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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

कथावार्ता : इलाहाबाद का नाम प्रयागराज क्यों हो


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' निबंध में नाम चर्चा करते हुए लिखते हैं- 'नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्‍वीकृति मिली होती है। रूप व्‍यक्ति सत्‍य है, नाम समाज सत्‍य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सैंक्‍सन' कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्‍याकुल है, समाज द्वारा स्‍वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि मानव की चित्त गंगा में स्‍नात।' वह कह रहे हैं कि नाम का संबंध सोशल सैंक्‍सन से है। 
इलाहाबाद का नाम प्रयागराज क्यों हो? यह सवाल बहुत से लोगों को फिजूल लग रहा है। जहां हम रोटी कपड़ा मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहां नाम बदलने से क्या हासिल? लेकिन थोड़ा पलट कर पूछिये कि नाम बदल दिया तो दिक्कत क्या हो गयी? हर संस्कृतिकर्मी को इतिहास में, सांस्कृतिक विरासत में बदलाव चुभता है। यह बदलाव अपनी संस्कृति को ताकतवर बनाती है। वरना संस्कृत वाङ्गमय में वर्णित और भारी महात्म्य वाले प्रयाग का नाम अकबर क्यों बदलता
प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः' जहां विशाल यज्ञ सम्पन्न हुआ था इसके कारण वह भूमि प्रयाग कही गयी। कुम्भ की सांस्कृतिक धारा इस पुण्य स्थल पर है। राम वनगमन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। तो जब अकबर ने प्रयाग का नाम बदल दिया तो रामकथा के सबसे बड़े प्रस्तोता तुलसीदास ने अपना मत इन शब्दों में प्रकट किया।
'को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥'
अर्थात पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया।
जरा सोचिए तो कि तुलसीदास पापों के समूह रूपी हाथी का उल्लेख किसके लिए कर रहे हैं? 'म्लेच्छाक्रान्त देशेषु' याद है? छटपटाहट थी। सूरदास के यहां यह ऐसे हैं कि उन्होंने और उनके गुरु बल्लभाचार्य तथा विट्ठलदास ने फतेहपुर सीकरी के समानांतर एक दूसरी ही गद्दी स्थापित की जिसके पादशाह श्रीकृष्ण हुए जिनकी आठ प्रहर की सेवा नियत हुई।
बाद के कवियों के यहां भी प्रयाग जोर मारता रहा। उसकी हुड़क थी। प्रयाग के न रहने का दुख था। बिहारीलाल ने तो प्रयाग की अद्भुत संकल्पना रच दी। यद्यपि उनका ध्यान 'तन-दुति' पर अधिक है फिर भी उनका दोहा देखने लायक है।
'तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।
जिहिं ब्रज-केलि निकुंज-मग पग-पग होत प्रयाग॥'
तीर्थ व्रत छोड़ो, राधा कृष्ण में मन लगाओ। उन्होंने जहां-जहां केलि की है, वन, बाग़, तड़ाग में विहार किया है, उसके कदम कदम पर ही प्रयाग है। तब मथुरा-वृंदावन में वैसी समस्या नहीं थी। इसका नाम नहीं बदला उनने।
नाम बदलने की राजनीति अपनी जगह है। सब उसके प्रभाव से वाकिफ हैं। यह बदलाव एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव का सूचक है। अभी तो सरकार को पहला काम यह करना चाहिए कि अंग्रेजी अवशेष को समाप्त करने की कोशिश करे। वह ज्यादा जरूरी है। बिना नाम बदले हम उपनिवेशवादी मानसिकता से भी बाहर नहीं नकल सकेंगे। अंग्रेजी संस्थानों को / शहरों को भारतीय पहचान दे। 
मुझे इस बदलाव से प्रसन्नता हुई है। कुढ़ने वालों पर ध्यान न दीजिए।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

नादिया मुराद और तापसी मलिक को सलाम

    जब नादिया मुराद को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई तो मुझे तापसी मलिक की याद आई। नादिया कुर्द समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और आईएसआईएस ने उनका अपहरण कर लिया था। उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और कई बार बेचा गया। किसी तरह भागकर उन्होंने अपनी जान बचाई और बलात्कार के खिलाफ मुहिम शुरू की। नादिया मुराद की कहानी दिलचस्प है। बीबीसी ने नादिया मुराद की आपबीती प्रस्तुत की है। हमें भी पढ़ना चाहिए।



नादिया मुराद की आपबीती-
"कथित इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों के आने से पहले मैं अपनी मां और भाई बहनों के साथ उत्तरी इराक़ के शिंजा के पास कोचू गांव में रहती थी. हमारे गांव में अधिकतर लोग खेती पर निर्भर हैं. मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी. हमारे गांव में कोई 1700 लोग रहते थे और सभी लोग शांतिपूर्वक रहते थे. हमें किसी तरह की कोई चेतावनी नहीं मिली थी कि आईएस शिंजा या हमारे गांव पर हमला करने जा रहा है।
   03 अगस्त, 2014 की बात है, जब आईएस ने यज़ीदी लोगों पर हमला किया. कुछ लोग माउंट शिंजा पर भाग गए, लेकिन हमारा गाँव बहुत दूर था. हम भागकर कहीं नहीं जा सकते थे. हमें 3 से 15 अगस्त तक बंधक बनाए रखा गया. खबरें आने लगी थीं कि उन्होंने तीन हज़ार से ज़्यादा लोगों का क़त्ल कर दिया है और लगभग 5,000 महिलाओं और बच्चों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है. तब तक हमें हक़ीक़त का अहसास हो चुका था.
   इस दौरान चरमपंथी आए और हमारे हथियार क़ब्ज़े में ले लिए. हम कुछ नहीं कर सकते थे. हम पूरी तरह घिर चुके थे. हमें चेतावनी दी गई कि हम दो दिन के अंदर अपना धर्म बदल लें. 15 अगस्त को मैं अपने परिवार के साथ थी. हम बहुत डरे हुए थे क्योंकि हमारे सामने जो घटा था, उसे लेकर हम भयभीत थे. उस दिन आईएस के लगभग 1000 लड़ाके गांव में घुसे. वे हमें स्कूल में ले गए. स्कूल दो मंज़िला था. पहली मंज़िल पर उन्होंने पुरुषों को रखा और दूसरी मंज़िल पर महिलाओं और बच्चों को. उन्होंने हमारा सब कुछ छीन लिया. मोबाइल, पर्स, पैसा, ज़ेवर सब कुछ. मर्दों के साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया. इसके बाद उनका नेता ज़ोर से चिल्लाया, जो भी इस्लाम धर्म क़बूल करना चाहते हैं, कमरा छोड़कर चले जाएं.
हम जानते थे कि जो कमरा छोड़कर जाएंगे वो भी मारे जाएंगे. क्योंकि वो नहीं मानते कि यज़ीदी से इस्लाम क़बूलने वाले असली मुसलमान हैं. वो मानते हैं कि यज़ीदी को इस्लाम क़बूल करना चाहिए और फिर मर जाना चाहिए. महिला होने के नाते हमें यक़ीन था कि वे हमें नहीं मारेंगे और हमें ज़िंदा रखेंगे और हमारा इस्तेमाल कुछ और चीज़ों के लिए करेंगे. जब वो मर्दों को स्कूल से बाहर ले जा रहे थे तो सही-सही तो पता नहीं कि किसके साथ क्या हो रहा था, लेकिन हमें गोलियां चलने की आवाज़ें आ रही थी. हमें नहीं पता कि कौन मारा जा रहा था. मेरे भाई और दूसरे लोग मारे जा रहे थे. सभी मर्दों को गोली मार दी। वे नहीं देख रहे थे कि कौन बच्चा है कौन जवान और कौन बूढ़ा। कुछ दूरी से हम देख सकते थे कि वो लोगों को गांव से बाहर ले जा रहे थे. लड़ाकों ने एक व्यक्ति से एक लड़का छीन लिया, उसे बचाने के लिए नहीं. बाद में उन्होंने उसे स्कूल में छोड़ दिया. उसने हमें बताया कि लड़ाकों ने किसी को नहीं छोड़ा और सभी को मार दिया.
    जब उन्होंने लोगों को मार दिया तो वे हमें एक दूसरे गांव में ले गए. तब तक रात हो गई थी और उन्होंने हमें वहाँ स्कूल में रखा. उन्होंने हमें तीन ग्रुपों में बांट दिया था. पहले ग्रुप में युवा महिलाएं थी, दूसरे में बच्चे, तीसरे ग्रुप में बाक़ी महिलाएं. हर ग्रुप के लिए उनके पास अलग योजना थी. बच्चों को वो प्रशिक्षण शिविर में ले गए. जिन महिलाओं को उन्होंने शादी के लायक़ नहीं माना उन्हें क़त्ल कर दिया, इनमें मेरी मां भी शामिल थी. हमें लड़ाकों में बांट दिया गया। रात में वो हमें मोसुल ले गए. हमें दूसरे शहर में ले जाने वाले ये वही लोग थे जिन्होंने मेरे भाइयों और मेरी मां को क़त्ल किया था. वो हमारा उत्पीड़न और बलात्कार कर रहे थे. मैं कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नहीं थी. वे हमें मोसुल में इस्लामिक कोर्ट में ले गए. जहाँ उन्होंने हर महिला की तस्वीर ली. मैं वहां महिलाओं की हज़ारों तस्वीरें देख सकती थी. हर तस्वीर के साथ एक फ़ोन नंबर होता था. ये फ़ोन नंबर उस लड़ाके का होता था जो उसके लिए जिम्मेदार होता था. तमाम जगह से आईएस लड़ाके इस्लामिक कोर्ट आते और तस्वीरों को देखकर अपने लिए लड़कियां चुनते. फिर पसंद करने वाला लड़ाका उस लड़ाके से मोलभाव करता जो उस लड़की को लेकर आया था. फिर वह चाहे उसे ख़रीदे, किराए पर दे या अपनी किसी जान-पहचान वाले को तोहफ़े में दे दे.
   पहली रात जब उन्होंने हमें लड़ाकों के पास भेजा. बहुत मोटा लड़ाका था जो मुझे चाहता था, मैं उसे बिल्कुल नहीं चाहती थी. जब हम सेंटर पर गए तो मैं फ़र्श पर थी, मैंने उस व्यक्ति के पैर देखे. मैं उसके सामने गिड़गिड़ाने लगी कि मैं उसके साथ नहीं जाना चाहती. मैं गिड़गिड़ाती रही, लेकिन मेरी एक नहीं सुनी गई. एक मुस्लिम परिवार ने मुझे पनाह दी। एक हफ़्ते बाद मैंने भागने की कोशिश की. वे मुझे कोर्ट मे ले गए और सज़ा के तौर पर छह सुरक्षा गार्डों ने मेरे साथ बलात्कार किया. तीन महीने तक मेरा यौन उत्पीड़न होता रहा.
इस इलाक़े में चारों तरफ़ आईएस के लड़ाके ही फैले हैं. तो इन महीनों में मुझे भागने का मौक़ा ही नहीं मिला. एक बार मैं एक पुरुष के साथ थी. वो मेरे लिए कुछ कपड़े ख़रीदना चाहता था, क्योंकि उसका इरादा मुझे बेच देने का था. जब वो दुकान पर गया. मैं घर पर अकेली थी और मैं वहाँ से भाग निकली. मैं मोसुल की गलियों में भाग रही थी. मैंने एक मुस्लिम परिवार का दरवाज़ा खटखटाया और उन्हें अपनी आपबीती सुनाई. उन्होंने मेरी मदद की और कुर्दिस्तान की सीमा तक पहुँचाने में मेरी मदद की।शरणार्थी शिविर में किसी ने मेरी आपबीती नहीं पूछी. मैं दुनिया को बताना चाहती थी कि मेरे साथ क्या हुआ और वहाँ महिलाओं के साथ क्या हो रहा है. मेरे पास पासपोर्ट नहीं था, किसी देश की नागरिकता नहीं थी. मैं कई महीनों तक अपने दस्तावेज़ पाने के लिए इराक़ में रुकी रही.
   उसी वक़्त जर्मन सरकार ने वहाँ के 1000 लोगों की मदद करने का फ़ैसला किया. मैं उन लोगों में से एक थी. फिर अपना इलाज कराने के दौरान एक संगठन ने मुझसे कहा कि मैं संयुक्त राष्ट्र में जाकर आपबीती सुनाऊं. मैं इन कहानियों को सुनाने के लिए दुनिया के किसी भी देश में जाने को तैयार हूँ।"
नादिया मुराद की तरह ही संघर्ष करने वाली तापसी मलिक सिंगूर की थी। पश्चिम बंगाल के सिंगूर की। जब नंदीग्राम और सिंगूर में जमीन अधिग्रहण का मसला शुरू हुआ तो तापसी प्रतिरोधक दल में आगे रहती थीं। उनके साथ सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने पहले बलात्कार किया और फिर जलाकर मार डाला। वह सिंगूर में कृषक प्रतिरोध के अगुआ दस्ते की सबसे बहादुर सिपाही थी। सब जानते हैं कि ग्यारह महीने तक सिंगूर और नंदीग्राम में सीपीएम के लोगों ने कितना अत्याचार और नंगानाच किया था। पुष्पराज ने नंदीग्राम डायरी में बहुत मर्मान्तक वर्णन किया है। जैसे नादिया ने बलत्कृत होने के बाद खुद को नष्ट नहीं होने दिया और संघर्षरत रहीं, नंदीग्राम की महिलाओं ने तापसी मलिक को छोड़ा नहीं। हमारे समाज में बलात्कार इसलिए ज्यादा दुखद होता है कि इससे लड़की की सामाजिक प्रतिष्ठा भी नष्ट कर दी जाती है। वह आंतरिक और वाह्य कष्ट एकसाथ झेलती है। सिंगूर और नंदीग्राम की महिलाओं ने खुद को तापसी मलिक माना और उनकी तस्वीरों को प्रेरणादायक की तरह लिया। वह संघर्ष और शहादत का प्रतीक बन गई थी।

नादिया के साथ साथ तापसी मलिक को सलाम।

रविवार, 5 अगस्त 2018

धम्मपद से

चरञ्‍चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो।
एकचरियं दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता॥
-(धम्मपद-बालवग्गो)

यदि शील, समाधि या प्रज्ञा में विचरण करते हुये अपने से श्रेष्ठ या अपना जैसा सहचर न मिले, तो दृढता के साथ अकेला विचरण करे। मूर्ख च्यक्ति से सहायता नही मिल सकती।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

कथावार्ता : विश्वकर्मा : उद्योगों के आधुनिक देवता


ललित निबंध


आज विश्वकर्मा पूजा है। विश्वकर्मा जयंती। विश्वकर्मा के प्राचीनतम ग्रंथों में विविध नाम और रूप मिलते हैं। कहा जाता है कि लंका की नगरी, कृष्ण के लिए द्वारका उन्होंने ही बनाई थी। दुनिया की तमाम संरचनाएं उन्हीं की बनाई हुई हैं। इस तरह वे दुनिया के पहले अभियंता थे। उन्हें कभी प्रजापति तक कहा गया। लेकिन ठीक से विचार करने पर पता चलेगा कि भले ही इस देवता का मिथकों में उल्लेख मिलता हो और विष्णु पुराण में 'देव बढ़ई' कहकर संबोधित किया गया हो, इनका अभ्युदय आधुनिक काल के देवता के रूप में अधिक है। आधुनिक काल के उद्योगों, मशीनों ने इस देवता को पुनर्जीवित किया है। इसीलिए इनकी पूजा का चलन कल-कारखानों और लोहा-लक्कड़ की दुकानों तथा मैकेनिकों के यहाँ ही ज्यादा होती है। यह एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी जयंती एक निश्चित तारीख को पड़ती है। १७ सितम्बर को। वैसे तो सब त्योहारों के लिए एक तिथि नियत है लेकिन सबके लिए नियत तिथियाँ चाँद और सूर्य की गति से तय होती हैं। इसलिए उनके मामले में घट-बढ़ होती रहती है। यह जयंती अंग्रेजी कैलेण्डर से तय की जाती है। इस तरह इसकी नए होने की बात स्पष्ट हो जाती है। अब तो बाकायदा उनके पूजन की विधि भी कमर्काण्ड में शामिल कर ली गयी है। किसी गजानन स्वामी ने उनकी आरती गढ़ ली है जिसमें उन्हें सुख देने वाला भगवान बताया गया है-
श्री विश्वकर्मा जी की आरती, जो कोई नर गावे।
कहत गजानन स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे॥
विश्वकर्मा की पूजा कल-कारखानों में ही किये जाने का प्रचलन है। मैं सोचता हूँ कि मजदूरों-श्रमिकों के लिए भी देवता बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? औद्योगीकरण निःसंदेह अंग्रेजों की देन है। फिर उद्योगों पर अधिकांशतः कब्ज़ा अंग्रेजों या अंग्रेजीपरस्त लोगों का ही रहा है। जबकि मजदूर-श्रमिक थे- हिन्दू अथवा भारतीय ग्रामीण। ऐसा प्रतीत होता है कि सेठों-उद्योगपतियों ने अपने कल-कारखानों की सुरक्षा के लिए इस देवता को पुनर्जीवित किया। देवता की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद मशीनें लोहे का एक यंत्र भर नहीं रह गयीं। वे ईश्वर की बनाई संरचना हो गयीं। यह अनायास नहीं है कि आज भी अनेक लोग किसी वाहन या मशीन में किसी सुधार या निर्माण या उपयोग करने के पहले उसे प्रणाम करते हैं।
बचपन में जहाँ मैं रहता था- दक्षिण चौबीस परगना, पश्चिम बंगाल में, वहाँ बाबूजी बिरला के एक चटकल में श्रमिक थे। आज का दिन वहाँ छुट्टी का दिन होता था। सभी श्रमिकों की छुट्टी रहती थी और शाम के समय समूचा मिल परिसर अद्भुत तरीके से सजाया जाता था। विविध तरीके की झांकियां स्थापित की जाती थीं। उस दिन किसी भी नागरिक को परिसर में जाने की अनुमति थी। हमलोग भी जाते थे। एक मेला था। रोमांचक मेला। तब हम जहाँ रहते थे-बिजली कम लोगों को नसीब थी। मैं स्वयं एक दड़बेनुमा कमरे में रहता था और ढिबरी और लालटेन की रोशनी में पढ़ता था। तब इस तरह के विशाल मशीनों और कल कारखानों को देखकर हमलोग स्वतः ही मान लेते थे कि इन्हें मनुष्य कैसे बना सकता है। यह अवश्य किसी ईश्वर की बनाई संरचना होगी। ईश्वर कौन? अवश्य ही विश्वकर्मा जी। तब विश्वकर्मा का नाम जबान पर आते ही जी जरूर लग जाया करता था।
बाद में इतिहास की कई किताबों को पढ़ते हुए पता चला कि कई अंग्रेज विद्वानों ने भी खुदाई में प्राप्त कई ध्वंशावशेषों को देखकर क्यों यह स्थापना व्यक्त की होगी कि इन्हें किसी दैत्य या देवता ने बनाया होगा।
मैं जब कभी उन मेले में जाता था तो इन मशीनों को बहुत ध्यान से देखता था। वे भयावह थीं। लेकिन उस दिन सबका ध्यान सजावट और झांकियों पर रहता था। मुझे याद है। एक बार एक झाँकी ऐसी बनी थी कि एक घर में आग लगी है। एक औरत घबराई हुई मुद्रा में पुकार रही है। सामने ही कुछ दूरी पर चार लोग ताश खेल रहे हैं। वह व्यक्ति जिसका घर जल रहा है, वह देख रहा है कि उसकी पत्नी इशारे कर रही है, वह ‘एक बाज़ी और’ का संकेत कर ताश खेलने में व्यस्त हो जाता है। इस झाँकी ने मेरे अबोध मन पर बहुत असर डाला था। मेरे बाबूजी को भी ताश खेलने का जबरदस्त चस्का था। माँ से इस बात को लेकर खूब किचकिच होती रहती थी। बाद में जब माँ गाँव आ गयीं तो बाबूजी को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं रह गया था। मैंने भी उसी समय ताश खेलना सीखा था। जुआ खेलना भी। वह झाँकी मुझे यदा-कदा याद आया करती थी। अब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि धर्म आदि मामले हमें डराते भले हों, अगर हम ढीठ हो जाएँ तो हम उनके डर-भय से ऊपर उठ जाते हैं। यह जो इतना सारा कुकर्म आदि धार्मिक किस्म के लोग भी करते हैं, मुझे बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होता।
मैं जब शेखर जोशी की कहानियाँ पढ़ता हूँ और उनमें आने वाले मजदूर-श्रमिक जीवन की दुश्वारियों का अहसास करता हूँ तो अपने कथन की पुष्टि का एक आधार भी पाता हूँ। क्या ऐसा न हुआ होगा कि उद्योगपति-मालिक आदि अपनी संपत्ति की सुरक्षा के लिए,  उसकी सलामती के लिए इस पूजा का चलन शुरू करवाएं हों। मुझे याद है, जब बाबूजी काम करने जाते थे तो तेलाई ले आते थे। तेलाई अपशिष्ट मशीनी तेल में अपशिष्ट रूई या जूट को डुबोकर बनाई जाती थी। यह काम आती थी चूल्हे में आग लगाने में। हमलोग खाना पकाने के लिए कोयले अथवा गुल का प्रयोग करते थे। कोयला महँगा था। गुल हमें बनाना पड़ता था। इसे बनाने का श्रमसाध्य काम था। हम छाई खरीदते थे। छाई, कोयले का अपशिष्ट था। धूल की तरह। उसमें गंगा किनारे की काली मिट्टी, जो बहुत लसोड़ होती थी, अच्छी तरह से मिलाई जाती थी। उसमें पानी मिलकर इसे बनाते थे। इस मिश्रण में सही अनुपात का ख़याल रखना पड़ता था। वरना मिट्टी ज्यादा हो जाने पर गुल बेकार हो जाता था और जल्दी ही धुआं जाता था। हम इसे फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में जैसे ‘बड़ी’ बनाई जाती है, बनाते थे। धूप में इसे ठीक से सुखवाया जाता था। मुझे याद है, जिस मोहल्ले में मैं रहता था, उसमें इस काम को लोग समूह में करते थे। इससे यह जल्दी हो जाया करता था। इस काम के करने में ही न जाने कितनी प्रेम कहानियां बनी और फिर चूल्हे की आंच में झुलस गयीं। मेरी एक प्रेम कहानी भी उन्हीं दिनों परवान चढ़ी थी। हम अचानक जवान हो गए थे। इसी गुल के बनाने की प्रक्रिया ने राजनीति की दुनिया से भी परिचित कराया था। १९९१ की रथयात्रा, १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसी समय के आस-पास लालू यादव के बिहार में मुख्यमंत्री बन जाने के लाभ-हानि पर कई एक बहसों में मैं हिस्सेदार बन गया था। वह कांग्रेस के उत्तर भारत के राज्यों से पतन का दौर था और क्षेत्रीय दलों के उभार का भी लेकिन वह कहानी फिर कभी। तो, जो गुल बनता था उसे चूल्हे में दहकाने के लिए चिपरी की जरूरत पड़ती थी। चिपरी, गोबर से बनाई जाती थी। उपले की तरह। लेकिन यह चिपटी होती थी और एक रूपये में एक कूड़ी मिलती थी। कूड़ी बंगला में बीस की संख्या को भी कहते हैं और लड़की जात के लिए भी। हम लोग एकमुश्त चिपरी खरीदते थे। चिपरी वहां स्थानीय लोग बनाते थे और बेचते थे। इस चिपरी को सुलगाने के लिए तेलाई की जरूरत पड़ती थी। तेलाई में मौजूद मशीनी तेल जल्दी आग पकड़ती थी। उसके अभाव में मिट्टी के तेल का इस्तेमाल करना पड़ता था। मिट्टी का तेल भी कोटे पर मिलता था। कोटे का तेल लेना भी हँसी-खेल नहीं था। महँगा तो वह था ही।
मैं बता रहा था कि बाबूजी को जब तेलाई लाना होता था तो वे इसे चुराकर लाते थे। इसे गोलानुमा बनाकर एक रस्सी से बाँध कर लाया जाता था। जब वे लाते थे, अक्सर बताते थे कि इसे लाना अब हँसी-खेल नहीं है। सब शक करते हैं। वे बताते थे कि तेलाई ले आने पर गार्ड पहले कुछ नहीं कहते थे। वे भी उन्हीं की तरह के जीवन शैली में रहने वाले लोग थे। लेकिन बाद में उन्होंने भी टोकना शुरू कर दिया था। यह टोकना, श्रमिक जीवन के असाध्य श्रम पर शक करना होता था और उनकी ईमानदारी को चुनौती देना। शेखर जोशी की कहानियों में इस स्थितियों को सहजता से देखा जा सकता है। शेखर जोशी की एक कहानी 'बदबू' से एक उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ- "बाहर पंक्ति के पहले सिरे पर फोरमैन चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने अपने थैले खोल कर दिखाने का आदेश दे रहा था। उसकी बारी आ गयी थी। फोरमैन ने स्वयं डिब्बा-थैला हाथों में लेकर देखा, असंतोष के कारण उसका मुँह फीका पड़ गया। सर्चर को सबकी जेबें टटोलने का उसने आदेश दिया.  उसकी जेबें भी स्वयं फोरमैन ने टटोलीं, परन्तु फोरमैन के चेहरे पर फिर निराशा छा गयी। जाते-जाते उसने फोरमैन की ओर देखा। फोरमैन ने आँखें भूमि की ओर झुका ली थीं। गर्व से छाती उठाकर वह बड़े गेट की ओर चल दिया।(पृष्ठ-१४६, बदबू, शेखर जोशी की प्रतिनिधि कहानियां।) बाद में जब शेखर जोशी की कहानियां पढ़ने का मौका मिला तो मजदूर-श्रमिक जीवन की इन इन्दराजों को देखकर बचपन के कई दृश्य सजीव हो उठे थे। ऐसे कारखानों में अगर विश्वकर्मा नामक देवता की प्रतिष्ठा हो गयी है तो मैं इसके मिथकीयता की परीक्षा जरूर कर लेना चाहता हूँ।
खैर, मजदूरों और श्रमिकों के इस देवता को मैं कैसे प्रणाम करूँ? जब मैं देखता हूँ कि इनका होना कुछ मुट्ठी भर लोगों का हित साधन करना है। आप क्या कहते हैं? वे प्रथम अभियन्ता भले हों, पूंजीपतियों के हितचिन्तक ही हैं।

--डॉ. रमाकान्त राय.
३६५ ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६ 

सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.