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सोमवार, 8 अप्रैल 2024

ग़ज़ल : राजीव राय क्यों इतरा रहे हैं!

बेल का शर्बत तो पिला रहे हैं,

कहंतरी में क्या हिला रहे हैं!


भुने हुए काजू रक्खे हैं प्लेट में

जुबान क्यों अपनी चला रहे हैं!


पूरा समाजवाद उतरा है फाटक में

राजीव राय क्यों इतरा रहे हैं!


जिसने उजाड़ दी मासूमों की दुनिया

कब्र पर पुष्प क्यों बिखरा रहे हैं!


मेन बात ये है कि कहता है गुड्डू

ये अशराफ सारे कहां जा रहे हैं!




बुधवार, 7 सितंबर 2022

त्रिमुहानी का मेला : श्रीराम सब जानते हैं!

- डॉ रमाकान्त राय

आज त्रिमुहानी का मेला था। आज की तिथि वामन द्वादशी की तिथि है। हमारी लहुरी काशी में आज का दिन भगवान श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण तथा उनके आचार्य ऋषि विश्वामित्र के दर्शन का दिन है। उत्सव है। मेला है।

आपको त्रिमुहानी के इस विख्यात मेले के बारे में पता है न? जनश्रुति है कि भगवान श्रीराम ताड़का वध के समय बक्सर जाते समय जल्लापुर, गाधिपुरी (गाजीपुर) में गंगा तट पर रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। जिस दिन पहुँचे उस दिन यानि कल के दिन छतर का मेला लगता है और दंगल होता है। दूर दूर के पहलवान अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के प्रति समर्पण का यह विशिष्ट तरीका है। राम और लक्ष्मण अभी बालक ही तो हैं। ऋषि विश्वामित्र उन्हें अपने यज्ञ की रक्षा के लिए दशरथ से मांगकर ले जा रहे हैं। बक्सर। वहां कुख्यात राक्षस उनकी यज्ञ वेदी में हड्डियां डाल देते थे। राम और लक्ष्मण ऋषि वशिष्ठ से ज्ञानार्जन कर अभी लौटे ही थे। परीक्षा की घड़ी है।

आज मेला लगता है। लोग रघुवंशियों को देखने और उन्हें विदा करने गंगा तट पर उमड़ते हैं। लोक की स्मृति अद्भुत है। रात्रि विश्राम के बाद रघुकुलनंदन जाने की तैयारी कर रहे हैं। ऋषि विश्वामित्र आगे आगे चल रहे हैं। लोग यह देखकर धन्य हो रहे हैं।

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष 

लोक की स्मृति अद्भुत है। अभी हाल ही में एक विद्वान हस्तिनापुर के निकट स्थित दनकौर के बारे में बता रहे थे। दनकौर द्रोणाचार्य के अखाड़े से जुड़ा हुआ है। द्रोण के आश्रम का यह कोर (कोना) कौरव और पांडव के दीक्षांत का था। हजारों वर्ष बीत गए, आज भी उसकी याद में मेला लगता है। मुगल काल में स्मृति क्षीण करने का प्रयास अवश्य हुआ, किन्तु लोगों ने इसे अपनी परम्परा में बचाए रखा। त्रिमुहानी का मेला ताड़का वध के लिए जा रहे भगवान श्रीराम और लक्ष्मण की याद में आयोजित करते हैं।

कहते हैं कि जब यह खबर अब के फिरोजपुर, सुल्तानपुर, कठउत-गौसपुर (दुर्योग से यह नाम आक्रांताओं की याद दिलाते हैं) के लोगों को पता चली तो वह लोग अगले दिन  जमा हुए। उनका यह जमावड़ा चटनी का मेला कहा गया।

कई साल हो गए। मेला नहीं गया लेकिन मेला स्मृति में बसा हुआ है। छुटपन में जाते थे तो गुरहिया जिलेबी और केला जरूर खाते थे। खजुली खाते। चरखी पर भी चढ़ते। हनुमान जी के मंदिर में शीश नवाते थे। आज के दिन बरसात अवश्य होती है। सबको इस बारिश में भीगना रहता था, उसी दशा में घूमना भी। यह मेला शिवपालगंज के मेले से किसी भी दृष्टि से कम नहीं था।

त्रिमुहानी के मेले की कई मीठी स्मृतियां हैं। अगली बार अवश्य जाऊंगा।

बुधवार, 10 अगस्त 2022

केशवदास की कविप्रिया से

काव्य दूषण वर्णन (तीसरा प्रभाव)

 

समझैं बाला बालकहूंवर्णन पंथ अगाध।

कविप्रिया केशव करीछमियो कवि अपराध ॥1॥

          भावार्थ :- बालकयुवक और युवती आदि के समझने के लिएइस कविकर्म के गहरेदुरूह और कठिन  मार्ग का वर्णन करने के लिए(काव्य के अंग-उपांग आदि को समझाने के लिए) कवि केशव दास ने यह कविप्रिया नामक ग्रंथ बनाया है। यदि इस अनुक्रम में कोई अपराध हो जाये तो वह क्षमा कर दिया जाना चाहिए।

अलंकार कवितान केसुनि सुनि विविध विचार।

कवि प्रिया केशव करीकविता को सिंगार ॥2॥

          भावार्थ :- कवि केशवदास कहते हैं कि कविता के अलंकरण के सम्बन्ध में विविध प्रकार के आचार्य, कवियों, काव्य मर्मज्ञ जनों के विचार सुन सुनकर उन्होंने कविप्रिया का प्रबन्धन किया है ताकि कविता का शृंगार किया जा सके। 

          कविप्रिया प्रबंध में इन्हीं स्थापनाओं के कारण केशवदास को आचार्य का पद दिया गया है और उन्हें अलंकारवादी कहा गया है। वह कविता के सौन्दर्य में अलंकारों को बहुत महत्त्व देने वाले कवि/आचार्य हैं।

चरण धरत, चिन्ता करतनींद न भावत शोर।

सुबरण को सोधत फिरतकवि, व्यभिचारीचोर॥3॥

          भावार्थ :- केशवदास इस दोहे में श्लेष अलंकार का प्रयोग करते हुए लिखते हैं कि कवि, व्यभिचारी और चोर; तीनों ही प्रकार के लोगों को सुवर्ण की चाह रहती है और वह उसे खोजते फिरते हैं। सुवर्ण की चाह में ही वह अपने पैर रखते हैं यानि किसी भी तरह का प्रयास, उद्योग करते हैं। उसके विषय में सोचते और मनन करते हैं। इस क्रम में उन्हें नींद भी नहीं आती और उन्हें हल्ला-गुल्ला, शोर कतई पसंद नहीं आता। यहाँ सुवर्ण का अर्थ चोर के लिए सोना, व्यभिचारी के लिए अच्छे वर्ण यानि रंग-रूप वाला तथा कवि के लिए काव्योचित अक्षर हैं।

राजत रंच न दोष युतकविताबनिता, मित्र।

बुंदक हाला परत ज्योंगंगाघट अपवित्र॥4॥

          भावार्थ :- कवि केशवदास का मानना है कि कवितास्त्री तथा मित्र में थोड़ा सा भी दोष हो तो वह रंच मात्र भी शोभित नहीं होते। अर्थात दोषपूर्ण होने से कविता, स्त्री और मित्र अच्छा नहीं माने जाते। जिस प्रकार मदिरा की एक बूंद पड़ते ही गंगा जल का भरा हुआ पूरा घड़ा ही अपवित्र हो जाता है।

केशवदास

          (केशवदास हिन्दी में रीतिकाल के सबसे प्रतिभाशाली कवियों में से एक हैं। रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया, छंदमाला और जहांगीर जसचन्द्रिका उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं। इनमें उनका कवि और आचार्य रूप परस्पर गुंथा हुआ मिलता है। रामचन्द्रिका उनकी कीर्ति का आधार ग्रंथ है जिसमें छंदों का बाहुल्य है। केशवदास की कविता की गूढ़ता, विशिष्टता, चौंकाने वाली सोच तथा अभिनव प्रयोग करने की प्रवृत्ति ने उन्हें कठिन काव्य का प्रेत बना दिया है। रामचन्द्रिका में इतने प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं कि रामचन्द्र शुक्ल ने इस ग्रंथ को छंदों का अजायबघर कहा है।

          यहाँ उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय के बी ए प्रथम सेमेस्टर हिन्दी के विद्यार्थियों की सुविधा के लिए उनके पाठ्यक्रम में निर्धारित केशवदास की कविप्रिया से चार छंद (दोहा) और उनका भावार्थ प्रस्तुत किया गया है ताकि उन्हें समझने में आसानी हो।)

प्रस्तुति- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, 

इटावा उत्तर प्रदेश 206001

सोमवार, 1 अगस्त 2022

पंच परमेश्वर को पुनः पुनः पढ़ते हुए

प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर सबसे पहले जमाना उर्दू मासिक पत्रिका में मई-जून 1916 में प्रकाशित हुई थी। अगले महीने जून-1916 में मासिक पत्रिका सरस्वती में यह कहानी हिन्दी रूप में आई और प्रेमचंद की कहानियों का संकलन सप्त-सरोज (1917) में शामिल हुई। मानसरोवर के सातवें भाग में यह कहानी संकलित है। प्रेमचंद की यह कहानी कालजयी कहानियों में गिनी जाने लगी है और इसके संवाद का एक अंश- “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?” ने दुनिया भर के पाठकों को उद्वेलित किया है। आज यह कहानी किसी भी भाषा की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कहानियों में से एक है और तमाम पाठ्यक्रमों में शामिल।

          पंच परमेश्वर न्याय में निरपेक्षता की बात करने वाली कहानी है। न्याय की वेदी पर आसीन व्यक्ति परमेश्वर के समान हो जाता है और समदर्शी हो जाता है। उसकी व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक स्वार्थ से जुड़ी किसी भी तरह की संकीर्णता उस वेदी पर आसीन होते ही तिरोहित हो जाती है। वह सही अर्थों में न्याय करने लगता है। अलगू चौधरी और जुम्मन शेख, दोनों ही ऐसा करते हुए दिखते हैं जबकि मानवीय स्वभाव और दुनियादारी इसके ठीक उलट व्यवहार करती। आज जबकि न्याय की वेदी कटघरे में हैं और आए दिन कोलेजियम, इको-सिस्टम, पक्षधरता आदि की ध्वनियाँ सुनाई पड़ रही हैं, तब यह कहानी और भी प्रासंगिक हो जाती है। क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?’

          प्रेमचंद की यह कहानी बहुत प्रभावोत्पादक है और उनकी आदर्शवादी कहानियों में से एक मानी जाती है। यह कहानी पढ़ते हुए एक बात बारम्बार ध्यान में आती है कि भारत में संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की व्यवस्था के समय इस परंपरागत न्याय प्रणाली को अछूता क्यों छोड़ दिया। भारतीय समाज अपने विवाद को स्थानीय व्यवस्था से जैसे सुलझा लिया करता था, उसे न्याय प्रणाली में कोई स्थान क्यों नहीं दिया गया? यद्यपि आज भी पंचायत की व्यवस्था है तथापि उसकी न्याय प्रणाली को मान्यता नहीं है। क्यों?

पंच परमेश्वर कहानी का एक काल्पनिक दृश्य (साभार)

       पंच परमेश्वर कहानी पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता है कि प्रेमचंद इस कहानी का विषय कुछ और लेकर चले थे किन्तु किसी क्षण में यह न्याय और पंचायत की प्रणाली की कहानी बन गयी। कहानी 7 अनुच्छेद में है और प्रथम अनुच्छेद जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की गाढ़ी मित्रता और विद्यार्जन की प्रक्रिया के सम्बन्ध में है। “जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था।” यह विश्वास बचपन से ही बना था जब अलगू चौधरी, जुम्मन शेख के पिता जुमेराती के यहाँ विद्याध्ययन के लिए जाया करते थे।

          प्रेमचंद जिस तरह यह शुरुआत करते हैं, वह तथाकथित गंगा-जमुनी तहजीब का आधार बिन्दु है। अलगू चौधरी और जुम्मन के बीच व्यवहार को देखकर यह कहीं भी प्रतीत नहीं होता कि भारतीय समाज में सांप्रदायिक आधार पर अश्पृश्यता और विभेद जैसी कोई चीज थी/है। गाँव में भी लोग किसी भेद को नहीं मानते थे। प्रेमचंद के लेखन में यह एक यूटोपिक सीन है।

अब एक दूसरे बिन्दु से देखें- कहानी में आता है कि जुमेराती जो जुम्मन के पिता हैं; दोनों बालकों, जुम्मन और अलगू को शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरुजी की बहुत सेवा की- खूब रकाबियाँ माँजीं, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से मुक्त कर देती थी।” और जुम्मन? जुम्मन गलत पाठ अथवा पढ़ाई न करने पर छड़ी से पीटे जाते थे। परिणाम यह हुआ कि जुम्मन के “लिखे हुए रिहन नामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम नहीं उठा सकता था।” इस प्रकार अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्या ही से सबके आदर पात्र बने थे।” एकबार प्रश्न उठता है कि क्या जुमेराती शिक्षा देने में भेदभाव करते थे? वह अलगू चौधरी काम में उलझाए रखते थे और जुम्मन को पढ़ाई में? उनका बार-बार हुक्का भरना कफन कहानी के घीसू-माधव की याद दिलाता है जिनमें से घीसू एक दिन काम करता था तो तीन दिन आराम और माधव आध घंटे काम करता और घंटे भर चिलम पीता।

पंच-परमेश्वर कहानी में न्याय का आदर्श है। मित्र होते हुए भी अलगू, जुम्मन का पक्ष नहीं लेते। जुम्मन भी खुन्नस के बावजूद अलगू के पक्ष में फैसला देते हैं। बहुत सोना-सोना सा वातावरण है। मानवीयता, न्याय, सद्भावना, ईमान आदि बातें इस कहानी को पढ़ने पर कौंधती हैं। सब कुछ भला-भला प्रतीत होता है और एक सुखद अंत के साथ कहानी पूरी होती है। पुनः पुनः पढ़ते हुए यह कहानी कुछ दूसरी बातों की ओर सोचने के लिए प्रवृत्त करती है। जुमेराती की शिक्षा पद्धति पर थोड़ी बात हुई है। भीष्म साहनी की एक कहानी है, अमृतसर आ गया है। इस कहानी पर विचार करते हुए एक बार प्रश्न कौंधा था कि क्या होता यदि कहानी में रेल यात्रा अमृतसर से शुरू होती और जेहलम स्टेशन से गाड़ी आगे बढ़ती। क्या होता यदि पंच परमेश्वर कहानी में अलगू चौधरी और समझू सेठ की दोस्ती और न्याय की कहानी चलती। क्या तब भी यह कहानी उसी तरह प्रभावोत्पादक रहती? यह कहानी हिन्दू-मुसलमान समुदाय के दो सदस्यों की कहानी होने से एक अलग भाव बोध को जन्म देती है। उनका साझा भाव इस कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाता है।

पंच परमेश्वर कहानी में जुम्मन शेख ने अपनी खाला की मिल्कियत अपने नाम चढ़ा ली थी और उन्हें बेसहारा छोड़ दिया था। प्रेमचंद की कहानियों में यह प्रसंग बहुधा आते हैं। बूढ़ी काकी कहानी में बुद्धिराम ने भी अपनी काकी की संपत्ति अपने नाम करवा ली थी और उन्हें कलपने के लिए छोड़ दिया था। दोनों कहानियों में खूब पढे-लिखे लड़के हैं। जुम्मन और बुद्धिराम, दोनों। क्या प्रेमचंद इस तरफ भी कोई संकेत करते हैं कि पढ़-लिखकर व्यक्ति अधिक स्वार्थी व्यवहार करने लगता है? इस कहानी में तो जुम्मन शेख अलगू चौधरी से इस कदर रुष्ट हो जाते हैं कि उनके एक जोड़ी बैलों में से एक को जहर दे देते हैं। किसान को चोट पहुंचाने का यह प्रचलित तरीका था। गोदान में होरी की गाय को तो उसका भाई जहर दे देता है। एक अन्य कहानी मुक्ति मार्ग में भी प्रेमचंद ने इसे दिखाया है, जहां झींगुर, बुद्धू की बछिया को जहर दे देता है।

प्रेमचंद के पास कई कथा-रूढ़ियाँ हैं। गोवंश को जहरीला पदार्थ खिला कर मार देना एक विशिष्ट प्रसंग है। यह उनका कथा कौशल है कि वह इन कथा रूढ़ियों को बहुत कुशलता से पिरो देते हैं और उसे कहानी का अनिवार्य और सहज अंग बना लेते हैं। इसके साथ ही प्रेमचंद का एक अन्य कौशल है कि वह अपनी कहानियों में स्थापनाएं बहुत सुचिन्तित तरीके से करते हैं। इस कहानी में उत्तरदायित्व के ज्ञान से उपजी गंभीरता और उससे आए बोध को बहुत स्वाभाविक तरीके से रखा है।

पंच परमेश्वर कहानी, केवल कहानी मात्र नहीं है, यह मनुष्य के बदलते भाव और उसके अनुरूप किए जाने वाले व्यवहार की गाथा है। यह कहानी बार-बार पढ़ी जानी चाहिए ताकि न्याय और उसकी वेदी पर आसीन होने वाले व्यक्ति को इसका बोध हो सके कि उसका कर्तव्य क्या है। उसे बिगाड़ के भय से ईमान का मार्ग नहीं त्यागना है।

(राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)


-   डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश, 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com 


बुधवार, 20 जुलाई 2022

महामारी और हिन्दी साहित्य

-डॉ रमाकान्त राय

वर्तमान समय में समूचा विश्व एक विशेष किस्म की महामारी से जूझ रहा है। इसका नाम कोविड_19 रखा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड_19 को वैश्विक महामारी घोषित किया है। कोविड_19 तीन शब्दों का एक संक्षिप्त नाम है- को का आशय है- कोरोना, वि का अर्थ वायरस और डी से अभिप्राय डिजिज़ है। इस प्रकार यह कोरोना वाइरस डिजिज़ है। इसका पता 2019 के दिसंबर में लगा इसलिए इसमें 19 भी जुड़ा है। सबसे पहले वैज्ञानिकों ने यही परिलक्षित किया कि यह फ्लू का ही एक प्रकार है। फ्लू का अन्य रूप स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इन्फ़्लुएंजा आदि भी है। खांसी जुकाम भी एक किस्म का फ्लू ही है। कोविड_19 की एक विशेष बात यह है कि यह एक संक्रामक व्याधि है। संक्रामक व्याधि उसे कहते हैं जो संक्रमण करते हुए एक दूसरे को चपेट में लेता है। हैजा, चेचक, फ्लू , मलेरिया आदि संक्रामक व्याधियाँ हैं। यह व्याधियाँ किसी प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणु अथवा विषाणु के माध्यम से फैलती हैं। अपने संक्रामक चरित्र के कारण यह व्याधियाँ महामारी का रूप धारण कर लेती हैं।

          फ्रांसीसी साहित्यकार अल्बेर कामू का बहुत प्रसिद्ध उपन्यास प्लेग है। यह प्लेग महामारी पर आधारित है। इसी प्रकार रूसी उपन्यासकर अलेक्षान्द्र कुप्रिन ने गाड़ी वालों का कटरा नाम से उपन्यास लिखा है जिसमें यौन संक्रामक बीमारी की विभीषिका वर्णित है। हिन्दी साहित्य में महामारी का उल्लेख कई प्रसिद्ध रचनाओं मे हुआ है। हिन्दी की पहली आत्मकथा मानी जाने वाली बनारसी दास जैन की  “अर्धकथानक” में लेखक के महामारी से ग्रस्त होने का प्रसंग आया है। हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों मे परिगणित की जाने वाली मास्टर भगवान दास की कहानी प्लेग की चुड़ैल तो प्लेग की महामारी पर ही आधारित है। यह कहानी सन 1902 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में गाँव में प्लेग का प्रकोप फैलने और लोगों के भय, आशंका, डर और अमानवीयता का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है। यह कहानी हालांकि घटना प्रधान है और चमत्कार के प्रभाव से आगे बढ़ती है लेकिन प्लेग महामारी से लोगों में उपज रहे डर और उसकी विभीषिका को यह बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करती है।

          महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में दो छोटे-छोटे अध्याय महामारी को केन्द्रित कर लिखे हैं। जब वह दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में थे तब फेफड़ों की बीमारी प्लेग का प्रकोप हुआ था। गांधी जी ने इस व्याधि से ग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा शुरू की। उनके देखभाल की परिधि में कुल तेईस लोग थे। इनमें 21 काल कवलित हुए थे। गांधी जी ने अङ्ग्रेज़ी सरकार द्वारा महामारी से बचाव के लिए पैसा पानी की तरह बहाये जाने का उल्लेख किया है और महामारी के समाप्त हो जाने पर उस लोकेशन की होली करने की बात लिखी है, जहां यह महामारी थी। इस क्रम में म्यूनिसपैलिटी को इस होली में लगभग दस हजार पौंड का नुकसान हुआ।

          1918-19 में इन्फ़्लुएञ्जा नामक महामारी का प्रकोप भारत में हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 1939 में प्रकाशित अपने आत्मकथात्मक उपन्यास कुल्ली भाट में इस महामारी के प्रकोप का कारुणिक वर्णन किया है। परिवार के लोगों के एक-एक कर मरने, गंगा नदी में बहती लाशों का विवरण रोंगटे खड़ा कर देता है। इसी महामारी में उनकी पत्नी का भी देहांत हुआ। उनके उपन्यास “अलका” का आरंभ भी एक महामारी के वर्णन से होता है। “महासमर का अंत हो गया है, भारत में महाव्याधि फैली हुई है। एकाएक महासमर की जहरीली गैस ने भारत को घर के धुएँ की तरह घेर लिया है, चारो ओर त्राहि त्राहि, हाय हाय – विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं, सब अपने घरवालों की अचानक बीमारी का हाल पाकर। युक्त प्रांत में इसका और भी प्रकोप, गंगा, यमुना, सरयू, बेतवा, बड़ी-बड़ी नदियों में लाशों के मारे जल का प्रवाह रुक गया है। .... गंगा के दोनों ओर दो-दो तीन-तीन कोस दूर तक जो मरघट हैं, उनमें एक-एक दिन में दो-दो हजार तक लाशें पहुँचती हैं। जलमय दोनों किनारे शवों से ठसे हुए, बीच में प्रवाह की बहुत ही क्षीण रेखा, घोर दुर्गंध, दोनों ओर एक-एक मील तक रहा नहीं जाता। जल-जन्तु, कुत्ते, गीध, सियार लाश छूते तक नहीं”। महामारी का यह वर्णन रोंगटे खड़े कर देता है। इस रचना में बड़ी संख्या में हुई मौतों का कारुणिक वर्णन है।

          फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास “मैला आँचल” में मलेरिया का मार्मिक वर्णन है। मेरीगंज का नाम जिस मार्टिन की पत्नी मेरी के नाम पर पड़ा है, उसकी मृत्यु मलेरिया ग्रस्त होने से हुई। मार्टिन इस आघात के बाद मेरीगंज में डिस्पेन्सरी खुलवाने के लिए बहुत प्रयास करता है। समूचे उपन्यास में मलेरिया और कालाआजार नामक बीमारियों का अनेकश: उल्लेख है और डॉ प्रशांत उससे मुक्ति के लिए शोधरत है। वह इसमें कुछ हद तक सफल भी होता है हालांकि यह अलग बात है कि वह अपने अनुसंधान में एक अन्य ही व्याधि की तरफ संकेत करता है- “गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु हैं। एनोफिलीज़ से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ़्लाइ (कालाआजार का मच्छर) से ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के...”। महामारी को केन्द्रीकृत करके फणीश्वर नाथ रेणु ने “पहलवान की ढोलक” शीर्षक से एक कहानी लिखी है। यह कहानी दिसंबर 1944 में साप्ताहिक विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में समूचे गाँव में पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे के प्रकोप का वर्णन किया गया है। इस वज्रपात के कारण समूचे गाँव में लोग काल कवलित होने लगे थे। जब पहलवान के दोनों बेटे भी एक दिन हैजे की भेंट चढ़ जाते हैं तो भी पहलवान गाँव वालों को ढाढ़स बंधाने के लिए रात-रात भर ढोलक बजाता रहता है लेकिन एक सुबह पहलवान की चित लाश मिलती है। उसके ढोलक को सियारों ने फाड़ डाला था और पहलवान की जांघ भी काट खाया था। यह कहानी महामारी की विभीषिका में पहलवान की जीवटता का बेहतरीन आख्यान है।

          हिन्दी में कमलाकांत त्रिपाठी ने अपने तीन उपन्यासों- पाहीघर, सरयू से गंगा और तरंग में महामारी को कथानक का अंग बनाया है। पाहीघर और सरयू से गंगा में हैजे से गाँव के गाँव नष्ट हो जाने की बात कथानक का अंश बनकर आई है तो तरंग में सन 1896 में फैले प्लेग को एक फ्लैश बैक के रूप मे याद किया गया है। पाहीघर उपन्यास में गुरुदत्त बैशाख के एक दिन भीलमपुर से हैजा लेकर लौटते हैं और अपने डेरे पर आकर दम तोड़ देते हैं। हैजा इस कदर संयुक्त प्रान्त में जानलेवा हो गया था कि उससे हुई मृत्यु पर रोना वर्जित था। ग्रामवासियों में दस्तूर था कि हैजे की लाश जलायी नहीं जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के सामयिक में प्रकाशित

   राही मासूम रज़ा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “आधा गाँव” में गंगौली में फैली चेचक का जिक्र किया है। शहर से लौटा मासूम जब मुमताज़ को देखने जाता है तो उसे बताया जाता है कि मुमताज़ को माता निकल आई हैं। यह माता चेचक का ग्रामीण संस्करण है। चेचक भी एक महामारी की तरह ही आई और देश में रही। मुमताज़ को चेचक निकल आई हैं तो घर भर में उससे बचाव के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। मरीज से किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा, फुन्नन मियां नीम की टहनी से हवा कर रहे हैं और घर की रसोई बहुत सादा भोजन वाली हो गयी है क्योंकि रुकय्ये की शिकायत है कि “चार दिन से तरकारी खाते खाते नाक में दम आ गवा है”।

          इन साहित्यिक कृतियों में एक बात ध्यान देने योग्य है कि सबमें यह महामारी किसी न किसी रूप में बाहर से आई होती है। जान-माल की बेतरह क्षति के बाद यह महामारी अपना प्रकोप तभी समेटती है जब मौसम बदल जाता है। इन व्याधियों के आगमन से गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। महामारी के फैलने पर समाज में इससे लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं है। लोग देसी उपचार करते हैं और कई बार सफल भी हो जाते हैं। महात्मा गांधी की आत्मकथा से पता चलता है कि संक्रामक बीमारी के प्रकोप से बचाने के क्रम में बहुत खर्चीला उपाय किया जाता था। महात्मा गांधी ने देसी उपाय कर ही दो बीमारों को प्लेग के प्रकोप से बचा लिया जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उपयोग करके सभी बीस मरीज बचाए नहीं जा सके। उनकी सेवा शुश्रूषा में रत नर्स भी इस संक्रमण और ब्राण्डी का सेवन करने के बावजूद बचाई नहीं जा सकी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए अपनी बात समाप्त करूंगा। जिन भी रचनाओं का उल्लेख इस आलेख में किया गया है उसमें अधिकांश औपन्यासिक रचनाओं के आरंभ में ही महामारी के प्रकोप का वर्णन है- यह इसलिए कि महामारी एक जीवन के अन्त की घोषणा और दूसरे जीवन के आगमन की उम्मीद का नाम है। कोविड_19 का यह नवीनतम संस्करण भी इसी तरह के एक नए जीवन की उम्मीद का अध्याय बनेगा।

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

 इटावा, उ०प्र०
  9838952426, royramakantrk@gmail.com

बुधवार, 13 जुलाई 2022

तत्त्वदर्शी होने के कारण गुरु विज्ञान से श्रेष्ठ है।

 -डॉ रमाकान्त राय

              आज गुरु पूर्णिमा है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि सभी गुरु पूर्णिमा को ही अवतरित हुए हैं क्योंकि उसमें पूर्णता भाव है।

          पूर्ण होते ही सरलता, स्वाभाविकता और सहजता का प्रशांत वातावरण निर्मित हो जाता है।त ब गुरु सहज ही मार्गदर्शक हो जाता है। गुरु कोई भी हो सकता है। गौतम बुद्ध गुरु की खोज में किस किसकी शरण में नहीं गए, नहीं मिला कोई। खुद भगवान बन गए। मेल मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में हीरामन तोते को गुरु कहा है। कहते हैं - गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा। मार्गदर्शन करने वाला ही गुरु है। सारा उद्योग आपको करना है। चलना, दौड़ना, गिरना सब आपके पैरों से होगा। आंखें भी आपकी होंगी। शक्ति आपकी। सामर्थ्य आपका। सबकुछ आपके पास है लेकिन एक तत्त्व का अभाव है। अभाव नहीं कहेंगे, अभाव में अनुपस्थिति अनिवार्य रूप से है। वह है, जो आपको गतिमान कर देती है। जो आपको सही मार्ग पर लाकर खड़ा कर देती है। गुरु उसी मार्ग की तरफ संकेत कर देता है। आपका मुंह उसी दिशा की तरफ कर देता है।

          यह बहुत अराजक बात है कि सभी रास्ते ईश्वर के पास जाते हैं, इसलिए कोई भी चुन लो। ऐसा कहने वाला गुरु नहीं है, गुरु घंटाल है। अव्वल तो यह बात ही मिथ्या है। सभी रास्ते ईश्वर के पास जाते हैं तो जिनने निरीश्वरवादी प्रतिपत्ति की, वह घास नहीं खोद रहे थे। उनके पास भी दृष्टि है। ज्ञान है। एक निष्पत्ति है। इसलिए यह बात मिथ्या है। और यदि मान लें कि जाते होंगे सभी रास्ते ईश्वर के पास। तो भी इसका बहुत महत्त्व है कि आपने कौन सा मार्ग चुना है।

    मेरी मां अपनी कहानियों से सिखाती थीं, "बेटा, कुछ आगे चलने पर दो राह मिलेगी। एक छह मास वाली, एक छह दिन वाली। तुम छह मास वाली चुनना।" सभी रास्ते (लक्ष्य) ईश्वर के पास जाते हैं तो वह बार बार छह मास वाला रास्ता चुनने को क्यों कहती थीं। वह मेरी पहली गुरु हैं। उनका बताया रास्ता एक पंथ है। आज कह सकता हूं कि वही रास्ता लेकर चल रहा हूं।

     तो यह कहना है कि जीवन में इसका बहुत महत्त्व है कि आपने कौन सा रास्ता चुना है। गुरु कौन है? एक व्यक्ति ट्रेनिंग लेकर आया और अपने पेट में बम बांधकर खुद को उड़ा लिया। उसके गुरु ने बताया था कि इससे तुम्हें सहज ही वह मिल जाएगा, जिसे तुम इस जहन्नुम में नहीं खोज पा रहे। एक दूसरा है जो बता रहा है कि बाहर कुछ नहीं है। कबीर गुरु नहीं हैं लेकिन यह यह अवश्य देखते हैं कि अरे इन दोउ राह न पाई! वह अपना अनुभव साझा करते हैं, जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ! पानी में कौन सा रास्ता होगा? क्या पाना है पानी के भीतर? बात अभिधा में नहीं समझी जा सकती। तो व्यंजना से अर्थ लेना पड़ता है, रत्न, मोती, मूल्यवान वस्तुएं। सांसारिक लोगों का धन यही है। लोग यही तो खोज रहे हैं। गहरे पानी में पैठने पर मिलेगा। लेकिन कबीर के बारे में तो यह ठीक नहीं हुआ! उन्हें इन पत्थरों से क्या लेना। तब इस मूल्यवान का अर्थ उस दृष्टि से जुड़ जाता है। अर्थ झन्न से खुल जाता है। मार्ग महत्त्वपूर्ण है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कहते हैं, स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। यहां जो धर्म है, वह उसी मार्ग से परिचालित है।

     पुनः दुहरा दूं कि मार्ग महत्त्वपूर्ण है। गुरु मार्गदर्शक है। वह हमारी उंगली पकड़कर सही मार्ग में डाल देता है। वह जो कुछ बताता है, गुर है। आवश्यक नहीं है कि वह उस मार्ग का पथिक हो ही। सिगरेट पीने वाले एक व्यक्ति ने कहा कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। वह पी रहा है तो जानता है। एक बिना फूंके बता रहा है क्योंकि उसका पर्यवेक्षण है। भोक्ता का पर्यवेक्षण अधिक प्रामाणिक है लेकिन उसका दायरा सीमित है। द्रष्टा का पर्यवेक्षण उसकी व्यापक दृष्टि में है। वह प्रत्यक्ष भोक्ता नहीं है, तथापि वह जानता है।

    यह जानना बहुत विशेष है। ज्ञान का ही लोकप्रिय संस्करण है जानना। गुरु जानता है। वह तत्त्वदर्शी है। उसके संज्ञान में चीजें आती हैं और वह जान जाता है। विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन उसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है। उसके पास तो वह सूक्ष्म दृष्टि भी नहीं है जिससे वह तत्त्व दर्शन कर ले। हमारे मित्र डॉ मुकेश गौतम होम्योपैथी की दवाओं के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं कि बेलाडौना 1M की दवा की शीशी पर से लेबल हटा दीजिए और प्रयोगशाला में भेज दीजिए। विज्ञान थक जाएगा किंतु बता नहीं पाएगा कि इसमें दवा कौन सी है। विज्ञान की अक्षमता बहुधा प्रकट होती रहती है किंतु गुरु तो सिद्ध है। वह निरूपण कर देता है।

  विदेह राजा जनक ने मुनि अष्टावक्र से पूछा, "यह ज्ञान कितनी अवधि में प्राप्त किया जा सकता है?"अ ष्टावक्र ने कहा, "राजन! ज्ञान एक कल्प, एक युग, एक वर्ष, एक मास, एक दिन, एक घड़ी, एक क्षण, एक निमिष मात्र में पाया जा सकता है।" उन्होंने बताते बताते क्रमश: समयावधि कम की। एक निमिष मात्र में? पलक झपकने में जितना समय लगता है, उतने में? अष्टावक्र ने कहा हां, उतने में ही।

    मैं कुंग फू पांडा देख रहा था। उसमें पांडा के साथी बुरी तरह घायल होकर लौटे हैं। अंग भंग हुआ पड़ा है। शिफू आते हैं, वह बिंदु छूते हैं, जहां मूल है। सब भले चंगे हो जाते हैं। उस तत्त्व को जानना है। डॉ मुकेश भी उसी तत्त्व की चर्चा करते हैं। मुझे एक समस्या होती है तो घंटों बातें करते हैं, जानते हैं। कान की समस्या थी, पूछा,"बादल घिरता है तो कैसा लगता है?" भाई, कान की दिक्कत है! बादलों से क्या लेना देना! लेकिन उन्हें इसका उत्तर चाहिए। प्रकृति की पहचान हो तो काम आसान हो जाता है। 

     मार्ग दिखाने वाला गुरु है। उसके महत्त्व को बताया नहीं जा सकता। कबीर तो कहते हैं कि सात समद की मसि, जंगली वृक्षों की लेखनी से भी गुरु का बखान नहीं हो सकता।

   एक नया वर्ग जन्मा है। धन से सब कुछ खरीद लेना चाहता है। ज्ञान भी। गुरु भी। एक दूसरा है जो गुरु को ग्रू, ग्रु कहकर थोड़ा मित्रवत हो गया है। बहुतेरे रूप हो गए हैं। लेकिन उसकी महिमा बनी हुई है। उसका महत्त्व बना हुआ है।

    गुरु को मेरा प्रणाम है।

 🙏🙏

रविवार, 10 जुलाई 2022

हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते और कट्टरता

 - डॉ रमाकान्त राय

    वर्तमान समय में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एक विशेष सम्बन्ध देखने को मिल रहा है, जहां मुस्लिम कट्टरता के प्रत्युत्तर में एक उग्र नवहिन्दू स्वर है। भारत में इस तरह का व्यवहार सर्वथा नया है। हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु समाज के रूप में जाना जाता रहा है, जो अपने साम्प्रदायिक प्रतीकों और मान्यताओं पर किए जाने वाले प्रहार को बहुत सहजता से झेलता रहा है। इसके पीछे उच्च और समृद्ध ज्ञान-विज्ञान तथा समावेशी जीवन दर्शन प्रमुख कारक तो रहा ही है, लंबे समय से केंद्रीय सत्ता से दूरी से उपजी दासता भी इसके लिए बराबर ज़िम्मेवार रही है। गुजरात के गोधरा नरसंहार के बाद एक विशिष्ट भाव-भंगिमा देखी गयी है। बीते दिन नूपुर शर्मा से संबन्धित विवाद में भी दुनिया भर के लिए अनपेक्षित था कि कोई इस प्रकार उग्र और कटु वचन व्यक्त करेगा। इससे समाज में एक नयी बहस चली है और दोनों समुदायों में कट्टरता पर विमर्श होने लगा है। हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों और सामुदायिक कट्टरता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।

ऐतिहासिक सम्बन्ध और कट्टरता का स्वरूप-

          भारत के पश्चिमी तट पर इस्लाम के उदय देश अरब के समुद्री मार्ग से आनेवाले व्यापारी अच्छा व्यवसाय करते थे। काली मिर्च और चन्दन का निर्यात होता था और अरब में पाये जाने वाले उत्कृष्ट कोटि के घोड़े की भारत में बहुत मांग थी। जब अरबों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो उनके व्यवहार और उद्देश्य में बदलाव देखा गया। वह राजनीतिक और सांप्रदायिक शक्ति के विस्तार के लिए उद्धत दिखने लगे। राजनीतिक रूप से सबसे पहले सन 656ई0 में खलीफा उमर के शासनकाल में मुंबई के निकट थाणे पर आक्रमण हुआ जिसमें अरब पराजित हुए और खदेड़ दिये गए। पराजित होने के बाद भी अरब साम्राज्य विस्तार में लगे रहे और 712 ई0 में उन्हें सबसे पहले मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सफलता मिली, जब उन्होंने सिंध के शासक दाहिर को हराया। दाहिर की सेना बहादुरी से लड़ी। उनकी पत्नी ने भी संघर्ष किया किन्तु पराजित हुए। कासिम ने संपत्ति लूटने के बाद सिंध के निवासियों को इस्लाम अथवा मृत्यु में से एक चुनने के लिए बाध्य किया। सामान्य जन के साथ इस्लाम का यह पहला संपर्क था। बड़ी संख्या में लोगों ने मृत्यु का वरण किया।

          नवीं सदी में केरल के मालाबार का राजा चेरामन पेरूमल को धोखे से मुसलमान बना दिया गया। उसने अरबों को धर्म प्रसार के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कीं। जामोरिन के शासनकाल में तो धीवर (जुलाहा) परिवार के लिए शासनादेश आया कि घर का एक व्यक्ति इस्लाम अवश्य स्वीकार करे। फिर तो राजनीतिक संरक्षण में मस्जिद आदि का निर्माण होने लगा। पीर-औलिया आदि अस्तित्व में आ गए। उनका एकेश्वरवाद और भेदभाव रहित समाज की संकल्पना वाला सम्प्रदाय अपने दर्शन से प्रभावित भी करने लगा। इस्लाम और उसके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। अरबों के काम को तुर्कों ने आगे बढ़ाया और व्यवस्थित तरीके से पूर्ण किया। तुर्क आक्रमणकारी सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी ने भारत में इस्लाम के लिए राजमार्ग बनाया। महमूद गजनवी के अत्याचार की कहानियाँ तो किंवदंती हैं। उसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा और अकूत धन लेकर गया। तुर्कों का एक अन्य शक्तिशाली आक्रमण मुहम्मद गोरी ने किया और तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराया। यह विजय भारत में मुसलमानों के स्थायी शासन की शुरुआत थी। यहीं से दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी जिसे मुगलों ने और अधिक मजबूत किया।

सस्कृतिक विस्तार और भागीदारी-

          हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों में राजनीतिक विस्तार सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। केंद्रीय सत्ता की स्थापना के बाद इन सम्बन्धों में अधिक निकटता हुई। फिर सांस्कृतिक विस्तार अधिक प्रभावी बना। मुगल बादशाहों ने हिन्दू परिवारों में वैवाहिक सम्बन्ध बनाए। जन्माष्टमी, होली-दीपावली आदि उत्सवों में सहभागिता की तथा भारतीय धर्म-दर्शन आदि को समझने के लिए गंभीर प्रयास किए। धर्मग्रंथों का अनुवाद हुआ और उनके संरक्षण आदि पर ध्यान दिया। राजनीतिक संरक्षण में विदेश से आया एक समुदाय तेजी से अपना विस्तार करता रहा। सूफी, संत और फकीर तथा औलिया विभिन्न माध्यमों से हिंदुओं के संपर्क में आते रहे। इस्लाम एक विशेष कट्टर सोच के साथ चल रहा था तो सूफी-पीर-औलिया उसमें प्रेम का रस भरने का प्रयास कर रहे थे। चूंकि केंद्रीय सत्ता उनका संरक्षण कर रही थी इसलिए उनकी कट्टरता को स्वाभाविक माना जा रहा था। तैमूर, नादिरशाह, औरंगजेब आदि आक्रमणकारी/शासक की गतिविधियां शासकीय क्रूरता मानकर निबाही जा रही थीं। हिन्दू भी पराजित जाति की तरह इसे सहने के लिए बाध्य थे।

अंग्रेजों का आगमन और सांप्रदायिकता-

          18वीं सदी में जब केंद्रीय सत्ता पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होने लगा तो हिन्दू और मुस्लिम समाज में एक नए सम्प्रदाय का प्रवेश हुआ। यह ईसाई थे। कायदे से तो सामाजिक स्तर पर क्लेश ईसाई और हिन्दू-मुसलिम समुदाय में होना चाहिए था किन्तु अंग्रेजों की चतुराई और फूट डालो, राज्य करो के क्रियान्वयन में यह सांप्रदायिक भाव हिन्दू और मुसलमानों में सतह पर दिखने लगा। अंग्रेज़ निरंतर इसे प्रज्ज्वलित करते रहे और इन दोनों समुदायों के बीच जो खाई थी, उसे ठीक से खोदकर रख दिया। हिन्दू और मुस्लिम समुदाय में एक बड़ा अंतर समाज के खुलेपन से जुड़ा था। मुस्लिम समाज हद दर्जे तक बंद समाज था। अपने धर्म की रक्षा के अनुक्रम में केंद्रीय सत्ता से विहीन हिन्दू भी कछुआ धर्म अपना रहे थे, तथापि उनका समाज बहुत खुला और उदार था। इसाइयों को अपने विस्तार के लिए यह समुदाय सॉफ्ट केक की तरह मिला। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों ने अपने सम्प्रदाय के विस्तार के लिए हिन्दू और मुसलमान समुदायों के विभेद को हवा दी। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की स्थापना को प्रोत्साहित किया और सांप्रदायिकता के बीज बोये। अंग्रेजों के जाने के बाद भी यह भाव बहुत गहराई तक पैठा हुआ है।

उदारीकरण की विसंगतियाँ-

          विगत कुछ सालों से, उदारीकरण के बाद, जब से पूंजी का स्वरूप आवारा किस्म का हुआ है, इसने दुनिया के दूसरे देशों को सांप्रदायिक आधार पर प्रभावित करना शुरू किया है। जब से शक्ति विस्तार में मूलतः सांप्रदायिक चेतना को पाया गया है, तब से हिन्दू-मुसलमान सम्बन्धों में एक नया मोड़ दिखाई देने लगा है। दुनिया लगभग दो ध्रुवीय हो गयी है। ईसाइयत और इस्लाम का द्वंद्व बहुत तेजी से दुनिया में फैला है। इससे अलग साम्प्रदायिक पहचान रखने वाले समाज तीसरी दुनिया के समाज हैं। अमेरिका के खाड़ी के देशों पर आक्रमण के बाद से यह ध्रुव बहुत स्पष्ट देखे गए हैं। ईसाइयत का केंद्र वेटिकन है और इस्लाम का अरब अथवा तुर्की। भारत में मैकाले की शिक्षा नीति के बावजूद हिन्दू समुदाय विविध तरीके से अपने को बचाने की कोशिश में संलग्न है।

रिश्तों का वर्तमान और भविष्य-

          लंबे समय से सत्ता से च्युत समुदाय पहली बार मुखर होने के लिए छटपटा रहा है। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के आरोप से दो चार हो रहा है, अपनी अस्मिता और प्राचीन धरोहरों के लिए एकत्र हो रहा है और स्वयं का ध्रुवीकरण कर रहा है। इस ध्रुवीकरण से एक संकीर्णता उदित हुई है जिससे आपसी सम्बन्ध की कटुता सतह पर आ गयी है। देश और दुनिया में बीते दिनों हुए कई घटनाक्रमों ने हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के एक नए युग में प्रवेश की पटकथा रच दी है जो दोनों समुदायों में अधिक कट्टरता, विभेद और संघर्ष की तरफ ले जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 
 राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में आलेख का लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा

9838952426

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

आदिवासी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बनेंगी महामहिम!

 -डॉ रमाकान्त राय

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा आदिवासी समुदाय की संघर्षशील महिला और झारखंड के राज्यपाल पद को सुशोभित कर चुकी महिला द्रोपदी मुर्मू को महामहिम के लिए अपना प्रत्याशी बनाकर एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। भारतीय जनता पार्टी को अपने शासन काल में तीन बार राष्ट्रपति चुनाव के लिए अवसर मिला और उसने ए पी जे अब्दुल कलाम, रामनाथ कोविन्द और द्रोपदी मुर्मू का नाम आगे करके हाशिया पर रहने वाले वंचित समाज को उच्च पद पर आसीन करने का एक उल्लेखनीय काम किया है। पहले मुसलमान फिर अनुसूचित जाति और अब अनुसूचित जनजाति की महिला उम्मीदवार खड़ा करके उसने वंचित और शोषित समुदाय को अवसर देने का श्रेय लिया है।

      द्रोपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं और उनका सम्बन्ध ओडिसा से है। ओडिसा के मयूरभंज जनपद के एक संताल परिवार में जन्मीं द्रोपदी मुर्मू ने अध्यापक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ किया और अपने पति तथा पुत्रों की अकाल मृत्यु के बाद भी अदम्य साहस और राजनीतिक क्षमता का परिचय देते हुए विधानसभा, मंत्रिपद और राज्यपाल के रूप में सेवाएँ देकर शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया। वह झारखंड की पहली महिला और आदिवासी राज्यपाल होने का गौरव रखती हैं। अब जबकि राष्ट्रपति पद पर उनका चुना जाना लगभग सुनिश्चित है, देश और शोषित वंचित आदिवासी समुदाय को उनसे अपेक्षाएँ बढ़ गयी हैं।

          द्रोपदी मुर्मू के देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के साथ ही आदिवासी समुदाय को एक महत्त्वपूर्ण पहचान मिलने की उम्मीद रहेगी। आदिवासी और दलित समुदाय में यह बहुत बड़ा द्वंद्व रहा है कि आदिवासी समुदाय, तथाकथित मुख्यधारा से इतर एक पृथक जीवन प्रणाली का अंग रहा है और कई बार उसकी अपेक्षा रही है कि उसकी स्वायत्तता और स्वतन्त्रता तथा जीवन पद्धति में अनावश्यक दखल न किया जाय। जबकि दलित समुदाय मुख्य धारा के समाज के बीच में उपेक्षा और अश्पृश्यता से मुक्त होने के लिए छटपटाता रहा है। आदिवासी समुदाय की सबसे बड़ी चुनौती है मुख्यधारा से जुड़ना। अपने सामुदायिक प्रतीकों और रीति-रिवाजों को सर्व समाज में स्वीकृत कराना। देश के सर्वोच्च पद पर बैठने से लोगों का दृष्टिकोण बदलेगा और इन पहचानों को मान्यता मिलेगी। द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन होने के बाद आदिवासी समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने में बहुत बड़ी सफलता मिलने वाली है।

       वर्तमान समय में आदिवासियों का शोषण, उनके जल, जंगल और जमीन पर बढ़ता अतिक्रमण एक बड़ा मुद्दा है। देश के विभिन्न भागों में आदिवासी समुदाय इस अतिक्रमण से बहुत क्षुब्ध है और इसीलिए नक्सलियों के प्रति सहानुभूतिशील भी। झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओडिसा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में नक्सलियों की रीढ़ यह समुदाय इसीलिए बना हुआ है क्योंकि उसे आशंका है कि तथाकथित विकास की यह प्रक्रिया और अतिक्रमणवादी भावना उनकी स्वायतत्ता और स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगी और उनके जंगल, आवास आदि को नष्ट कर डालेगी। राष्ट्रपति के रूप में द्रोपदी मुर्मू के समक्ष यह चुनौती होगी कि वह आदिवासियों को विश्वास में लें और उनकी आशंकाओं को दूर करें। आज आदिवासी समुदाय तथाकथित दिकु लोगों के संपर्क में आकर ऋण के ऐसे चंगुल में फंसा हुआ है जिसमें वह लगभग तबाह हो जाता है। औने-पौने कीमत पर उनकी जमीन हड़प ली जाती है, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है और यह सब शोषण स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से निर्बाध चल रहा है। देश के एक बड़े समूह को आशा है कि इस सब शोषण आदि पर रोक लगेगी और आदिवासी समुदाय को परेशान करने वाली मानसिकता क्षरित होगी। नक्सली समस्या से निजात मिलेगी।

         शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सुधार होने की राह प्रशस्त होगी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1991 में भारत में अनुसूचित जनजातियों की साक्षारता दर 29.6 प्रतिशत थी जो वर्ष 2001 में बढ़कर 47.1 प्रतिशत तक पहुंची है किन्तु यह एक सतोषजनक आंकड़ा नहीं है। यह देश भर में साक्षारता के औसत दर 74 प्रतिशत से बहुत कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी यह समुदाय बहुत आशा भरी दृष्टि से देख रहा है।

आदिवासी समुदाय अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर भी संघर्ष कर रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में यह माँग ज़ोरों पर है कि आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा का भाषाई माध्यम स्थानीय हो जिसके लिए प्रयास जारी हैं। आदिवासी समुदाय अपने साहित्य को लेकर भी विमर्श के केन्द्र में है। उनका अधिकांश साहित्य वाचिक परंपरा का है और धीरे धीरे लुप्त होने के कगार पर है। लिखित साहित्य को भी मुख्य धारा में स्थान बनाने में संघर्ष करना पड़ रहा है। जो गिने चुने साहित्यकार हैं, उनकी रचनाओं को एक वृहद संसार मिलेगा और उनका स्वर देश-देशान्तर में पहुंचेगा।

         आदिवासी समाज में धर्मांतरण एक बहुत बड़ा विषय है। जितनी तेजी से ईसाई मिशनरियाँ इन दुर्गम क्षेत्रों में पहुँचकर अपना अभियान चला रही हैं, वह सुरसा की तरह विकराल होता जा रहा है। मैं जब सोनभद्र में कार्यरत था तो देखा करता था कि स्वास्थ्य और शिक्षा तथा पोषण को दृष्टिगत कर मिशनरी के लोग आदिवासियों को धर्मांतरित करते रहते थे और जब तब इसके लिए अभियान चलाते थे। आज देश में आदिवासी, ईसाइयों के सबसे आसान शिकार हैं। द्रोपदी मुर्मू बनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ी रही हैं और आदिवासियों की विभिन्न समस्याओं से बखूबी परिचित हैं। उन्हें इस समुदाय की आशाओं/आकांक्षाओं का ज्ञान है। वह आदिवासी समुदाय की महिला नेता और अध्यापक रही हैं। यह सब कुछ उन्हें बहुत संवेदनशील, मर्मज्ञ और चुनौतियों के प्रति सदय बनाता है।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में

यद्यपि देश का एक अन्य बौद्धिक वर्ग तंज़ करते हुए यह कह रहा है कि राष्ट्रपति रहते हुए दलितों का जितना उपकार रामनाथ कोविन्द ने किया, आदिवासियों का द्रोपदी मुर्मू करेंगी। इस तंज़ में कोई सकारात्मक भाव नहीं है। रामनाथ कोविन्द के सर्वोच्च पदासीन होने का एक प्रतीकात्मक महत्त्व है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव कम और अप्रत्यक्ष प्रभाव अधिक है। समाज के शोषित, वंचित समुदाय का आत्मविश्वास प्रबल होता है, उन्हें यह विश्वास होता है कि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में वह भी देश का महामहिम बन सकते हैं। स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारे देश में यह एक शानदार पहल हो रही है कि आदिवासी समुदाय की एक महिला को पहली बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने का अवसर मिल रहा है। समूचे विश्व को इस पहल का स्वागत करना चाहिए।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप का ऑनलाइन लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

9838952426

royramakantrk@gmail.com

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

चंडीदास और चार आम

ओड़िया कवि चंडीदास की कविता में राधा, कृष्ण के साथ रति के प्रगाढ़ क्षणों में भी व्याकुल रहती हैं कि यह मिलन चरम पर होगा और फिर विरह ही शेष रहेगा।

आम के साथ भी ऐसी ही भावना साथ चल रही है। #चार_आम के साथ संसर्ग हो रहा होता है कि 'जल्दी ही आम के

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

दिन चले जायेंगे', भाव उमगता रहता है।

सोमवार, 4 जुलाई 2022

रामचरितमानस में प्रकृति की पहचान


    मैं राम की वानर सेना की कल्पना कर बहुत मुदित हो जाता हूँ। प्रत्यक्षत: वानर देख, उनकी प्रकृति का अवलोकन करता हूँ तो यह मोद और बढ़ जाता है।
    रामसेतु पार करने के क्रम में कई कपि उड़तेहुए जाने लगे। सेतु समीप जुटे जलचरों पर चढ़कर, कूदते फाँदते बढ़ गये। और राम-लक्ष्मण? दोनों को पता है! -
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई।
बिहँसि चले कृपाल रघुराई।।
सेन सहित उतरे रघुवीरा।
कहि न जाइ कपि जूथप भीरा।।
       प्रकृति की पहचान हो तो प्रबन्धन आसान हो जाता है। दोनों भाइयों ने यह शानदार तरीके से कर रखा है। इसलिए अगला आदेश भी मनोबल बढ़ाने वाला है -
खाहु जाहि फल मूल सुहाए।
    और फिर वानरों, कपि और भालुओं ने खूब मनमानी की। कुछ खाया, कुछ फेंका। इस उद्योग से उनकी थकान मिट गयी।



#लंकाकाण्ड

शनिवार, 2 जुलाई 2022

कविता : चार_आम

#चार_आम पर मेरी कालजयी कविता पढ़िए- #चार_आम


सुबह हुई, नाश्ते में मार दिए चार आम

और थोड़ा दिन चढ़ा तो नाप दिए चार आम।


दोपहर में भोजन के साथ लिए चार आम

जब थोड़ा लेटे तो सपने में चार आम।


शाम को आम आम कह कह के चार आम।

गदबेला में राम राम कह कह के चार आम।


रात को भिगो दिए बाल्टी में चार आम

और रात बीती तो चू गए चार आम।


हरे राम हरे राम कहकह के चार आम

हुए थोड़ा दक्खिन से वाम तो चार आम।


पका आम देखा तो चिंचोड़ दिए चार आम

मार दिया पालथी, निचोड़ दिए चार आम।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष


- डॉ रमाकान्त राय

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

चार _आम और मिर्जा गालिब

 "मिर्ज़ा ग़ालिब" नाम से जो टीवी बायोपिक है, उसमें मिर्ज़ा आम खा रहे हैं। एक सज्जन यह कहकर कि वह आम नहीं खाते, महफिल में हैं।


तभी कहीं से एक गधा उन लोगों के पास आता है। हजरात कहते हैं- "गधे ने आम सूंघकर छोड़ दिया। मिर्ज़ा, आम तो गधे भी नहीं खाते।"

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष


मिर्ज़ा कहते हैं- "गधे हैं, तभी आम नहीं खाते।"


#चार_आम

गुरुवार, 30 जून 2022

चार आम और मौलाना

       सालिम अली ने आत्मकथा "एक गौरैया का गिरना" में लिखा है कि उनके फ्रिज में 08 अलफांसो आम थे। एक मौलाना आए। उन्हें आम ऑफर किया गया। उन्होंने आठो आम दबा दिए।

     फ्रिज में रखे आम का स्वाद द्विगुणित हो जाता है। गांव में पानी भरी बाल्टी में आम रखकर खाने के पीछे यही भावना है।

      सबेरे सबेरे पद्म (लंगड़ा) का सेवन करते हुए अलफांसो और मौलाना की याद हो आई।

#चार_आम






रविवार, 1 मई 2022

हमारे खिलौने

     - डॉ रमाकान्त राय

    वसु और वैष्णवी के लिए खिलौने लेने का मन था । एक फुटपथिया दुकान पर खड़ा हुआ । प्लास्टिक और रबर की विविध वस्तुएं थीं । खेलने के लिए बनाई गयी । सर्वाधिक मात्रा शोर करने वाली खेल सामग्री की थी । सीटी, पिपिहरी, झुनझुने और चें-पें करने वाले बहुतायत थे । दूसरी बड़ी संख्या वाहनों की थी । कार, बस, हेलीकॉप्टर और विमान बहुत थे । आग्नेयास्त्र तीसरे स्थान पर बहुतायत में थे । बन्दूक, पिस्तौल और इसी तरह के खिलौने ।

        मैंने गेंद चुनी । स्पंज वाली गेंद का दोनों ने नुकीले दांतों से कुतर कर देख लिया था कि सब निस्सार है । इसलिए इस बार प्लास्टिक की गेंद चुना । पिछली बार एक गुब्बारा लाया था तो वह मात्र दस सेकेण्ड उनके साथ रहा और तेज आवाज के साथ फूट गया । बहरहाल, गेंद के बाद मेरी कामना थी कि किसी पशु, पक्षी, जीव आदि के प्रतिरूप वाले खिलौने हों तो अच्छा ! दूकानदार मेरा मुंह ताकने लगा ।

      एक बछड़ा कम कुत्ता ज्यादा जैसा कुछ मिला । ले आया । वह पहिये पर चलता है । मिट्टी के खिलौने बेच रहे एक अन्य के पास एक मुर्गा मिला । एक हिरण भी । गुल्लक भी था । जहां मिट्टी के खिलौने थे, वहाँ जमीन से जुड़े हुए पारम्परिक खिलौने थे ।  जहां प्लास्टिक वाले और यांत्रिक खिलौने थे वहाँ की दुनिया पृथक थी । कृत्रिम ।

      मैंने देखा कि पारम्परिक खिलौने जहां सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने वाले और इको फ्रेंडली थे वहीं कारखाने में बने हुए प्लास्टिक और लोहा-लक्कड़ के बने हुए खिलौने हिंसक और क्रूरता भरने वाले । ऐसे खिलौने, जो ऐश, हिंसा और शोर का भाव भरने वाले हैं । मन में इच्छा, आकांक्षा और कुण्ठा भरने वाले । बाजार हमें ऐसा ही बनाना चाहता है । हम इसकी अंधी दौड़ में जाने अनजाने शामिल हैं ।

सोमवार, 31 जनवरी 2022

मुक्तिबोध की तीन कविताएँ : विचार आते हैं, भूल गलती और ब्रह्मराक्षस

1. विचार आते हैं


विचार आते हैं

लिखते समय नहीं,

बोझ ढोते वक़्त पीठ पर 

सिर पर उठाते समय भार

परिश्रम करते समय  

चाँद उगता है 

पानी में झलमलाने लगता है

हृदय के पानी में।

 

विचार आते हैं

लिखते समय नहीं,

...पत्थर ढोते वक़्त

पीठ पर उठाते वक्त बोझ 

साँप मारते समय पिछवाड़े

बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त!!

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं

नक़्शे बनते हैं भौगोलिक

पीठ कच्छप बन जाते हैं

समय पृथ्वी बन जाता है... भूल गलती



2. भूल-गलती


भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है…
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग
बहते खून के।


वह कैद कर लाया गया ईमान…
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार,
शाइर और सूफी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर,
उसको जिंदगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान…खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त –
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ खूँख्वार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमें वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर
हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाके में
(सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!



3. ब्रह्मराक्षस

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी

ठंडे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबीं अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।


बावड़ी को घेर
डालें ख़ूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त, भूरे, गोल।

विगत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके-सी लगी रहती।
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प-तारे-श्वेत
उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर
मेरी वह कन्हेर...
वह बुलाती एक ख़तरे की तरफ़ जिस ओर
अँधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अंबर ताकता है।


बावड़ी की उन घनी गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने—
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे, बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
ख़ूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और... होंठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण में संवेदना है स्याह!!
किंतु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराए
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चाँदनी ने
ज्ञान-गुरु माना उसे।
अति प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!
और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचानवाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छंदस्, मंत्र, थियोरम,
सब प्रमेयों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।
...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रहीं ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति-शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिंब से भी जू
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करौंदी के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन औदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रैजिडी
जो बावड़ी में अड़ गई।


x x x


ख़ूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ...
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ' उतरना,
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष
से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता
अति भव्य असफलता
...अतिरेकवादी पूर्णत
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंत:कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
रवि निकलता
लाल चिंता की रुधिर-सरित
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चंद्र
व्रण पर बाँध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिंदुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है...
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन...
शोध में
सब पंडितों, सब चिंतकों के पास
वह गुरु प्राप्त करने के लिए
भटका!!
किंतु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अंतकरण में से
सत्य की झाईं
निरंतर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किंतु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्व!!
पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रैजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!

मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।












सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

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