गुरुवार, 19 मार्च 2020

कथावार्ता : ‘कवि जा रहा है’ मैंने हवा से कहा


(आज 19 मार्च को समकालीन हिन्दी कविता के विशिष्ट हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह की पुण्यतिथि है। 2018 में आज के दिन उनका निधन हुआ था। उनके देहावसान की सूचना के बाद एक त्वरित टिप्पणी मैंने मित्रों के आग्रह पर किया था जिसे पढ़कर गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर आदरणीय प्रो दीपक प्रकाश त्यागी ने उसका विस्तार करने को कहा। उसी के अनुक्रम में यह श्रद्धांजलि आलेख लिखा था। अपने ब्लॉग पर यह आप सबके के लिए साझा कर रहा हूँ।)

हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में केदारनाथ सिंह सबसे चमकदार नाम है। नयी कविता की यथार्थवादी चेतना, जीवन के प्रति गहरी आसक्ति, अनुभव की प्रमाणिकता, सादगी और सहजता के साथ जटिल भावनाओं की अभिव्यक्ति की प्रवृत्तियों के साथ केदारनाथ सिंह ने शुद्ध कविता से प्रतिबद्ध कविताकी ओर चलने की सलाह दी। अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरे सप्तक में पदार्पण के साथ उन्होंने प्रतिबद्धता का पक्ष लेना शुरू किया। यह प्रतिबद्धता उन्हें जीवन से बहुत गहरे सम्पृक्त करती है और आत्मीय कवि बनाती है। वह उन गिने-चुने कवियों में हैं जो सहज ही जीवन से जुड़ जाते हैं और जिनकी कविताएँ हमारे जीवन का अंग बन जाती हैं। केदारनाथ सिंह ग्रामीण और शहरी दोनों संस्कार से आप्लावित कवि हैं और जिस आदिम भाव की मांग कविता करती है, उनके यहाँ सहजता से उपलब्ध है। प्रेम उनकी कविताओं का एक प्रमुख विषय रहा है। गहन प्रेम के क्षणों में केदारनाथ सिंह की कविताएं संबल रही है। वह प्रेम के अद्भुत कवि हैं। उनकी कविताएँ बारम्बार उद्धृत की जाने वाली कविताएँ हैं। ऐसा इसलिए कि इन कविताओं में प्रेम की गरिमा और सहज संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति है। तुम आयींशीर्षक कविता प्रेम के पगने और मुक्त करने को जिस तरीके से अभिव्यक्त करती है, वह सहज ही आकर्षित करता है। तुम आयीं/ जैसे छीमियों में धीरे-धीरे/ आता है रस।प्रेम का यह परिपाक मुक्त करने में जाकर संपन्न होता है।-
और अंत में
जैसे हवा पकाती है गेहूं के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह
जैसे दाने अलगाए जाते हैं भूसे से
तुमने मुझे खुद से अलगाया।
प्रेम की बात हो तो केदारनाथ सिंह तरुण मन को बहुत पसंद आने वाले कवि थे। उनकी कविताओं में इसके लिए बहुत अवकाश था। केदारनाथ सिंह की कविताओं में तरुण प्रेम की सी ताजगी है, टटकापन है। यह टटका और खिला हुआ रूप उनकी कविता को बहुत सान्द्र और रसपगा बनाता है। प्रेम किशोर मन में जैसे उमगता है, उसको शब्दों में पिरो देना सफल अभिव्यक्ति ही तो है-
ओस भरे
कँपते गुलाब की टहनी पर
तितली के पंखों-सी सटी हुई
धूप!
एक नाम है छोटा-सा
मेरे बेस्वाद खुले होठों पर
          तेरे लिए!’ (अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नाम)
उनकी एक दूसरी कविता नए दिन के साथको भी इस क्रम में देखा जाना चाहिए। वह लिखते हैं-
नए दिन के साथ
एक पन्ना खुल गया कोरा
हमारे प्यार का
सुबह,
इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो’ (नए दिन के साथ)

ऐसा नहीं है कि केदारनाथ सिंह की कविताएं सिर्फ प्रेम कविताएं हैं, पहली उद्धृत कविता अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नामतो वात्सल्य में पगी हुई कविता है. प्रेम के व्यापक क्षेत्र का विस्तार सहज ही देखा जा सकता है। उनकी कविताओं में प्रेम प्रमुख विषय जरुर है। यह वात्सल्य हो सकता है, तरुणाई का अथवा शुद्ध श्रृंगार का। प्रेम बहुत गहन क्षणों की अभिव्यक्ति चाहता है और अपनी गरिमामयी स्थिति के प्रति बेहद सचेत रहता है। अगर उसकी गम्भीरता और एकनिष्ठता तथा समर्पण को कहीं से भी न्यून दिखाया जाए तो वह बेअसर हो जाये। केदारनाथ सिंह इस मामले में बहुत सुलझे हुए कवि हैं, इसीलिए उनकी कविताओं में कहीं छिछलापन नहीं है।
केदारनाथ सिंह का संबंध उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद से था। वह भोजपुरी में जीते थे। बहुत चाहते थे अपने गांव-जवार को। गांव आकर रहते थे। यह पता चलने पर कि सामने वाला व्यक्ति भोजपुरी क्षेत्र का है, उससे भोजपुरी में बात करते थे। ठेठ ग्रामीण भाव-भाषा में। दिल्ली में भी गांव उनके यहां था। इस तरह उनकी कविताओं में ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति के साथ नागर जीवन की जटिलता भी बहुत सादगीपूर्ण तरीके से अभिव्यक्त हुई है। ग्रामीण जीवन और नगरीय बोध ने उनके अनुभव क्षेत्र का व्यापक प्रसार किया है। गाँव से शहर तक उनकी कविताओं की व्याप्ति है। परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- केदारनाथ सिंह शायद हिन्दी के समकालीन काव्य-परिदृश्य में अकेले ऐसे कवि हैं, जो एक ही साथ गाँव के भी कवि हैं और शहर के भी। अनुभव के ये दोनों छोर कई बार उनकी कविता में एक ही साथ और एक ही समय दिखाई पड़ते हैं। शायद भारतीय अनुभव की यह अपनी एक विशेष बनावट है जिसे नकारकर सच्ची भारतीय कविता नहीं लिखी जा सकती।नागर और ग्रामीण जीवन को समकालीन परिदृश्य में वह एक साथ कैसे पिरो लेते हैं, यह सहज द्रष्टव्य है। उनकी प्रसिद्ध कविता है- फर्क नहीं पड़ता। इस कविता की पंक्तियाँ हैं-
पर सच तो यह है कि यहाँ
या कहीं भी फर्क नहीं पड़ता
तुमने जहां लिखा है प्यार
वहां लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता।
मेरे युग का मुहाविरा है
फर्क नहीं पड़ता।
प्यारकी जगह सड़कलिखने का आशय क्या है? बहुधा हम इस काव्यपंक्ति को अभिधा में दुहराते हैं और पाते हैं कि तब भी इसका अर्थ कामचलाऊ हो आता है। लेकिन इसके गहरे निहितार्थ का जब उदघाटन होता है, तब समझ में आता है कि कवि का नागर और ग्रामीण संस्कार कैसे एक जगह जमा हो गया है। प्यारमांग करता है, एकनिष्ठता की। उसमें प्रिय के प्रति, विशिष्ट जन के प्रति समर्पण की आकांक्षा है। इसलिए वह एकान्तिक है। जबकि सड़कप्रतीक है सार्वजनीन होने का, उसमें सबकी आवाजाही है। उसकी सार्थकता ही इसमें है कि उसका कितना अधिक और बेहतर उपयोग हो रहा है। तो जहाँ प्यार लिखा है, वहां सड़क लिख देने का आशय है एकान्तिक से सार्वजनीन करना। प्रेम को बाजारू बनाना। तारीफ की बात यह है कि कवि इसे युगीन मुहावरे से सम्बद्ध कर देता है। उसके युग का मुहावरा है- फर्क नहीं पड़ता। वस्तुतः यह समकालीन मुहावरा बन गया है कि ऐसी त्रासदी से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मुहावरा बनने का अर्थ है- एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो जाना। केदारनाथ सिंह नागर संस्कृति के इस उत्तरआधुनिक चरित्र को भलीभांति पहचानते हैं।
केदारनाथ सिंह ने अपने काव्य संसार को एक विस्तृत आयाम दिया है। उन्होंने महज प्रेम कविताएँ नहीं लिखी हैं लेकिन यहाँ यह कहते हुए आगे विचार करना है कि उनकी प्रेम कविताएँ जीवन की सबसे सान्द्र अनुभूति वाली कविताएँ हैं और सहज ही साधारणीकृत हो जाने वाली। जहाँ उन्होंने किसी व्यक्ति अथवा संज्ञा को कविता के केंद्र में रखा है, वहां भी उनकी काव्यात्मक छटा देखते बनती है। सन 47 को याद करते हुएकविता में नूर मियां से संवाद हो अथवा जगरनाथशीर्षक कविता में सपाटबयानी से आगे एक आत्मीयतापूर्ण बातचीत, केदारनाथ सिंह के काव्यक्षेत्र के विस्तार को आसानी से महसूस किया जा सकता है। नदी, पुल, पहाड़, झरने उनकी कविता में अनेकशः आये हैं। उनकी कविताओं में जीवन की स्वीकृति है। सहजता, सरलता और साधारणता से भरा जीवन किन्तु विराट। धरती और अपने लोगों के पहचान से निःसृत कविताएँ। उन्होंने बनारस पर एक बहुत प्यारी कविता लिखी है। यह कविता बनारस की महानता और पवित्रता को आईना दिखाती हुई सी प्रतीत होती है। -
इस शहर में बसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
कि लहरतारा या मंडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है।
उनकी कई कविताएं हमारे दैनंदिन में उभरती हैं और छा जाती हैं। अपने परिवेश की छोटी-छोटी चीजों को कविता का हिस्सा बनाना और उनमें जीवन का रंग भर देना केदारनाथ सिंह को बड़ा कवि बनाती हैं। सरलता और सहजता उनकी कविताओं का विशेष गुण है। सरल और सहज शब्दों वाली उनकी कविताएँ अनुभव और कल्पना का विराट संसार रचने वाली कविताएँ हैं। उनकी यह कविता तो कविता-प्रेमियों के बीच सैंकड़ों बार दुहराई गयी है। दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होने की आकांक्षा में जो अर्थ व्यंजना है, वह चमत्कृत कर देने वाली है।-
उसका हाथ
अपने हाथ मे लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए।


इसी प्रकार जानाशीर्षक कविता में जा रही हूँऔर जाओहिन्दी के व्याकरण  की खौफनाक क्रिया भर नहीं है, खौफनाक जीवनानुभव भी है। एक पद खौफनाकसे कवि पाठक को समृद्ध कर देता है।-
मैं जा रही हूँ- उसने कहा
जाओ- मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है।

केदारनाथ सिंह की कविता के विषय में वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- केदार की कविता जो पहली बार रूप या तंत्र के धरातल पर एक आकर्षक विस्मय पैदा करती है, क्रमशः बिम्ब और विचार के संगठन में मूर्त होती है और एक तीखी बेलौस सच्चाई की तरह पूरे सामाजिक परिदृश्य पर अंकित होती चली जाती है। केदार कल्पना का इस्तेमाल जरुर करते हैं और देखा जाए तो कल्पना की जो पूँजी उनके यहाँ है, वह उनके सुपरिचित समकालीनों के यहाँ विरल है। पर कल्पना का इस्तेमाल वे जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाने के लिए नहीं करते, परिवेश की जटिल वास्तविकता को अधिक तीखे अर्थ में ग्राह्य बनाने के लिए करते हैं। उनकी कविता को नाम देने के लिए शास्त्र की दुनिया में जाने की जरूरत नहीं, सीधे हाट-बाजार में निकलने की जरूरत है, जहाँ केदार की कविता है।बारिश-धूप, हवा-पानी पर उनकी कविताएँ शास्त्रीयता की नहीं, सहज संपृक्तता की मांग करती हैं। वर्षा की दो छवि द्रष्टव्य है-
1.
जब वर्षा शुरू होती है
कबूतर उड़ना बंद कर देते हैं
गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है
और फिर लौट आती है।
मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा
और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की- (जब वर्षा शुरू होती है)
2.
वह अचानक शुरू हुई
बकरियां उसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं
वे देर तक चीखती-चिल्लाती रहीं
मगर पानी पूरी ताकत के साथ
गटर और उसके गोश्त में उतरता जा रहा था। (बारिश)

केदारनाथ सिंह ने बाघशीर्षक से लम्बी कविता लिखी है। पंचतंत्र की संरचना से युक्त इस कविता में आधुनिक जीवन की जटिलता को अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रदीर्घ कविता के केंद्र में बाघ है पर पाठक देखेंगे कि सिर्फ बाघ नहीं है। आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतना दूर आ गया है कि बाघ उसके लिए हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता भी है, जिसके साथ हमारे होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है।वह स्वयं मानते हैं कि- आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है।यह एक बहुलार्थी कविता है जिसपर पंचतंत्र का प्रभाव है। बाघ कविता कई टुकड़ों में है। इसके हरेक अंश में बाघ अलग इकाई के रूप में चित्रित हुआ है लेकिन एक अंतर्दृष्टि के साथ।

बीते दिन 19 मार्च, 2018 को हमारे इस अतिप्रिय कवि ने इस असार संसार को अलविदा कहा। उन्हें याद करना एक सुपरिचित को याद करना है, उन्हें खो देना एक आत्मीय को। उस सुबह यह कवि उठा और अपना वायदा पूरा करने निकल पड़ा-
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी समेत
जल और कच्छप समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।

कवि केदार को भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
इटावा, उ०प्र०

बुधवार, 18 मार्च 2020

कथावार्ता : साफ–सफाई, गोबर, गौमूत्र और हम


देश - दुनिया की बड़ी जनसंख्या एक समयांतराल के बाद यह कतई नहीं मानेगी कि हम अपने घरों को साफ और पवित्र करने के लिए गाय के गोबर से लीपते थे। चौका पूरने के लिए गोबर से लीपना अपरिहार्य था। पंचगव्य एक आवश्यक औषधि थी। इसमें दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र का प्रयोग होता था। मेरे एक मित्र को बवासीर हो गया था तो वह स्वमूत्र चिकित्सा करते थे और अपने पेशाब से शौच करते थे। जब हम छोटे थे तो खेलने कूदने में कहीं चोटिल हुए तो चोट ग्रस्त स्थान पर सूसू कर लेते थे कि यह बहुत अच्छा एंटीसेप्टिक है। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई तो स्वमूत्र को औषधि की तरह लेते थे।
हम यह भी नहीं मानेंगे कि अपने घरों की दीवार गड़ही की मिट्टी से पोता करते थे और वह चमकदार लगती थी। कि सबसे अच्छी खाद मल से बनती थी। हमने वह जगह खूब अच्छे से देखी है जहां निरन्तर मूत्र विसर्जन करने से खेत का एक हिस्सा पीला पड़ जाता था और हम विज्ञान की भाषा सीखते हुए कहा करते थे कि यूरिया के प्रभाव से यह होता है और यह अच्छा उर्वरक है। गोइंठा, उपला, चिपरी, गोहरौर यह सब हमारी रसोई का अनिवार्य ईंधन था और सब गाय/भैंस के गोबर से बनता था। एलपीजी ने इसे भी हतोत्साहित किया है।
स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत बनाए जाने वाले शौचालयों ने ऊपरी तौर पर भले हमें एक साफ-सुथरी दुनिया उपलब्ध कराई है लेकिन उसने एक स्वाभाविक चेन को तोड़ दिया है। यह अच्छा है कि इन शौचालयों में एकत्रित मल वहीं बनाए एक टंकी में एकत्रित होता रहता है और भविष्य में उसका उपयोग कर लिया जाएगा लेकिन तब भी वह जो एक इकोसिस्टम बना था, वह इस क्रम में टूट जाएगा। हम जानते हैं कि माला का एक भी मोती अगर अपनी जगह से हटता है तो वह समूची संरचना को प्रभावित कर तहस नहस कर देता है। शौचालय, तो एकबारगी हमें ठीक भी लगेगा लेकिन जिस तरह हम गोबर और पशुओं के उत्सर्जित अपशिष्टों से घृणास्पद व्यवहार कर रहे हैं, वह हमें एक दूसरी ही दुनिया में धकेल रहा है।
हमारा इकोसिस्टम : एक समावेशी चेन

दरअसल
, हमने अपनी जीवनशैली ऐसी बदल ली है, हम ऐसे उपभोक्ता में परिणत हो गए हैं कि हम परम्परागत समावेशी प्रणाली से दूर हो गए हैं। हम भारी मात्रा में कूड़ा उत्पादक जीव बने हैं। ऐसे में हमने "घृणा" की एक सर्वथा नवीन चीज डेवलप की है। इससे हमने एक नए तरीके का स्वच्छता वाला माहौल भी बनाया है। इसमें उपयोगिता वाला तत्त्व विलुप्त हो गया है। हमने कूड़ा का एक अद्भुत संसार बनाया है। महज तीस साल पहले यह कूड़ा उपयोगी था। आवश्यक हिस्सा था। अब वह घृणा की वस्तु में परिवर्तित हो चुकी है।
          हमारी उपभोक्ता वाली जीवन प्रणाली सबसे घातक प्रणाली है। हम चीजों का उपभोग कर रहे हैं। यही मानसिकता हमें समावेशी विकास पद्धति से दूर करती है। याद कीजिये, बीस पच्चीस साल पहले कितना कम कचरा हमारे आसपास होता था और हम घूरा को एक संपत्ति की तरह देखते थे। दीपावली पर तो हम एक दिन पहले यम का दिया निकालते थे और घूरा को प्रकाशित करते थे। वह खेत की मिट्टी की संरचना ही बदलने में सक्षम था।  आज हमारा घूरा एक घृणास्पद स्थल है। यह सब हमने नयी शिक्षा पद्धति में सीखा और आत्मसात किया है। इनसे घृणा सीखाने वाले उस शिक्षा पद्धति के सबसे उज्ज्वल मोती हैं।
         

रविवार, 15 मार्च 2020

कथावार्ता : आधा गाँव के हिन्दू



आज 15 मार्च को राही मासूम रज़ा की पुण्यतिथि है। 15 मार्च, 1992 को उनका निधन हुआ था। 'आधा गाँव' उनका बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है। यद्यपि उनका यह उपन्यास शिया मुसलमानों के जीवन की गाथा है लेकिन उसमें गाँव से बाहर के कुछ लोगों की अनिवार्य आवाजाही है। इनमें कुछ हिन्दू चरित्र भी हैं। इस शोध आलेख में आधा गाँव के हिन्दू चरित्रों को समझने की कोशिश की गयी है। राही मासूम रज़ा को विनम्र श्रद्धांजलि सहित यह आलेख!



राही मासूम रज़ा का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गाँव’ (1966) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक है। ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘शताब्दी कथा साहित्य’ अंक में सदी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ को स्थान मिला था। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के एक गाँव ‘गंगौली’ को इसका कथा स्थल बनाया गया है। शिया मुसलमानों की जिन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज यह उपन्यास स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एवं बाद के कुछ वर्षों की कथा कहता है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पाकिस्तान के वजूद में आने एवं जमींदारी उन्मूलन ने मियाँ लोगों की जिन्दगी में जो हलचल मचाई,  उसकी धमक इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। मुहर्रम का सियापा;  जो इस उपन्यास का मूल कथा-सूत्र हैअपनी मनहूसियत एवं उत्सव के मिले-जुले रूप के साथ पूरे उपन्यास में पार्श्व संगीत की तरह बजता है और अंततः शोक आख्यान में तब्दील हो जाता है।


राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ को गंगौली के आधे हिस्से की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके लिए यह उपन्यास कुछ-एक पात्रों की कहानी नहीं बल्कि समय की कहानी है। बहते हुए समय की कहानी। चूँकि समय धार्मिक या राजनीतिक नहीं होता और न ही उसके सामाजिक वर्ग/जाति विभेद किए जा सकते हैंअतः उसके प्रवाह में आए पात्रों का विभाजन भी संभव नहीं। हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक खाँचे में रखकर देखना तो और भी बेमानी होगा। बावजूद इसके अध्ययन का एक तरीका यह है कि यदि मानव समाज धार्मिक खाँचों में बँटा हैउसकी राजनीतिक चेतना पृथक् है और कालगतदेशगत एवं जातिगत विशिष्टता मूल्य निर्धारण में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है तो उन भिन्नताओं में उनको विश्लेषित करना बामानी हो जाता है।
आधा गाँव’  गंगौली के आधे हिस्से की कहानी है जिसमें उत्तरपट्टी और दक्खिनपट्टी के मीर साहेबान रहते हैं। उपन्यास में प्रमुख रूप से इन्हीं मीर साहेबानों की कथा कही गयी है। इस उपन्यास में कई ऐसे पात्र भी आए हैं जो उत्तरपट्टी अथवा दक्खिनपट्टी के नहीं है और कुछ ऐसे हैं जो गंगौली के नहीं हैं और इनमें कई ऐसे भी हैं जो मुसलमान नहीं अपितु हिन्दू हैं। ‘आधा गाँव’ भारतीय संस्कृति के गंगा-जमुनी तहजीब से तैयार एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है जिसे यदि मीर साहेबान अर्थात् शिया सैय्यद मुसलमानों के रीति-रिवाजों एवं आंचलिकता के विमर्श से आगे परिभाषित किया जाय तो यह विभाजन एवं साम्प्रदायिकता से सीधा साक्षात्कार करता है। चूँकि विभाजन एवं साम्प्रदायिकता का प्रश्न हिन्दू समुदाय से सीधा जुड़ता है अतः उपन्यास में आए हिन्दू पात्रों पर चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा।
गंगौली में मियाँ लोगों के साथ-साथ जुलाहोंभरोंअहीरों एवं चमारों के घर हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द एवं जमींदारी का चक्र कुछ ऐसा है कि मियाँ लोगों के लिए बेगार ये नीची जाति के हिन्दू करते हैं। मुहर्रम के ताजिए के पीछे लठ्ठबंद अहीरोंभरों एवं चमारों का गोल रहता है जो उत्तरपट्टी-दक्खिनपट्टी के फौजदारी में लाठियाँ चलाने से परहेज नहीं करता। गया अहीरजो हम्माद मियाँ का लठैत हैताजिएदारी के समय होने वाली लड़ाई में जब मौलवी बेदार के ऊपर लाठी छोड़ता है तो वे आश्चर्य से भर जाते हैं। इसका अंकन देखिए- ‘‘गया ने जो ‘बजरंग बली की जय’ बोलकर एक हाथ दिया तो मौलाना घबरा गए। बोले, ‘अबे हरामजादे! तैं हम्मे मरबे!’’ (आधा गाँव, पृष्ठ-76) यहां मौलाना साहब के कथन में हिकारत भी है कि उनपर एक नीची जाति के हिन्दू बेगार ने हाथ उठाया है। वे उन शिया सैय्यदों में हैंजो अछूतों के छू देने भर से अपवित्र हो जाते हैं और अपने घर के पास स्थित हौज में पाक होने के लिए नहाते रहते हैं। लेकिन ये लोग इन मीर साहेबानों की जिन्दगी का अनिवार्य अंग हैं क्योंकि मुहर्रम के ताजिए के पीछे जिन हजार-पाँच सौ आदमियों की भीड़ होती उनमें प्रमुख रूप से ‘‘गाँव की राकिनेंजुलाहिनेंअहीरनेंऔर चमाइनें होती थीं।’’ ताजिए के पीछे एवं आगे लठ्ठबंद अहीरों का गोल रहता था और जब बड़ा ताजिया हिन्दू मुहल्लों से गुजरता था तो लोग न सिर्फ बलाएँ लेते थेमनौतियाँ रखते थे अपितु उलतियाँ गिरवाने के लिए सिफारिशें तक करते थे। राही मासूम रज़ा मुहर्रम के जुलूस ही नहींसमूचे उत्सव को जिस भारतीय त्यौहार की तरह प्रस्तुत करते हैंवह गंगा-जमुनी तहजीब की विशिष्ट पहचान है। गुलशेर खाँ ‘शानी’ के ‘काला जल’ में भी ‘दुलदुल (मुहर्रम का घोड़ा) के पीछे चलने वाली हिन्दू जनमानस का उल्लेख है और बदीउज्जमाँ के ‘छाको की वापसी’ का मुहर्रम भी इन्हीं विवरणों से प्रामाणिक बनता है। मैदानी भारत के सांस्कृतिक जीवन में साम्प्रदायिक सौहार्द की यह बानगी सहज है। मुहर्रम के विषय में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि यह त्यौहार भारत आकर बहुत बदल गया है और मूल रूप में सात दिन का मातम दस दिन का हो गया है। राही मासूम रज़ा इस त्यौहार की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘‘होली,  दिवाली और दशहरा की तरह मुहर्रम भी एक ठेठ हिन्दुस्तानी त्यौहार है। .........मुहर्रम केवल हुसैन की यादगार मनाने का नाम नहीं है। मुहर्रम नाम है मंदिरों की तरह खूबसूरत ताजिए बनाने का। .........मजे की बात यह है कि इन ताजियों पर फूल चढ़ाना एक हिन्दू परम्परा है। बस,  फूल चढ़ते ही बेजान ताजियों में जान पड़ जाती है और ये देवता बन जाते हैं और लोग हिन्दू और हिन्दू आत्मावाले हिन्दुस्तानी मुसलमान इन ताजियों से सवाल करने लगते हैं।’’(राही मासूम रज़ाखुदा हाफिज कहने का मोड़,  पृष्ठ-146-147) लेखक ने इस दस दिनी उत्सव को दशहरा के दस दिनी आयोजन से प्रभावित कहा है। मान्यता है कि इमाम हुसैन के पक्षधर ब्राह्मणों का एक समुदाय हुसैनी ब्राह्मणों के रूप में आज भी कश्मीर में है और शिया मुसलमानों का मानना है कि मुहर्रम के इन दस दिनों में इमाम साहब कर्बला से हिजरत करके भारत आ जाते हैं। आशय यह कि यह त्यौहार पूर्णतः भारतीय रंग में रंग गया है और इसकी पहचान मुसलमान धर्म तक सीमित नहीं है।
आधा गाँव’ के हिन्दू पात्रों का विवेचन इस दृष्टिकोण से करना और भी महत्वपूर्ण होगा कि बहुप्रचारित साम्प्रदायिक मानसिकता का कैसा रूप उनमें है। क्या वैसा ही जैसा कि आज साम्प्रदायिकता फैलाने वाले सामुदायिक हितों के आधार रूप में रखते हैं। उपन्यास के कुछ प्रमुख हिन्दू पात्रों का विवरण इस प्रकार है-
1. ठाकुर हरनारायन प्रसाद- ठाकुर हरनारायन प्रसाद थाना कासिमाबाद के दारोगा हैं। गाज़ीपुर का यह थाना जिस तालुका में आता है वह करइल मिट्टी वाला है। यह करइल क्षेत्र खूब उपजाऊ है। यह फ़ौजदारी,  क़तल,  डकैती,  और जमींदारी ठाठ के लिए विख्यात है। ‘‘करइल का इलाका था। काली मिट्टी पानी पड़ते ही सोना उगलने लगती थी। इसलिए इन लोगों के पास वक्त बहुत था और लोग थे बीहड़। कानून अपनी जगह लेकिन अगर कोई बात शान के खिलाफ़ हो गई तो थाना फुँक गया।’’ उपन्यास में ठाकुर हरनारायन प्रसाद से पहले के दो दारोगाओं का उल्लेख है, जिन्हें फुन्नन मियाँ ने नीचा दिखाया था। इस कारण फुन्नन मियाँ सहज ही सरकार की नज़र में चढ़े हुए थे जिनका रौबदार और बहादुर चरित्र सत्ता से सीधे टकरा जाने से और भी भव्य हो गया है। हरनारायन प्रसाद की दिलचस्पी भी फुन्नन मियाँ में है। साम्प्रदायिकता जैसी कोई भावना उनमें नहीं,  हालांकि वे कट्टर हिन्दू हैं। वे मुसलमानों का छुआ नहीं खाते,  इसीलिए जब कभी उनका दौरा गंगौली के लिए होता था,  हिंदुओं की सेवाएँ ली जाती थीं, जो ठाकुर साहब के लिए खाने-पीने का इंतजाम करते थे। (‘‘पंडित मातादीन बुलाए गए। उन्होंने ठाकुर साहब के लिए शरबत बनाया। तमोली उनके लिए पान लाया और खुद बेचू हलवाई एक दोने में गुड़ के ताज़ा लखटे लाया।’’ आधा गाँव,  पृष्ठ-83) उनके सहयोगी समीउद्दीन खाँ शिया मुसलमान हैं। ठाकुर साहब की उनसे खूब अच्छी बैठती है। खुशनुमा क्षणों में वे धर्म आदि मुद्दों पर मज़ाक भी कर लेते हैं- ‘‘वाह! यह भी कोई मजहब हुआ कि खुद पैगम्बर साहब ने नौ-नौ ब्याह कर डाले और बाक़ी मुसलमानों को चार शादियों पर टरका दिया।’’ कट्टर हिन्दू ठाकुर साहब की रखैल गुलाबी जान भी कट्टर मुसलमान है। इसके बावजूद ठाकुर साहब को उसके साथ सोने से परहेज नहीं था। अलबत्ता गुलाबी जान ठाकुर साहब के साथ सोने के बाद नहाती थी। सहअस्तित्व का यह जीवन निर्बाध और अकुण्ठ भाव से चल रहा था। राही संकेत करते हैं कि अपने-अपने धार्मिक वैयक्तिकता को सुरक्षित रखते हुए लोग जिए जा रहे थे।
ठाकुर हरनारायन प्रसाद अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिनिधि हैं। वे अंग्रेजी शोषण के माध्यम भी हैं और उपभोक्ता भी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के लिए चंदा उगाही करते समय उनका शोषक एवं घूसखोर चरित्र स्पष्टतः उभरता है। ‘‘उन्होंने तय किया था कि गोबरधन को सिर्फ़ हजार की रसीद दी जाएगी। .......उन्होंने तय किया कि वार-फंड के लिए बीस हजार और अपने लिए तीस हजार जमा करेंगे। गोबरधन की रकम से उनके तीस हजार पूरे हो रहे थे और वार-फंड भी अठारह हजार तक पहुँच रहा था।’’ वे इस किस्म के घूसखोर हैं कि दोनों पक्षों से रिश्वत ले लेने में गैरत नहीं महसूस करते। इस प्रक्रिया में यदि किसी बेकसूर को फाँसी भी हो जाए तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। ‘‘जिस तरह थानेदार कासिमाबाद को उत्तरपट्टी के मोहर्रम के बजट से एक सौ रूपये दिए गए थे,  उसी तरह दक्खिनपट्टी की ताजिएदारी की मद से थानेदार क़ासिमाबाद को तीन सौ रूपये दिए गए कि कोमिला को फाँसी तो न हो,  लेकिन सजा जरूर हो जाय। थानेदार ठाकुर हरनारायन प्रसाद सिंह ने सोचा कि इसमें आखि़र उनका क्या नुकसान है इसीलिए यह बात भी तय हो गई।’’
दारोगा हरनारायन प्रसाद की फुन्नन मियाँ के प्रति दुर्भावना राजभक्ति से प्रेरित थी। फुन्नन मियाँ ने दारोगा शिवधन्नी सिंह और शरीफुद्दीन को नीचा दिखाया था और ठाकुर साहब के लिए भी परेशानी का सबब बने हुए थे। इसलिए उनकी व्यक्तिगत सी प्रतीत होने वाली खुन्नस में साम्प्रदायिकता खोजना बेमानी है। सन् बयालीस के आंदोलन में जब थाना क़ासिमाबाद फूँक दिया गया और ठाकुर साहब को जि़न्दा जला दिया गया तो इसके परिपार्श्व में कतई हिन्दू-मुसलमान का भाव नहीं था बल्कि भीड़ में से अधिकांश थानेदार और अंग्रेज बहादुर के सताए हुए लोग थे। ‘‘इस मजमें में ऐसे लोग कम थे जिन्हें ‘हिन्दुस्तान छोड़ दो’ के नारे की खबर रही हो। उनमें ऐसे लोग भी नहीं थेजिन्हें आजादी का मफ़हूम मालूम हो। ये लोग वे थे,  जिनसे ड्योढ़ा लगान लिया गया था,  जिनके खेतों का अनाज छीन लिया गया था,  जिनसे जबरदस्ती वार-फंड लिया गया था,  जिनके भाई-भतीजे लड़ाई में काम आ गए थे या काम आने वाले थे और जिनसे थाना-क़ासिमाबाद कई पुश्तों से रिश्वत ले रहा था।’’ इस शोषक चरित्र की वजह से जिन्दा जला दिए जाने के बाद भी उनके लिए सहानुभूति नहीं होती।

2. बारिखपुर के ठाकुर (कुँवरपाल सिंहपृथ्वीपाल सिंहजयपाल सिंहहरपाल सिंह)- बारिखपुर गंगौली से कुछ दूरी पर स्थित गाँव है जहाँ के जमींदार ठाकुर कुँवरपाल सिंह हैं। वे फुन्नन मियाँ के मित्र और प्रतिद्वन्द्वी दोनों हैं। दोनों ने एक ही अखाड़े से लाठी-चलाने की कला सीखी थी। ‘‘चौधरी और फुन्नन एक ही गुरू के चेले थे। यानी चौधरी ने भी फुन्नन मियाँ के बाप ही से लकड़ी चलाने की कला सीखी थी।’’ यह बताता है कि एक पीढ़ी पहले इस क्षेत्र में हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं था। दो जमींदार,  जो पृथक् धर्मानुयायी थे,  एक ही अखाड़े में शिक्षा ले सकते थे। हालांकि ‘आधा गाँव’ में ठाकुर कुँवरपाल सिंह का चित्रण बहुत कम है तथापि उनकी उपस्थिति इतनी सशक्त है कि सहज ही दिलो-दिमाग पर छा जाती है।
 जमींदारी ठसक और सांमती सम्मान की रक्षा में ठाकुर कुँवरपाल सिंह फुन्नन मियाँ के हाथों मारे जाते हैंलेकिन फुन्नन मियाँ की इबादतों में वे अनिवार्य रूप से सम्मिलित हो जाते हैं- ‘‘पाक परवरदिगार! मुहम्मदो आले मुहम्मद के सदके में ठाकुर कुँवरपाल सिंह को बख्श दे!’’ फुन्नन मियाँ जब हिन्दुओं की सम्प्रदाय निरेपक्षता की बात करते हैं तो सबसे पहले ठाकुर कुँवरपाल सिंह को याद करते हैं- ‘‘तू त ऐसा कहि रहियो जैसे हिन्दुआ सब भुकाऊँ हैं कि काट लीहयन। अरे ठाकुर कुँवरपाल सिंह त हिन्दुए रहे।’’
ठाकुर कुँवरपाल सिंह उपन्यास में पहले चौधरी के रूप में तब आते हैं जब गुलाब हुसैन खाँ को चिरौंजी घेर लेता है। वे अपने पूरे खानदान के साथ उसे बचाने आ जाते हैं। यह जानकर कि चिरौंजी फुन्नन मियाँ का आदमी है,  वे उस पर हाथ नहीं उठाते- ‘‘चौधरी ने सोचा कि अगर इस जगह उन्होंने चिरौंजी को घेर लिया तो कल फुन्नन मियाँ के आगे आँख नीची हो जाएगी,  इसलिए चौधरी ने उन्हें चला जाने दिया।’’ यह सामंती मन का उज्ज्वल पक्ष है। बराबरी का आग्रह रखता है। ठाकुर साहब क्षयमान होती सामंती व्यवस्था के स्तम्भ हैं। चाहे यह व्यवस्था कितनी थी अमानवीय क्यों न रही होइसमें अनेक बुराइयाँ हो,  रियाया के शोषण पर आधारित हो;  अपने ठाठशान-शौकत और मर्यादा में सहज ही आकर्षित कर लेती है। फुन्नन मियाँ को एकान्त में खलीफाई तय करने के लिए ललकारना और पराजित होने पर लेशमात्र भी दुर्भावना न रखना कुँवरपाल सिंह को महान बनाती है। बराबरी के युद्ध में जहाँ ‘‘लाठियाँ टकराती रहीं। कोई चोट नहीं खा रहा था। दोनों ही एक अखाड़े के थे और दोनों ही खलीफ़ा के चहेते थे। तुले हुए हाथ चल रहे थे। तेल पिलाई हुई लाठियाँ डूबते हुए चाँद की रोशनी में चमक रही थीं’’ कुँवरपाल सिंह घायल होकर पड़ जाते हैं तो सहज मन से वीरतापूर्वक स्वीकार करते हैं- ‘‘खलीफाई मुबारक होए!’’ पुलिस को दिए बयान में वे फुन्नन को निर्दोष बताते हैं और आखिरी समय में याद करते हैं- ‘‘हम जात हएँ खलीफ़ा।’’ लोगों को जब बाद में ख़्याल आता है तो वे ठाकुर कुँवरपाल सिंह के बयान से असहमत होते हैं क्योंकि ‘‘चार-छः आदमियों के लिए तो अकेले ठाकुर साहब काफ़ी थे।’’
  ठाकुर साहब वीर सामंत हैं। वसूल के पक्के हैं। अपने महाप्रयाण के बाद वे अपने बेटे-पोतों को भी इसका अंश दे जाते हैं। टाट-बाहर कर दिए गए फुन्नन मियाँ की बेटी रजि़या के मरने के बाद कंधा देने वालों में पृथ्वीपाल सिंह आगे रहते हैं थाना फूँकने वाली भीड़ का नेतृत्व हरपाल सिंह करते हैं। हरपाल सिंह इस मुहिम में शहीद भी हो जाते हैं। रजि़या को कब्र में उतारते समय पृथ्वीपाल सिंह का यह कहना, ‘‘हम उतारब अपनी बहिन के’’ उपन्यास के मार्मिक स्थलों में से एक है और हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को रेखांकित करती है।
 ठाकुर कुँवरपाल सिंह और उनका परिवार उस सामंती परिवेश की बानगी पेश करता है जिसके विषय में अनेकशः कहा जाता है कि भारतीय समाज के बहुलतावादी सम्प्रदाय निरेपक्ष स्वरूप का ताना-बाना इसी व्यवस्था का गढ़ा हुआ है। वीरेन्द्र यादव लिखते हैं- ‘‘आधा गाँव के औपन्यासिक कथ्य में अन्तर्निहित यह तथ्य भी विचारणीय है कि भारतीय समाज के जिस बहुलवाद व मेल-जोल की संस्कृति को अक्सर महिमा मंडित किया जाता हैवह सामंती सामाजिक संरचना का अनिवार्य परिणाम है या कि भारतीय संस्कृति के उदारतावाद की देन। ‘आधा गाँव’ के ठाकुर जयपाल सिंह किस मानसिकता के चलते अपने गाँव के जुलाहों,  कुँजड़ों व हज्जामों की रक्षा करते हैं,  इसका खुलासा अपनी परजा के उनके इस संबोधन से होता है- ‘गाँव से जाए का नाम लेबा लोग त माई चोद के ना रख देइब। हई देखा भुसडि़यावालन काजात बाड़न लोग मऊमुबारकपुर गाँड़ मराए।’’ (वीरेन्द्र यादवविभाजनइस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान,  अभिनव कदम,  अंक6-7पृष्ठ-325) यह सच है कि धर्मसभा के लिए भोजन आदि की व्यवस्था जयपाल सिंह करते हैं और सभा में मुसलमानों को समूल उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाता है लेकिन जयपाल सिंह यह सब जमींदारी शान में करते हैं। स्वामी जी का भाषण अपनी जगह है किन्तु जयपाल सिंह यह नहीं बर्दाश्त कर सकते कि उनके गाँव के कुँजड़ोंमुसलमानों पर कोई हाथ उठाए। इसीलिए बफ़ाती के घिर जाने पर वे हिन्दुओं को ललकार लेते हैं- ‘‘ई तूँ लोगन रूक काहे गइलाभैया? ........आवत जा लोग!’’ वे हिन्दू मर्यादा के औचित्य को व्यापकता देते हुए नैतिक आधार से सम्बद्ध करते हैं- ‘‘बड़ बहादुर हव्वा लोग अउर हिन्दू-मरियादा के ढेर ख़्याल बाए तुहरे लोगन केत कलकत्ते-लौहार जाए के चाही। हियाँ का धरल बाए की चढ़ आइल बाड़ा तू लोग।’’  जाहिर है बारिखपुर के ठाकुरों के यहाँ हिन्दू-मुसलमान का द्वन्द्व नहीं है। वस्तुतः सामंती संरचना में प्रजा के प्रति व्यवहार किसी विमर्श से प्रभावित नहीं होता। यही कारण है कि फुन्नन मियाँ भी छिकुरिया से पूछ लेते हैं- ‘‘तैं हिन्दू है की मुसलमान?’’ उसके यह कहने पर कि वह हिन्दू है लेकिन..........। फुन्नन मियाँ कहते हैं- ‘‘बाकी-ओकी के रहे दे। तैं लड़बे न हमरे साथ की तहूँ हिन्दू हो जय्यबे।’’
3. परसुराम एवं उसका परिवार- परसुराम हरिजन हैकांग्रेस का नेता है और स्वतंत्र भारत में विधायक चुना जाता है। वह कुशल राजनीतिज्ञ है और मियाँ लोगों को साधने में सफल है। वह गाँधी टोपी पहनता हैभाषण देता है और दलितों के उत्थान हेतु प्रयासरत है। वह प्रगतिशील चेतना से युक्त है। एक मियां साहब उनके विषय में यह कहते हैं- ‘‘ऊ सब अछूत ना हैं.........हरिजन हो गए हैं..........उन्होंने मुर्दा खाना भी छोड़ दिया है और कोई महीना भर पहले चमारों का एक गोल परूसरमवा की लीडरी में पंडिताने के कुँए पर चढ़ गया और पानी भर लाया।’’ वह साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल भी है। फुन्नन मियाँ अब्बास से कहते हैं- ‘‘ऐ भाईओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे,  काहे को कि ऊ में शीआ लोग तबर्रा पढ़त हएँत परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उठ्ठी और ऊ ताबूत उठ्ठा।’’ ज्यों-ज्यों उसकी राजनीति चमकती हैवह द्विज श्रेणी में शामिल होता जाता है। उसकी जीवन-शैली आभिजात्य होती जाती है। वह आदरणीय बनता जाता है। यह सब मियाँ लोगों को खटकता है। फुन्नन मियाँ इस चिड़चिड़ाहट को यूँ व्यक्त करते हैं- ‘‘ए भाई! अल्ला के कारखाने में दखल देवे वाले तूँ कौन ? ऊ अपने गधे को चने का हलवा खिला रहें।’’ वरिष्ठ आलोचक कुँवरपाल सिंह इस बदलाव को लक्षित करते हैं, ‘‘युग परिवर्तन के कारण परसुराम गाँव की सबसे बड़ी हस्ती हो गया है। वह गंगौली नहींपूरे क्षेत्र के विषय में निर्णय लेता है। छोटे अफसर और थानेदार तक उसकी चिरौरी करते हैं। मियाँ लोगों के लिए यह  मर्मान्तक पीड़ा भी है।’’ (कुँवरपाल सिंहराही मासूम रज़ा मोनोग्राफसाहित्य अकादमीनई दिल्लीप्रथम संस्करण2005पृष्ठ-42) उसकी बिरादरी में उसके प्रति आदर की वज़ह से बोलने का लहजा बदल गया है। राही ने इस बदलाव को इस तरह रेखांकित किया है- ‘‘परूसराम आइल बाड़न।’ बाहर से धनिया चमार ने आवाज दीजो जमींदारी के खातमे के बाद भी अब्बू मियाँ से चिपका हुआ था। ‘आईल बाड़न!’ अब्बू मियाँ ने अपनी आँखें नचा कर कहा।’’ अब्बू मियाँ का आँखें नचाना उन हिकारतों को संकेतित करता है जो परसुराम समेत तमाम निम्न जातियों के लिए उच्च वर्णों में है।
  परसुराम के द्विज हो जाने का प्रमाण उसके यहाँ लगने वाला दरबार है- ‘‘उसका दरबार गाँव का सबसे बड़ा दरबार होता। उसके दरबार में लखपति भी आते और फाकामस्त सैय्यद साहिबान भी। ये लोग कुर्सियों पर बैठते और सिगरेट पीते और रेडियो सुनते। उनसे थोड़ी ही दूर पर गाँव के गरीब-गु-र-बा होतेजो पहले ही की तरह जमीन ही पर ऊँकड़ू बैठतेखैनी खाते और बीड़ी पीते। उनकी किस्मत में जमीन पर बैठना ही लिखा था।’’ विधायक होने के बाद वह न सिर्फ मियाँ लोगों के झगड़े सुलझाता है बल्कि हम्माद मियाँ को डाँट भी देता है। वह बेअदबी भरे लहजे में कहता है- ‘‘गया के पास जाने का जी चाह रहा है क्या आपका?’’ गया तब जेल में था। यह एक तरह की धमकी थी जो परसुराम हम्माद मियाँ को देता है। परसुराम की बढ़ती शक्ति की यह एक बानगी है।
   एक पेशेवर राजनेता की तरह परसुराम सत्ता सुख पाने के सभी हथकण्डे अपनाता है। वह कांग्रेस के उस चरित्र का द्योतक है कि पार्टी सतही तौर पर तो लोकतांत्रिक प्रतीत होती है किन्तु बुनियादी तौर पर यथास्थितिवाद को पोषित करती है। इसीलिए परसुराम को बुरा लगता है कि ‘‘मियाँ लोगों में पाण्डेयजी का आना-जाना बहुत हो रहा है आजकल।’’ चूँकि पाण्डेयजी कम्यूनिस्ट नेता हैं और उसके खिलाफ़ जनान्दोलन खड़ा करने की कोशिश करते हैं अतः परसुराम को बुरा लगता है।
  उपन्यास में बहुत सजगता से दिखाया गया है कि परसुराम दलित उभार का प्रतीक होकर भी दलितों के लिए कुछ नहीं करता। फिर भी उसके जाति समुदाय के लोगों को इस बात का संतोष था कि ‘‘उनका एक आदमी मियाँ लोगों की कुर्सी पर बैठता है और मियाँ लोग उसके दरवाजे पर आते हैं और फ़र्क यह हुआ था कि वह मियाँ लोगों के सामने बीड़ी पीने लगे थे।’’ वास्तव में परसुराम उसी राजनीतिक व्यवस्था का अंग होकर रह जाता है। यही कारण है कि वर्चस्व की लड़ाई में वह हम्माद मियाँ से मात खा जाता है। उसे जेल हो जाती है।
  विधायक होने के बाद परसुराम के घरवालों का रहन-सहन बदल जाता है। उसकी पत्नी ने ‘‘ऩफीस साडि़याँ पहनना सीख लिया था। उसके जिस्म पर बड़े नाजुकखूबसूरत और कीमती जेवर थे। उसे लिपिस्टिक लगाना नहीं आता थाइसलिए उसके होठों पर लिपिस्टिक थुपी हुई थी।’’ वह अपना वर्गान्तरण कर चुकी थी इसलिए उसका मानना था कि वह मियाँ/बीबी लोगों की बराबरी में बैठ सकती है। यही मानसिकता उसे हम्माद मियाँ के यहाँ पलंग पर बिठा देती है। कुबरा के दुरदुरा देने से उसमें नवधनाढ्य वाली अकड़ दिखती है- ‘‘अ-भ-ईं तक आप लोगन का दिमाग ठीक ना भया।’’ वह इस प्रकार का वर्गान्तरण कर चुकी है कि उसे अहसास तक नही है कि मियाँ लोगों को परसुराम की द्विज स्थिति कितनी चुभ रही है। ‘‘दलित चेतना का विमर्श रचते हुए राही मासूम रज़ा इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि भारतीय समाज की सामंती संरचना हिन्दू व मुस्लिम का भेद किए बिना दलितों के राजनीतिक उभार को लेकर कितनी असहज थी।’’ परिणामतः होता यह है कि कुबरा उसे खूब खरी-खोटी सुनाती हैं।
 परसुराम का पिता सुखराम बेटे के एम0एल0ए0 बन जाने से धनी हो गया है। हकीम अली कबीर उसके कर्जदार हैं। वह कर्जअदायगी हेतु सम्मन भिजवाता है। धनी हो जाने एवं आभिजात्य जीवन-शैली अपना लेने के बाद भी उसके पुरातन संस्कार समाप्त नहीं होते। कुर्सियों पर वह पाँव रखकर बैठता है और मियाँ लोगों के आ जाने पर हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता है। जब परसुराम हम्माद मियाँ से उलझ रहा होता हैवह परसुराम को प्यार भरे शब्दों में डाँटता है- ‘‘तू हूँ बुरबके रह गयो परसुराम। च-ल बैयठा-व मियाँ के। चलींमियाँहियाँ काहे ठाड़ बाड़ीं।’’ वह अभी भी प्राचीन पीढ़ी का व्यक्ति है।
आधा गाँव के प्रमुख पात्रों में परसुराम इसलिए भी महत्व रखता है कि स्वतंत्र भारत में सत्ता का केन्द्र न सिर्फ बदलकर उसके तबके के पास आ गया है अपितु प्रमुख भूमिकाएं भी निभाने लगा है।
4. झिंगुरिया एवं छिकुरिया- झिंगुरिया फुन्नन मियाँ का लठैत है। चूँकि फुन्नन मियाँ के सामंती सरोकार सहज ही क़तलफौजदारीलूटडकैती आदि से जुड़े हैं अतः झिंगुरिया का महत्त्व पक्का साथी होने के कारण अधिक है। वह बहुत सधा हुआ सेंधमार है। गोबरधन के यहाँ वह आठ बार सेंधमारी कर चुका था। वह गुलबहरी के लिए भी सेंधमारी करता है। यह सेंधमारी फुन्नन मियाँ के कहने पर होती है। इस अभियान में इसको फाँसी हो जाती है। यह घटना इतनी सहज प्रतीत होती है कि उसके बेटे छिकुरिया को ‘‘बाप के फाँसी पा जाने का ऐसा मलाल नहीं था। उसे तो एक दिन फाँसी पानी ही थी।’’ झिंगुरिया के बाद छिकुरिया फुन्नन मियाँ के लिए उसी भूमिका में आ जाता है। वह फुन्नन मियाँ को अपना सर्वेसर्वा स्वीकार कर लेता है। चूँकि ‘‘हम्माद मियाँ ने फुन्नन मियाँ के खिलाफ़ गवाही दी थी। इसलिए हम्माद मियाँ के किसी भी आदमी की तरफ से छिकुरिया का दिल साफ नहीं था।’’ यह सामंती परिपाटी थी कि अपने जमींदार के प्रति निष्ठा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती थी। छिकुरिया उसका सहज ही अनुगमन कर रहा था। अपने जमींदार के प्रति उसकी स्वामी भक्ति धर्म की संकीर्णताओं से परे थी। फुन्नन मियाँ के साथ एक संवेदनशील मुद्दे पर उसकी बातचीत इस बात को प्रमाणित कर सकेगी- ‘‘बारिखपुर-वालन को अइसे दिन लग गए की ऊ अब सलीमपुर पर चढ़ाई करे लायक हो गए। तोरा कोई आदमी हुआँ है की ना?’’
 ‘‘दस जन हव्वन!’’ छिकुरिया ने कहा, ‘‘बाकी जउन हिन्दू-मुसलमान के नाम पर लकड़ी चल गइलत बड़ी मुश्किल पड़ी।’’
 ‘‘हिन्दू-मुसलमान करके कोई क ठो झाँट टेढ़ी कर लीहे!’’ फुन्नन मियाँ ने अपनी मूँछों पर ताव दिया, ‘‘तैं हिन्दू है की मुसलमान?’’
 ‘‘हम त हिन्दू हई मीर साहब बाकी.........’’
‘‘बाकी-ओकी के रहे दे। तै लड़बे न हमरे साथ कि तहूँ हिन्दू हो जय्यबे?”
छिकुरिया के सामंती सरोकार जाने-अनजाने हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल बनते हैं। जैसा कि पहले कहा गया हैभारतीय समाज की संरचना में साम्प्रदायिक सौहार्द सामंती व्यवस्था की देन हैछिकुरिया इसका सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण है। शहर में जब उसकी मुलाकात मास्टर साहब से होती है तो वह बहुत मायूस लौटता है। वह अपनी स्पष्ट मान्यता को मास्टर जी के समक्ष रखता है- ‘‘आकिस्तान-पाकिस्तान हम ना जनतेई। बाकी जो कोई पाकिस्तान बुरी चीज बाय त मत बने दे ईं। हम छाती ठोंक के कहत बाड़ीपीछे हट जायीं त आपन बाप का ना कहलायींचलीं।’’ वह इमाम साहब के प्रति असीम श्रद्धावान है और मानता है कि ‘‘इमाम साहब मुसलमान नहीं हो सकते। मुसलमान तो मौलवी बेदार हैं जो हिन्दुओं का छुआ नहीं खाते। मुसलमान तो हकीम अली कबीर हैं जो बात-बात पर दरवाजे के हौज़ मेंअपने को पाक़ रखने के लिएनहाते रहते हैं।’’ वह मास्टर जी से दो टूक शब्दों में कहता है- ‘‘जहाँ फुन्नन मियाँ का पसीना गिरी नाहुआँ समूच भर टोली मर ना जायी।’’ उसकी स्वामीभक्ति अंत तक बनी रहती है। अंततः वह फुन्नन मियाँ के साथ ही मारा जाता है- ‘‘मर गए फुन्नन मियाँ।
   ‘‘मर गया छिकुरिया।
   ‘‘दोनों के खून मिल गएमगर कोई तीसरा रंग पैदा नहीं हुआ। क्योंकि दोनों के खून का रंग एक ही था।’’
  वस्तुतः छिकुरिया और झिन्गुरिया दोनों ही फुन्नन मियाँ की रियाया (प्रजा) हैं जो उनके लिए बलिदान हो जाते हैं। इनके चरित्र से सामंती संरचना की परतें ही नहीं उद्घाटित होतीं अपितु साम्प्रदायिक सौहार्द की स्थिति का भी पता-चलता है। गंगौली के मियाँ लोगों के लिए ही नहीं छिकुरिया के लिए भी पाकिस्तान एक पहेली है- ‘‘हम त समझत बाड़ीं की ई पाकिस्तान कउनो महजिद-ओहजिद होई।’’
   झिंगुरिया और छिकुरिया हिन्दू नहीं हैंवे मुसलमान भी नहीं हैवे फुन्नन मियाँ के आदमी हैं और उनकी चेतना भी फुन्नन मियाँ से सम्बद्ध है।
  5. गोबरधनगंगौली के बनिया गोबरधन की इतनी हैसियत है कि ‘‘वह मियाँ लोगों के यहाँ आता तो पाइँती  जगह पाता। यह एक ऐसा ऐज़ाज था जो गंगौली में किसी गैर षिया को अब तक नहीं मिला था।’’ वह गंगौली में घर जमाई बनकर रह रहा था। वह व्यापार में हजारों के नफे-नुकसान की चर्चा करता था। उसकी ख्याति थी कि वह लाखों का माल छिपाए था। झिंगुरिया के बार-बार सेंध मारने और खाली हाथ लौटने के बावजूद उसकी ख्याति बढ़ती जाती थी। उसके व्यापार की पोल तब खुलती है जब अंग्रेज सरकार के लिए चंदा उगाहते समय ठाकुर हरनारायन प्रसाद दस हजार की माँगकर बैठते हैं। वह अपनी कारोबारी बही और एक थैली लेकर पहुँचता है- ‘‘हमार कुल कारोबार एही में बायसरकार।’’ गोबरधन ने कहा, ‘‘और पूँजी थैलिया माँ और गिन लियन चार सौ अगारा रूपिया है। अब हम का कहें।’’ .........उसका कारोबार एक ख्वाब था। एक बेज़रर ख्वाब।’’ थानेदार और हकीम साहब के सामने हक़ीकत खुलने पर वह गंगौली छोड़कर संन्यासी बन जाता है।
       बाबा के वेष में उसका अवतरण समीप के एक गाँव में मंदिर पर होता है जो चमत्कारी किस्म का है। अपने तथाकथित चमत्कारों से वह लोकप्रिय होता जाता है। जब थानेदार का छापा पड़ता है तो वह भाग जाता है। उसकी बही से पता चलता है कि वह अब भी अपने स्वप्नजीवी व्यापार से मोह त्याग नहीं पाया था। जब थाना क़ासिमाबाद फूँका जा रहा था तो उसे फूँकने वाली भीड़ में गोबरधन भी शामिल था। पुलिस की ओर से होने वाली गोलीबारी में वह मारा जाता है। वह शहीद बन जाता है। बालमुकुन्द वर्मा उसकी प्रशस्ति करते हैं- ‘‘अमर है वह गाँव और धन्य हैं वे माता-पिता जिन्होंने मातृभूमि पर हरिपाल और गोबरधन जैसे सपूतों की आहुति दी! धन्य है कासिमाबाद की यह पवित्र भूमिजिसके माथे पर गोबरधन और हरिपाल के रक्त का तिलक लगा हुआ है।’’
6. गया अहीर- गया अहीर हम्माद मियाँ का लठैत है। उसकी स्थिति बहुत कुछ झिंगुरिया और छिकुरिया की सी है। वह ताजियादारी के दौरान हुई फौज़दारी में हकीम साहब पर लाठी उठाने से गुरेज नहीं करता लेकिन मियाँ लोगों का बहुत सम्मान करता है। ‘‘यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि जो गया अहीर सैय्यद अशरफ़ के भृत्य व सेवक के रूप में स्वयं इस भेदभाव का शिकार थावही अनजाने ही इस ऊँच-नीच को बरकरार रखने के ऐच्छिक साधन के रूप में इस्तेमाल हो रहा था। जिन हम्माद मियाँ का रोबदाब गया अहीर की लाठी के बल पर कायम था वही हम्माद मियाँ हकीम साहब से अपने झगड़े का ठीकरा गया अहीर के सिर फोड़ते हैं।’’(वीरेंद्र यादव, अभिनव कदम) गया स्वयं निम्न कुलोत्पन्न हैकिन्तु जाति या वर्ग की आधुनिक चेतना के बजाय वह परम्परागत कुलीन तंत्र को बनाए रखने का हिमायती है। वह मासूम को कबड्डी खेलनेवाले लड़कों से छुड़ाता है और कड़ी फटकार लगाता है। वह मासूम को भी समझाता है- ‘‘आप मियाँ हुईंआप के ई ना चाही।’’
  गया सामंती संरचना का अनिवार्य अंग है। वह वर्ग चेतना से पूर्णतया अनभिज्ञ है। उसके हित अनिवार्यतः मियाँ लोगों से सम्बद्ध हो गये हैंइसलिए वह जब कभी सोचता है तो उसमें मियाँ लोगों के बदहाल होते जाने का मलाल है- ‘‘गया अहीर मजलिस के इन हंगामों से जरा हटकर गुसलखाने के दरवाज़े पर बैठा लौंडों को गलिया-गलियाकर चुप करवा रहा था। बड़ा सुफैद फरहरा हवा में लहरा रहा था। फरहरा कई जगह से फट गया था और गया सोच रहा था कि इस जंग ने तो मोहर्रम की रौनक छीन ली है। वरना भला बड़के फाटक पर फटा हुआ फरहरा लग सकता था।’’ वह जमींदारी समाप्त हो जाने के बाद भी हम्माद मियाँ के साथ लगा रहता है क्योंकि उसकी चेतना मियाँ लोगों के हितार्थ है।
  इन पात्रों के अलावा उपन्यास में कई अन्य पात्र हैं जिनकी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं। चिरौंजी फुन्नन मियाँ का लठैत है। कोमिला चमार बेवजह हकीम अली कबीर के लिए फाँसी चढ़ जाता है। इनके जेल जानेफाँसी चढ़ जाने से कोई हलचल नहीं होती क्योंकि इनका अपना कोई व्यक्तित्व-अस्तित्व नहीं। जमींदारी का चक्र इतना प्रभावशाली है कि पंडित मातादीन को मियाँ लोगों की टहल बजानी पड़ती है। दारोगा ठाकुर हरनारायन प्रसाद के लिए शरबत बनाने के लिए उन्हें बुलाया जाता है। तमोली पान बनाने एवं पेश करने के लिए बुलाया जाता है। गंगौली के मीर साहेबान के यहाँ हड्डी की शुद्धता और अपने अशरफ़ होने का इतना गर्व है कि निम्न जाति के हिन्दुओं का कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं बन पाता। जवाद मियाँ की रखैल बन जाने के बीसियों वर्ष बाद भी कम्मो की माँ रहमान बो ही रहती है। इसी तरह सुलेमान के झंगटिया बो को घर में डाल लेने पर भी वह झंगटिया बो बनी रहती है।
 ‘आधा गाँव’ में लोगों का सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार संकीर्णताओं से परे हैं। उनके आपसी सम्बन्ध को धार्मिकता प्रभावित नहीं कर पाती। इसीलिए छिकुरिया मास्टर जी से मिलकर उदास लौटता है। स्वामी जी के प्रवचन से उत्तेजित लोगों को जयपाल सिंह खदेड़ लेते हैं। बालमुकुंद वर्मा शहीदों के उल्लेख में जब मुमताज का एक भी बार नाम नहीं लेते तो फुन्नन मियाँ को बुरा अवश्य लगता है लेकिन वे इसे भाव नहीं देते। वस्तुतः जमींदारी का सामंती ढाँचा साम्प्रदायिकता को प्रसरित नहीं होने देता।
  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जमींदारी उन्मूलन के परिणामस्वरूप नयी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था लोगों में बुनियादी परिवर्तन की चेतना का संचार करती है। दलितों का एक वर्ग तेजी से धनाढ्य बन रहा है। लखना चमार जमीन खरीद रहा है। सुखरमवा हकीम साहब पर कर्ज अदायगी हेतु सम्मन भिजवा रहा है और एक वर्ग सीधे-सीधे परसुराम से कह रहा है- ‘‘ई जमींदार लोगन का मिजाज जमींदारी के चल जाए से भी ठीक ना भया है।’’ यही वर्ग फुस्सू मियाँ से जूते खरीद रहा है और अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेर रहा है।
  वास्तव में, ‘आधा गाँव’ के शिया सैय्यदों की इस कहानी में हिन्दुओं का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ ध्यातव्य है कि पाकिस्तान विमर्श साम्प्रदायिक सौहार्द और गंगा-जमुनी तहजीब की जो तस्वीर इस उपन्यास से उभरती है वह हिन्दुओं के चरित्रांकन के अभाव में सम्भव नहीं। हिन्दुओं के उल्लेख के अभाव में उस सामंती संरचना का भी निदर्शन संभव नहीं था जिसमें लोगों के सम्बन्ध धार्मिकता से नहींबल्कि सहअस्तित्व एवं परस्पर निर्भरता से प्रभावित होते थे। इन सम्बन्धों में जमींदार और प्रजा का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों से ऊपर था। राही मासूम रज़ा ‘आधा गाँव’ में ही नहीं अपने समग्र साहित्य में जिस भारतीयता को रेखांकित करते हैं वह दोनों समुदायों के आपसी तालमेल से ही बना है।

संदर्भ-सूची
1.  राही मासूम रज़ाआधा गाँवभूमिकाराजकमल प्रकाशननई दिल्लीतीसरा संस्करण.
2.  वीरेन्द्र यादवविभाजनइस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमानअभिनव कदम,
3. कुँवरपाल सिंहराही मासूम रज़ा मोनोग्राफसाहित्य अकादमीनई दिल्लीप्रथम संस्करण2005


मंगलवार, 3 मार्च 2020

कथावार्ता : तकनीक की दुनिया और हिन्दी



मैं यह लेख लिखने के लिए अपने कंप्यूटर पर जिस तकनीक का सहारा ले रहा हूँ, वह गूगल का ट्रांसलिट्रेशन सॉफ्टवेयर है। यह कई भारतीय भाषाओँ के लिए उपलब्ध है। इस तकनीक में, मैं कोई शब्द रोमन लिपि में टाइप करता हूँ और वह देवनागरी में बदल जाता है। इस तकनीक में एक सहूलियत यह भी है कि मेरे कंप्यूटर स्क्रीन पर उस लिखे गए रोमन शब्द के पांच संभावित उच्चारण भी बतौर विकल्प उभरते हैं। इससे यह सुविधा रहती है कि मैं अपनी जानकारी का सही वर्तनी वाला शब्द चुन लूँ और उसे लिखकर आगे बढ़ा लूँ। यह लेख यूनिकोड में लिखा जा रहा है। इसका फायदा यह है कि यह सभी तरह के कम्यूटर में सुपाठ्य है यानि कि इसे सहेजने/पढ़ने के लिए किसी अन्य सॉफ्टवेयर की आवश्यकता नहीं है। मैं इससे पहले कृतिदेव के विविध फॉण्ट में लिखा करता था। और कभी कभी देवनागरी नामक फॉण्ट में भी। हिन्दी के लिए कृतिदेव और देवनागरी विशेष तौर पर डिजाइन किया गया सॉफ्टवेयर है। क्रुतिदेव के साथ दिक्कत यह थी कि इसका फॉण्ट वाला सॉफ्टवेयर हर जगह नहीं मिलता था। तकनीक ने यह भी कर दिया है कि अगर आपका लेख कृतिदेव में है तो वह उसे आपके मनचाहे फॉण्ट में बदल देगा। मैं समझता हूँ कि तकनीक के पचार-प्रसार ने हिन्दी को वैश्विक स्तर पर सुगम और सहज बना दिया है।
यह इसलिए है कि वैश्विक स्तर पर हिन्दी कई चुनौतियों से रूबरू हो रही है। भारत जैसे देश में जहाँ भाषा को लेकर इतनी राजनीति और पेंच है, वहाँ अपनी भाषा और लिपि को सुरक्षित रखना अपनी जिम्मेदारी है। बाजार का दबाव ऐसा है कि वह एक समृद्ध परम्परा को लील जाने को तैयार है। यह महसूस किया जा रहा है कि तकनीक के इस तरह आमजन में पैठ बना लेने ने तकनीक के बादशाहों को अपना खेल खेलने की खुली छूट दे दी है। तकनीक के यह बादशाह निःसंदेह वे हैं, जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। इस खेल में एक बड़ा अध्याय लिपि और भाषा का है। इस खेल की राजनीति जानने वाले इसे महसूस कर रहे हैं कि यह किस तरह हिन्दी भाषा और उसकी वैज्ञानिक लिपि देवनागरी को नष्ट कर रहे हैं।
          कंप्यूटर और अंतर्जाल के आधुनिक समय में हिन्दी की स्थिति का आकलन करना एक जरूरी कदम है। हिन्दी में कम्यूटिंग का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। वास्तव में हिन्दी के कुछ अनाम शुभेच्छुओं ने इसे लगातार विकसित करते रहने का सराहनीय काम किया है। हिन्दी में कम्प्यूटिंग की शुरुवात १९८३ई० से मानी जाती है, जब पहलीबार ‘अक्षर’ और ‘शब्दरत्न’ का पदार्पण हुआ। १९८६ ई० में भारतीय भाषाओँ के लिए कंप्यूटर में कुंजीपटल भी मान लिया गया। लेकिन १९९१ई० में यूनिकोड के आगमन ने भारतीय भाषाओं के लिए क्रान्तिकारी काम किया। यह एक साथ देवनागरी, बंगला, गुरुमुखी, तमिल, कन्नड़, मलयालम और उड़िया भाषाओँ के लिए कारगर था। इसमें प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष संख्या रहती है। अब  चाहे कोई भी कम्प्यूटर प्लेटफॉर्म, प्रोग्राम  अथवा कोई भी भाषा हो। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह था कि इस कोड के आ जाने से किसी भी भाषा का टेक्स्ट पूरे संसार में बिना भ्रष्ट हुए चल जाता है। यह सारे संसार में एक तरह से काम करता है। यूनिकोड को बालेंदु शर्मा दाधीच ने विकसित किया था। आज दुनिया में तमाम लोग इन्टरनेट पर यूनिकोड का इस्तेमाल करते हैं और हिन्दी समेत कई भाषाओँ के लिए यह जीवनदायी बन गया है। हिन्दी के टंकण और कंप्यूटर पर इसके दोस्ताना सम्बन्ध विकसित करने की दृष्टि से यूनिकोड का महत्त्व निर्विवाद है। वर्तमान में, हिन्दी, आधुनिक तकनीक के क्षेत्र में अंग्रेजी से टक्कर ले रही है। आज अधिकांश मोबाइल फोन अपना सॉफ्टवेयर विकसित करते हुए इसका ध्यान रख रहे हैं कि इसमें देवनागरी में लिखने-पढ़ने में सुविधा रहे। हिन्दी के प्रचलन के दृष्टिकोण से वर्ष २००७ई० एक महत्त्वपूर्ण वर्ष है। एक आकलन में यह पाया गया कि इंटरनेट पर चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद हिन्दी सर्वाधिक लोकप्रिय तथा प्रयोग की जाने वाली भाषा है।  हिन्दी को कंप्यूटर के क्षेत्र में सक्षम बनाने के क्षेत्र में जिन लोगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें विनय छजलानी, हेमन्त कुमार, वासु श्रीनिवास, बालेन्दु शर्मा दाधीच, देवेन्द्र पारख, अभिषेक चौधरी और डॉ॰ श्वेता चौधरी, कुलप्रीत सिंह, राघवन एवं सुरेखा, रमण कौल, रवि रतलामी  आदि का नाम प्रमुख है।
          हिन्दी में कम्प्यूटिंग आसान हो जाने का एक लाभ यह हुआ है कि इस भाषा से सम्बंधित बहुत सारी सामग्री इन्टरनेट पर आने लगी है। कई एक किताबें सहज ही ई फॉर्म में उपलब्ध हैं और उन पुस्तकों को यहाँ वहां ले जाना आसान हो गया है। कई संस्थानों ने शब्दकोश और थिसारस तक अपलोड कर दिया है। हिन्दीसमय.कॉम ने तो एक बीड़ा उठाया है कि वह हिन्दी में मौजूद विश्व स्तर की सामग्री को ई फॉर्म में पाठकों के लिए सुलभ कराएगी। हिन्दीसमय.कॉम भारत सरकार के अधिनियम से स्थापित महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का एक महत्वाकांक्षी उपक्रम है। वह इसे निरंतर कार्यान्वित करने में जोर-शोर से जुटी हुई है। लगभग सभी प्रमुख हिन्दी समाचारपत्र और पत्रिकाओं ने अपना URL विकसित कर रखा है और उनको पढ़ने वाले समूचे विश्व में लोग मौजूद हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में इन्टरनेट का योगदान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकेले हिन्दी में चिट्ठाजगत पर १०००० से ज्यादा ब्लॉग पंजीकृत हो गए हैं। यह संख्या इस बात का संकेत है कि हिन्दी ने तकनीक को किस खूबसूरती से अपना लिया है। हिन्दी के कई एक ब्लॉग तो उम्दा साहित्यिक-सांस्कृतिक सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। हिन्दी के इन प्रमुख ब्लॉगस में अनुनाद, सिताबदियारा, पहलीबार, बुद्धू-बक्सा, लिखो-यहाँ वहां, वांग्मय, कॉफ़ी हॉउस, पढ़ते-पढ़ते, पाखी, भड़ास मीडिया, रेडियोवाणी, मेरा गाँव मेरा देश आदि बहुत लोकप्रिय हैं। कई एक प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने सम्पादकीय पन्ने पर ब्लॉग के स्तम्भ शुरू किये हैं। जनसत्ता द्वारा इस मामले में किया जाने वाला पहल सराहनीय है। जनसन्देश टाइम्स भी इस दिशा में सराहनीय काम कर रहा है। इसके अलावा कई पत्रिकाओं ने ब्लॉग से स्तम्भ शुरू किया है। पाखी और समकालीन सरोकार तो बाकायदा इस दुनिया से मुद्दे लेकर बहस करते-कराते हैं।
          तकनीक के साथ आसानी से सामंजस्य बिठा लेने से एक फायदा यह भी हुआ है कि दुनिया के लगभग सभी विकसित एवं विकासशील देशों ने अपने देश में मीडिया द्वारा हिन्दी में समाचार चैनल, समाचार के ई फॉर्म में अखबार आदि छापना शुरू कर दिया है। वस्तुतः विश्व के सभी बड़े देश यह मानते हैं कि हिन्दी में अपार संभावनाएं हैं। सबसे पहली तो यह कि यह दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओँ में शुमार है और दूसरे यह कि इस तरह से यहाँ बाजार की बड़ी संभावना है। यही कारण है कि भारत में प्रबंधन का गुण एवं पाठ पढ़ाने वाली कई एक संस्थाएं हिन्दी में भी पाठ्यक्रम शुरू कर रही हैं और सफलतापूर्वक उसे क्रियान्वित कर रही हैं। यह हिन्दी और तकनीक के आपसी तालमेल से संभव हो सका है।
          इधर फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल माध्यमों ने हिन्दी की ग्राह्यता बढ़ाई है। फेसबुक पर देवनागरी में लिखने वाले लोग लाखों की संख्या में हैं। फेसबुक और ट्विटर ने लोगों को एक बेहतरीन मंच प्रदान किया है। अपना अनुभव, रोजमर्रा का जीवन और त्वरित प्रतिक्रियाओं से लोग लगातार वहां लिख-पढ़ रहे हैं और भाषा की स्वीकारता बढ़ा रहे हैं। हिन्दी वहां भी अपने तकनीकी रूप में सफलता से काम कर रही है। अब इन माध्यमों में लिखने पढ़ने वाले लोग अभिव्यक्ति के लिए देवनागरी की मदद ले रहे हैं और हिन्दी के प्रचार प्रसार में मदद दे रहे हैं।
          भाषा के विकसित होने और भूमंडलीकरण के दौर में अन्य भाषाओँ की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दी तकनीक को बेहतर तरीके से अपनाए। देश के आजाद होने के समय यह संकट हिन्दी के साथ बना हुआ था। वास्तव में, लेखन में तकनीक के हस्तक्षेप के बाद से ही यह जरूरत महसूस की जाने लगी थी कि देवनागरी के वर्णों और मात्राओं को कम किया जाए ताकि टंकण और मुद्रण में आसानी हो। देवनागरी इतनी वैज्ञानिक लिपि है कि उसमें किसी तरह का भ्रम नहीं प्रकट होता। उच्चारण और लेखन दोनों स्तर पर। इसी को देखते हुए काका कालेलकर द्वारा गठित एक आयोग ने यह अनुशंसा की थी कि इस लिपि के मात्राओं को एक रूप कर दिया जाए। यथा ‘इ’ ‘ई’, ’उ’, ’ऊ’ की जगह अ पर ही इ, ई, उ, ऊ ए ऐ आदि की मात्रा लगा दी जाए। आज भी गुजराती ने इसे अपनाया हुआ है। कम्प्यूटिंग ने नई तकनीक विकसित करके इस गड़बड़झाले से उबार लिया है। अब हिन्दी में टंकण के इतने विकल्प मौजूद हैं कि कोई कठिनाई ही नहीं रह गयी है। टंकण की कठिनाइयों को ध्यान में रखकर ही हिन्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान ‘असगर वजाहत’ ने सुझाव दिया था कि हिन्दी को भी रोमन लिपि में लिखा जाना चाहिए। इससे, उनका मानना था कि हमारी भाषा वैश्विक बन सकेगी। अभी हाल में ही, नये जमाने के लुगदी साहित्यकार चेतन भगत ने भी देवनागरी की बजाय रोमन में लिखने की वकालत की है। असगर वजाहत और चेतन भगत की इस अवधारणा का चौतरफा विरोध किया गया है। वैसे भी तकनीक पर काम करने वाले विद्वानों ने हिन्दी को देवनागरी में लिखने को इतना आसान बना दिया है कि यह सुझाव एक हास्यास्पद सुझाव बन कर रह गया।
          आज चौतरफा कम्प्यूटरीकृत समय में यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी भाषा को इसके काबिल बनाएं ताकि यह वैश्वीकरण के वातावरण में ढल सके। वास्तव में, हिन्दी को वैश्विक समाज में अपनी जगह बनाने के लिए तकनीक की दुनिया से कदम मिलकर चलना होगा। तकनीक की यह पहुँच भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगी। जिस भाषा में इतना उच्च कोटि का साहित्य और विपुल मात्रा में पाठक तथा बोलने वाले मौजूद हों उस भाषा का तकनीक से लैस होना अत्यंत आवश्यक है। यह सुखद है कि हिन्दी के प्रति समर्पित कई एक विद्वान इस भाषा को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं और बेहतर काम कर रहे हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया कि आज अंग्रेजी और चीनी के बाद हिन्दी सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली भाषा है। इसमें अपार संभावनाएं हैं।

सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.