गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

पीला खून पीली रोशनाई- राही मासूम रज़ा

   
    सिदाक़त हुसैन राही मासूम रज़ा का छद्म नाम था। राही मासूम रज़ा कई छद्म नाम से लिखते थे। सिदाक़त हुसैन नाम से उनका स्तम्भ 'माधुरी' में छपता था। यह एक दुर्लभ स्तम्भ आज अरविंद कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुआ।

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

कथावार्ता : क्रिसमस इव पर विशेष

      बीते दिन अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की यह तस्वीर देखने को मिली। बराक संता की भूमिका में हैं। इस तस्वीर को देखते हुए विचारों की श्रृंखला बन गयी। 
      अव्वल तो यह खयाल आया कि अमरीका और यूरोपीय देशों के राजनयिक यह सब सहजता से कर सकते हैं तो विकासशील देशों विशेषतः भारत जैसे देश के राजनेता ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकते। धर्मनिरपेक्षता एक घटिया बहाना है। उनका स्टेटस और वीआईपी बने रहने की चाह और वोट बैंक की परवाह बड़ा कारण है।
     ईसाइयत इतनी शक्तिशाली धारा है कि दुनिया के सभी दूसरे धर्म भीषण दबाव में हैं। हिन्दू धर्म टिका है तो अपनी समृद्ध और शानदार बौद्धिक परम्परा की वजह से। इस्लाम ताकत और कट्टरता से सहज प्रतिरोधी है। जिन देशों में बौद्ध धर्म है, वह सबसे अधिक संकट से जूझ रहे हैं। शेष पर कभी संता गिफ्ट देने के बहाने हावी है तो कभी, चर्च की नौटंकी, यीशु के दरबार, अस्पताल, पब्लिक स्कूल, पढ़ाई, पाठ्यक्रम के जरिये हमलावर है। पढ़ाई लिखाई में उसने मदरसों और आश्रमों की व्यवस्था को पोंगापंथी घोषित करवा रखा है और बुद्धिविलासियों की एक जमात खड़ी कर दी है। जब हमने कहा कि एक गड़ेरिये (ईसा) की जयंती का उत्सव दुनिया भर में एक सप्ताह से अधिक मनाया जा सकता है तो देश के प्रधानमंत्री चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती का उत्सव दो दिन लगातार क्यों नहीं मना सकते, तो श्रोताओं में से कुछ ने 'धिक्कार' कहा। कुछ ने कहा कि सोचने की बात है। एक ने पूछा कि तारीख में BC अगर ईसा से पहले है तो इसे MC के तुरंत बाद शुरू हो जाना चाहिए। MC माने मैरी क्रिसमस। तो इसका जवाब यह है कि ईसा का जन्मोत्सव एक सप्ताह मनाने के बाद नए वर्ष की शुरुआत मान ली जाए, इसलिए।
      ओबामा की यह छवि बेहद खूबसूरत है। वह अपने पिटारे में रखकर चलता है बाइबिल। रात के समय जब आप सोते रहते हैं, वह आपके मेधा पर छा जाता है। कहता है- विज्ञान, चिकित्सा, शिक्षा, नौकरी, रोजगार सबका स्रोत है बाइबिल। बाइबिल की भाषा है अंग्रेजी। आपको अंग्रेजी नहीं आती- कोई बात नहीं। आप सीखें- हेलो, गुड मॉर्निंग, गुड नाईट, (गुड फ्राइडे भी!) हैप्पी बर्थडे, rip, ओके भी। उसके बाद तो आप हगी-मुत्ति सब सीख लेंगे।
ओबामा जब यह लेकर निकला है तो वह संता को घर घर पहुंचा रहा है। उस गड़ेरिये को घर घर में प्रवेश दे रहा है। हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं? दलित, जाट, मुसलमान, आतंकवादी आदि इत्यादि खांचे में बांट रहे हैं। एक उठता है तो कहेगा कि राम की कहानी काल्पनिक है और दूसरा उठकर बताएगा कि कृष्ण ने कौरवों से छल किया। गांधी का एक अध्येता गोमांस भक्षण करते हुए अतिशय गौरव महसूस करेगा।
      तो ओबामा की यह छवि विशेष है। जब वह चुनाव लड़ रहे थे तो उनके खिलाफ दो बातें जा रही थीं- 1. वह मुसलमान हैं, 2. वह अश्वेत हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि मुसलमान तो नहीं हैं, अश्वेत होने से अधिक वह अमरीकन हैं और उससे भी अधिक ईसाइयत के आक्रांता प्रचारक हैं।
      सच कहूं तो मुझे यह तस्वीर पसंद है। चाहता हूँ कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी इस पूरे सप्ताह औरंगजेब के शासनकाल में हुए सिख दमन और सिखों की वीरता को याद करते हुए आगे आएं। प्रणब मुखर्जी दुर्गापूजा में मन से शामिल हों। हामिद अंसारी ईदगाह में सामूहिक नमाज में शरीक हों। दूसरे माननीय स्थानीय पर्व उत्सव में खूब भागीदारी करें। 
भारत की विविधधर्मी संस्कृति को खूब रंगें, उसे और रंगीन और समृद्ध बनाएं।

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

कथावार्ता : व्हाई आई लव जियो

      एक जमाना था जब मोबाइल फोन की सेवा प्रदाता कंपनियों ने लाइफ टाइम वैलिडिटी के लिए 'ऑफर' उतारा। एक रिचार्ज करने से जीवन भर इनकमिंग की सुविधा का वायदा किया गया और लोगों ने उसे किया। फिर एक दूसरा समय आया कि कॉलरेट कम करने के लिए रेट कटर पैक आये। sms के लिए अलग और वॉयस कॉल के लिए अलग। इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए एक नया पैक आया। 2g का पैक भी खासा महंगा था। फिर 3g का जमाना आया। 1gb 3g पैक के लिए 300-400₹ सामान्य बात थी। हम सब बेहतरीन सेवा के लिए इसे चुकाते रहे। मैंने तो सेवा प्रदाता कंपनियों की झंझट से बचने के लिए पोस्टपेड सेवा चुन ली। प्रीपेड और पोस्टपेड ग्राहकों को कंपनियां इतनी तरह से लूटती थीं कि बहुत सतर्क रहने पर भी आपका बैलेंस शून्य हो जाता था। बहुत घपलेबाजी थी। एक घपला तो #वोडाफोन के साथ सेवा लेते हुए यह हुआ कि मैंने 399 ₹ में एक जीबी 3g का रिचार्ज कराया और फिर गलती से 5₹ का एक छोटा रिचार्ज भी। तो कंपनी ने मेरे एक जीबी रिचार्ज को लेप्स मानकर 5₹ के रिचार्ज पैक को वैध कह दिया। कस्टमर केयर ने इस मामले में नियमों का हवाला दिया और हम मायूस होकर कारवां लुटते हुए देखते रहे। खैर!
        इसके बाद एक दिन #जिओ आ गया। फ्री। एकदम मुफ्त। बस फोन 4g चाहिए। कोई पैसा नहीं। इंटरनेट मुफ्त। तेज़ इंटरनेट। बातें मुफ्त। sms मुफ्त। रोमिंग में भी मुफ्त। साल भर मुफ्त। बाद में तय करेंगे कि क्या कीमत होगी।
       जब कीमत निश्चित की तो 399₹ में तीन माह तक सब कुछ एक दायरे में अनलिमिटेड! शेष सभी सेवा प्रदाता कंपनियों ने भी इस प्रतिस्पर्धा में ठहरने के लिए अपने दरों में कटौती की। लगभग जिओ के समकक्ष आये। लेकिन यह सेवा 4g के लिए थी। जिनके पास सामान्य फोन था, उनसे वही लूट जारी थी। तो जिओ ने एक हैंडसेट उतारा और अब 49₹ में एक माह तक सब कुछ मुफ्त। सामान्य फोन वालों को टारगेट करके जो सेवा प्रदाता कंपनियां हैं, उन्होंने इसके बावजूद अब नया नखरा शुरू किया है।
        वोडाफोन, आइडिया और एयरटेल ने अब कहना शुरू किया है कि इनकमिंग की वैलिडिटी के लिए भी हर महीने रिचार्ज कराना पड़ेगा। लाइफटाइम वैलिडिटी रिचार्ज के बाद यह नियमित रिचार्ज कराना होगा। हमलोग जो 4g सेवाएं इस्तेमाल करते हैं, उन्हें इस नियम से शायद कोई फर्क नहीं पड़ रहा लेकिन करोड़ो सामान्य फ़ोनधारक लोग इससे चिन्ता में हैं।
मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों ने संगठित लूट की थी। भांति भांति तरीके की। जिओ को आप चाहे जितना कोसें और नेटवर्क की गुणवत्ता के लिए दुत्कारें, उसने इस नेक्सस को ध्वस्त कर दिया है।
         बीते दिन मेरे वोडाफोन नम्बर पर न्यूनतम रिचार्ज न करने पर आउटगोइंग सुविधा बंद करने की धमकी आने लगी तो मैं परेशान हुआ। इससे पहले मैं जिओ की सेवाओं से कई बार आजिज आ चुका था और बारहा सोचता था कि कोई दूसरी सेवा चुन लूंगा। दो सिम है तो एक अन्य का विकल्प हमेशा था। मैं दूसरी सेवा चुनने को सोचता था तो अगले क्षण मुझे वोडाफोन, आइडिया और एयरटेल की लूट याद आ जाती थी और मैं जिओ से और प्यार करने लगता था। अब जब वोडाफोन ने धमकी देनी शुरू की तो मेरा प्यार और उमड़ा। लेकिन अपनी ही कंपनी के दो सिम कार्ड को एक साथ रखने का स्पेस जिओ नहीं देता, इसलिए वोडाफोन को आज bsnl में बदलवाने के लिए अर्जी दे आया। आखिरकार यह सरकारी उपक्रम है।
          तो सेवाएं हो सकता है कि जिओ कभी कभी घटिया दे दे, हम उससे परेशानी महसूस करें लेकिन सबको औकात में लाने वाली और हमारे हितार्थ काम करने वाली वही समझ में आती है। 

           इसलिए आई लव जियो।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

कथावार्ता : बहादुरशाह जफ़र को श्रद्धांजलि!


'बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थीजैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी।
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रारबेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी।'
आज अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जन्मदिन है। बड़ा मशहूर और मक़बूल शायर हुआ बहादुर शाह जफ़र। अगर अंग्रेजों ने उसे बंदी न बनाया होता और उसपर जुल्म न ढाए होते तो उसकी शायरी में वह कशिश न आ पाती जो आज है। बहादुर शाह एक रंगीन मिजाज शायर था जिसका सोचना था कि
'एक ऐसा घर चाहिए मुझकोजिसकी फ़िज़ा मस्ताना हो,
एक कोने में गजल की महफ़िलएक में मयखाना हो।'
लेकिन उसे आखिरी दिनों में रहने की जगह मिली तो ऐसी कि बेचारा 'कूये यार में' 'दो गज जमीन के लिएतरस गया। जब पहला स्वाधीनता संग्राम हुआ- लोगबाग और खासतौर पर अंग्रेजपरस्त मानते हैं कि यह एक सैनिक विद्रोह भर था। भारत में ब्रिटिश समय में इतिहासकार 1857 के क्रांति के विषय में लिखने से बचते रहे थे और सर सैयद अहमद खान और विनायक दामोदर सावरकर के अलावा किसी ने इस विषय पर उल्लेखनीय काम नहीं किया है- तो सैनिकों का जत्था नेतृत्व के लिए मुंह देख रहा था। उनका सेनानायक कौन होगालंबे समय से राजतंत्र की परिपाटी में चले आ रहे भारतीय सैनिक और लोग आजादी का बिगुल फूंक चुके थे किंतु स्वतन्त्रता जिस चेतना की मांग करती हैवह उनमें नहीं था। तो वह अंग्रेजों से मुक्त होकर पुनः किसी राजा की शरण में जाना चाहते थे। थोड़ा विषयांतर करते हुए कहने का मन है कि आज भी हम राजतंत्र की उस बुनियादी ढांचे से बाहर नहीं निकल सके हैं और लोकतंत्र में भी एक नए तरीके का वंशवाद ढो रहे हैं। 
खैरतो सैनिक जब बहादुर शाह के पास पहुंचे तो हजरत डर गए। कहने लगे- बूढ़ा हो गया हूँ। लेकिन सैनिकों ने उनसे प्रतीकात्मक रूप से नेतृत्व करने को कहा। काफी हील हुज्जत के बाद मान गए बहादुर शाह जफर। लड़ाई बहुत निर्णायक दौर में थी। लेकिन स्वाधीन होने के लिए जो चेतना चाहिए थीउसका अभाव कमजोर कर गया और यह संग्राम कमजोर पड़ गया।

तो अंग्रेजों ने बर्बरता शुरू की। भूखे बहादुर शाह की थाली में दोनों बेटों का सिर परोस दिया गया। उसे बेइज्जत किया गया और कहा गया कि तुम्हारे शमशीर में अब दम नहीं रहा। कहते हैं कि बूढ़े बादशाह ने तब बड़ा फड़कता हुआ शेर कहा था- 
"हिंदीओ में बू रहेगी जब तलक इमान की,
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की!!"
तेग तो म्यान में धर दी गयीबहादुर शाह को रंगून भेज दिया गया। हिंदीओ का ईमान अंग्रेजों ने गठरी में बांधकर मैनचेस्टर पहुंचा दिया। जाने कितने बाई कितने की कोठरी में बिसूरते हुए अल्लाह को प्यारे हुए बहादुर शाह जफ़र। कोसते रहे भाग्य को-
किस्मत में कैद थी लिखी फसल-ए-बहार में।
मैं यदाकदा सोचता हूँ कि मुगलिया सल्तनत को अंग्रेजों ने जिस तरह अधिग्रहित किया और शासक को तड़ीपार कर दियावह क्या हर आक्रमणकारी करता हैअंग्रेज दुष्ट थे और उनका रवैया पूर्ववर्ती सम्राटों सरीखा ही था। गुरु अर्जुनदेव को जब औरंगजेब ने सरेआम कत्ल करवाया तो उसका तरीका भी ठीक वही था जो अंग्रेजों का था। बहादुर शाह जफ़र की गजलें बहुत लोकप्रिय हुई हैं। दुर्भाग्य था कि यह बादशाह आखिरी मुग़ल शासक था। मैं जब उसके प्रसंग में अंग्रेजों के विषय में सोचता हूँ तो बहुत उद्विग्न हो उठता हूँ। अंग्रेजों ने सभ्यता सिखाने के नाम पर बर्बरता अधिक की है।
याद रहेजब भी आप अपनी सभ्यता किसी पर थोपते हैंआप बर्बर होते हैं।
इस बादशाह के लिए श्रद्धा का एक पुष्प अर्पित करता हूँ।



सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

कथावार्ता : इलाहाबाद का नाम प्रयागराज क्यों हो


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' निबंध में नाम चर्चा करते हुए लिखते हैं- 'नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्‍वीकृति मिली होती है। रूप व्‍यक्ति सत्‍य है, नाम समाज सत्‍य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सैंक्‍सन' कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्‍याकुल है, समाज द्वारा स्‍वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि मानव की चित्त गंगा में स्‍नात।' वह कह रहे हैं कि नाम का संबंध सोशल सैंक्‍सन से है। 
इलाहाबाद का नाम प्रयागराज क्यों हो? यह सवाल बहुत से लोगों को फिजूल लग रहा है। जहां हम रोटी कपड़ा मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहां नाम बदलने से क्या हासिल? लेकिन थोड़ा पलट कर पूछिये कि नाम बदल दिया तो दिक्कत क्या हो गयी? हर संस्कृतिकर्मी को इतिहास में, सांस्कृतिक विरासत में बदलाव चुभता है। यह बदलाव अपनी संस्कृति को ताकतवर बनाती है। वरना संस्कृत वाङ्गमय में वर्णित और भारी महात्म्य वाले प्रयाग का नाम अकबर क्यों बदलता
प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः' जहां विशाल यज्ञ सम्पन्न हुआ था इसके कारण वह भूमि प्रयाग कही गयी। कुम्भ की सांस्कृतिक धारा इस पुण्य स्थल पर है। राम वनगमन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। तो जब अकबर ने प्रयाग का नाम बदल दिया तो रामकथा के सबसे बड़े प्रस्तोता तुलसीदास ने अपना मत इन शब्दों में प्रकट किया।
'को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥'
अर्थात पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया।
जरा सोचिए तो कि तुलसीदास पापों के समूह रूपी हाथी का उल्लेख किसके लिए कर रहे हैं? 'म्लेच्छाक्रान्त देशेषु' याद है? छटपटाहट थी। सूरदास के यहां यह ऐसे हैं कि उन्होंने और उनके गुरु बल्लभाचार्य तथा विट्ठलदास ने फतेहपुर सीकरी के समानांतर एक दूसरी ही गद्दी स्थापित की जिसके पादशाह श्रीकृष्ण हुए जिनकी आठ प्रहर की सेवा नियत हुई।
बाद के कवियों के यहां भी प्रयाग जोर मारता रहा। उसकी हुड़क थी। प्रयाग के न रहने का दुख था। बिहारीलाल ने तो प्रयाग की अद्भुत संकल्पना रच दी। यद्यपि उनका ध्यान 'तन-दुति' पर अधिक है फिर भी उनका दोहा देखने लायक है।
'तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।
जिहिं ब्रज-केलि निकुंज-मग पग-पग होत प्रयाग॥'
तीर्थ व्रत छोड़ो, राधा कृष्ण में मन लगाओ। उन्होंने जहां-जहां केलि की है, वन, बाग़, तड़ाग में विहार किया है, उसके कदम कदम पर ही प्रयाग है। तब मथुरा-वृंदावन में वैसी समस्या नहीं थी। इसका नाम नहीं बदला उनने।
नाम बदलने की राजनीति अपनी जगह है। सब उसके प्रभाव से वाकिफ हैं। यह बदलाव एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव का सूचक है। अभी तो सरकार को पहला काम यह करना चाहिए कि अंग्रेजी अवशेष को समाप्त करने की कोशिश करे। वह ज्यादा जरूरी है। बिना नाम बदले हम उपनिवेशवादी मानसिकता से भी बाहर नहीं नकल सकेंगे। अंग्रेजी संस्थानों को / शहरों को भारतीय पहचान दे। 
मुझे इस बदलाव से प्रसन्नता हुई है। कुढ़ने वालों पर ध्यान न दीजिए।

शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

स्वामी सानंद : एक मनीषी का महापरिनिर्वाण

हमने उन्हें उसी दिन जाना. जब उनका सम्भाषण संपन्न हुआ तो हमने सहज जिज्ञासा की कि यह ओजपूर्ण वाणी किसकी है? उनके सम्भाषण में जिसतरह विज्ञान के उद्धरण थे वह परम्परागत भारतीय आचार्य परम्परा में नहीं मिलता. जब हमने उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया था तो कम से कम मुझे नहीं मालूम था कि यह प्रो जी डी अग्रवाल हैं. आइआइटी कानपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर. गंगा बचाओ अभियान के लिए उनको देश भर में पहचान मिली थी. वह स्वामी सानंद हो गए थे. इसी रूप/नाम से अपनी पहचान चाहने लगे थे. सुदूर उत्तर प्रदेश के आखिरी सीमावर्ती जनपद सोनभद्र के एक अत्यन्त  दुर्गम इलाके में आदरणीय प्रेम भाई द्वारा स्थापित आश्रम, वनवासी कल्याण आश्रम, गोविंदपुर में रह रहे थे. वहां उन्होंने जैविक खेती शुरू कराई थी. मृदा और जल परीक्षण तथा बीजशोधन की प्रयोगशाला का निर्देशन कर रहे थे. लोगों को गांधीवादी तरीके से जीवन जीने के गुर सिखा रहे थे और उनके लिए स्वावलम्बन की अनेक योजनाएं क्रियान्वित कर रहे थे.
वह सोनभद्र के सबसे बड़े जलाशय रिहन्द के बुनियादी अभियन्ता थे. उनकी देखरेख में ही बाँध बना था. हालांकि बाँध बनने से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान से बेहद व्यथित. उन्होंने बिरला के उपक्रम हिंडाल्को, नॉदर्न कोल फील्ड्स, और नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन (एनटीपीसी) को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में घसीटा था और सोनभद्र समेत आसपास के लोगों के जीवन को नरक बना रहे प्रदूषण को दूर करने के लिए समुचित उपाय करने के लिए दबाव डाल रहे थे. 
सोनभद्र के लोग जानते हैं कि उन्होंने समेकित प्रयास से ग्रामीणों का जीवन कितना बदल दिया था. वह गंगा की अविरल धारा के लिए बीते 111 दिन से अनशनरत थे. लम्बी आयु के बावजूद उनकी सक्रियता देखते बनती थी. वह निरंतर यात्रा में रहते थे और यह सब यात्रायें एक बड़े उद्देश्य के लिए थीं.
स्वामी सानंद का जाना महज गंगा की अविरलता के लिए प्रयास करने वाले एक ऋषि का जाना नहीं है, बल्कि सोनभद्र के लोगों का अनाथ हो जाना भी है. मैं नहीं जानता कि उनके जाने से कितने लोगों के जीवन पर कोई सीधा प्रभाव है या नहीं लेकिन सोनभद्र के अपने प्रवास के अनुभव से कह सकता हूँ कि उनका न रहना सोनभद्र वासियों को बहुत खलेगा.
संगोष्ठी के बाद मैं अक्सर गोविंदपुर जाता था और उनके होने का समाचार हमारे लिए सुकूनदेह होता था. वह गोविन्दपुर आश्रम के सहज न्यासी थे. बीते दिन जब उनसे भेंट हुई थी तो वह रत्नागिरी, महाराष्ट्र के एक ऐसे ही संत के साथ सत्संग कर रहे थे. सत्संग-जिसमें लोक का भौतिक और आत्मिक कल्याण समाहित था.
उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि. 
(चित्र में मैं अपने प्राचार्य प्रो सुरेश कुमार श्रीवास्तव का स्वागत कर रहा हूँ.)

शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

नादिया मुराद और तापसी मलिक को सलाम

    जब नादिया मुराद को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई तो मुझे तापसी मलिक की याद आई। नादिया कुर्द समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और आईएसआईएस ने उनका अपहरण कर लिया था। उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और कई बार बेचा गया। किसी तरह भागकर उन्होंने अपनी जान बचाई और बलात्कार के खिलाफ मुहिम शुरू की। नादिया मुराद की कहानी दिलचस्प है। बीबीसी ने नादिया मुराद की आपबीती प्रस्तुत की है। हमें भी पढ़ना चाहिए।



नादिया मुराद की आपबीती-
"कथित इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों के आने से पहले मैं अपनी मां और भाई बहनों के साथ उत्तरी इराक़ के शिंजा के पास कोचू गांव में रहती थी. हमारे गांव में अधिकतर लोग खेती पर निर्भर हैं. मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी. हमारे गांव में कोई 1700 लोग रहते थे और सभी लोग शांतिपूर्वक रहते थे. हमें किसी तरह की कोई चेतावनी नहीं मिली थी कि आईएस शिंजा या हमारे गांव पर हमला करने जा रहा है।
   03 अगस्त, 2014 की बात है, जब आईएस ने यज़ीदी लोगों पर हमला किया. कुछ लोग माउंट शिंजा पर भाग गए, लेकिन हमारा गाँव बहुत दूर था. हम भागकर कहीं नहीं जा सकते थे. हमें 3 से 15 अगस्त तक बंधक बनाए रखा गया. खबरें आने लगी थीं कि उन्होंने तीन हज़ार से ज़्यादा लोगों का क़त्ल कर दिया है और लगभग 5,000 महिलाओं और बच्चों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है. तब तक हमें हक़ीक़त का अहसास हो चुका था.
   इस दौरान चरमपंथी आए और हमारे हथियार क़ब्ज़े में ले लिए. हम कुछ नहीं कर सकते थे. हम पूरी तरह घिर चुके थे. हमें चेतावनी दी गई कि हम दो दिन के अंदर अपना धर्म बदल लें. 15 अगस्त को मैं अपने परिवार के साथ थी. हम बहुत डरे हुए थे क्योंकि हमारे सामने जो घटा था, उसे लेकर हम भयभीत थे. उस दिन आईएस के लगभग 1000 लड़ाके गांव में घुसे. वे हमें स्कूल में ले गए. स्कूल दो मंज़िला था. पहली मंज़िल पर उन्होंने पुरुषों को रखा और दूसरी मंज़िल पर महिलाओं और बच्चों को. उन्होंने हमारा सब कुछ छीन लिया. मोबाइल, पर्स, पैसा, ज़ेवर सब कुछ. मर्दों के साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया. इसके बाद उनका नेता ज़ोर से चिल्लाया, जो भी इस्लाम धर्म क़बूल करना चाहते हैं, कमरा छोड़कर चले जाएं.
हम जानते थे कि जो कमरा छोड़कर जाएंगे वो भी मारे जाएंगे. क्योंकि वो नहीं मानते कि यज़ीदी से इस्लाम क़बूलने वाले असली मुसलमान हैं. वो मानते हैं कि यज़ीदी को इस्लाम क़बूल करना चाहिए और फिर मर जाना चाहिए. महिला होने के नाते हमें यक़ीन था कि वे हमें नहीं मारेंगे और हमें ज़िंदा रखेंगे और हमारा इस्तेमाल कुछ और चीज़ों के लिए करेंगे. जब वो मर्दों को स्कूल से बाहर ले जा रहे थे तो सही-सही तो पता नहीं कि किसके साथ क्या हो रहा था, लेकिन हमें गोलियां चलने की आवाज़ें आ रही थी. हमें नहीं पता कि कौन मारा जा रहा था. मेरे भाई और दूसरे लोग मारे जा रहे थे. सभी मर्दों को गोली मार दी। वे नहीं देख रहे थे कि कौन बच्चा है कौन जवान और कौन बूढ़ा। कुछ दूरी से हम देख सकते थे कि वो लोगों को गांव से बाहर ले जा रहे थे. लड़ाकों ने एक व्यक्ति से एक लड़का छीन लिया, उसे बचाने के लिए नहीं. बाद में उन्होंने उसे स्कूल में छोड़ दिया. उसने हमें बताया कि लड़ाकों ने किसी को नहीं छोड़ा और सभी को मार दिया.
    जब उन्होंने लोगों को मार दिया तो वे हमें एक दूसरे गांव में ले गए. तब तक रात हो गई थी और उन्होंने हमें वहाँ स्कूल में रखा. उन्होंने हमें तीन ग्रुपों में बांट दिया था. पहले ग्रुप में युवा महिलाएं थी, दूसरे में बच्चे, तीसरे ग्रुप में बाक़ी महिलाएं. हर ग्रुप के लिए उनके पास अलग योजना थी. बच्चों को वो प्रशिक्षण शिविर में ले गए. जिन महिलाओं को उन्होंने शादी के लायक़ नहीं माना उन्हें क़त्ल कर दिया, इनमें मेरी मां भी शामिल थी. हमें लड़ाकों में बांट दिया गया। रात में वो हमें मोसुल ले गए. हमें दूसरे शहर में ले जाने वाले ये वही लोग थे जिन्होंने मेरे भाइयों और मेरी मां को क़त्ल किया था. वो हमारा उत्पीड़न और बलात्कार कर रहे थे. मैं कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नहीं थी. वे हमें मोसुल में इस्लामिक कोर्ट में ले गए. जहाँ उन्होंने हर महिला की तस्वीर ली. मैं वहां महिलाओं की हज़ारों तस्वीरें देख सकती थी. हर तस्वीर के साथ एक फ़ोन नंबर होता था. ये फ़ोन नंबर उस लड़ाके का होता था जो उसके लिए जिम्मेदार होता था. तमाम जगह से आईएस लड़ाके इस्लामिक कोर्ट आते और तस्वीरों को देखकर अपने लिए लड़कियां चुनते. फिर पसंद करने वाला लड़ाका उस लड़ाके से मोलभाव करता जो उस लड़की को लेकर आया था. फिर वह चाहे उसे ख़रीदे, किराए पर दे या अपनी किसी जान-पहचान वाले को तोहफ़े में दे दे.
   पहली रात जब उन्होंने हमें लड़ाकों के पास भेजा. बहुत मोटा लड़ाका था जो मुझे चाहता था, मैं उसे बिल्कुल नहीं चाहती थी. जब हम सेंटर पर गए तो मैं फ़र्श पर थी, मैंने उस व्यक्ति के पैर देखे. मैं उसके सामने गिड़गिड़ाने लगी कि मैं उसके साथ नहीं जाना चाहती. मैं गिड़गिड़ाती रही, लेकिन मेरी एक नहीं सुनी गई. एक मुस्लिम परिवार ने मुझे पनाह दी। एक हफ़्ते बाद मैंने भागने की कोशिश की. वे मुझे कोर्ट मे ले गए और सज़ा के तौर पर छह सुरक्षा गार्डों ने मेरे साथ बलात्कार किया. तीन महीने तक मेरा यौन उत्पीड़न होता रहा.
इस इलाक़े में चारों तरफ़ आईएस के लड़ाके ही फैले हैं. तो इन महीनों में मुझे भागने का मौक़ा ही नहीं मिला. एक बार मैं एक पुरुष के साथ थी. वो मेरे लिए कुछ कपड़े ख़रीदना चाहता था, क्योंकि उसका इरादा मुझे बेच देने का था. जब वो दुकान पर गया. मैं घर पर अकेली थी और मैं वहाँ से भाग निकली. मैं मोसुल की गलियों में भाग रही थी. मैंने एक मुस्लिम परिवार का दरवाज़ा खटखटाया और उन्हें अपनी आपबीती सुनाई. उन्होंने मेरी मदद की और कुर्दिस्तान की सीमा तक पहुँचाने में मेरी मदद की।शरणार्थी शिविर में किसी ने मेरी आपबीती नहीं पूछी. मैं दुनिया को बताना चाहती थी कि मेरे साथ क्या हुआ और वहाँ महिलाओं के साथ क्या हो रहा है. मेरे पास पासपोर्ट नहीं था, किसी देश की नागरिकता नहीं थी. मैं कई महीनों तक अपने दस्तावेज़ पाने के लिए इराक़ में रुकी रही.
   उसी वक़्त जर्मन सरकार ने वहाँ के 1000 लोगों की मदद करने का फ़ैसला किया. मैं उन लोगों में से एक थी. फिर अपना इलाज कराने के दौरान एक संगठन ने मुझसे कहा कि मैं संयुक्त राष्ट्र में जाकर आपबीती सुनाऊं. मैं इन कहानियों को सुनाने के लिए दुनिया के किसी भी देश में जाने को तैयार हूँ।"
नादिया मुराद की तरह ही संघर्ष करने वाली तापसी मलिक सिंगूर की थी। पश्चिम बंगाल के सिंगूर की। जब नंदीग्राम और सिंगूर में जमीन अधिग्रहण का मसला शुरू हुआ तो तापसी प्रतिरोधक दल में आगे रहती थीं। उनके साथ सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने पहले बलात्कार किया और फिर जलाकर मार डाला। वह सिंगूर में कृषक प्रतिरोध के अगुआ दस्ते की सबसे बहादुर सिपाही थी। सब जानते हैं कि ग्यारह महीने तक सिंगूर और नंदीग्राम में सीपीएम के लोगों ने कितना अत्याचार और नंगानाच किया था। पुष्पराज ने नंदीग्राम डायरी में बहुत मर्मान्तक वर्णन किया है। जैसे नादिया ने बलत्कृत होने के बाद खुद को नष्ट नहीं होने दिया और संघर्षरत रहीं, नंदीग्राम की महिलाओं ने तापसी मलिक को छोड़ा नहीं। हमारे समाज में बलात्कार इसलिए ज्यादा दुखद होता है कि इससे लड़की की सामाजिक प्रतिष्ठा भी नष्ट कर दी जाती है। वह आंतरिक और वाह्य कष्ट एकसाथ झेलती है। सिंगूर और नंदीग्राम की महिलाओं ने खुद को तापसी मलिक माना और उनकी तस्वीरों को प्रेरणादायक की तरह लिया। वह संघर्ष और शहादत का प्रतीक बन गई थी।

नादिया के साथ साथ तापसी मलिक को सलाम।

रविवार, 9 सितंबर 2018

कथावार्ता : रामवृक्ष बेनीपुरी: मील के पत्थर

     तरुणाई में पढ़े हुए किसी पाठ का, अगर वह भा गया हो और हमेशा बेहतर के लिए प्रेरित करता हो, असर लंबे समय तक बना रहता था। हिंदी पाठ्यक्रम में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित 'गेंहू बनाम गुलाब' ऐसा ही था। गेंहू श्रम का प्रतीक था और गुलाब विलासिता का। उस पाठ की पहली ही चर्चित पंक्ति  थी, 'गेंहू हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।' हम मेहनतकश लोगों में थे। गेंहू उगाते थे। हाड़तोड़ श्रम करते थे और खुश रहते थे। हमारा बड़ा सा दुआर था और गांव-जवार में प्रतिष्ठित परिवार के माने जाते थे, तो बाबूसाहबी में गुलाब की क्यारियां लगाते थे। नेहरू को अपने कोट में खोंसे हुए गुलाब के साथ चित्रों में देखते थे तो अपनी शर्ट के ऊपर वाली काज में खिले हुए गुलाब को अटकाए फिरते थे और रह-रहकर सूंघते थे। यह बताने में कोई लज्जत नहीं है कि हाथ से गोबर वाली गंध सुबह उठाने के बाद दिनभर बनी रहती थी। तो ऐसे में जब 'गेंहू बनाम गुलाब' पढ़ा गया तो सहज ही गेंहू के पक्ष में हो लिया गया। नेहरू विलासी लगने लगे। इत्र फुलेल बकवास लगने लगा। हम मेहनतकश थे और उनके साथ खड़े होने में अपनी शान समझने लगे। तब मिथुन और अमिताभ (मर्द, कुली और दीवार तथा कालिया वाला) हमें प्रिय लगने लगे। खैर, ऐसे में यह पाठ हमें बहुत प्रिय हो गया। माटी की मूरतें और गेंहू बनाम गुलाब के रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी हमारी स्मृति में अमिट हो गए। बाद में विद्यापति पदावली पर उनका काम हाथ लगा लेकिन शिवप्रसाद सिंह और नागार्जुन के काम के आगे बहुत नहीं रुचा। विद्यापति के कीर्तिलता पर अवधेश प्रधान की किताब ने विद्यापति के बारे में धारणा ही बदल दी।
    खैर, तो आज गेंहू बनाम गुलाब के उसी अप्रतिम रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर,1900 - 09 सितंबर,1968) की पुण्यतिथि है।
    बीते दिन बेनीपुरी की रेखाचित्र और संस्मरणों की पुस्तक 'मील के पत्थर' खरीद लाया था। विभिन्न विभूतियों पर लिखे उनके संस्मरण अद्भुत हैं। 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से माखनलाल चतुर्वेदी पर और 'दीवाली फिर आ गयी सजनी!' शीर्षक से जयप्रकाश नारायण और 'एक साहित्यिक सन्त' के नाम से शिवपूजन सहाय पर लिखे हुए उनके संस्मरण अप्रतिम हैं। इन संस्मरणों में आत्मीयता और समर्पण भावना झलकती है। अब जबकि एक साहित्यिक दूसरे की सार्वजनिक हत्या में विश्वास करता है और अपनी केकड़ा वृत्ति में उलझा हुआ है, गलीजपने को रेखांकित करने में अपनी सार्थकता समझता है, वैसे में रामवृक्ष बेनीपुरी के संस्मरण उदात्तता के सरस उदाहरण हैं। यूरोपीय रचनाओं और रचनाकार पर उनका लिखा उनके बहुपठित और सरस तथा गुणग्राही व्यक्तित्व का सूचक है। जब वह बनार्ड शॉ के बारे में इस वाक्य से शुरुआत करते हैं कि 'सभी आत्मकथाएं झूठी हैं' तो मन बरबस ही उत्सुक हो उठता है। बेनीपुरी का गद्य बहुत मार्मिक है। छोटे वाक्य किंतु भाव भंगिमा से भरे हुए। उनके संस्मरण और रेखाचित्र हिंदी साहित्य में अमूल्य निधि हैं। उनके निबंध लेखन में उनकी दृष्टि का पता चलता है। जब वह अपने साथियों को संत की तरह याद करते हैं तो उनकी छवि भी संत की तरह बन जाती है। आज उनके पुण्यतिथि पर उनको याद करते हुए ऐसा लग रहा जैसे किसी संत को श्रद्धांजलि देने के लिए हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जा रहे हैं।

रविवार, 5 अगस्त 2018

धम्मपद से

चरञ्‍चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो।
एकचरियं दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता॥
-(धम्मपद-बालवग्गो)

यदि शील, समाधि या प्रज्ञा में विचरण करते हुये अपने से श्रेष्ठ या अपना जैसा सहचर न मिले, तो दृढता के साथ अकेला विचरण करे। मूर्ख च्यक्ति से सहायता नही मिल सकती।

सोमवार, 28 मई 2018

कथावार्ता : नमो अन्धकारं : पढ़ने का सलीका

यथार्थ के अनेक रंग होते हैं
और उन सबको समेटने का अन्त
एक अंधेरे में होता है।

-पिकासो

किसी रचना को पढ़ते हुए उसमें चित्रित पात्रों अथवा घटनाओं का साम्य बिठाना और उसे चर्चा के केंद्र में रखना सबसे घटिया दर्जे की आलोचना कही जा सकती है। वस्तुतः जब कोई रचनाकार इस तरह अभिव्यक्त करता है तो इसे किसी व्यक्ति/घटना से जोड़कर देखने के बजाय एक प्रवृत्ति के रूप में देखना चाहिए। रचना का अंग बनते ही वह एक वृत्ति में रूपायित हो जाती है। दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी 'नमो अन्धकारं' इसी तरह की घटिया आलोचना का शिकार बनी थी।...

आज नमो अन्धकारं पढ़ते हुए बार बार खयाल आया कि दूधनाथ सिंह ने जिस वृत्ति को इस कृति में रखा है, उसकी चर्चा आखिर क्यों नहीं हुई। समूचा आलोचकीय समाज उसमें निजी जीवन और परिचित चेहरे क्यो तलाशने लगा था? मुझे यह कृति अपने अंतर्विरोधों की सफल अभिव्यक्ति के लिहाज से अच्छी लगी। 'मठ' ऐसी ही वासनाओं और दुरभिसंधियों का गढ़ रहता है जो इस लंबी कहानी में आया है और ऐसे ही मठ और गढ़ ढहाने के लिए लोग संकल्पबद्ध होते रहे हैं। मुक्तिबोध आखिर किस मठ को ढाहने के लिए आह्वान करते हैं?
नमो अन्धकारं ऐसी कई वृत्तियों को बेनकाब करता है और हमारे समक्ष उघाड़ देता है, जिससे हम लाभार्थी होना चाहते हैं लेकिन उसका ठप्पा लगने से बचना चाहते हैं। क्या यह कहानी इलाहाबाद की गलीज जिंदगी का दस्तावेज नहीं है? क्या इसमें बड़े बड़े मठाधीशों की पोल पट्टी नहीं है? क्या इसमें कॉमरेड्स की कलई नहीं उघड़ती? पियक्कड़ी और परनारिगमन तो इस वासना-पंक का एक सहज दुलीचा है। दूधनाथ सिंह इसी अंधकार में यथार्थ की कई कई छवियां घोलते हैं और सबको दागदार बनाकर रख देते हैं।
नमो अन्धकारम पढ़ा जाए तो यह न देखा जाए कि इसमें कौन किस भूमिका में है, यही रचना के साथ न्याय है।

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.