओर अधिक बल देने वाली है। पर इस निष्कर्ष से पूर्व हम इसके लक्ष्य आदि पर प्रथम विचार करें तो अच्छा है।

जहाँ तक लक्ष्य का प्रश्न है इसकी ईमानदारी में किसी को शक नहीं हो सकता। भूमिति के साध्यों में प्रतिज्ञा कथन के दो भाग होते हैं : कल्पित अर्थ और फल। प्रस्ताव के कल्पित अर्थ से कोई एतराज नहीं।

इतिहास-संशोधन के प्रधान व्याख्याता और हमारी ‘संस्कृति’ के सरकारी विधाता प्रोफेसर हुमायूं कबीर ने हाल ही में एक लेख लिखा है ‘भारत की राष्ट्रीय एकता’ जो इस देश के अनेक दैनिक पत्रों में प्रकाशित हुआ है। उसमें सरकार की इतिहास नीति का भी एक स्पष्ट आकलन मिलता है। लेख का प्रारंभ इस प्रकार होता है- “भारत के इतिहास में एक ओर तो धर्म और संस्कृति के आधार एकत्व की ओर झुकाव दिखायी पड़ता है दूसरी ओर भाषा, रीति-रिवाज, राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ के आधार पर टुकड़े-टुकड़े में विभक्त होने की प्रवृत्ति विद्यमान है।” प्रोफेसर कबीर का यह प्रारंभिक कथन ही भ्रामक और आधारहीन है। भाषा या राजनीतिक आधारों पर देश विगत काल में भी विभक्त था पर उस विभक्तता को हमने कभी भी ‘महसूस’ नहीं किया। हमने कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि तमिलनाडु या बंगाल अलग राष्ट्र हैं-आर्य परंपरा (वैदिक्, द्रविड़, हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आदि), संस्कृत भाषा और उसकी उत्तराधिकारिणी सधुक्कड़ी हिंदी, ये दो सूत्र देश की एकता के विधायक सदैव रहे। भाषा और रीति-रिवाजों के आधार पर नेहरू-युग में संघर्ष का सूत्रपात हुआ और इसका बीज उन लोगों के भाषणों में निहित है जिनमें भारतवर्ष में सर्वप्रथम ‘हिंदी इंपीरियलिज्म’ (हिंदी साम्राज्यवाद) शब्द की रचना की गयी। गांधी युग में भी भाषा के आधार पर संघर्ष का कहीं भी वृहद रूप नहीं दिखाई देता। ऊपर के वक्तव्य में सत्य को उल्टा रखकर देखने की चेष्टा की गयी है। भारत के प्राचीन इतिहास में संघर्ष हुआ है पर विजातीय तत्त्वों के साथ। अंत में वे विजातीय तत्त्व आत्मसात हो गये और शेष आत्मसात होने की प्रक्रिया में हैं। पर यह सब एक स्वाभाविक नियम के अनुसार होगा, न कि सरकारी कानून द्वारा। 

आगे चलकर प्रोफेसर कबीर भी विजातीयता को दबी जुबान से संघर्ष का मूल कारण मानते हुए प्रतीत होते है। उनका कथन है कि बहुत थोड़े से भारतीय ऐसे है जो भारत के “संपूर्ण सांस्कृतिक उत्तराधिकार” को अपना निजी समझते हैं और ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं जो अपने वर्ग विशेष की संस्कृति और इतिहास को ही महत्त्व देकर अपने को धन्य मानते हैं। मुसलमान प्राचीन भारत के नायकों यथा राम, कृष्ण, व्यास, अशोक, चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य आदि को अपना नहीं मानते हैं। उनके नायकों की विचारधारा विदेशी आक्रमणकारियों से चलती है- यथा- महमूद गजनवी, गौरी आदि। हिंदू भी शेरशाह, अकबर और बहादुर शाह के प्रति वैसी भक्ति नहीं दिखाते। प्रोफेसर कबीर की स्पष्टवादिता की हम सराहना ही करेंगे। यह देश के लिए दुर्भाग्य-सूचक है कि ‘भारतीय इतिहास’ को हम ‘हिंदू इतिहास’ या ‘मुस्लिम इतिहास’ के रूप में पढ़ें। अतः प्रोफेसर कबीर का यह निष्कर्ष कि भारतीय इतिहास को अ-सांप्रदायिक रूप दिया जाय, इससे असहमत होने का कोई कारण नहीं। 

आपत्ति का धरातल

    तब प्रश्न उठता है कि आपत्ति और मतभेद की गुंजाइश कहाँ है, जब हम मूलतः स्वीकार कर लेते हैं कि भारतीय इतिहास असांप्रदायिक रूप में लिखा जाय ? मतभेद का सूत्रपात है इस इतिहास के ‘भारतीयकरण’ की प्रणाली पर। व्यक्तिगत और वर्गगत पूर्वाग्रहों से रहित सत्य अर्थात ‘निष्पक्ष सत्य’ का उद्घाटन तो इतिहास का कर्तव्य ही है, इससे कौन इंकार करेगा ? पर जब इसका उपयोग इतिहासकार वकील की तरह करने लगेगा और असत्य की वकालत को ‘सत्य का संशोधन’ का रूप देने लगेगा, तब तो मतभेद अवश्य उपस्थित होगा। प्रोफेसर कबीर ने प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकों की चर्चा की है—उस चर्चा से ही ज्ञात होता है कि सरकार का किस प्रकार के इतिहास की ओर झुकाव है। जो पूर्वाग्रह सरकारी नीति से प्रारंभिक पुस्तकों में पोषित होगा, उसे सरकार उच्च स्तर पर भी प्रोत्साहन निश्चय ही देगी। अतः जब कोई अधिकारी प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकों के स्वरूप पर कोई बात करता है तो उस बात के अंदर सरकार की इतिहास-नीति का लघु-चित्र निहित है। बड़े पैमाने पर वही चित्र बड़ा बनकर आयेगा ही। प्रोफेसर कबीर का कथन है—“स्कूलों की प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकें केवल सच्ची बातें ही बतायें, परंतु यह आवश्यक नहीं कि प्रारंभिक इतिहास में ‘पूर्ण सत्य’ दिया जाय। प्रारंभिक इतिहास में केवल गिने-चुने प्रसंग ही रहें और वे सब प्रसंग जो विविध वर्गों या संप्रदायों के संघर्ष एवं घात-प्रतिघात से संबंधित हैं, दिए जाएँ और इतिहास लेखन में भारतीय जीवन और संस्कृति में निहित पारस्परिक सहयोगिता पर बल दिया जाय”। अर्थात प्रारंभिक इतिहास पुस्तकों में (जो हायर सेकन्डरी स्कूलों तक चलेंगी) ‘पूर्ण सत्य’ देना आवश्यक नहीं। उनमें ‘अर्धसत्य’ या ‘संशोधित सत्य’ को ही मान्यता दी जाय, तो अच्छा है। 

बात ऊपर से देखने पर उतनी आपत्तिपूर्ण नहीं लगती, जितना उसके परिणाम-चिंतन पर। ‘संशोधित सत्य’ को मान्यता देकर हम ‘निष्पक्ष सत्य’ को उसके चरम अधिकार से वंचित करते हैं। अभी तक तो इतिहास का लक्ष्य था कि जहाँ तक हो सके, वह ‘निष्पक्ष’ और ‘पूर्वाग्रह-हीन’ सत्य उपस्थित करे। अब तो वह बात रही नहीं। अब तो एक माध्यमिक (सेकंडरी) ध्येय उसके बुनियादी ध्येय के ऊपर बैठा दिया गया है। किसी भी घटना या चरित्र के ऊपर ‘समग्रता’ से विचार करना, उक्त ध्येय के अनुसार, कठिन हो जाएगा। अलाउद्दीन खिलजी की लूट और रक्तपात विश्व के इतिहास में अतुलनीय है। उसने चीजों का भाव स्थिर करने की चेष्टा भी की थी। यह उसने किया था अपने लश्कर-खर्च को कम करने और हिंदू व्यापारियों के दमन के लिए। पर आज का इतिहासकार इसे वकील की तरह देखेगा। उसके मर्मांतक अत्याचारों की कथा तो राष्ट्रीयता के नाम पर दबा दी जायेगी, और उसका उक्त प्रयत्न एक अर्थशास्त्री दूरदर्शिता के रूप में देखा जाएगा। फलतः नये इतिहास में आयेगा – जन-नायक, एवं जन-मंगलकारी शासक के रूप में। पर क्या यह ‘सत्य’ का मज़ाक नहीं होगा ?

इतिहास के पुनराकलन एवं पुनर्गठन की आवश्यकता हम भी मानते हैं। पर ‘संशोधित सत्य’ के फार्मूले से इतिहास-लेखक अपने वर्ग के निहित स्वार्थों का भी पोषण कर सकते हैं, एक नये किस्म का पूर्वाग्रह गढ़ सकते हैं। श्री नेहरू ने एक ऐसा ही भ्रामक पूर्वाग्रह गढ़ने की चेष्टा ‘विश्व इतिहास की झलक’ में की है। अलाउद्दीन खिलजी के अध्याय में वे कहते हैं कि उक्त युग में अफगान भारतवर्ष को अपना घर समझकर अपने को भारतीय मानने लगे थे और हिंदुओं से शादी-ब्याह करने की चेष्टा उन्होंने की, एवं अलाउद्दीन की बीवियों में भी कई हिंदू थीं। (यह शब्द-प्रति-शब्द उद्धरण नहीं। पर श्री नेहरू के कथन का सारांश यही है।) गोया ऐसा सब हुआ हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के नाम पर ! पर इतिहास बताता है कि वास्तविकता क्या थी। यदि हिंदू पूर्वाग्रह या मुस्लिम पूर्वाग्रह से सत्य के आधे या चौथाई पहलू को देखते थे तो इस प्रकार के गढ़े पूर्वाग्रह से हमें सत्य का वह भाग भी नहीं दिखाई पड़ेगा। भूषण की कविताएँ आज की पाठ्य पुस्तकों में अनुपस्थित हैं। पद्मिनी हिंदू कुल में जन्म लेने के कारण भविष्य की पुस्तकों में जाति-बहिष्कृत हो जाएंगी। प्रताप एक कबीले का सरदार रह जाएगा और मानसिंह राष्ट्रीय नायक के रूप में आयेंगे। महाराष्ट्र वालों की चढ़ी –त्यौरियों का डर न रहा तो शिवाजी भी काल क्रम से...।

इधर स्वतंत्रता के बाद राजनीति कुछ इस प्रकार से हमारे जीवन के हर एक अंग में घुस गयी है कि हमें सत्य को छिपाना धर्म प्रतीत होने लगा है। किसी भी राष्ट्र के चरित्र की प्रथम एवं अंतिम कसौटी सत्य-ज्ञापन एवं सत्य-सहन की क्षमता। प्रौढ़ता का यही लक्षण है। पर हमें असत्य और सत्य को एक-दूसरे में गड्डमड्ड करना आज के राष्ट्र–कर्णधार ज्यादा सिखाते हैं। अनेक लेखक, नेता और एम.पी. तहे दिल से असत्य और अनर्थकारी तथ्यों को नापसंद करते हैं। वर्ग-विशेष या व्यक्ति-विशेष के नाखुश होने की चिंता अधिक है, उक्त सत्य के पालन और ज्ञापन की कम। इसी सिलसिले में एक “संतुलित निंदा” का नवीन सिद्धांत निकला है, जिसमें वादी-प्रतिवादी दोनों की बराबर निंदा करके सबके तुष्टीकरण की चेष्टा की जाती है। यही अगर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में होता है तो सजा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को भी साथ ही भुगतनी पड़ेगी। अथवा उक्त रक्तपात को ‘राष्ट्रीयता’ के नाम पर “चुप-चुप” करके दबा दिया जायेगा। इस “संतुलित निंदा” के आधार पर ही श्री दिनकर ने पाकिस्तान बनाने का श्रेय हिंदुओं को दिया है। प्रोफेसर कबीर ने औरंगजेब के अत्याचारों (लेखक ने ‘मुस्लिम’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है) का उदाहरण देते हुए उसकी भूमिका में ब्राह्मणों द्वारा किए गये ‘अत्याचारों’ की चर्चा इस प्रकार की है “जब अभिनव-ब्राह्मण धर्म के उदय से बौद्ध धर्म के प्रति अश्रद्धा या दमन का प्रारंभ हुआ तो भारत का पतन शुरू।” यदि दमन का भौतिक अर्थ लिया जाय तो इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर ब्राह्मण ने कभी रक्तपात नहीं किया। दो एक स्थानीय संघर्षों को छोड़कर भारत में धर्म के नाम पर हत्याकाण्ड इस्लाम के पूर्व कभी नहीं हुआ। रही अश्रद्धा की बात। वह तो बौद्धिक धरातल की वस्तु है। यदि बुद्धि ने यह सुझाया कि यह तथ्य श्रद्धा का पात्र नहीं तो इसे क्या औरंगजेब के अत्याचार के समानांतर रखा जाएगा ? पर ‘संतुलित-निंदा’ का राष्ट्रीय सिद्धांत यही कहता है। 

प्रोफेसर कबीर द्वारा ‘संशोधित’ सत्य

    प्रोफेसर कबीर के अनेक भाषणों और पुस्तकों में ऐसे ‘संशोधित सत्यों’ की भरमार है जो उन्होने ‘नवीन राष्ट्रीयता’ के नाम पर प्रसारित किया है। प्रोफेसर कबीर ने अपनी पुस्तक ‘आवर इंडियन हेरिटेज’ (‘भारत की सांस्कृतिक विरासत’ या ‘भारत का सांस्कृतिक उत्तराधिकार’) में हिंदू और इस्लामी संस्कृतियों का ऐक्य दिखाने की चेष्टा करते हुए बताया है कि बहुत संभव है कि शंकराचार्य ने अद्वैत की शिक्षा इस्लाम से ग्रहण की हो। कितनी ज़बरदस्ती है ! दो शताब्दियों तक तो इस्लाम एक ‘अनुशासन संहिता’ मात्र रहा। ‘कुरान’ के वर्तमान संस्करण में भी दर्शन नाम की वस्तु अत्यल्प है। बाद में ग्रीक प्रभाव के फलस्वरूप (या भारतीय प्रभाव के फलस्वरूप) उसमें अद्वैत लाने की चेष्टा इमाम गजाली जैसी प्रतिभाओं ने की जो 10वीं एवं 11वीं शती में उत्पन्न हुई। फिर भी इस चेष्टा से इस्लाम में एकेश्वरवाद को दार्शनिक धरातल मात्र ही मिला। उसे अद्वैत कहना बुद्धि की बलिहारी है। ‘एकेश्वरवाद’ और अद्वैतवाद’ में एक भेद होता है। यह साधारण दार्शनिक भी जानता है। मुहम्मद साहब का जन्म होता है 6वीं शती पूर्व, और उपनिषदों की रचना है गौतम बुद्ध से कम से कम 500 वर्ष पूर्व। ऐसी स्थिति में शंकर को इस्लाम का ऋणी बताना बौद्धिक अराजकता है, चाहे उद्देश्य कितना भी सुंदर क्यों न हो। अराजकता का वास्तविक श्रेय श्री कबीर को नहीं बल्कि “कांग्रेसी” इतिहासकार एवं नेहरू-दरबार के मनसबदार श्री ताराचंद को है।

प्रोफेसर कबीर द्वारा ‘संशोधित सत्य’ का दूसरा उदाहरण उनके “गोहाटी वि.वि.—कमला-लेक्चर” में मिलता है जब उन्होंने अपने शोध का यह तत्त्व प्रस्तुत किया है कि भारत में इस्लाम का प्रवेश आक्रामक रूप में नहीं बल्कि व्यापारी एवं नाविक-संगठन के रूप में हुआ है। इसी संशोधित सत्य का उदाहरण प्रोफेसर कबीर का विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए “हिंदुस्तानी” को विधान-सम्मत राष्ट्र भाषा बताना भी है जिस पर ‘सरस्वती’ संपादक पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने कड़ी टीका की थी। 

इसी प्रकार अन्य उदाहरण प्रोफेसर कबीर के श्री मुख से निकले अनेक वचनों से दिए जा सकते हैं। जब श्री सुनीति कुमार चटर्जी और श्री सुकुमार सेन दशकों पूर्व बहुत पहले से ही असमिया को स्वतंत्र भाषा मानते आ रहे हैं, तो हमारे प्रोफेसर ने 1952 में वक्तव्य दिया था कि ‘असमिया’ बंगला की एक बोली-मात्र है। इसका उल्लेख गत वर्ष असमिया के प्रधान साहित्यकार श्री अंबिका गिरि चौधरी ने किया था। इन पंक्तियों का लेखक प्रोफेसर कबीर की व्यक्तिगत प्रतिभा एवं उनकी देशभक्ति का कायल है। पर राष्ट्रीय स्तर पर तथ्यों की तोड़-मरोड़ का विरोध हरेक भारतीय द्वारा होना चाहिए, विशेषतः जब कि तथ्यों का संबंध संस्कृति और इतिहास से है। संस्कृति के विकारों का निराकरण निष्पक्ष होकर करना आवश्यक है, पूर्वाग्रह लेकर नहीं। यदि आज का ‘हरिजनोद्धार’‘ब्राह्मण दमन’ का रूप धारण कर ले, तो उसका समर्थन कोई भी विवेकशील व्यक्ति नहीं करेगा। 

ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि सरकार द्वारा प्रसारित नीति की भावी दिशा क्या होगी। जिस देश के नागरिकों का पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, शिव-अशिव दोनों को राजनीति के नाम पर समान पूजा देकर स्वीकृति करने की प्रेरणा दी जाती है, उस राष्ट्र की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक बरबादी निश्चित है। 


इतिहास-लेखन : एक कठोर संयम

संन्यासी और इतिहासकार दोनों को चराचर-जितेंद्रिय होना चाहिए। जिस प्रकार संन्यासी व्यक्तिगत भावों और पूर्वाग्रहों का दमन कर के विश्व के प्रति कठोर वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) दृष्टि रखता है उसी प्रकार इतिहासकार को भी व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और वर्गगत स्वार्थों की वंचनापूर्ण मरीचिका में, जल-कमल न्याय से, निर्विकार रहना चाहिए। इतिहास-लेखक के लिए ऐसे आत्म-संयम की घोर आवश्यकता है और इसी अर्थ में वह ‘जितेंद्रिय’ है। इतिहासकार पर साधारणतः तीन प्रकार के पूर्वाग्रह काम करते हैं : धरातल, दिशा और बिंदु। उसके दृष्टिकोण पर इन तीनों तथ्यों का प्रभाव पड़ता है। एक ही तथ्य प्रांतीय धरातल पर एक विशिष्ट प्रकार का महत्त्व रखता है और देशगत धरातल पर दूसरे प्रकार का। प्लासी की हार बंग-धरातल पर नवाब की हार थी, अखिल भारतीय धरातल पर अँग्रेजी साम्राज्य का बीजारोपण बनी तथा विश्व-धरातल पर औद्योगिक क्रांति और आधुनिक सभ्यता के उदय एवं एशिया से मुस्लिम-दर्प के अंत की शुरुआत बन गयी। घटना एक ही रही। पर इतिहास के विविध धरातलों ने उसका महत्त्व अन्य प्रकारों से दिखाया। दूसरा नियामक तत्त्व है दृष्टिकोण की दिशा। आर्थिक दृष्टिकोण से लिखे गये भारतीय इतिहास में वास्कोडिगामा का आगमन पानीपत की तीसरी लड़ाई से कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में आएगा। यदि इतिहासकार की दिशा एक संप्रदाय विशेष का स्वार्थ है तो दूसरे संप्रदाय के चरित्रों पर वह सच्ची कलम नहीं चला सकता। बदायूँनी के दृष्टिकोण से अकबर कोई अच्छा बादशाह नहीं था, क्योंकि वह हिंदू-प्रजा से भी प्रेम करता था। दरबारी इतिहासकार सदैव राजा की तारीफ लिखते है क्योंकि उनका दृष्टिकोण चारु-कथन (या ‘चाटु-कथन’ कहिए) तक ही सीमित होता है। ‘रामचरित मानस’ की रूसी भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया गया है कि तुलसी ने रावण-युग के बहाने मुगल-युग का वर्णन किया है। खेद है कि मुगल-युग के इतिहासकार दरबारी लेखकों बादशाह-नामों पर ही अधिक निर्भर रहते हैं पर मध्य युग के हिंदी साहित्य के भक्तिवादी कवियों ने दैत्य का और जन-पीड़न का जो चित्र रावण या कंस या कलियुग की वक्रोक्ति से दिया है, उसे भूल जाते हैं। मुगल-युग का इतिहास ‘मानस’ के उत्तरकाण्ड के आधार पर रचित होना चाहिए। ‘उत्तरकाण्ड’ ही जनमत की करुणा और आत्म-निवेदन प्रस्तुत करता है। तीसरा इतिहासकार को प्रभावित करने वाला तथ्य है उसका स्थिति-बिंदु। दृष्टि-पथ का सिद्धांत चित्रकला का राजमार्ग है। दूर की चीज बड़ी होने पर भी छोटी नजर आती है। दृष्टिकोण या ‘पर्सपेक्टिव’ का प्रभाव इतिहासकार पर भी पड़ता है। भारत के अंदर साधारणतः लोग समझते हैं कि विश्व में जो कुछ हुआ वह यहीं हुआ। दूरदराज़ के यूरोपियन या गोरे इतिहासकार ‘ग्रीक’ की पुरखागिरी के सामने मिश्र, भारत या चीन की कोई कदर ही नहीं करते। आज के इतिहासकारों में विश्वगत धरातल से हरेक घटना के निरीक्षण करने का फैशन चला है। पर इसी स्थिति बिंदु के कारण वे भयंकर भूलें कर बैठते हैं। सबसे विचित्र निष्कर्ष कभी-कभी प्रोफेसर टॉयनबी देते हैं जिनकी विशालकाय पुस्तक ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ उनकी प्रतिभा का प्रमाण है। टॉयनबी महाशय ने अपनी पुस्तक ‘सभ्यता की परीक्षा’ (सिविलाइजेशन ऑन ट्रायल) में लिखा है कि हिंदू सभ्यता का उदय वैदिक् धर्म पर ग्रीक प्रभावों के कारण हुआ। भारतीय शिल्प पर विशेषतः गांधार शैली की मूर्तिकला पर, ग्रीक प्रभाव अवश्य है। थोड़ा बहुत ज्योतिष का प्रभाव पड़ा हो तो नहीं कह सकते, क्योंकि इस पर पर्याप्त मतभेद है। पर इतने से ही इतना बड़ा निष्कर्ष है कि सभ्यता पर ग्रीक सभ्यता के प्रभाव से ब्राह्मण या हिंदू सभ्यता का उदय हुआ, निरर्थक और अनर्थक प्रयास है तथा घोर पूर्वाग्रह का परिचायक है। 

प्रत्येक इतिहासकार को इन धरातल-गत, दिशागत और बिंदुगत पूर्वाग्रहों के बीच ‘निष्पक्ष सत्य’ खोजना पड़ता है। ‘निष्पक्ष सत्य’ ही उसका लक्ष्य बिंदु और आत्मसंयम (संभावित अंशों तक) उसकी साधना है। अभी तक चरम रूप में निष्पक्ष सत्य इतिहासकार को नहीं मिला है और न तो शायद मिलेगा। फिर भी सापेक्ष सत्य के लिए भी निष्पक्षता का आदर्श– “सत्य सत्य के लिए न कि एक नीति विशेष के लिए” यह नारा इतिहासकार के लिए अंधकार की लाठी है। इस लाठी के परित्याग करने पर उसके पास कोई मार्गदर्शक नहीं रह जायेगा। 

हम चाहते हैं कि भारतीय इतिहास निष्पक्ष और आत्म-संयम के साथ लिखा जाय, हिंदू और मुस्लिम, भाषा एवं पूर्वाग्रहों का परित्याग करके। मुस्लिम शासनकाल में केवल काले धब्बे ही नहीं, सुनहले बिंदु भी हैं। शेरशाह और अकबर, मीर कासिम और बहादुरशाह ऐसे ही सुनहले बिंदु हैं जिनका अभिनंदन हिंदू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई सभी उसी भांति करें जिस तरह से अशोक-विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी और रणजीत सिंह का करते हैं। उसी भाँति हिंदू-मुसलमान दोनों के अंदर सत्य सहने की इतनी क्षमता हो कि वे अत्याचारी की निंदा सहन कर सकें, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। प्रत्येक भारतीय को यह स्वीकार करना होगा कि मुहम्मद गौरी विदेशी आक्रामक था, पर शेरशाह एक स्वदेशी बंधु। शेरशाह को स्वदेशी स्वीकार करके गौरी के बारें में मौन धारण कर लेना या तो कायरता है अथवा भयंकर चालबाजी। यदि इतिहास सच्चा इतिहास है तो वह पूर्व और उत्तर दोनों पक्षों पर यही निर्भीक निर्णय देगा। यदि इस ऑब्जेक्टिव एवं निर्विकार बौद्धिकता को मानने की क्षमता देश के अंदर नहीं आई तो भावात्मक एकता कभी नहीं आयेगी। महमूद गजनवी को जब एक वर्ग अपना पुरखा मानता रहेगा, तो दूसरा वर्ग अपनी घृणा और अपमान को बिल्कुल भूलकर चुप रहेगा, यह सामाजिक मनोविज्ञान के प्रतिकूल है। कोई भी व्यक्ति जो मुसलमान था इसी से स्वदेशी माना जाना चाहिए, यह दुराग्रह देश को शायद ही स्वीकार होगा। साथ ही कोई भी व्यक्ति मुसलमान है, इसी से वह विजातीय है, यह भी उसी किस्म का दुराग्रह है जो तथ्य-हीन एवं भ्रामक है। नवीन भारतीय इतिहासकार इन दोनों दुराग्रहों से युद्ध कर के राष्ट्र को सत्य-दृष्टि प्रदान करें, यही हमारी कामना है। आज यदि वह इन दोनों दुराग्रहों को ललकारता नहीं है तो द्रोणाचार्य की तरह उसे राष्ट्र का चीरहरण फिर 1947 की तरह, देखना पड़ेगा। “सत्यं वद, धर्मं चर” की जय हो !

(सरस्वती, फरवरी 1962)


शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

उत्तराफाल्गुनी के आसपास : कुबेरनाथ राय

  वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार काल-तुरंग दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच। फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है। इसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में थकावट आने लगती है, 'अस्ति, जायते, वर्धते' - ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन 'विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति' प्रबलतर हो उठती हैं, उन्हें प्रदोष-बल मिल जाता है, वे शरीर में बैठे रिपुओं के साथ साँठ-गाँठ कर लेती हैं और फल होता है, जरा के आगमन का अनुभव। पैंतालीस के बाद ही शीश पर काश फूटना शुरू हो जाता है, वातावरण में लोमड़ी बोलने लगती है, शुक और सारिका उदास हो जाते हैं, मयूर अपने श्रृंगार-कलाप का त्याग कर देता है और मानस की उत्पलवर्णा मारकन्याएँ चोवा-चंदन और चित्रसारी त्याग कर प्रव्रज्या का बल्कल-वसन धारण कर लेती हैं। अतः बचपन भले निर्मल-प्रसन्न हो, गदहपचीसी भले ही 'मधु-मधुनी-मधूनि' हो; परंतु जीवन का वह भाग, जिस पर हमारे जन्म लेने की सार्थकता निर्भर है, पच्चीस और चालीस या ठेल-ठालकर पैंतालीस के बीच पड़ता है। इसके पूर्व हमारे जीवन की भूमिका या तैयारी का काल है और इसके बाद 'फलागम' या 'निमीसिस' (Nemesis) की प्रतीक्षा है। जो हमारे हाथ में था, जिसे करने के लिए हम जनमे थे, वह वस्तुतः घटित होता है पच्चीस और पैंतालीस के बीच। इसके बाद तो मन और बुद्धि के वानप्रस्थ लेने का काल है - देह भले ही 'एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु' साठ वर्ष तक भोगती चले। इस पच्चीस-पैंतालीस की अवधि में भी असल हीर रचती है तीसोत्तरी। तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है चालीसवें वर्ष तक। मुझे क्रोध आता है उन लोगों पर जो विधाता ब्रह्मा को बूढ़ा कहते हैं और चित्र में तथा प्रतिमा में उन्हें वयोवृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं। मैंने दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक बार ब्रह्मा की एक अत्यंत सुंदर तीसोत्तर युवा-मूर्ति को देखा था। देखकर ही मैं कलाकार की औचित्य-मीमांसा पर मुग्ध हो गया। जो सर्जक है, जो सृष्टिकर्त्ता है, वह निश्चय ही चिरयुवा होगा। प्राचीन या बहुकालीन का अर्थ जर्जर या बूढ़ा नहीं होता है। जो सर्जक है, पिता है, 'प्रॉफेट' है, नई लीक का जनक है, प्रजाता है, वह रूप-माधव या रोमैंटिक काम-किशोर भले ही न हो, परंतु वह दाँत-क्षरा, बाल-झरा, गलितम् पलितम् मुंडम् कैसे हो सकता है? उसे तो अनुभवी पुंगव तीसोत्तर युवा के रूप में ही स्वीकारना होगा। जवानी एक चमाचम धारदार खड्ग है। उस पर चढ़कर असिधाराव्रत या वीराचार करनेवाली प्रतिभा ही पावक-दग्ध होंठों से देवताओं की भाषा बोल पाती है। युवा अंग के पोर-पोर में फासफोरस जलता है और युवा-मन में उस फासफोरस का रूपांतर हजार-हजार सूर्यों के सम्मिलित पावक में हो जाता है। मेरी समझ से सृष्टिकर्त्ता की, कवि की, विप्लव नायक की, सेनापति की, शूरवीर की, विद्रोही की कल्पना श्वेतकेश वृद्ध के रूप में नहीं की जा सकती। अतः प्रजापति विधाता को सदैव तीस वर्ष के पट्ठे सुंदर, युवा के सुंदर रूप में ही कल्पित करना समीचीन है।

 

वास्तव में तीसवाँ वर्ष जीवन के सम्मुख फण उठाए एक प्रश्न-चिह्न को उपस्थित करता है और उस प्रश्न-चिह्न को पूरा-पूरा उसका समाधान-मूल्य हमें चुकाना ही पड़ता है। किसी भी पुरुष या नारी की कीर्ति-गरिमा, इसी प्रश्न-चिह्न की गुरुता और लघुता पर निर्भर करती है। गौतम बुद्ध ने उनतीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर अमृत के लिए महाभिनिष्क्रमण किया। यीशु क्राइस्ट ने तीस वर्ष की अवस्था में अपना प्रथम संदेश 'सरमन ऑन दी माउंट' (गिरिशिखिर-प्रजनन) दिया था और तैंतीसवें वर्ष में उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया। उनका समूचा उपदेश काल तीन वर्ष से भी कम रहा। वाल्मीकि के अनुसार रामचंद्र को भी तीस के आसपास ही (वास्तव में 27 वर्ष की वयस में) वनवास हुआ था। उस समय सीता की आयु अठारह वर्ष की थी और वनवास के तेरहवें वर्ष में अर्थात सीता के तीसवाँ पार करते-करते ही सीताहरण की ट्रेजेडी घटित हुई थी। अतः तीसवाँ वर्ष सदैव वरण के महामुहूर्त्त के रूप में आता है और संपूर्ण दशक उस वरण और तेज के दाह से अविष्ट रहता है। तीसोत्तर दशक जीवन का घनघोर कुरुक्षेत्र है। यह काल गदहपचीसी के विपरीत एक क्षुरधार काल है, जिस पर चढ़कर पुरुष या नारी अपने को अविष्कृत करते हैं, अपने मर्म और धर्म के प्रति अपने को सत्य करते हैं तथा अपनी अस्तित्वगत महिमा उद्घाटित करते हैं अथवा कम-से-कम ऐसा करने का अवसर तो अवश्य पाते हैं। चालीसा लगने के बाद पैंतालीस तक 'यथास्थिति' की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल उर्मियाँ परस्पर के संतुलित को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की ओर उन्मुख हो जाती है। इसके बाद अनुकूल उर्मियाँ स्पष्टतः थकहर होने लगती हैं और प्रतिकूल उर्मियाँ प्रबल होकर देह की गाँठ-गाँठ में बैठे रिपुओं से मेल कर बैठती हैं, मन हारने लगता है, सृष्टि अनाकर्षक और रति प्रतिकूल लगने लगती है, बुद्धि का तेज घट जाता है और वह स्वीकारपंथी (कनफर्मिस्ट) होने लगती है एवं आत्मा की दाहक तेजीमयी शक्ति पर विकार का धूम्र छाने लगता है। मैं तो यहाँ पर पैंतालीसवें वर्ष की बात कर रहा हूँ। परंतु मुझे स्मरण आती है दोस्तीव्हस्की - जिसने चालीस के बाद ही जीवन को धिक्कार दे दिया था : 'मैं चालीस वर्ष जी चुका। चालीस वर्ष ही तो असली जीवन-काल है। तुम जानते हो कि चालीसवाँ माने चरम बुढ़ापा। दरअसल चालीस से ज्यादा जीना असभ्यता है, अश्लीलता है, अनैतिकता है। भला चालीस से आगे कौन जीता है? मूर्ख लोग और व्यर्थ लोग' ('नोट्स फ्रॉम अंडर ग्राउंड' से) दोस्तोव्हस्की की इस उक्ति का यदि शाब्दिक अर्थ न लिया जाय तो मेरी समझ से इसका यही अर्थ होगा कि चालीस वर्ष के बाद जीवन के सहज लक्षणों का, परिवर्तन-परिवर्धन-सृजन का आत्मिक और मानसिक स्तरों पर ह्रास होने लगता है। पर मैं 'साठा तब पाठा' की उक्तिवाली गंगा की कछार का निवासी हूँ, इसी से इस अवधि को पाँच वर्ष और आगे बढ़ाकर देखता हूँ, यद्यपि दोस्तोव्हस्की की मूल थीसिस मुझे सही लगती है। शक्तिक्षय की प्रक्रिया चालीस के बाद ही प्रारंभ हो जाती है, यद्यपि वह अस्पष्ट रहती है।

कुबेरनाथ राय

मैं इस समय 1972 ईस्वी अपना अड़तीसवाँ पावस झेल रहा हूँ। पूर्वाफाल्गुनी का विकारग्रस्त यौवन जल पी-पीकर मैं 'क्षिप्त' से भी आगे एक पग 'विक्षिप्त' हो चुका हूँ और शीघ्र ही मोहमूढ़ होनेवाला हूँ! भाद्र की पहली नक्षत्र है मघा। मघा में अगाध जल है। पृथ्वी की तृषा आश्लेषा और मघा के जल से ही तृप्त होती है। यदि मघा में धरती की प्यास नहीं बुझी तो उसे अगले संवत्सर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। न केवल परिमाण में, बल्कि गुण में भी मघा का जल श्रेष्ठ है। मघा-मेष की झड़ी झकोर का स्तव-गान कवि और किसान दोनो खूब करते हैं : 'बरसै मघा झकोरि-झकोरी। मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।' मघा बरसी, मानो दूध बरसा, मधु बरसा। इस मघा के बाद आती है पूर्वाफाल्गुनी जो बड़ी ही रद्दी-कंडम नक्षत्र है। इसका पानी फसल जायदाद के लिए हानिकारक तो है ही, उत्तर भारत में बाढ़-वर्षा का भय भी सर्वाधिक इसी नक्षत्र-काल में रहता है। इसी से उत्तर भारतीय गंगातीरी किसान इसे एक कीर्तिनाशा-कर्मनाशा नक्षत्र मानते हैं। इसके बाद आती है उत्तराफाल्गुनी, भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र, जो समूचे पावस में मघा के बाद दूसरी उत्तम नक्षत्र है। इसका पानी स्वास्थ्यप्रद और सौभाग्यकारक होता है। इस अड़तीसवें पावस में अपने जीवन का पूर्वाफाल्गुनी काल भोग रहा हूँ, यद्यपि साथ-ही साथ द्वार पर उत्तराफाल्गुनी का आगमन भी देख रहा हूँ। चालीस आने में अब कितनी देर ही है।

Kubernath Ray

अतः आज पूर्वाफाल्गुनी का अंतिम पानपात्र मेरे होंठों से संलग्न है। क्रोध मेरी खुराक है, लोभ मेरा नयन-अंजन है और काम-भुजंग मेरा क्रीड़ा-सहचर है। इनको ही मैं क्रमशः विद्रोह, प्रगति और नवलेखन कहकर पुकारता हूँ। भले ही यह विकार-जल हो, भले ही इसमें श्रेय-प्रेय, गति-मुक्ति कुछ भी न हो। परंतु इसमें जीर्णता और जर्जरता नहीं। यह जरा और वृद्धत्व का प्रतीक नहीं। पूर्वाफाल्गुनी द्वारा प्रदत्त विक्षिप्तता भी यौवन का ही एक अनुभव है। मुझे लग रहा था कि मेरे भीतर कोई उपंग बजा रहा है क्योंकि मेरे सम्मुख द्वार पर काल-नट्टिन अर्थात् उत्तराफाल्गुनी त्रिभंग रूप में खड़ी है और मैं उसमें मार की तीन कन्याओं तृषा-रति-आर्त्ति को एक साथ देख रहा हूँ। कांचनपद्म कांति, कर-पल्लव, कुणितकेश, बिंबाधर, विशाल बंकिम भ्रू, दक्षिणावर्त नाभि, और त्रिवली रेखा से युक्त इस भुवन-मोहन रूप को मैं देख रहा हूँ और इसको आगमनी में अपने भीतर बजती उपंग को निरंतर सुन रहा हूँ। उपंग एक विचित्र बाजा है। काल-पुरुषों की उँगलियाँ चटाक-चटाक पड़ती है और आहत नाद का छंदोबद्ध रूप निकलता है बीच-बीच में हिचकी के साथ। यह हिचकी भी उसी काल-विदूषक की भँड़ैती है और यह उपंग के तालबद्ध स्वर को अधिक सजीव और मार्मिक कर देती है। मैं अपने भीतर बजते यौवन का यह उपंग-संगीत सुन रहा हूँ और अपने मनोविकारों का छककर पान कर रहा हूँ। मुझे कोई चिंता नहीं। अभी वानप्रस्थ का शरद काल आने में काफी देर है। इस क्षण उसकी क्या चिंता करूँ? इस क्षण तो बस मौज ही मौज है, भले ही वह कटुतिक्त मौज क्यों न हो; काम भुजंग के डँसने पर तो नीम भी मीठी लगती है। अतः यह काल-नटी, यह पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी, यह 'नैनाजोगिन' कितनी भी भ्रान्ति, माया या मृगजल क्यों न हो, मैं इसके रूप में आबद्ध हूँ। इसमें मुझे वही स्वाद आ रहा है जो मायापति भगवान को अपनी माया के काम मधु का स्वाद लेते समय प्राप्त होता है और जिस स्वाद को लेने के लिए वे परमपद के भास्वर सिंहासन को छोड़कर हम लोगों के बीच बार-बार आते हैं। अतः इस समय मुझे कोई चिंता, कोई परवाह नहीं।

परंतु एक न एक दिन वह क्षण भी निश्चय ही उपस्थित होगा जिसकी शृंगारहीन शरद यवनिका के पीछे जीर्ण हेमंत और मृत्युशीतल शिशिर की प्रेतछाया झलकती रहेगी। 'उस दिन, तुम क्या करोगे? है तुम्हारे पास कोई बीज-मंत्र, कोई टोटका, कोई धारणी-मंत्र जिससे तुम अगले बीस-बाईस वर्षों के लिए इस उत्तराफाल्गुनी के पगों को स्तंभित कर दो और वह अगले बीस-बाईस वर्ष तुम्हारे द्वारदेश पर, शिथिल दक्षिण चरण, ईषत कृंचित जानु के साथ आभंग मुद्रा में नतग्रीव खड़ी रहे और तुम्हारे हुकुम की प्रतीक्षा करती रहे? है कोई ऐसा जीवन-दर्शन, ऐसा सिद्धाचार, ऐसी काया सिद्धि जिससे बाहर-बाहर शरद-शिशिर, पतझार-हेमंत आएँ और जूझते-हार खाते चले जाएँ। परंतु मनस की द्वार-देहरी पर यह उत्तराफाल्गुनी एक रस साठ वर्ष की आयु तक बनी रहे? है कोई ऐसा उपाय? यह प्रश्न रह-रहकर मैं स्वयं अपने ही से पूछता हूँ। आज से तेरह वर्ष पूर्व भी मैंने इस प्रश्न पर चिंता की थी और उक्त चिंतन से जो समाधान निकला उसे मैंने कार्य-रूप में परिणत कर दिया। परंतु इन तेरह वर्षों में असंख्य भाव-प्रतिभाओं के मुंडपात हुए हैं और आज मैं मूल्यों के कबंध-वन में भाव-प्रतिभाओं के केतु-कांतार में बैठा हूँ। आज जगत वही नहीं रहा जो तेरह वर्ष पूर्व था। एक ग्रीक दार्शनिक की उक्ति है कि एक नदी में हम दुबारा हाथ नहीं डाल सकते, क्योंकि नदी की धार क्षण-प्रतिक्षण और ही और होती जा रही है। काल-प्रवाह भी एक नदी है और इसकी भी कोई बूँद स्थिर नहीं। अतः शताब्दी के आठवें दशक के इस प्रथम चरण में मुझे उसी प्रश्न को पुनः-पुनः सोचना है : कैसे जीर्णता या जरा को, यदि संपूर्णतः जीतना असंभव हो तो भी फाँकी देकर यथासंभव दूरी तक वंचित रखा जाए? कैसे अपने दैहिक यौवन को नहीं, तो मानसिक यौवन को ही निरंतर धारदार और चिरंजीवी रखा जाय? उस दिन तो मैंने सीधा-सीधा उत्तर ढूँढ़ निकाला था : 'ययाति की तरह पुत्रों से यौवन उधार लेकर।' अर्थात मैं कोई नौकरी न करके कॉलेज में अध्यापन करूँ तो मुझ पचपन या साठ वर्ष की आयु तक युवा शिष्य-शिष्याओं के मध्य वास करने का अवसर सुलम होगा। मैं इनकी आशा-आकांक्षा, उत्साह, साहस, उद्यमता आदि से वैसे ही अनुप्राणित और आविष्ट रहूँगा जैसे चुंबकीय आकर्षण-क्षेत्र में पड़कर साधारण लोहा भी चुंबक बन जाता है।

परंतु विगत दशक के अंतिम दो वर्षों में जब मेरे ये बालखिल्य सहचरगण छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट बनने लगे, जब इन्होंने मेरे गुरुओं, गांधी-विवेकानंद-विद्यासागर-सर आशुतोष, की प्रतिमाओं का एवं उनके द्वारा प्रति-पादित मूल्यों का, अनर्गल मुंडपात करना शुरू कर दिया, जब इनके नए दार्शनिकों ने कहना प्रारंभ किया कि अध्यापक और छात्र के बीच भी श्रेणी-शत्रुओं का संबंध है क्योंकि अध्यापक भी 'स्थापित व्यवस्था' का एक अंग है और 'व्यवस्था' का भंजन ही श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है, तब देश में घटित होती हुई इन घटनाओं पर विचार करके और क्रांति तथा 'नई पीढ़ी' के दार्शनिकों - यथा हिबर्ट मारक्यूज, चेग्वारा, ब्रैंडिटकोहन आदि की चिंतनधारा से यथासंभव अल्प स्वल्पे परिचय पा करके मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं इन अपने भाइयों, अपने हृदय के टुकड़ों के साथ जो आज छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट हैं, कुछ ही दूर तक, आधे रास्ते ही जा सकता हूँ। विविध प्रकार के नारों से आक्रांत ये नए 'पुरूरवा' ('पुरूरवा' का शब्दार्थ होता है 'रवों' (आवाजों या नारों) से आक्रांत या पूरित पुरुष। 'ययाति' पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है तो पुरूरवा नई पीढ़ी का।) यदि मुझे यौवन उधार देंगे भी तो बदले में मुझे भी कबंध में रूपांतरित होने को कहेंगे। और मैं कैसे अपना चेहरा, अपनी आत्म-सत्ता, अपना व्यक्तित्व त्याग दूँ? 'छिन्नमस्त' पुरुष बनकर यौवन लेने से क्या लाभ? बिना मस्तक के बिना अपने निजी नयन-मुख-कान के इस उधार प्राप्त नवयौवन का नया अर्थ होगा? रूप, रस, गंध और गान से वंचित रह जाऊँगा। केवल शिश्नोदरवाला व्यक्तित्व लेकर कौन जीवन-यौवन भोगना चाहेगा? कम-से-कम बुद्धिजीवी तो नहीं ही। आत्मार्थ पृथिवी त्यजेत? अतः मुझे चिरयौवन को इन शिष्य-पुरूरवाओं की नई पीढ़ी से दान के रूप में नहीं लेना है। तेरह वर्ष पहले का चिंतित समाधान आज व्यर्थ सिद्ध हो गया है। मुझे अन्यत्र चिरयौवन का अनुसंधान करना है। कहीं-न-कहीं मेरे ही अंदर अमृता कला की गाँठ होगी। उसे ही मुझे आविष्कृत करना होगा। जो बाहर-बाहर अप्राप्य है वह सब-कुछ भीतर-भीतर सुलभ है। मैं अपने ही हृदय समुद्र का मंथन करके प्राण और अमृत के स्रोत किसी चंद्रमा को आविष्कृत करूँगा। तेरह वर्ष पुराना समाधान आज काम नहीं आ सकता।

        मैं मानता हूँ कि समाज और शासन में शब्दों के व्यूह के पीछे एक कपट पाला जा रहा है। मैं बालखिल्यों के क्रोध की सार्थकता को स्वीकार करता हूँ। पर साथ ही छिन्नमस्ता शैली के सस्ते रंगांध और आत्मघाती समाधान को भी मैं बेहिचक बिना शील-मुरौवत के अस्वीकार करता हूँ। अपना मस्तक काटकर स्वयं उसी का रक्त पीना तंत्राचार-वीराचार हो सकता है परंतु यह न तो क्रांति है और न समर। पुरानी पीढ़ी का चिरयक्षत्व मुझे भी अच्छा नहीं लगता। मैं भी चाहता हूँ कि वह पीढ़ी अब खिजाब-आरसी का परित्याग करके संन्यास ले ले। शासन और व्यवस्था के पुतली घरों की मशीन-कन्याएँ उनकी बूढ़ी उँगलियों के सूत्र-संचालन से ऊब गई हैं और उनकी गति में रह-रह कर छंद-पतन हो रहा है। यह बिल्कुल न्याय-संगत प्रस्ताव है कि पूर्व पीढ़ी अपनी मनुस्मृति और कौपीन बगल में दबाकर पुतलीघर से बाहर हो जाय और नई पीढ़ी को, अर्थात हमें और हमारे बालखिल्यों को अपने भविष्य के यश-अपयश का पट स्वयं बुनने का अवसर दे जिससे वे भी अपने कल्पित नक्शे, अपने अर्जित हुनर को इस कीर्तिपट पर काढ़ने का अवसर पा सकें। यह सब सही है। परंतु क्या इन सब बातों की संपूर्ण सिद्धि के लिए इस पुतलीघर का ही अग्निदाह, पुरानी पीढ़ी द्वारा बुने कीर्तिपट के विस्तार का दाह, उनके श्रम फल का तिरस्कार आदि आवश्यक हैं? क्या ऐसा सब करना एक आत्मघाती प्रक्रिया नहीं? इस स्थल पर डॉ. राधाकृष्णन या आचार्य विनोबा भावे की राय को उद्धृत करूँ तो वह क्रांति के इन 'दुग्ध कुमारों' के लिए कौड़ी की तीन ही होगी। अतः मैं लेनिन जैसे महान क्रांतिकारी की राय उद्धृत कर रहा हूँ! 1922 ई. में लेनिन ने लिखा था, 'उस सारी सभ्यता-संस्कृति को जो पूँजीवाद निर्मित कर गया है, हमें स्वीकार करना होगा। और उसके द्वारा ही समाजवाद गढ़ना होगा। पूर्व पीढ़ी के सारे ज्ञान, सारे विज्ञान, सारी यांत्रिकी को स्वीकृत कर लेना होगा। उसकी सारी कला को स्वीकार कर लेना होगा... हम सर्वहारा संस्कृति के निर्माण की समस्या तब तक हल नहीं कर सकते जब तक यह बात साफ-साफ न समझ लें कि मनुष्य जाति के सारे विकास और संपूर्ण सांस्कृतिक ज्ञान को आहरण किए बिना यह संभव नहीं, और उसे समझ कर सर्वहारा संस्कृति की पुनर्रचना करने में हम सफल हो सकेंगे। 'सर्वहारा संस्कृति' अज्ञात शून्य से उपजनेवाली चीज नहीं और न यह उन लोगों के द्वारा गढ़ी ही जा सकती है जो सर्वहारा संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान कहे जाते हैं ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। इनका कोई अर्थ नहीं होता। 'सर्वहारा संस्कृति' उसी ज्ञान का स्वाभाविक सहज विकास होगी जिसे पूँजीवादी, सामंतवादी और अमलातांत्रिक व्यवस्थाओं के जुए के नीचे हमारी संपूर्ण जाति ने विकसित किया है।' यह बात स्वामी दयानंद या पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की होती तो बड़ी आसानी से कह सकते 'मारो गोली! सब बूर्ज्वा बकवास है।'; पर कहता है क्रांतिकारियों का पितामह लेनिन, जिसे एक कट्टर बंगाली मार्क्सवादी नीरेंद्रनाथ राय ने अपनी पुस्तक 'शेक्सपियर-हिज ऑडिएंस' के पृष्ठ (49-50) पर उद्धृत किया है। आज प्रायः लोग पुकारकर कहते हैं : 'देखो, देखो जोखिम उठा रहा हूँ, मूल्य भंजन कर रहा हूँ। अरे बंधु, जोखिम उठा रहे हो या नाम कमा रहे हो? यह तो आज अपने को प्रतिष्ठित बनाने और जाग्रत सिद्ध करने का सबसे सटीक तरीका 'शॉर्टकट' यानी तिरछा रास्ता है। जोखिम तुम नहीं उठा रहे हो तुम तो धार के साथ बह रहे हो और यह बड़ी आसान बात है। आज जोखिम वह उठा रहा है जो नदी की वर्तमान धारा के प्रतिकूल, धार के हुकुम को स्वीकारते हुए कह रहा है : 'मूल्य भी क्या तोड़ने की चीज है जो तोड़ोगे? वह बदला जा सकता है तोड़ा नहीं जा सकता। मूल्य स्थिर या सनातन नहीं होता, यह भी मान लेता हूँ। परंतु एक अविच्छिन्न मूल्य-प्रवाह, एक सनातन मूल्य-परंपरा का अस्तित्व तो मानना ही होगा।' नए बालखिल्य दार्शनिक कहेंगे - 'यह धार के विपरीत जाना हुआ। यह तो प्रतिक्रियावाद है।' ऐसी अवस्था में मेरा उन्हें उत्तर है : 'कभी-कभी नदी की धार पथभ्रष्ट भी हो जाती है। वह सदैव प्रगति की दिशा में ही नहीं बहती। वह स्वभाव से अधोगति की ओर जानेवाली होती है। और आज? आज तो वन्याकाल है। वन्याकाल में धार पथभ्रष्ट रहती है। वह कर्मनाशा-कीर्तिनाशा-कालमुखी बनकर हमारे गाँव को रसातल में पहुँचाने आ रही है। अतः इस क्षण हमारी प्यारी नदी ही शत्रुरूपा हो गई है। और यदि गाँव को बचाना है तो हम धार के प्रतिकूल समर करेंगे। यदि हम अपना घर-द्वार फूँककर तमाशा देखकर मौज लेनेवाले आत्मभोगी 'नीरो' की संतानें नहीं है तों हमें इस नदी से समर करना ही होगा। यही हमारी जिजीविषा की माँग है। और इसके प्रतिकूल जो कुछ कहा जा रहा है, वह 'नई पीढ़ी' की बात हो या पुरानी की, मुमुक्षा का मुक्ति भोग है। यह सब विद्रोह नहीं बूर्ज्वा डेथविश का नया रूप है।'

विषाद योग

        अतः मैं धार के साथ न बहकर अकेले-अकेले अपने अंदर की अमृता कला का अविष्कार करने को कृत संकल्प हूँ। बिना रोध के, बिना तट के जो धार है वह कालमुखी वन्या है, रोधवती और तटिनी नहीं। यों यह तो मैं मानता ही हूँ कि सर्जक या रचनाकार के लिए 'नॉनकनफर्मिस्ट' होना जरूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती। अतः मुझे भी विद्रोही दर्शनों से अपने को किसी न किसी रूप में आजीवन संयुक्त रखना ही है। एक लेखक होने के नाते यही मेरी नियति है, और इस तथ्य को अस्वीकृत करने का अर्थ है अपनी सिसृक्षा की सारी संभावनाओं का अवरोध। परंतु लेखक, कवि या किसी भी साहित्येतर क्षेत्र के सर्जक या विधाता को यह बात भी गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि शत-प्रतिशत अस्वीकार या 'नॉनकनफर्मिज्म' से भी रचना या सृजन असंभव हो जाता है। पुराने के अस्वीकार से ही नए का आविष्कार संभव है। यह कुछ हद तक ठीक है। परंतु नए भावों या विचारों के 'उद्गम' के बाद 'उपकरण' या अभिव्यक्ति के साधन का प्रश्न उठता है और इसके लिए 'नॉनकनफर्मिज्म' को त्यागकर पचहत्तर प्रतिशत पुराने उपकरणों में से ही निर्वाचित-संशोधित करके कुछ को स्वीकार कर लेना होता है। रचना की 'आइडिया' के आविष्कार के लिए तो अवश्य 'विद्रोही मन' चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्रॉसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। रचना-प्रक्रिया में 'स्वीकारवादी मन' की भी उतनी ही आवश्यकता है। अन्यथा 'आइडिया' या ज्ञान का 'क्रिया' में रूपांतर संभव नहीं। अतः प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो, 'विद्रोही' और 'स्वीकारवादी' दोनों साथ ही साथ होता है। 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' के फैशनेबुल दर्शन के प्रति मेरा आक्षेप यह भी है कि यह एक स्वयं आरोपित 'नो एक्जिट' (द्वारा या वातायन रहित अवरुद्ध कक्ष) है, इसको लेकर बहुत आगे तक नहीं जाया जा सकता है। यह दर्शन विषय और विधा दोनों की नकारात्मक सीमा बाँधकर बैठा है। और इसके द्वारा अपने 'स्व' को भी पूरा-पूरा नहीं पहचाना जा सकता है; तो 'स्व' से बाहर, इतिहास और समाज को समझने की तो बात ही नहीं उठती। यह 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' का दर्शन कभी अस्तित्ववाद का चेहरा लेकर आता है तो कभी नव्य मार्क्सवाद का (क्लासिकल मार्क्सवाद से भिन्न); और ये दोनों मानसिक-बौद्धिक स्तर पर मौसेरे भाई हैं। ये एक ही ह्रासोन्मुखी संस्कृति की संतानें हैं। योगशास्त्र में मन की पाँच अवस्थाएँ कही गई हैं : क्षिप्त, विक्षिप्त, विमूढ़, निरुद्ध और आरूढ़। ये दोनों दर्शन विमूढ़ स्थिति के दो भिन्न संस्करण हैं, अतः दोनों त्याज्य हैं।

        यह बाढ़-वन्या का काल है। नदी अपनी दिशा भूलकर, कूल छोड़कर उन्मुक्त हो गई है, अतः बुद्धजीवी वर्ग से धीरता और संयम अपेक्षित है। घबराकर वन्या की पथभ्रष्ट धार के प्रति आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा जल के उत्तरण, वन्या के 'उतार' की प्रतीक्षा करना अधिक उचित है। पानी हटने पर नदी फिर कूलों के बीच लौट जाएगी। नदी अपनी शय्या यदि बदल भी दे, तो भी नई शय्या के साथ कोई कूल, कोई अवरोध तो उसे स्वीकार करना ही होगा। यह नया कूल भी उसी पुराने कूल के ही समानान्तर होगा। नदी तब भी समुद्रमुखी ही रहेगी। उलटकर हिमाचलमुखी कभी नहीं हो सकती। अतः इस वन्या नाट्य के विष्कंभक के बीच का समय मैं न तो बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ और न बहुत चिंताजनक। मैं बिल्कुल अविचलित हूँ। मेरा विश्वास है कि कल नहीं तो परसों हम अर्थात पुरानी पीढ़ी का युवा और मेरे बालखिल्य छात्र-छात्राएँ अर्थात नई युवा पीढ़ी, दोनों मिलकर इस शासन एवं व्यवस्था के पुतलीघर की नृत्य कन्याओं के कत्थक नृत्य को साथ-साथ संचालित करेंगे। यह पुतलीघर ऐसा है कि इसमें अनुशासित संयमित तालबद्ध कत्थक ही चल सकता है। अन्यथा जरा भी छंद पतन होने पर कोई न कोई भयावह पुतली एक ही झपट्टे में हड्डी आँत तक का भक्षण कर डालेगी क्योंकि इन पुतलियों में से कोई-कोई विषकन्याएँ भी हैं। अतः मैं चेष्टा करूँगा कि अपने अंदर की अमृता कला का आविष्कार करके इस उत्तराफाल्गुनी काल को बीस बाइस वर्ष के लिए अपने अंतर में स्थिर अचल कर दूँ, बाहर-बाहर चाहे शरद बहे या निदाघ हू-हू करे। तब मैं अपने बालखिल्य सहचरों के साथ व्यवस्था की इन पुतलियों का छंदोबद्ध नृत्य भोग सकूँगा। और एक दिन वह भी आएगा जब कोई चिल्लाकर मेरे कानों में कहेगा 'फाइव ओ' क्लाक! पाँच बज गए!' कोई मेरे शीश पर घंटा बजा जाएगा, कोई मेरे हृदय में बोल जायगा : 'बहुत हुआ। बहुत भोगा। अब नहीं। अब, अहं अमृतं इच्छामि। अहं वानप्रस्थ चरिष्यामि।' और तब मैं व्यवस्था के पुतलीघर की इन यंत्रकन्याओं से माफी माँगकर उत्तर-पुरुष की जय जयकार बोलते हुए मंच से बाहर आ जाऊँगा और अपने को विसर्जित कर दूँगा लोकारण्य में, खो जाऊँगा अपरिचित, वृक्षोपम, अवसर प्राप्त, रिटायर्ड स्थाणुओं के महाकांतार में। पर अभी नहीं। अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड़ की तरह जवान हूँ।

 

(आचार्य कुबेरनाथ राय का यह ललित निबंध उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह निबंध। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे। - सम्पादक)


सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

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