बुधवार, 21 अगस्त 2013

बहनें- नवनीत सिंह की कविता


आकांक्षाएं,
उनकी धीमी हँसी की तरह
आँगन से बाहर निकलने में शरमाती रहीं,

इच्छाएं,
इतनी हल्की कि
सूखी पत्तियों की तरह झर जाती रही,

उसने
दूसरे दहलीज के लिये बचा कर रखी थी
अपनी सिसकियाँ,

वे पिता के माथे की सिलवटे थीं,

मेरे बचपन की बारिशों में
कागज की नाव थीं

माचिस की डिबिया में
खनखनाती चूड़ियाँ थी

स्कूल के बस्ते में चमकती
इमली के बीज थीं,

वे बहनें थीं

वे बनाती थीं सपनों के ब्रह्माण्ड
इन्द्रधनुष के रंगों से

मेरे माथे पर गालों पर
टाँकती चाँद-सितारो के आकार

वो मेरे चेहरे की रौनक थीं.

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सद्य: आलोकित!

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