शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

हास्य का फूहड़ स्वरूप चिंताजनक है!

- पीयूष कान्त राय

  इस बार ऑस्कर अवॉर्ड सेरेमनी में उपजे विवाद ने महिलाओं के सौंदर्यबोध एवं उससे जुड़ी चर्चा के साथ-साथ कॉमेडी के वर्तमान स्वरूप को भी बहसतलब बना दिया है। ऐसा नहीं है कि नारीवाद संबंधी बहसों में यह कोई नया अध्याय है। इस तरह की चर्चा समय समय पर होती रही है और सौन्दर्य के मानकों पर जब तब प्रश्न चिह्न खड़े किए जाते रहे हैं।  लेकिन यह विवाद जो दिन प्रतिदिन नाटकीय स्वरूप ले रहा है उसने ह्यूमर या कॉमेडी के नाम पर भद्देपन के बाजार को फिर से गरमा दिया है। क्रिस रॉक, जो एक जाना माना मसखरा (स्टैंड अप कोमेडियन) हैं और प्रसिद्ध ऑस्कर अवार्ड सेरेमनी में मंच संचालन कर रहे थे, ने उस मंच से जैडा पिंकेट (विल स्मिथ, प्रसिद्ध अभिनेता और किंग रिचर्ड फिल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार विजेता की पत्नी) का मजाक बनाया और वहां मौजूद सभी दर्शक हंसने लगे। क्रिस रॉक ने जैडा पिंकेट के बाल विहीन सिर को लक्षित कर अपशब्द कहे, जिससे आहत होकर विल स्मिथ ने उन्हें मंच पर ही घूंसा मार दिया। ऑस्कर के आयोजकों ने इस अभद्र व्यवहार पर विल स्मिथ को दस वर्ष के लिए ऑस्कर समारोह में आने से प्रतिबंधित कर दिया। इस घटना के बाद कॉमेडी के औचित्य पर प्रश्न चिह्न खड़े होने लगे हैं।

कॉमेडी जनित हास्य दुनिया की परेशानियों से लड़ने का जज्बा प्रदान करता है लेकिन उस कॉमेडी का क्या मतलब रह जाता है जिसके पीछे नफरत या संकुचित भावना के प्रसार की मंशा छिपी हो। दूसरों का मजाक बनाना अब कॉमेडी की नई परिभाषा बन गया है। एक निश्चित एवं सामाजिक मान्यताप्राप्त मापदंड में स्त्रियों को पारंपरिक रूप से देखने की आदत बन चुकी है। इस विषय पर नारीवादी लेखिका सिमोन द बुववॉर ने प्रतीकात्मक व्यंग्योक्ति करते हुए कहा है कि "सबसे पहले तो उसके पंख काट दिए गए, इसके बाद उसे कोसा जाने लगा कि वो उड़ना नहीं जानती है"। क्रिस रॉक ने भी यही किया। उन्हें जैडा पिंकेट का बाल विहीन सिर हास्यास्पद लगा। स्त्री के सौन्दर्य बोध का पारंपरिक रूप से इतर रूप उसे हास्यास्पद क्यों लगा?

जैडा पिंकेट और विल स्मिथ

महान हास्य कलाकार चार्ली चैपलिन के बारे में कहा जाता है कि वह जब सबसे अधिक खुश होते थे तब वह स्वयं का ही मजाक उड़ाते थे। पर्दे पर अपने आप को ऊल-जुलूल स्थिति में परोसकर उन्होंने मूक फिल्मों में कॉमेडी के उच्चतम आयाम तय किये। 17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी लेखक मोलिएर ने अपने साहित्य एवं सशक्त भाषा के माध्यम से कॉमेडी का जो आख्यान किया, वह व्यक्तिकेंद्रित न होकर समाज में फैली कुरीतियों पर कटाक्ष होता था। मोलिएर के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह लुई 14वां का दरबारी था। दरबार के उस मध्यकालीन दौर में अपने गुणवत्तापूर्ण कॉमेडी नाटकों के माध्यम से उसने फ्रांसीसी भाषा को वैश्विक पहचान दिलाई। इसके इतर आज का कॉमेडी व्यक्ति, धर्म या लिंगविशेष पर केंद्रित है। कॉमेडी के इस दौर ने स्त्रियों के विषय में संकुचित धारणा बना दी है। वह कॉमेडियन्स का सहज लक्ष्य हैं।

भारत जैसे देश में इस विधा को निम्न कोटि का बना दिया गया है। स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर भद्दी गालियां परोसी जा रही हैं जो दर्शकों द्वारा खूब सराही भी जा रही हैं। धर्म विशेष खासकर हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाना कॉमेडी में प्रगतिवाद का प्रतीक बनता जा रहा है। खास बात यह है कि इस तरह के शो में अच्छी खासी भीड़ जुट रही है। कॉमेडी के नाम पर गाली, अपशब्दों का प्रयोग, व्यक्तिविशेष का अपमान एवं धर्म जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे का मजाक बनाने के खिलाफ कोई सेंसर बोर्ड नहीं है।

जब तक व्यक्ति केंद्रित फूहड़पन को बड़े मंचों से कॉमेडी का नाम दिया जाएगा तथा इसका समर्थन किया जाएगा तब तक इस तरह के ओछे मजाक करके अपना जेब भरने वालों की गाड़ी चलती रहेगी। इस तरह के वाहियात एवं संकुचित मानसिकता वाले कॉमेडियंस का हर माध्यम से बहिष्कार करने की जरूरत है ताकि ऐसे सामाजिक जहर को फैलने से रोका जा सके एवं साफ-सुथरी कॉमेडी को मुख्यधारा में जगह दी जा सके।

पीयूष कान्त राय

(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। NET परीक्षा उत्तीर्ण हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है। 

ऑस्कर समारोह के ताज़ा विवाद पर उनकी विशेष टिप्पणी।)

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

मी लार्ड बताएं, शरीफ लोग कहां जाएं ?

-डॉ नीहारिका रश्मि

          सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल ही में 11 फरवरी, 2022 को यह निर्णय दिया है कि उत्तर प्रदेश सरकार उन दंगाइयों को दिया गया वसूली नोटिस वापिस ले; जिन्होंने सी ए ए और एन आर सी आंदोलन के समय सरकारी सम्पत्ति को क्षति पहुंचाई थी । सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को खुद ही निर्णयकर्ता बताकर क्या साबित करने की कोशिश की है ? क्या एक चुनी गई सरकार दंगाइयों को सजा नहीं दे सकती? इस निर्णय से सुप्रीमकोर्ट साबित क्या करना चाहती है? कि लोग सरकार के हर निर्णय पर फिजूल के प्रश्न खड़े करें, पत्थरबाजी करें, पुलिस को मारें, आम जनता को परेशान करें और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकार कुछ भी ना करें । दरअसल यह मामला सी ए ए के विरोध में देशभर में एक समुदाय विशेष द्वारा हुए उग्र प्रदर्शनों; जो बहुत हिंसक भी थे, जो मदरसों से या मस्जिदों से संचालित थे, उन्होंने उग्र प्रदर्शन करके जनजीवन को मुश्किल में डाला प्रशासन को मुश्किल में डाला सरकारी संपत्ति को नष्ट किया उनको सबक देने के लिए योगी सरकार ने दंगाइयों से वसूली का नोटिस निकाला जिसमें किसी के ऊपर मनमर्जी से दोष नहीं थोपा गया विभिन्न टी वी चैनल्स द्वारा की गई रिकॉर्डिंग से दोषियों की पहचान की गई । यहां यह याद रहे सरकार रिकॉर्डिंग नहीं कर रही थी, प्राइवेट टीवी चैनल्स रिकॉर्डिंग कर रहे थे। उनकी रिकॉर्डिंग के आउटपुट से दंगाइयों की पहचान करके फिर उन्हें नोटिस दिए गए हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट को गलत क्या लगा ? क्या किसी को यह छूट है कि वह सरकार के हर फैसले का विरोध पत्थरबाजी करके सरकारी संपत्ति को नष्ट करके करें ? सुप्रीम कोर्ट के इरादे क्या हैं ? क्या कहना चाह रहा है सुप्रीम कोर्ट? क्या वह देख नहीं रहा के जब से मोदी जी की सरकार आई है कुछ लोगों को हर अच्छी बुरी बात पर मिर्ची लग जाती है और वह सीधे दंगे पर उतर आते हैं । यदि किसी सरकार की किसीनीति से विरोध होता है तो विरोध करने के लोकतांत्रिक तरीके होते हैं। आप उन तरीकों से विरोध करिये, कोर्ट में अपील करिये, पानी सिर से ऊपर हो जाये तब प्रदर्शन किये जा सकते हैं। ऐसा देखा गया कि CAA के खिलाफ प्रदर्शन में तो संवैधानिक पद पर बैठे प्रधानमंत्री मोदी को छोटे छोटे मासूम बच्चों से भी गालियां दिलवाई गईं, दंगों की न केवल तैयारी की गई बल्कि दंगे किये गए, सड़कें महीनों बाधित रखी गईं और दुहाई सभी प्रदर्शनकारी संविधान की दे रहे थे । भारत सरकार चुपचाप तमाशा देख रही थी, सुप्रीम कोर्ट चुपचाप तमाशा देख रहा था। जी हाँ! वह सुप्रीम कोर्ट, जो कुख्यात देश विरोधी आतंकवादी के लिए आधी रात को भी दुकान खोल कर बैठ जाता है, सड़ी सड़ी बातों पर खुद संज्ञान ले लेता है उसे दिल्ली में ही सिर पर चढ़े ये प्रदर्शनकारी नहीं दिखे, पूरा देश, देश के पूरे समर्थ लोग बंधक से बने बैठे थे ।

          सवाल यह है कि कुछ लोगों को इस देश में क्या परेशानी है? आपको मोदी पसंद नहीं तो आपने इंदिरा गांधी को कितना फेवर किया? उन्होंने तो प्यार से कहा था, दो या तीन बस। इस कौम ने उनकी बात भी नहीं मानी एक के दस और बीस पैदा करते रहे और अपनी गरीबी और बेरोजगारी का ठीकरा सरकारों पर थोपने लगे।

          कोर्ट होते हैं अपराधियों को सज़ा देने के लिए न कि उन्हें छुट्टे सांड की तरह घूमने की आज़ादी देने के लिए (इस तरह की शब्दावली उपयोग करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, पर अब पानी सिर के ऊपर हो गया है)। इस तरह की प्रतिक्रिया करके कुछ समुदाय साबित क्या करना चाहते हैं? हिज़ाब जैसे फिजूल के मुद्दों को तूल देकर पूरे देश मे शहर दर शहर प्रदर्शन करना क्या है? यह पूरे विश्व को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि ये भारत मे बहुत परेशान हैं, इनके अधिकारों को कुचला जा रहा है इनको दबाया जा रहा है? स्कूल ड्रेस के मुद्दे को धार्मिक पहनावे पर रोक का रंग दे दिया गया है। जबकि वह लड़की अपने साथ चार प्रोफेशनल कैमरामैन ले गई थी, जो उसके हर मूवमेंट को कुशलता से शूट कर रहे थे। इस मुद्दे पर पूरे देश में इतना तनाव बना दिया गया कि UP चुनाव में वोट डालने के पहले भी महिलाओं के हिज़ाब उतरवाकर वोटर कार्ड से चेहरा मिलान नहीं किया गया। कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाकर अलग अलग नामो से कितने ही वोट डाल सकता है, क्या यही लोकतंत्र है? क्या यह संवैधानिक स्थिति है? तो फिर संविधान की इज्जत कौन कर रहा है कौन नहीं, यह स्पष्ट है । यह मीठा मीठा गप कड़वा कड़वा थू वाली बात है। दरअसल संविधान और देश के लिए इज़्ज़त इन लोगों के मन मे है ही नहीं । ये सिर्फ अधिकारों के लिए संविधान की दुहाई देते हैं । कर्तव्यों के पालन की बात इनके धर्म में दूर दूर तक नहीं है । कानपुर से ऐसी खबर भी आ गई कि वोटिंग से पहले कुछ महिलाओं ने हिज़ाब न उतारने के लिए हंगामा किया । क्या ये महिलाएं बैंक खातों में हिज़ाब वाली फोटो लगाती हैं ,बैंक लोन के खातों में हिज़ाब वाली फोटो होती है?

          सुप्रीम का अर्थ होता है सबके ऊपर। सुप्रीम कोर्ट कैसे इस तरह के लोक लुभावन फैसले ले सकती है । कोर्ट का काम न्याय करना है न कि अन्याय करना । चुनी हुई योगी सरकार के प्रशासनिक फैसले लेने के अधिकार को पलटना अर्थात कोर्ट जन सामान्य को यह संदेश देना चाह रही है कि असहमति के नाम पर कोई भी जाति कोई भी कम्युनिटी पुलिस को सेना के जवानों को घायल कर सकती है, मार सकती है, बसें जला सकती है, सामान्य जनता को जान से मार सकती है, कोई भी अपराध कर सकती है, सड़क रोक सकती है और सरकार काबू न करे तो भी कोर्ट फटकारेगी और काबू करे ,आगे भविष्य के लिए सबक देना चाहे तो अपराधी कोर्ट चले जाएँगे। सुप्रीम कोर्ट भी चले जायेंगे, सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम वकीलों की लाखों में फीस दे देंगे (इन वकीलों और अपराधियों के बैंक खातों के ट्रांजिक्शन की बारीकी से जांच होनी चाहिए) लेकिन दंड राशि नहीं भरेंगे । चूंकि अपराधी अपने को गलत नहीं मान रहे तो कोर्ट ने पुचकार कर कहा कोई बात नहीं जुर्माना मत भरो । टैक्स भरने के लिए हाड़ तोड़ मेहनत करने वाला मध्यम वर्ग तो है ना। उसको टैक्स पर टैक्स, सब टैक्स (उपकर ) लगाकर डीजल पेट्रोल महंगा करके हम देश का इंफ्रास्ट्रक्चर बनाये रखेंगे, मुफ्त में सुविधाएं भी सबको देंगे; तुम जैसे देश विरोधी कौम को भी दस बीस बच्चे पैदा करने वाले को भी फिकर नॉट! सरकारी खर्च तो निकल ही आएंगे। येन केन प्रकारेण तुम तो एश करो । कोर्ट तो जनसामान्य को डराने के लिए हैं। कोर्ट जाने से पहले उसकी रूह काँप जाए कि बार बार पेशी पर जाने के खर्चे कहां से लाएगा? वकीलों की मोटी मोटी फीस कहाँ से देगा? वाह! मेरा भारत वाकई महान।

          सुप्रीम कोर्ट को तो ऐसे उपद्रवियों को सजा देनी चाहिए जो बेवजह सरकार के हर कार्य को कठघरे में खड़ा करते है बल्कि हिंसक प्रदर्शन करके शहर को देश को प्रदेश को बंधक बनाते हैं। कोई भी पार्टी इनसे कड़ाई से नहीं निपटेगी क्योंकि उसे वोटों का डर है इसलिए सुप्रीम कोर्ट को ही जनसंख्या नियन्त्रण और गैरकानूनी गतिविधियों पर लगाम लगानी चाहिए । ये कब तक इस तरह की हरकतें करके देश के विकास में बाधा डालेंगे? ऐसा करने की छूट किसी को नहीं होनी चाहिए । 21 फरवरी, 22 के दैनिक भास्कर में गुजरात विशेष कोर्ट का 7000 पन्नों का फैसला आया कि आतंकवादी आदमखोर बाघ की तरह होते हैं जो मासूम लोगों का शिकार करते हैं उन्हें समाज मे खुला नहीं छोड़ा जाना चाहिए । ठीक उसी प्रकार गलत सोच वाले लोग भी देश समाज के लिए खतरनाक होते हैं जो दूसरों को भड़काकर देश में अशांति पैदा करते हैं । न्याय कौमनिरपेक्ष होता है, व्यक्ति निरपेक्ष होता है। वह किसी कौम विशेष के लिए अपनी परिभाषा नहीं बदल लेता माय लार्ड!!!!!!

 

(डॉ नीहारिका रश्मि ने हमें यह लेख भेजा और देश में चल रही विभिन्न घटनाओं पर अपना आक्रोश व्यक्त किया। उनका यह लेख इसी क्रोध और आक्रोश की सहज अभिव्यक्ति है। कथावार्ता की टीम ने निश्चित किया है कि वह अपने ब्लॉग/वैबसाइट पर राजनीतिक लेखों को भी प्रकाशित करेगी। उसी के अनुक्रम में यह आलेख। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी। आप हमारे यू ट्यूब चैनल कथावार्ता के लिए भी साहित्यिक रचनाएँ/पाठ आदि प्रेषित कर सकते हैं। - संपादक)


डॉ नीहारिका रश्मि

डॉ नीहारिका रश्मि

1986 से प्रकाशित और आकाशवाणी (रेडियो) पर प्रसारित हो रही विख्यात लेखिका। स्टोरीज, कविता, लेख। नाटक स्क्रिप्ट राइटिंग में वर्कशॉप with मनोहर श्याम जोशी, अरुण कौल, मुकेश शर्मा (तत्कालीन चिल्ड्रन फ़िल्म विकास निगम अध्यक्ष), दो लेखों के कारण मध्य प्रदेश की सरकारों का फैसला बदला, एक कहानी संग्रह प्रकाशित, कविता संग्रह व लेख संग्रह प्रकाशित होने वाला है। अब तक कई डॉक्यूमेंट्रीज बनाईं जो टूरिजम बायोग्राफिकल ,सोशल अवेयरनेस एंड ट्रैफिक पर हैं ।

Kabirabazzar.com रन किया, 65 पोएट्स वीडियो रिकॉर्ड किये जिनमे स्व विट्ठल भाई पटेल (झूठ बोले कौआ काटे) भी हैं ।

फिल्में- नाभिपट्टनम नेमावर, पानी देवता, अलख निरंजन, जुआ महापर्व, ग्वालियर ग्लोरी, विट्ठल भाई एक बहु आयामी व्यक्तित्व आदि । Cms फ़िल्म फेस्टिवल में सहभागिता ।

संपर्क- 

9407529108  ईमेल- neeharicarashmi@gmail.com

 


रविवार, 13 मार्च 2022

कश्मीरी पंडितों का यथार्थ है इस फ़ाइल में

       -गौरव तिवारी

        #the_Kashmir_Files

        हमने देखा है, लाज़िम था तो हमने भी देखा है।

        कश्मीर फाइल्स कश्मीर पर बनी एक जरुरी फ़िल्म है। निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने साहस और शोध दोनों को लेकर यह फ़िल्म बनाई है। उनका कहना है कि फ़िल्म के एक एक दृश्य पुष्ट और प्रामाणिक होने पर ही खींचे गए हैं। फ़िल्म की कोई बात लफ्फाजी नहीं है । दिखाई गई प्रत्येक घटना के दस्तावेज/ प्रमाण उनके पास हैं।

        फ़िल्म का रचनाकार कश्मीर के पंडितों की समस्या पर बेचैन है और बहुत कुछ कहने के लिए व्याकुल भी। 30 वर्ष पूर्व साम्प्रदायिकता और जेहाद के झंडाबरदारों द्वारा एक समुदाय विशेष के लोगों को बहुत ही अमानुषिक ढंग से कश्मीर से निकाला गया। फ़िल्म कहती है कि "इस जन्नत को जहन्नुम बनाने वाले ने भी जिहाद इसलिए किया कि उन्हें जन्नत मिले" और दुनिया देखती रही।

डॉ गौरव तिवारी

    कश्मीर पर विधु विनोद चोपड़ा जैसे महारथी के द्वारा मिशन कश्मीर, शिकारा जैसी फिल्में भी बनी। अन्यों ने भी बनाया। लेकिन मूल समस्या और पीड़ितों के पक्ष को इतनी तन्मयता से नहीं दिखाया गया था। उनमें प्रेम कहानी के नेपथ्य में कश्मीरियत की छौंक थी।

        देश में प्रगतिशील और सेकुलर चादर ओढ़े कलाकार/ रचनाकार/ बुद्धिजीवी जिस औजार से, जिस हथियार से, जिस ढंग से अपने पक्ष को रखने के लिए जाने जाते रहे हैं, यह फ़िल्म उन सबका इस्तेमाल करके उनको उनकी भाषा में प्रत्युत्तर देने की सफल कोशिश है। कश्मीर फाइल्स को देखते हुए मुझे जाने क्यों बार बार लग रहा था कि "अंधेरे में" कविता में जिस प्रकार मुक्तिबोध बहुत कुछ कहने के लिए, शोषितों का पक्ष बनने के लिए, शोषकों को नंगा करने के लिए बेचैन हैं और अनेक दृश्यों, फ्लैशबैक पद्धतियों, नाटकीयता और प्रतीकात्मकता के साथ अपनी बात कहते जाते हैं, वैसे ही लेखक और निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री भी यहां उपस्थित हैं।

        यह फ़िल्म कश्मीर की मूल समस्या को भुलाकर उसके लिए अलग ढंग का नैरेटिव गढ़ कर समस्या के प्रत्यक्ष या परोक्ष कारणों के विक्टिम (पीड़ित) बनाने के दर्द को, सही खबर छुपाकर फेक खबर को बार-बार कहते जाने और फिर उसे ही सही मान लिए जाने की पीड़ा को लिये हुए है। तथ्यों के सहारे इनका पर्दाफाश करते हुए यह फ़िल्म कहती भी है कि "यह नरेटिव का वार है बहुत खराब वार है यह। तथाकथित सेकुलरों और प्रगतिशील लोगों द्वारा विक्टिमहुड की कहानियां खरीदी और बेची जाती हैं यहां।" और उसी ने एक पर्दा लगा रखा है जिससे कश्मीरी विस्थापितों की पीड़ा लोग नहीं देख पाते। फ़िल्म कहती भी है कि "हम पीड़ित थे लेकिन हमने हथियार नहीं उठाया।.... दुनिया ने हमें सुनने की, हमारी पीड़ा को जानने की कोशिश भी नहीं की।"

        कश्मीर का प्राचीन इतिहास, वहाँ की समृद्धि संस्कृति, वहाँ की ज्ञान परम्परा, उसकी कश्मीरियत, वहाँ की "नदरु" आदि को कलात्मकता और कहीं कहीं नैरेशन के साथ बताती यह फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की जरूरत थी।

        कश्मीर को धर्म विशेष की अफीम को चखने और उसमें डूबे रहने वाले आतंकियों ने किस हैवानियत के साथ समाप्त कर दिया और "फ्रेंडशिप विफोर नेशन" वाली नेताओं की थियरी ने कैसे उसे नष्ट होने में भूमिका अदा की यह फ़िल्म इसका पर्दाफाश करती है। "धर्मान्तरण करो, छोड़ दो या मर जाओ", "कश्मीर को पाकिस्तान बनाना है, उनके मर्दों के बिना, उनकी औरतों के साथ" जैसे नारे के बीच वहाँ की लोमहर्षक हैवानियत "कश्मीर में जिंदा रहने से ज्यादा मुश्किल का काम कोई है नहीं पंडितों के लिए" के साथ यह फ़िल्म यह भी बताती है कि कैसे उदार कहे जाने वाले सूफियों के तलवारों से हिंदुओं को यहाँ धर्मांतरित किया गया। यासीन मलिक के किरदार का महिला को उसके पति के खून से सने चावल खिलाने और 24 महिला, पुरुष, बच्चों को माथे पर गोली से उड़ा देने का दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला है।

        "देश की तकदीर वही बदल सकता है जिसके पास पॉवर है, पोलिटिकल पॉवर है। बाकी सब बकवास है।" जैसे संवादों के बीच अपनी मिट्टी में वापस जाने की कश्मीरियों की उस पॉवर की ओर टकटकी इस फ़िल्म में है।

        इस फ़िल्म का एक पात्र जो अपने पिता की हत्या के बाद माँ और दादा के निर्वासित होने के लिए अभिशप्त था, जब प्रगतिशील शिक्षा संस्थानों में नए गढ़े गए नैरेशन्स में वहाँ की वास्तविकता से अनभिज्ञ होता है और "इनमें से मेरे पैरेंट्स कौन हैं" की स्थिति में आ जाता है तब यह फ़िल्म आज की पीढ़ी के अपने जड़ो से कट जाने की बेचारगी को भी दर्शाती है। और उसे अपनी जड़ों का ज्ञान होने पर "मेरी माँ का नाम शारदा (ज्ञान की देवी सरस्वती) था यह उसकी कहानी है, मेरे भाई का नाम शिव (भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि व्यक्तित्व) था यह उसकी कहानी है।" कहते हुए दुनिया के सामने अपने दर्द को बयाँ करता है तो फ़िल्म अति यथार्थ और संकेत के साथ थोड़े में बहुत कुछ कहती भी दिखती है।

        आज जब जड़ों से कटकर भौतिक सुख में रहना, आज को ही ओढ़ना, आज को ही बिछाना, आज ही में सोचना, अपने इतिहास, संस्कृति से कटकर सब कुछ पूरी दुनिया में एक जैसा होता जा रहा है। यह फ़िल्म हमें अपनी जड़ों से जुड़ने का माद्दा भी दे रही है।

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        जो लोग कह रहे कि यह फ़िल्म प्रत्येक हिन्दू को देखना चाहिए मैं उनसे असहमत हूँ। प्रत्येक भारतीय को यह फ़िल्म देखना चाहिए।

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        (डॉ गौरव तिवारी ने दी कश्मीर फाइल्स फिल्म देखकर यह त्वरित प्रतिक्रिया की। यह कई मायने में एक बेहतरीन समीक्षा है। वह कथावार्ता के लिए लिखते रहे हैं। आप उनकी इस समीक्षा पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत अवश्य कराइएगा।)


-एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी

(सम्बद्ध) गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

 

सोमवार, 31 जनवरी 2022

मुक्तिबोध की तीन कविताएँ : विचार आते हैं, भूल गलती और ब्रह्मराक्षस

1. विचार आते हैं


विचार आते हैं

लिखते समय नहीं,

बोझ ढोते वक़्त पीठ पर 

सिर पर उठाते समय भार

परिश्रम करते समय  

चाँद उगता है 

पानी में झलमलाने लगता है

हृदय के पानी में।

 

विचार आते हैं

लिखते समय नहीं,

...पत्थर ढोते वक़्त

पीठ पर उठाते वक्त बोझ 

साँप मारते समय पिछवाड़े

बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त!!

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं

नक़्शे बनते हैं भौगोलिक

पीठ कच्छप बन जाते हैं

समय पृथ्वी बन जाता है... भूल गलती



2. भूल-गलती


भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है…
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग
बहते खून के।


वह कैद कर लाया गया ईमान…
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार,
शाइर और सूफी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर,
उसको जिंदगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान…खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त –
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ खूँख्वार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमें वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर
हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाके में
(सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!



3. ब्रह्मराक्षस

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी

ठंडे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबीं अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।


बावड़ी को घेर
डालें ख़ूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त, भूरे, गोल।

विगत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके-सी लगी रहती।
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प-तारे-श्वेत
उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर
मेरी वह कन्हेर...
वह बुलाती एक ख़तरे की तरफ़ जिस ओर
अँधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अंबर ताकता है।


बावड़ी की उन घनी गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने—
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे, बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
ख़ूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और... होंठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण में संवेदना है स्याह!!
किंतु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराए
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चाँदनी ने
ज्ञान-गुरु माना उसे।
अति प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!
और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचानवाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छंदस्, मंत्र, थियोरम,
सब प्रमेयों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।
...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रहीं ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति-शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिंब से भी जू
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करौंदी के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन औदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रैजिडी
जो बावड़ी में अड़ गई।


x x x


ख़ूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ...
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ' उतरना,
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष
से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता
अति भव्य असफलता
...अतिरेकवादी पूर्णत
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंत:कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
रवि निकलता
लाल चिंता की रुधिर-सरित
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चंद्र
व्रण पर बाँध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिंदुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है...
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन...
शोध में
सब पंडितों, सब चिंतकों के पास
वह गुरु प्राप्त करने के लिए
भटका!!
किंतु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अंतकरण में से
सत्य की झाईं
निरंतर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किंतु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्व!!
पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रैजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!

मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।












गुरुवार, 20 जनवरी 2022

तरुणाई का आख्यान चांदपुर की चंदा

किशोरवय की कहानियां लिखना बहुत चुनौती का काम है। जो उफान उस समय भावनाओं का रहता है और जितने सपने तरूणों के पास होते हैं, उसे कागज में उतारना और कथा के प्रवाह में बांध देना एक कौशल है। हिन्दी में किशोरवय को केंद्र में रखकर गिने चुने उपन्यास लिखे गए हैं। गुनाहों का देवता, कसप, तुम्हारे लिए और कोहबर की शर्त इनमें मील का पत्थर की तरह हैं।

कोहबर की शर्त, केशव प्रसाद मिश्र ने बलिया की पृष्ठभूमि में लिखा है और अब बलिया के ही एक गांव चांदपुर को केन्द्र में रखकर अतुल कुमार राय ने चांदपुर की चंदा लिखा है। यह उनका पहला ही उपन्यास है और मुझे कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यह अपने ढंग का अनूठा उपन्यास है।

जहां इस बदल रहे समय में आमतौर पर गांव का चित्रण हिन्दी में अधिकतर उद्दीपन के लिए हो रहा है, वहां "चांदपुर की चंदा" बहुत गहरे स्तर तक गांव में ही है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप गांव के संक्रमणशील स्वरूप को देख सकते हैं। गांव बहुत तेजी से बदल रहे हैं। सूचना, प्रौद्योगिकी, तंत्र और दुनिया के रंग ढंग गांव का कायाकल्प कर रहे हैं। गला काट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में लोग आगे निकलने के लिए किसी भी मर्यादा के पार चले जाने के उद्धत हैं। इस हेतु शिक्षा, संस्कृति, शासन, प्रशासन और तंत्र से मनमाने तरीके से काम लिया जा रहा है। चांदपुर इससे अछूता नहीं है। वहां एक विद्यालय है, उसमें नकल कराने का ठेका लिया जाता है और दूर दराज के लोगों को पास कराया जाता है। चांदपुर के नायक मंटू और नायिका चंदा उसी विद्यालय के विद्यार्थी हैं। शिक्षा का जो स्वरूप देश भर में है, चांदपुर में उसकी एक बानगी देखी जा सकती है। राग दरबारी में जिस छंगामल विद्यालय की चर्चा श्रीलाल शुक्ल ने की है, चांदपुर का विद्यालय उससे भी एकाध कदम आगे निकल आया है। इसमें सामूहिक नकल होती है और लोग अपने होनहार बच्चों को नकल सामग्री उपलब्ध कराने के लिए व्यग्र दिखाई देते हैं। विद्यालय स्ववित्त पोषित योजना के अंतर्गत चल रहा है जहां धन उगाही ही एकमात्र लक्ष्य है।

उपन्यास में एक चट्टी है जहां झोला छाप चिकित्सक हैं, रोजमर्रा के जिंस की बिक्री होती है, इलेक्ट्रिक-इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि सुधारे जाते हैं और जो टाइम पास का सबसे बड़ा अड्डा है। यहां खलिहर लोग, युवक हंसी ठठ्ठा करते हुए, एक दूसरे का मजाक उड़ाते हुए, जीवन के बोझ को ढो रहे हैं। यहां शारीरिक और मानसिक व्याधियों का झोला छाप और कामचलाऊ इलाज होता है। यह चांदपुर का केन्द्रीय स्थान है। गांव की हर गतिविधि का यह चट्टी साक्षी बनता है।

चांदपुर गांव सरयू नदी के किनारे बसा है और इसमें हर साल इतनी बाढ़ आती है कि हर साल एक नया चांदपुर बन जाता है।

          चांदपुर कुछ मास के लिए विस्थापित हो जाता है और पुनः उठ खड़ा होता है, दुगुनी जिजीविषा के साथ। जीवन इसी उजड़ने और बसने के बीच चलता जाता है। इसी में पर्व त्योहार और बरिस बरिस के दिन आते जाते हैं। उपन्यास में चांदपुर गांव के बारहमासे का बहुत महीन चित्रण है जिसे किंचित ध्यान देकर परिलक्षित किया जा सकता है।

          इसी में मंटू और चंदा का प्यार परवान चढ़ता है। प्रेम कथाकारों का प्रिय विषय रहा है किंतु इसे कैसे परोसना है, इसे अतुल बखूबी जानते हैं। इस प्यार में मर्यादा, शील और लाज है और भावनाओं का चरम भी। इससे उठते चटखारे हैं और उस अप्रिय स्थिति से जूझते प्रेमी जीव।

          चांदपुर की चंदा, गांव के जीवन, चंदा और मंटू की प्रेम कहानी के साथ साथ साथ गांव की बदलती संस्कृति, वृद्ध हो रहे लोगों की पीड़ा, प्रवासी होने का दर्द, वैवाहिक संबंध, विवाहेतर संबंध, दहेज, प्रधानी के दांव पेंच आदि का एक भावुक और आत्मीय आख्यान है। इसमें गुदगुदाने वाले बहुत से प्रसंग हैं तो पलकें नम कर देने वाले भी। इस उपन्यास ने गांव के जीवन की धड़कन को समेट लिया है।

 रामलीला के मंचन का प्रकरण हो अथवा बसंत पंचमी का, हरेक वर्णन अनूठा है और आपको गांव के जन जीवन में ले जाने वाला है।

          उपन्यासकार अतुल कुमार राय की विशेषता यह है कि वह तथाकथित आधुनिकता के प्रवाह में बहे नहीं हैं अपितु भारतीयता की डोर को मजबूती से पकड़े हुए हैं, इसलिए बदल रही परंपराएं उनके लिए मजाक का विषय नहीं हैं। यदि उसमें हास्य का पुट है तो इसमें भी एक पीड़ा है। वह भारतीयता के सूत्र को सहेजने वाले रचनाकार हैं। उनके विवरण सुने सुनाए नहीं हैं, उसमें भोक्ता होने की सुगंध है। उनका दायरा भी बहुत विस्तृत है। आजकल के लेखन में विषय को समझने की जो गहराई अपेक्षित है, उससे लेखक किनारा कर लेता है और डिटेल में पड़ने से बचता है जबकि अतुल उसे जीते हैं। इसलिए चांदपुर की चंदा पढ़ते हुए हम मोहाविष्ट हो जाते हैं और उसकी खुमारी में डूबने उतराने लगते हैं। अतुल कुमार राय के यहां विवरण में जो तफसील है, वह दिल को छू लेने वाला है।

          यह अतुल का पहला उपन्यास है। इसे पढ़ते हुए हम इस तरह साधारणीकृत करते हैं कि उसका पात्र बन जाते हैं। अतुल को इसमें विशेष दक्षता मिली है कि वह एक कलाकार की आंखों देखी जिंदगी को दूसरे के समक्ष अधिक रंगीन बना दें। सिनेमा और साहित्य इस उपन्यास में धड़कता है। प्रेम कहानी ऐसे ही किसी स्वप्न में पलती है, जो चलचित्र की रूपहली दुनिया पर जन्म लेती है और बहुतेरे तरूणों के आंखों में जवान होती है।

          इस उपन्यास का संदेश बहुत साफ है। गांव बदल रहा है और इसका भविष्य वहीं पल रहे युवाओं के हाथ से संवरने वाला है। चंदा और मंटू की आखों से होता हुआ यह किस रूप रंग में ढलेगा, वह आने वाला समय बताएगा किंतु यह निश्चित है कि गांव के सबसे बुजुर्ग और बरगद की छवि रखने वाले झाँझा बाबा ने इसे अपनी सहमति दे दी है।

          आपको यह उपन्यास पढ़ना चाहिए। यह देखने के लिए कि आजकल के लेखन से यह कैसे अलग है। एक सच्ची कहानी कैसे उतरती है और हम सबके आसपास की कहानी बन जाती है। अतुल इस कहानी को इस तरह ले गए हैं कि पाठक इसमें बहता जाता है। मैं अभी किनारे लगा हूं, जहां एक नाव बीच धारा में चली जा रही है और लोग उसे नम आंखों से विदा कर रहे हैं।

          हिन्द युग्म प्रकाशन की इस प्रस्तुति का स्वागत किया जाना चाहिए।

 

- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

                                                                                              ट्वीटर - @ramakroy


मंगलवार, 4 जनवरी 2022

क्रान्ति के तरीके और पैराडाइम शिफ्टिंग!

   बीते दिन एक शॉपिंग मॉल के पास से निकल रहा था तो बुल्ले शाह का वह प्रसिद्ध गीत पॉप धुन में सुनाई पड़ा- "बुल्ला की जाणा मैं कौण" बुल्लेशाह का यह और अन्य कुछ दूसरे गीत गायकों की पसंद हैं। अमीर खुसरो के गीत भी धुन बदल बदल कर गाई गयी है। इस्लामी (सूफी) गायकों ने और उससे प्रभावित हो कर दूसरे गायकों ने भी कई ऐसे साधकों के गीत भिन्न भिन्न अंदाज में पेश किया है। पिछले दिनों फैज़ अहमद फैज़ की वह नज़्म भी पाकिस्तान की टोली 'कोक स्टूडियो' ने खूब झूम कर गाया था और वह मकबूल हुआ। इकबाल बानों का गाया हुआ और उनका किस्सा तो रोमानियत की मिसाल है। मज़ाज़, इक़बाल, टिन्ना पिन्ना के गाने भी बहुत मन से गाये गए हैं। हिंदी फिल्मों में भी इनका बोलबाला रहा है।

     उसके मुकाबिले हिंदी/संस्कृत के गीतों को साधने की कोशिश बहुत कम है। तुलसी-सूर को कोई गाने की कोशिश करता है तो 'चंचल' बन जाता है। उनका तरीका भी शास्त्रीय संगीत का भ्रष्ट रूप रहता है। पॉप और जैज़ के खाँचे में डालने की बात सोचना भी हमने जरूरी नहीं समझा है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले और रवीन्द्र जैन ने कुछ ढंग का गाया तो है लेकिन वह "भक्ति" के दायरे में रख दिया गया और युवाओं से परे कर दिया गया। कोई नया आयाम देकर गाने की कोशिश भी नहीं करता।

       इसके पीछे एक बड़ी वजह "मानसिकता" की है। ट्रेंड बनाने की है। राजकीय प्रश्रय की है। कुछ गायकों ने 'रूढ़ि' को भी ताकत बना लिया। हम मठ और गढ़ तोड़ने में मशगूल रहे। किसी कवि ने यह नहीं कहा कि हम शरिया आदि का भी ख़ात्मा करेंगे। हम कुरआन और हदीस के आसमानी मान्यताओं को नहीं मानते। यह सब बकवास है। बल्कि "मार्क्सवादी शायर" फैज़ अहमद फ़ैज़ तो "बस नाम रहेगा अल्लाह का" और "सब बुत उठवाए जाएंगे" लिखकर भी "क्रांतिकारी" हैं। और जीवन को बदल देने वाले कवि उपेक्षित तथा पोंगापंथी।

       तो कहने का आशय यह है कि यह पैराडाइम एक लंबे डिस्कोर्स से बना है। उसे ध्वस्त करने के लिए सूक्ष्म और तार्किक तथा संगठित और रचनात्मक लड़ाई करनी होगी। उटपटांग के आरोप-प्रत्यारोप से यह और मजबूत होगा। 

    आइए सैय्यद इब्राहिम रसखान की यह कविता पढ़ते हैं- मनुष्य के जीवन की सार्थकता क्या है-

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥


#Faiz, #raskhan, #kathavarta #katha #varta #कथा #कथावार्ता

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

हमारे पकवान : खीर, बखीर और तसमयी

बहुत दिन के बाद आज खाने में खीर मिली तो सोचा कि इस मनपसंद व्यंजन पर कुछ रसमयी चर्चा हो। आज जो हमने खाया, यह वास्तव में तसमई थी। जब पर्याप्त मात्रा में दूध हो। महीन चावल निखालिस दूध में पकाया जाए। मेवा-मिश्री (शक्कर) पड़े, तो जो स्वादिष्ट व्यंजन बनेगा, वह है तसमई। लेकिन हमने इसे खीर का नाम दिया है।

बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि खीर वह है जिसमें दूध में चावल पके और अंत मे गुड़ मिलाया जाए। खीर शब्द क्षीर का तद्भव ही है। क्षीर दूध को ही कहते हैं। नीर-क्षीर विवेक का पद तो खूब प्रचलित है। त्रिदेवों में कल्याणकारी देव विष्णु का निवास क्षीरसागर में ही कहा गया है। ध्यान रखें कि गुड़ पहले मिलाया तो दूध फट जाएगा और खीर का मजा जाता रहेगा। तो खीर बनती है गुड़ मिश्रित करने से। 

एक दूसरा व्यंजन है बखीर। जब कचरस में चावल पके। वह भी नया चावल। आजकल हमारे घर में सरजू बावन कटने लगा है और एकदम नए चावल का भात भी मिल रहा है, ऐसा माताजी  बता रही थीं। तो नया चावल मतलब इस मौसम का चावल। कचरस मतलब गन्ने का पेरा हुआ कोल्हाड़ से आया हुआ ताजा रस। उसी में चावल पकाते हैं और बाद में थोड़ा सा दूध मिला देते हैं। तो बनता है बखीर। बताता चलूं कि न तो मुझे खीर पसंद है न बखीर। यद्यपि लालसा रहती है उर्वशी को पाने सरीखी।

एक चौथा व्यंजन बाद के समय मे लोकप्रिय हुआ है- सिवई। शमीम मियां ने एकबार सूखी सिवई खिलाई थी तबसे मेरे पाक में कोशिश वही सूखी सिवई बनाने की रहती है जिसमें दूध खोए की तरह हो जाता है और ड्राई फ्रूट्स तैरते रहते हैं। तसमई के प्रेमी हम भाई-बहन सिवई भी तसमई की तरह बनाते रहे हैं। मेरे बड़े भाई श्री शशिकान्त राय का दावा है कि वह तसमई बहुत स्वादिष्ट बनाते हैं। हालांकि हम सब उन्हें यह जिम्मा सौंपते हुए हमेशा डरते रहते हैं और वह बहुत उत्साह से बनाते हैं। और हम खा भी लेते हैं। खैर

       तो मीठे ने ऐसे हमारे रसोई में जगह बनाई थी कि जिस दिन तसमई बन जाती थी, उस दिन हम अतिप्रसन्न रहते। राजसी भोजन ग्रहण करते। 

       अब तो जीवन में पश्चिमी जीवन शैली ने ऐसे जगह बना ली है कि मीठा कई घरों की रसोई से गायब हो गया है। रेस्तरां और होटल के नवाचारी खाद्य और ऐसे पकवान जिसमें फ्यूजन है, ने हमें घेर लिया है। शीत ऋतु का आरंभ हो गया है तो आजकल गज़क मिलने लगा है। पहले गज़क तिल मिश्रित ही होता था। अब देखता हूँ कि गेंहू का गज़क भी मिलने लगा है। पित्जा और बर्गर और अनापशनाप ने हमें भ्रष्ट कर रखा है। 

          जिनकी थाली में आज भी कोई मीठा पकवान सुरुचिपूर्ण ढंग से रखा है, वह मेरे देखे सबसे अधिक भाग्यशाली है।

 

 

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सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

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