रविवार, 16 मार्च 2014

कथावार्ता : मसाने में छानब भांग


 

'शिवप्रिया की काशी में बड़ी महिमा है। वह शिव का प्रिय पेय है। मैं भी इस चिन्मय-पेय का बचपन से ही अनुराग रहा हूं। मेरे दादाजी घर पर ही स्वनिर्मित भांग छानते रहे हैं। पिताजी जब काशी में होते तो यह जिम्मा वही बखूबी निभाते। सहयोग के साथ मेरा भी प्रशिक्षण चलता रहा। बादाम, केसरू, खरबूजा-तरबूज के बीज छीलने जैसे काम मुझे सौंपे जाते। भांग धोने से लगायत सिल-लोढ़ा तक पहुंचने में कुछेक वर्ष लगे। भांग पिसार्इ में लोढे़ के साथ चिपका सिल उठाने की कला में पारंगत होने के लिये काफी दंड पेलना पड़ा था। सिल-लोढ़ा से बना यह रिश्ता पत्रकारिता में भी काम आया। जब आपातकाल में जेल में रहा। तरल भांग तो वहां उपलब्ध था लेकिन 'कोफेपोशा' में बंद घड़ी तस्कर मित्र शशि अग्रवाल मुझे मनुक्के की गोली उपलब्ध करवा देते थे। उसी पीड़ा के दौर में मैंने सिल-लोढ़ा बनाने वाले कारीगरों पर एक फीचर लिखा। जेल में ही चंचलजी ने स्केच बनाये थे जो 'दिनमान में कवर स्टोरी के तौर पर छपा। (जिसे जेल से चोरी छिपे प्राप्त कर आशा भार्गव ने ही 'दिनमान तक पहुंचाया था) रघुवीर सहायजी का अतिशय प्रेम था, जोखम भरा। 'विजया से ही जुड़ा आपातकाल से पहले का एक प्रसंग कवि-संपादक रघुवीर सहायजी के साथ का है। उन्हें अपने छपास आकांक्षी मित्रों से बचाकर भांग की ठंडार्इ पिलाने के बाद बनारस के गोपाल मंदिर (जिसके तहखाने की काल कोठरी में गोस्वामी तुलसीदास ने रची थी विनय पत्रिका) के सामने पखंडु सरदार की रबड़ी खिलाने ले गया था। उसी शाम काशी पत्रकार संघ में कमलापति त्रिपाठी के लिये आयोजित समारोह में बिना तयशुदा कार्यक्रम में बोलने के बाद वापसी में एकांत में उन्होंने मुझसे पूछा था कि, 'बेतुका तो नहीं बोल गया। उनका आशय भांग के असर से रहा था। मेरे प्रति अतिशय स्नेहवश मेरी नालाकियों में भी वे रस लेते थे। एक बार भारतेन्दु भवन से बहुत निकट रंगीलदास फाटक वाले पंडित लस्सी वाले के अनूठेपन का जिक्र किया तो तुरन्त तैयार हो गये। पंडित लस्सीवाले की खासियत यह थी कि उकड़ु बैठकर मथनी से आधे घंटे में एक मटकी तैयार करते थे। मजाल था कि क्रम से पहले कोर्इ लस्सी पा जाये, चाहे कितना बड़ा तुर्रम-खां हो। धैर्य के साथ सहायजी लस्सी की प्रतिक्षा में खड़े रहे। मैं उन्हें बताना भूल गया था कि पुरवा (कुल्हड़) चांटकर या पानी से धोकर पीने के बाद ही फैंकना होता है। नतीजन लस्सी पीने के बाद सहायजी ने पुरवा कचरे में फेंक दिया। नियम के नेमी पंडित 'गोरस की इस दुर्गति से पगला गये। छिनरो-भोसड़ी से प्रारम्भ होकर मतारी-बहिन तक पहुंचते ही मैंने पकड़ लिऐ पैर कि, 'गलती हमार हौ, इनके नाही बतउले रहली। त$ बहुत बड़का संपादक हउवन दिल्ली वाला। पंडितवा मुझे पहचानता था, इसलिए मुझे दो-तीन करारा झापड़ और भरपूर गाली देने के बाद शांत हुए थे। हतप्रभ सहायजी ने पूरी बात सुनने के बाद पंडितवा को सराहा और मुझे मीठी-लताड़ लगार्इ। मैं बकचोद-सा खड़ा चुपचाप सुनता रहा था। सातवें दशक के उसी दौर में दैनिक 'शांती मार्ग से श्रीप्रकाश शर्मा को अगवा कर दैनिक 'सन्मार्ग में लिवाने के बाद से ही दोपहर को भी 'शिवप्रिया सेवन का सिलसिला प्रारम्भ हुआ था। अन्यथा मैं सांयकाल ही भारत रत्न रविशंकर के बनारसी पीए मिश्राजी के 'मिश्राम्बु पर ही 'विजया ग्रहण करता था। श्रीप्रकशवा के लिये समय-काल का कोर्इ मायने नहीं था। 'मिश्राम्बु पर जुटने वालों में अशोक मिसिर, मंजीत चुतुर्वेदी, अजय मिश्रा, गोपाल ठाकुर, वीरेन्द्र शुक्ल, नचिकेता देसार्इ जैसे भंगेड़ी धुरंधर तो स्थायी सदस्य सरीखे थे। छायाकार एस. अतिबल, निरंकार सिंह, योगेन्द्र नारायण शर्मा जैसे 'कुजात सूफी भी थे, जो बिना भांगवाली ठंडार्इ पीकर पैसा बर्बाद करते-करवाते थे। मेरी और श्रीप्रकाश की लाख जतन के बावजूद निरंकरवा अंत तक बिदकता ही रहा। अतिबलजी असमय संसार छोड़ गये लेकिन अब बुढ़ौती में योगेन्द्र शर्मा 'विजया-पंथी' हुए हैं। आपातकाल से चौतरफा मुकाबला मैंने और नचिकेतवा ने भांग छानकर ही किया था। उन्हीं दिनों जब प्रशासन ने तरल भांग पर रोक लगाने की कोशिश की थी तब संभवत: सिर्फ मैंने ही दैनिक 'सन्मार्ग में संपादकीय टिप्पणी लिखकर विरोध प्रकट किया था। आपातकाल में किए गये इस कारनामे के लिये मुझे 'भंग-भूषण' की उपाधि दी जानी चाहिए। काशी से छोटी काशी (जयपुर) पहुंचने पर औघड़ स्वभाव वाले नेता माणकचंद कागदी ने पहले-पहल तरल भांग छनवाया, जो मुझे नहीं पचा था। मैं साफ-सुथरी शुद्ध घरेलू या मिश्राम्बु की तासीर का आदी था। जबकि कागदीजी ने जौहरी बाजार स्थित गोपालजी के रास्ते के मुहाने पर स्थित ठेले वाली छनवा दी। मिजाज उखड़ गया। हालाकि बनारस से श्रीप्रकाश शर्मा के जयपुर आने से पहले मैंने बड़ी चौपड़ पर मेंहदी वाले चौक की आधी बनारसी ठाठ वाली भांग की दुकान तलाश ली थी। उस दुकान पर ठंडार्इ नदारद , सिर्फ सूखी बर्फी की विविधता थी। मेरी खोज वाले 'काना-मामा की धज में साफ-सफार्इ-स्वाद से लेकर पहरावे तक बनारसीपन की झलक पाकर मन चंगा हो गया था। लेकिन जौहरी बाजार के ग्रह बनारसवालों से सदा वक्री रहे हैं। तभी एक बनारसी संत संपूर्णानन्दजी पर 'गोली कांड़ का दाग लगा था और मुझ निरीह पर 'मदन-कांड का धब्बा लगा था। हुआ यूं था कि आज के 'पत्रकारों के थानेदार आनन्द जोशी उन दिनों जौहरी बाजार की एक गली में और मैं सुभाष चौक पर रहता था। एक होली के दिन बड़ी चौपड़ पर मिलना तय हुआ। बर्फी खाकर बम-बम भोले किया। अंतत: मेरे लाख मना करने के बावजूद आनंदजी ने भांग की पकौड़ी खा-खिलाकर 'मदन-कांड की नीवं रख ही दी थी। परिक्रमा के बाद आंनद के उनके पांच बत्ती सिथत 'दाक्षयानी-गृह' छोड़कर घर पहुंचा ही था। नहाने की तैयारी कर ही रहा था कि 'भैरवी चक्र के रसिया ओम थानवी और वारूणी - प्रेमी आनंद जोशी के इकलौते साले मदन पुरोहित 'परशुराम की मुद्रा में अवतरित हुए जबकि कंठी-टीकाधारी मदनजी वैष्णव परम्परा के आकंठ ध्वजावाहक रहे हैं। मेरी नालायकी के कारण ही आनंदजी ने 'दाक्षायानी' में उत्पात मचा रखा है। मैं स्वयं असंतुलित स्थिति में था फिर भी 'कोप से बचने के लिए जाना ही पड़ा। जाता तो मदनजी पिटार्इ भी कर सकते थे। जब पहुंचा तो आनंदजी एक चक्र तांड़व पूरा कर दूसरे चक्र पर आमादा थे। इमली-गुड़ पानी, नींबू, अचार का घरेलू इलाज एक तरफ, मदनजी के शब्द बाणों की बौछार से बचता-बचता घर पहुंचा था कैसे याद नहीं। भांग कफशामक, पित्त कोपक दवा है। संतुलित सेवन आनंद प्रदान करता है असंतुलित निरानंद। 'सन्मार्ग' कालीन दौर का एक किस्सा अब तक याद है। पत्रकारिता में भाषा के प्रति चौकन्ना-पहरेदार बनारसी कमर वहीद नकवी, ओम थानवी, राहुलदेव विशेष ध्यान से पढे़। एक दिन अस्पताली संवाददाता को एक खास खबर का शीर्षक नहीं सूझ रहा था। खबर थी कि कबीर चौरा अस्पताल में एक मरीज ऐसा भर्ती हुआ है जिसका 'कामायुध केलिक्रिया की कर्इ चक्रीय दौर के बाद भी पूर्व स्थिति पर नहीं रहा है। हमें 'ज्ञान वल्लिका’ (वकौल अशोक चतुर्वेदी) सेवन के बाद भी छापने लायक शीर्षक नहीं सूझा। तब श्रीप्रकाश के साथ दैनिक 'गांडीव’ में कार्यरत 'वारुणि-संत’ गरिष्ठ पत्रकार रमेश दूबे की शरण में जा पहुंचे। उन्होंने शीर्षक सुझाया - 'सतत ध्वजोत्थान से पीड़ित अस्पताल में भर्ती’।
और अंत में सालों पहले अशोक शास्त्री से 'साढे़ छह की चरचा करने वाले कलम-कूंची के सिद्धात्मा विनोद भरद्वाज यदि मेरी खांटी सलाह मानकर 'वारुणी के बजाय 'विजया का सेवन करने लगें तो अब भी 'पौने सात की संभावना है। महादेव! अब तो मसाने के खेलब होली और छानव भांग, गुरु! बम-बम भोले!


 

मंगलवार, 11 मार्च 2014

कथावार्ता : उल्टा पड़ाईन


एक कहानी कहता हूँ. हमारे तरफ ख़ूब कही जाती है.
एक पंडिताइन मईया थीं. उनकी खासियत यह थी कि पंडीजी जो कुछ कहते, मईया ठीक उसका उल्टा करतीं. जैसे पंडीजी कहते, आज व्रत रहा जाएगा. पंडिताइन मईया कहतीं, हुँह, क्यों ब्रत रहा जायेगा? आज तो व्यंजन पकेगा. और वही पकता. पंडी जी कहते, आज खिचड़ी पका दो, बहुत मन है खाने का. पंडिताइन कहतीं, नहीं. आज तो छननमनन होगा. पंडीजी कहते- सुनो हो, मैं जरा बाहर जा रहा हूँ, तुम इसी बीच नैहर मत चली जाना. मईया कहतीं, काहे नहीं. हम नैहर जईबे करेंगे. और पंडीजी से पहले वे चली जातीं.
पंडीजी परेशान. करें तो का करें. फिर उन्होंने एक तरीका खोजा. वे इस तकनीक को समझ गए कि पंडिताइन ठीक उल्टा करती हैं तो उनने स्वयं उल्टा कहना शुरू किया. मसलन, जब उनका मन छनन मनन खाने का होता, वे कहते- आज सत्तू मिल जाता, या खिचड़ी या कुछ हल्का-फुल्का तो बहुत सही रहता. पंडिताइन पहले झनकती पटकती और फिर छनन मनन पकता. जब उन्हें आराम करना होता, वे कहते- आज ही मैं जाना चाहता हूँ. पंडिताइन कहतीं- आज कैसे जाओगे. आज नहीं जाना है. पंडीजी ने पंडिताइन की नस पकड़ ली थी.
फिर एक बार गंगा नहान का मौका आया. दंपत्ति नहाने चला. किनारे पहुँचकर पंडीजी ने कहा- सुनो, किनारे किनारे ही नहाना. भीतर पानी गहरा है. पंडिताइन ने कहा- हुँह! किनारे किनारे क्या नहाना. और वे आगे बढ़ती गयीं. पंडीजी मना करते जाते और पंडिताइन और गहरे बढ़ती जातीं..
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फिर?
फिर क्या! पंडिताइन नदी के तेज बहाव में अपनी जमीन खो बैठीं. लगीं 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाने. पंडीजी उन्हें बचाने कूदे. पंडिताइन दक्खिन की और बह रही थीं. और पंडीजी उत्तर की ओर छपाका मारते जाते!
अंततः पंडिताइन बह गयीं. पंडीजी बाहर निकल आये. सबने पंडीजी की खूब लानत मलामत की. 'आप देख रहे थे कि मईया दक्खिन बह रही हैं तो बचाने के लिए हाथ-पाँव उत्तर की तरफ क्यों मार रहे थे?'
पंडीजी ने कहा- पंडिताइन ने जीते-जी मेरी कोई बात नहीं मानी. मरते समय भी मुझे पक्का भरोसा था कि वह धारा के विपरीत ही लगेगी. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
...
(मुझे यह कहानी क्यों याद आ रही है? बस सुना रहा हूँ. आप तो जानते ही हैं- सुनने वाला सच्चा, कहने वाला झूट्ठा. लेकिन;कहनी गईल वने में, सोच अपनी मने में!)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कथावार्ता : उपन्यास में आम आदमी कहाँ है?


अरविन्द केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी के दिल्ली में सत्ता सँभालने से एक नए युग का सूत्रपात माना गया। इसी के साथ यह बहस भी शुरू हुई कि आम आदमी से उनका आशय क्या है? जब उनकी पार्टी में पी साईनाथ, मल्लिका साराभाई और इसी तरह की गणमान्य हस्तियाँ शामिल होने लगीं तो आम बनाम ख़ास का मुद्दा उठा। आखिर आम आदमी कौन है? रोजमर्रा का जीवन बहुत साधारण तरीके से रोजी-रोटी के चक्कर में उलझने वाला, भविष्य के लिए दो पैसे बचाकर रखने की चाहत में अपनी सुख-सुविधाओं में क़तर-ब्योंत करने वाला या हवाई जहाज के ऊँचे दर्जे में सफ़र करने वाला और पाँच सितारा होटल में ठहरने वाला? अपने एक साक्षात्कार में अरविन्द केजरीवाल ने चौतरफा आलोचनाओं के बाद स्थापना दी कि ‘हर वह आदमी आम आदमी है, जो अपना काम ईमानदारी से करता है। भ्रष्टाचार नहीं करता।’ उनकी इस बात ने इस बहस को एक नया रूप दिया। अरविन्द केजरीवाल की इस स्थापना के बाद मैंने खुद को आम आदमी के खाँचे से बाहर पाया।
आम आदमी कौन है? प्रेमचंद के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का होरी क्या आम आदमी है? गोदान का होरी भी आम आदमी नहीं है। वह अपना जीवन संघर्षों में व्यतीत करता है और किसान से मजदूर जीवन की त्रासदी सहते हुए मर जाता है। क्या होरी का साठ साला जीवन ईमानदार जीवन था? उपन्यास में एक प्रसंग आता है जब होरी बाँस बेचता है। बाँस बेचने के उस प्रसंग में होरी अपने भाई से छल करता है। यद्यपि इस छल में वही छला जाता है। बाँस बेचने वाला होरी को ब्लैकमेल कर लेता है। प्रेमचंद ने एक प्रसंग में यह बात भी उठाई है कि जब होरी के हाथ कुछ अतिरिक्त पैसे लगे थे तो उसने उन्हें सूद पर चलाया था। उस व्यापार में भी उसे घाटा हुआ था। होरी अपने साथी से छल से गाय खरीदता है। कहने का आशय यह है कि वह अपने जीवन में तथाकथित ईमानदारी का कितना निर्वाह करता है? अगर केजरीवाल के परिभाषा में रखें तो वह ईमानदार नहीं है। धनिया हो सकती है। परिवार का मुखिया नहीं होगा। मेहता हो सकते हैं। पूरे उपन्यास में मेहता के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह आम आदमी हो सकता है। प्रेम और विवाह के विषय में उसकी विचारधारा भी खाप पंचायतों की विचारधारा से मेल खाती है। योगेन्द्र यादव ने बीते दिन खाप पंचायतों की कार्यशैली को उचित ठहराया था। तो गोदान में आम आदमी के रूप में मेहता को चिह्नित किया जा सकता है। राय साहब तो क्या होंगे। वे गाय की खाल में भेड़िया हैं।
गोदान के बाद अगर ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘मैला आँचल’ की बात करें तो लगेगा कि वहां एक आम आदमी है। बावनदास। बावनदास में सत्य और आचरण की शुद्धता को लेकर कुछ तफसील हैं। बावनदास आचरण की पवित्रता के लिए उपवास और आज के केजरीवाल की तरह धरना आदि का आश्रय लेता है। रेणु ने मैला आँचल लिखते हुए बावनदास का जो चरित्र गढ़ा है वह विलक्षण है। वह चेथरिया पीर पर शहीद हो जाता है। वह भ्रष्टाचार रोकने की कवायद में जान दे देता है। क्या आम आदमी वही है? समूचे उपन्यास में और कौन पात्र होगा जो आम आदमी कहा जा सके? उपन्यास में प्रशान्त एक जगह ममता को चिट्ठी लिखता है। चिट्ठी में वह यह कहता है कि यहाँ के लोग देखने में सीधे हैं। लेकिन साथ ही यह भी उद्घाटित करता है कि मेरे तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में दस बार ठग लें। और तारीफ़ यह कि ठगा जाकर भी हम ठगा नहीं महसूस करेंगे। मेरीगंज के लोग भी, जो ऐसा करते हैं, वे आम आदमी कैसे होंगे। तहसीलदार तो कतई नहीं। उन्होंने तो गाँववालों और आदिवासियों की जमीनें हड़प ली हैं।
श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी में आम आदमी के खाँचे में आने वाला एक सज्जन है- लंगड़दास। लंगड़दास का जितना भी प्रसंग आता है, उसमें वह कचहरी का चक्कर लगाता मिलता है। चक्कर लगाने के जो कारण हैं, वे बहुत सटीक हैं। वह ईमानदारी से नक़ल पाना चाहता है और कचहरी का बाबू बिना पैसे लिए नक़ल देने को तैयार नहीं है। यह द्वंद्व बहुत दिलचस्प हो गया है। बाबू को पता है कि कैसे लंगड़दास को नक़ल मिलेगी। लंगड़ को भी पता है कि ईमानदारीपूर्वक उसे नक़ल नहीं मिलेगी। लेकिन उसका संघर्ष जारी है। हमारे लिए यह संघर्ष इस तरह हो गया है कि हास्यास्पद सा लगने लगता है। व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी का संघर्ष हास्यास्पद हो उठता है। आप देखेंगे कि लोग-बाग़ नक़ल के लिए लंगड़ से महज इस लिए पूछते हैं कि थोड़ा मजा आ जायेगा। लंगड़ की संजीदगी देखने लायक है। क्या आम आदमी इतना निरीह आदमी है? उपन्यास में शिवपालगंज के मेले का जिक्र है। एक बारगी यह मानने का मन करता है कि मेले में मिठाई की दुकान चलाने वाला आम आदमी होगा। लेकिन छोटे पहलवान और गंजहों से उलझने के बाद जब कोर्ट-कचहरी तक जाने का मामला आता है, वह सुलह करने को तैयार हो जाता है। लेकिन वह आम आदमी कैसे हो सकता है? श्री लाल शुक्ल ने मेले की मिठाइयों का जो वर्णन किया है वह पढ़कर पहली नजर में ही लगता है कि ये मिठाइयाँ जानलेवा ही हैं। ऐसी मिठाई बेचने वाला आम आदमी कैसे होगा? क्या रंगनाथ है? रंगनाथ में आम आदमी बनने की पूरी संभावना है। वह बन सकता है। शायद वही आम आदमी है भी।
हिन्दी के उपन्यासों में आम आदमी कहीं है तो आदर्शवादी किस्म के उपन्यासों में। ठीक ठीक यह बताना बहुत कठिन है कि यहाँ कहाँ मिलेगा। प्रेमचंद के कर्मभूमि में प्रेमशंकर के रूप में अथवा रंगभूमि के सूरदास में। यशपाल के महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘झूठा-सच’ में भी कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसे कहा जाए कि वह आम आदमी है। राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ में तो कोई है ही नहीं। छिकुरिया, कोमिला, मिगदाद जैसे हो सकते थे लेकिन उनका चरित्र ज्यादा उभारा ही नहीं गया। ‘टोपी शुक्ला’ का बलभद्र नारायण शुक्ला उर्फ़ टोपी आम आदमी बन सकता था लेकिन उसकी असंख्य न्यूनतायें हैं।
दरअसल ईमानदारी एक युटोपिक अवधारणा है। यह कुटिलता से स्थापित की जाती है। इसे स्थापित करने के अपने कैनन हैं। जब अरविन्द केजरीवाल यह कह रहे होते हैं तो वे बहुत सतही किस्म की बात कर रहे होते हैं। अपना काम ईमानदारी से कौन कर रहा है। क्या केजरीवाल ने किया? जब वे सरकारी सेवा में थे तो अपना काम ईमानदारी से कर रहे थे? उन्होंने सरकारी कार्यों का अगर सही से निर्वहन किया होता तो वे सरकारी सेवक होते न कि एक राजनेता।
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि ईमानदारी, सत्य, निष्ठा और अपरिग्रह आदि व्यवस्था का पोषण करने के लिए बनाये गए टूल्स हैं। प्राचीन समय में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इन टूल्स की बहुत आवश्यकता थी। इन टूल्स की मदद से राजा और उनके पुरोहितों ने एक संस्कृति विकसित की। इस संस्कृति में वे हमेशा राजा और पुरोहित बने रहने वाले थे और स्वयं इस नीति-नियम से ऊपर रहने वाले थे। ऐसा ही हुआ। दुनिया भर में यह तकनीक सबसे ज्यादा कारगर रही और दुनिया भर में इसे अपनाया भी गया।
लेकिन यहाँ इन बहसों के लिए अवकाश नहीं है। यहाँ यह देखना है कि केजरीवाल ने जो परिभाषा दी है, उस परिभाषा की कितनी चीर-फाड़ की जाती है। दरअसल नैतिकता के मामलों में हम बिना किसी तर्क के वाक-ओवर दे देते हैं। यह वाक-ओवर ही केजरीवाल की जीत और बढ़त का राज है। वरना हम सब जानते हैं कि आम आदमी का कहीं अता-पता नहीं है। सब गुणा-गणित का फेर है।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

बया का अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३

कोई बताएगा कि यह 'उपन्यासिका' क्या होती है? क्या यह लम्बी कहानी और उपन्यास के बीच की कोई विधा है या कुछ और?
‘बया’ के नवीनतम अंक अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३ में मनाली चक्रवर्ती की उपन्यासिका 'सवेरा होने वाला है' बड़ी मेहनत से पढ़ गया. यह खासा उलझाऊ था. स्त्री मुद्दे को लेकर लिखे गए इस उपन्यासिका में विमर्श के कई पहलू छूने की कोशिश हुई है. थोड़ा अनाड़ीपन के साथ और थोड़ा अति उत्साह में. बहरहाल कुछ खास बना नहीं. हाँ, रेल के पटरियों के किनारे रहने वाले लोगों का जीवन बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है.
अंक में आशिमा की पहली कहानी 'चूड़े वाली भाभी' प्रभावित करती है, यद्यपि उसकी थीम जानी पहचानी है लेकिन कसाव ऐसा है कि कहानी पढ़ने के बाद देर तक प्रभाव बनाये रहती है. चूड़ेवाली भाभी के मर जाने के बाद सब के मन में उपजी सहानुभूति का अंकन बहुत अच्छे से हुआ है.
बया का यह अंक एक तरह से श्रद्धांजलि अंक है. सुरेश सलिल ने विजय सोनी, गोविन्द पुरुषोत्तम देशपांडे और परमानन्द जी के विषय में बहुत आत्मीयता से लिखा है. अंक में मशहूर कलाकार अशोक भौमिक के बारे में रोचक सामग्री है. 
अंक की कवितायेँ निराश करने वाली हैं, सिवाय रविशंकर उपाध्याय, अस्मुरारी नन्दन मिश्र और सुरेश सेन निशांत की कविताओं के. अशोक भौमिक ने शताब्दी राय की कविता का जो अनुवाद किया है वह जल्दीबाजी में किया गया लगता है. या यह भी हो सकता है कि शताब्दी राय ने यह कविता एक पुरुष होकर लिखी है. आखिरी हिस्से का अनुवाद आप खुद देखें-
ए लड़की तेरा धरम क्या है रे?
- औरतों का भी कोई धर्म होता है, जी
सब कुछ तो शरीर का मामला है
सलमा कहती धरम ही समाज को बनाता है
जब शाम को वह खड़ी होती है, कोई नहीं पूछता उससे 'क्या तू हिन्दू है'
बस यही पूछते हैं, 'कितने में चलेगी'
बिस्तर ही धर्म को मिलाता है
शरीर जब शरीर से खेलता है
इसलिए सोचता हूँ
अबसे शरीर और बिस्तर को ही धर्म कहूँगा..
....
"सोचता हूँ" और "धर्म कहूँगा", यह शताब्दी राय तो नहीं ही कहेंगी. अशोक भौमिक जरूर कह सकते हैं. यह अनुवाद की गड़बड़ी ही है.


अंक में जैसा कि मैंने बताया, सुरेश सेन निशांत की कवितायेँ बहुत मार्मिक हैं, पहाड़ का जीवन उनकी इन कविताओं में स्पंदित सा है. निर्मला को संबोधित करते हुए यह आठ कवितायेँ बेहद संजीदा तस्वीर पेश करती हैं और बहुत प्रभावित करती हैं. एक आप भी पढ़ें-
निर्मला!
कभी-कभी लगता है
तुम एक पहाड़ हो हरा-भरा
और मैं एक छोटा-सा
घर हूँ उसपर बना हुआ
अपने होने की ख़ुशी में
डोलता हुआ.
तुम्हारी देह में
गहरे तक धँसी हुई है
मेरी जीवन जड़ें.
.
कभी-कभी लगता है
तुम धूप हो सर्द दिनों की
हमें जीने की तपिश भेंटती हुई
तुम्हारे बिना जीना
बहुत मुश्किल है
इन पहाड़ों पर .
.
कभी-कभी लगता है
मैं गहरी नींद में हूँ
तुम एक सुन्दर स्वप्न हो
मेरी नींद में विचरता हुआ.
.
मैं चाहता हूँ
मैं सोया रहूँ सदियों तक
गहरी नींद
ये स्वप्न चलता रहे
यूँ ही....
बया Antika Prakashan से छपती है और गौरीनाथ जी इसके संपादक हैं.

सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.