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गुरुवार, 29 जून 2023

श्री हनुमान चालीसा

दोहा

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। 
बरनऊं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन कुमार। 
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार।।

जय श्री हनुमान


चौपाई 

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
कांधे मूंज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन।
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा
बिकट रूप धरि लंक जरावा।
भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचंद्र के काज संवारे।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।
जम कुबेर दिगपाल जहां ते।
कबि कोबिद कहि सके कहां ते।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना।
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
 तुम रक्षक काहू को डर ना।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै।
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहां जन्म हरि भक्त कहाई।
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा।। 
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।। 

राम, लक्ष्मण,सीता और हनुमान जी


दोहा 

पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप। 
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप।।

मंगलवार, 20 जून 2023

बजरंग बाण - तुलसीदास विरचित

दोहा-


निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान।

तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥

चौपाई :
जय हनुमंत संत हितकारी। सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥ जन के काज बिलंब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै॥ जैसे कूदि सिंधु महिपारा। सुरसा बदन पैठि बिस्तारा॥ आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुरलोका॥ जाय बिभीषन को सुख दीन्हा। सीता निरखि परमपद लीन्हा॥ बाग उजारि सिंधु महँ बोरा। अति आतुर जमकातर तोरा॥ अक्षय कुमार मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा॥ लाह समान लंक जरि गई। जय जय धुनि सुरपुर नभ भई॥ अब बिलंब केहि कारन स्वामी। कृपा करहु उर अंतरयामी॥ जय जय लखन प्रान के दाता। आतुर ह्वै दुख करहु निपाता॥ जै हनुमान जयति बल-सागर। सुर-समूह-समरथ भट-नागर॥ ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले। बैरिहि मारु बज्र की कीले॥ ॐ ह्नीं ह्नीं ह्नीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा॥ जय अंजनि कुमार बलवंता। शंकरसुवन बीर हनुमंता॥ बदन कराल काल-कुल-घालक। राम सहाय सदा प्रतिपालक॥ भूत, प्रेत, पिसाच निसाचर। अगिन बेताल काल मारी मर॥ इन्हें मारु, तोहि सपथ राम की। राखु नाथ मरजाद नाम की॥ सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै। राम दूत धरु मारु धाइ कै॥ जय जय जय हनुमंत अगाधा। दुख पावत जन केहि अपराधा॥ पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत कछु दास तुम्हारा॥ बन उपबन मग गिरि गृह माहीं। तुम्हरे बल हौं डरपत नाहीं॥ जनकसुता हरि दास कहावौ। ताकी सपथ बिलंब न लावौ॥ जै जै जै धुनि होत अकासा। सुमिरत होय दुसह दुख नासा॥ चरन पकरि, कर जोरि मनावौं। यहि औसर अब केहि गोहरावौं॥ उठु, उठु, चलु, तोहि राम दुहाई। पायँ परौं, कर जोरि मनाई॥ ॐ चं चं चं चं चपल चलंता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता॥ ॐ हं हं हाँक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल-दल॥ अपने जन को तुरत उबारौ। सुमिरत होय आनंद हमारौ॥ यह बजरंग-बाण जेहि मारै। ताहि कहौ फिरि कवन उबारै॥ पाठ करै बजरंग-बाण की। हनुमत रक्षा करै प्रान की॥ यह बजरंग बाण जो जापैं। तासों भूत-प्रेत सब कापैं॥ धूप देय जो जपै हमेसा। ताके तन नहिं रहै कलेसा॥

दोहा : उर प्रतीति दृढ़, सरन ह्वै, पाठ करै धरि ध्यान। बाधा सब हर, करैं सब काम सफल हनुमान॥

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

कथावार्ता : आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की

     
दोपहर को भोजन पर बैठे तो थाली सामने आने से पहले ही वसु ने जल ग्रहण करना शुरू कर दिया। उन्हें सबने मना किया कि 'खाना खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए।
          "क्यों?" वसु का सहज और तुरंता सवाल था। सब मेरा मुँह देखने लगे। मैंने कहा कि, "भोजन से पहले जल ग्रहण करने से जठराग्नि मद्धिम पड़ जाती है। अतएव भोजन ठीक से नहीं पचता।" 
          "पापा, यह जठराग्नि क्या होती है?" वसु पूछ बैठे। हमने कहा कि, भोजन कर लेने के बाद इसका उत्तर दिया जाएगा। हमारी परम्परा में भोजन के समय वार्तालाप की मनाही है। यद्यपि मैंने कुछ विदेशी संस्कृति को रेखांकित करने वाली पुस्तकें पढ़ीं तो उसमें देखा कि कठिन मसले डाइनिंग टेबल पर ही सुलझाए जाते हैं। खैर, तो हमने कहा कि खाना खा लिया जाए तो बताऊंगा। भोजन के उपरांत वही सवाल मेरे सामने था। अग्नि के स्थान भेद से कई रूप हैं। जंगल में लगे तो दावाग्नि, पानी में लगे तो बड़वाग्नि, पेट में लगे तो जठराग्नि। तुलसी बाबा का एक बहुत प्रसिद्ध पद है। 'आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की।' बहुत पहले एक अध्यापक ने बड़वाग्नि के बारे में बताया था कि वह आग जो पानी में लगती है। 
          "पानी में कौन आग लगती है भला?" 
          "समुद्र में कई बार खनिज तेल तिरते रहते हैं, उन्हीं में आग लग जाती है, वही बड़वाग्नि है। बहुत खतरनाक होती है।" शिक्षक ने बताया था। हमने वही मान लिया था। बाद में इस व्याख्या को अक्षम माना हमने और अग्नि का अर्थ ऊर्जा, क्षमता, पॉवर से लगाया और पानी की ताकत को बड़वाग्नि कहा। तुलसीदास कहते हैं कि पेट की आग, पानी की आग से भी बड़ी होती है। सही बात है। पेट की आग तो मानवीयता तक को भस्म कर सकती है। खैर
          "जठराग्नि, भूख लगने पर जाग्रत होती है। जब हम पानी पी लेते हैं तो क्षुधा कुछ समय के लिए तृप्त हो जाती है। और फिर खाद्य पदार्थ पेट में जाकर सही पाचन नहीं कर पाते।" वसु मुँह खुला रखकर कुछ सोचते रहे तो मैंने महाभारत से अग्नि देवता से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया। -"एक बार अग्नि देवता को यज्ञ का घी खाते खाते अजीर्ण हो गया।" 
          "अजीर्ण माने?" वसु ने पूछा। 
          "भूख न लगने की बीमारी।" 
          "यह क्या होता है?"
       "एक बीमारी होती है, जिसमें भोजन करने की इच्छा नहीं होती।"
          ......

          "तो अग्नि अजीर्ण के कारण पीले पड़ गए। जब अग्नि सबसे मद्धिम होती है तो उसकी लौ पीली होती है। "अच्छा बताओ, जब सबसे तेज होती है तो किस रंग की होती है?"
          "नीले रंग की!" वसु की माँ ने वसु की मदद की। 
          "हाँ! नीला रंग सबसे शक्तिशाली और रहस्यमयी होता है। 
          "तो, अग्नि ने इसकी शिकायत अश्विनी कुमारों से की। अश्विनी कुमारों ने इन्द्र को बताया और इन्द्र ने कहा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण से मिलिए। वह लोग खाण्डव वन जला देंगे। यह वह समय था जब अर्जुन पांडवों को ताकतवर बनाने के लिए गली गली घूम रहे थे और सबसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर रहे थे। अग्नि ने अर्जुन से कहा। अर्जुन और कृष्ण ने खाण्डव वन को घेर लिया और आग लगा दी। जीव जन्तु जलकर भस्म होने लगे। हाहाकार मच गया। वन में ही तक्षक नाग परिवार सहित रहता था। उसने इन्द्र को पुकारा। इन्द्र मदद के लिए भागे आये। वह वर्षा के देवता हैं तो बारिश शुरू कर दी। आग मद्धिम पड़ने लगी। अग्नि ने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने कृष्ण की तरफ। अब अर्जुन और इन्द्र में द्वन्द्व छिड़ गया। किसी किसी तरह तक्षक को बचाने पर सहमति बनी। खाण्डव जलकर खाक हो गया। अग्नि ताकतवर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को कई आग्नेयास्त्र दिए। उधर तक्षक नाग ने अर्जुन से दुश्मनी साध ली। और जब महाभारत युद्ध हुआ तो वह कर्ण के पास पहुँचा। उसने कहा कि मुझे एक बाण पर संधान करके छोड़ो। मैं जाकर अर्जुन को डंस लूंगा। कर्ण ने ऐसा ही किया। कृष्ण अच्छे सारथी थे। उन्होंने ऐन वक्त पर रथ एक बित्ता जमीन में गड़ा दिया। बाण सहित तक्षक अर्जुन के मुकुट को ले उड़ा। अर्जुन बच गए। तक्षक ने फिर से कर्ण से अनुरोध किया लेकिन इस बार कर्ण ने उसकी बात न मानी। "तो इस तरह से अग्नि को भी प्रज्ज्वलित करने के लिए खाद्य सामग्री चाहिए होती है।" 
          कहानी खत्म हो गई थी। भोजन भी सम्पन्न हो चुका था। सब अपने काम पर लग गए।


सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.