मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

मुल्ला नसीरुद्दीन की दो कहानियाँ

१.

 

मुल्ला भीख मांगने गया। एक सम्पन्न घर देखकर उसने गुहार लगाई। घर में बहू थी। उसने मुल्ला को भीख देने से इन्कार कर दिया और भगा दिया। मुल्ला निराश होकर अपना मुँह और झोला लटकाए चल पड़ाकुछ दूर जाकर ही उस घर की मालकिन, सास आते हुए दिखी। उसने पूछा- क्या हुआ मुल्ला? 

मुल्ला बोला- तुम्हारी बहू ने भीख भी नहीं दी। 

सास ने कहा- अच्छा! उसकी यह मजाल। घर चलो। 

मुल्ला लौटा। घर आकर सास ने कुर्सी निकाली। कुछ पल बैठी रही। फिर दरवाजे पर जाकर मुल्ला से कहा- जाओ, भीख नहीं मिलेगी? मेरे रहते बहू कौन होती है मना करने वाली।

 

२.

 

मुल्ला एकबार अपने दोस्त के घर गया। दोस्त ने उसे शराब परोसी। मुल्ला ने कहा कि मैं शराब नहीं पीऊँगा। 

एक तो मैं मुसलमान हूँ और हमलोगों में शराब हराम है।

दूसरी बात, मैंने अपनी मरती बीवी को वादा किया था कि कभी शराब को हाथ भी नहीं लगाऊंगा।

और तीसरी बात यह कि मैं घर से पीकर आया हूँ

 

-कथावार्ता की प्रस्तुति!


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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

घुमक्कड़ी के शीर्ष पुरुष : राहुल सांकृत्यायन

-डॉ रमाकान्त राय

मेरे स्कूल के दिनों में ही यह धारणा बनी थी और खूब आतंकित करती थी कि राहुल सांकृत्यायन संस्कृत, अङ्ग्रेज़ी, तिब्बती, ल्हासा, चीनी आदि 84 भाषाओं के जानकार थे। उनकी किताब "तुम्हारी क्षय" में उन्हें 26 भाषाओं का ज्ञाता कहा गया है। उनका यात्रावृत्त "अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा" पाठ के रूप में था। उसमें एक शेर था-

          सैर कर दुनिया की गाफिल, ज़िंदगानी फिर कहाँ।

           ज़िंदगानी फिर मिली तो, नौजवानी फिर कहाँ॥

और यह शेर जैसे मंत्र की तरह याद हो गया था। कतई रोमांटिक था यह। कालांतर में राहुल सांकृत्यायन की कई कृतियों से परिचित होने का मौका मिला। इसमें "वोल्गा से गंगा" की अनेकश: चर्चा सुनता था। "वोल्गा से गंगा" नाम ऐसा था कि यात्रावृत्त की छवि बनती थी

यह जानना आवश्यक है कि "वोल्गा से गंगा" यात्रावृत्त नहीं है। यह काल्पनिक कहानियों का संग्रह है, जिसमें आर्यों के विषय में कई मनगढ़ंत बातें, उलजलूल स्थापनाएं हैं। राहुल सांकृत्यायन का असली नाम केदारनाथ पाण्डेय था। मुझे कुछ वर्ष पूर्व उनके गांव जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यह आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में अवस्थित है।  उत्तर प्रदेश सरकार उनके सम्मान में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस का परिचालन उनके गांव से दिल्ली के लिए करती है। यह बस प्रतिदिन प्रातःकाल इसी गांव से खुलती है और दिल्ली जाती है। एक बस दिल्ली से चलकर देर शाम इस गांव में पहुंचती है।

राहुल सांकृत्यायन ने विपुल साहित्य सृजन किया है। बौद्ध धर्मग्रंथों के खोज और उनका हिन्दी रूपान्तरण कर उन्होंने साहित्य की खूब सेवा की है। तिब्बत और नेपाल आदि से अनेकों बौद्ध ग्रन्थों को प्रकाश दिया। उन्होंने हिन्दी साहित्य में आदिकाल को सिद्ध सामंत काल कहा है और यह एक मजबूत स्थापना है। उन्होंने त्रिपिटक का हिन्दी अनुवाद किया। शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ निःसंदेह वह घुमक्कड़ी के बहुत बड़े आइकन हैं। उन्होंने खूब विदेश यात्रा भी की। श्रीलंका, तिब्बत और रूस की कई बार। आखिरी दिनों में रूस गए। लौटे। उनका निधन दार्जिलिंग में हुआ। उन्होंने अपने घुमक्कड़ी को खूब प्रचारित किया। बौद्ध बन गए और मार्क्सवादी कम्यून के लिए समर्पित हुए।

राहुल सांकृत्यायन का समूचा लेखन पश्चिमी सभ्यता के रंग से अनुप्राणित है। इसलिए उसपर मिशनरीज की छाप है। उनका विपुल लेखन और कम्यून उन्हें खूब चर्चित करता है।

अपने एक लेख में राहुल सांकृत्यायन ने स्वामी सहजानंद सरस्वती को बहुत सम्मान से याद किया है। भारत में किसान आंदोलन को उठाने और आगे बढ़ाने में स्वामी सहजानन्द सरस्वती के योगदान को उन्होंने बहुत उदारमन से स्वीकार किया है।

घुमक्कड़ी के लिए हिंदी में जब कुछेक रचनाकारों का उल्लेख किया जाता है तो राहुल सांकृत्यायन अग्रगणित किए जाते हैं। मेरी तिब्बत यात्रा, यूरोप यात्रा और एशिया के दुर्गम भूखंडों में उनकी ठीक ठाक कृतियां हैं।

आज जन्मदिन पर आजमगढ़ के इस केदारनाथ पाण्डेय का भावपूर्ण  स्मरण!

 

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असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

पिन 206001

मोबाइल नंबर 983895242- royramakantrk@gmail.com

रविवार, 4 अप्रैल 2021

नए कालिदास का उदय

-डॉ रमाकान्त राय

जब विद्योत्तमा ने सभी पंडितों को हरा दिया तो अपमानित पंडितों ने निश्चित किया कि इस विदुषी का अहंकार टूटना चाहिए। विद्वान को पराजित करने के लिए सभी विद्वानों ने मंत्रणा की। परिणामस्वरूप उचित व्यक्ति की तलाश शुरू हुई। विद्वान को मूर्ख ही हरा सकता है - यह निश्चित है।

उन्हें सहज ही उचित व्यक्ति मिल गया। वह आलू से सोना बना सकने की तकनीक जानता था और जिस डाल पर बैठा था, उसे ही कुल्हाड़ी से काट रहा था। डाल कटती तो वह भी निश्चित ही धराशायी होता। इससे उपयुक्त व्यक्ति कौन होगा? पंडितों ने निश्चित किया। बताया कि यह अज्ञात राजपरिवार का स्वाभाविक कुमार है।  यह कालिदास थे।

नई दुनिया, दैनिक समाचार पत्र (04 अप्रैल 2021) का संपादकीय पृष्ठ, स्तम्भ- अधबीच  

समझा बुझाकर सबने कालिदास को विद्योत्तमा के सम्मुख शास्त्रार्थ हेतु प्रस्तुत किया। "मौन भी अभिव्यंजना है!" यह उक्ति तो परवर्ती है। विद्वानों ने मौन की, संकेत की अभिव्यक्ति अपने तरीके से करने का निश्चय किया। कालिदास को रटा रटाया उत्तर संकेतों में ही देने के लिए मना लिया।

विद्योत्तमा ने मौन के, संकेत आधारित शास्त्रार्थ को स्वीकार कर लिया और पहली शास्त्रोक्ति की- "ईश्वर एक है!" इसके लिए उन्होंने एक ऊंगली उठाई। कहते हैं कि कालिदास को समझ में आया कि यह लड़की मेरी एक आंख फोड़ना चाहती है। प्रत्युत्तर में हिंसक होते हुए कालिदास ने दो ऊंगली उठाई- "मैं तुम्हारी दोनों आंखें फोड़ दूंगा।" सभा में हड़कंप मच गया।

विद्वानों ने व्याख्या की- "ईश्वर आत्मा और परमात्मा का द्वैत है। बिना इस द्वैत को जाने तत्त्व की मीमांसा कैसे हो सकती है!" फिर आउटरेज शुरू हो गया। ट्वीट-रिट्वीट हुए। विद्योत्तमा सहित सभी वामी-कामी, विद्वत समाज ने इस व्याख्या को स्वीकार किया। उस शोरगुल में और सभी विषय इतर हो गए। सभा डीरेल हो गई। विषय से इतर कूदने-फांदने में मान्यता प्राप्त विद्वानों को कौन हरा सकता है।

नतीजा यह हुआ कि Abs, समुद्री स्नान, आलू ही आलू, मेड इन मदुरै, उत्तर-दक्षिण, तीन कानून, आसमानी किताब, हम दो हमारे दो आदि की चहुंओर अनुगूंज होने लगी। एक ने तो कहा कि राजा को पदच्युत कर कालिदास का अभिषेक होना चाहिए। अविलम्ब। ईवीएम पर भरोसा कौन करता है। लोकतंत्र नष्ट नहीं करना है, न ही होने देना है। विद्वानों, पंडितों, क्रोनी-गठजोड़, हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, कौवा-तीतर, काली पहाड़ी सबने कालिदास के लिए बहुत माहौल बनाया।

मसल है कि वीरता की नकल नहीं हो सकती। इतिहास को दुहराया नहीं जा सकता। लेकिन देश-दुनिया में प्रयास जारी हैं। दूसरे कालिदास का कभी भी उदय हो सकता है! यद्यपि कई प्रयास विफल हो गए हैं, तथापि लोगों ने आशा का त्याग नहीं किया है।

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असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा, उत्तर प्रदेश

 9838952426, royramakantrk@gmail.com

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

Kathavarta : कथावार्ता में बोधकथा

ब्याज दरों में कटौती प्रस्ताव के "ओवरसाइट" पर एक कहानी याद आ गई।

एक व्यक्ति अपना मुंह और झोला लटकाए जा रहा था। उसकी कमर झुककर दोहरी हो गई थी। उसे देखकर ही अनुमान होता था कि उसपर कई अदृश्य बोझ हैं। रास्ते में उसका हमराही हुआ मुल्ला नसरुद्दीन और उसका शागिर्द।

राह चलते मित्रता बढ़ी तो मुल्ला ने पूछा- भाई, झोला जैसा मुंह क्यों लटकाए हो?’ उस व्यक्ति ने व्यथा कथा सुनाई। उसका घर परिवार उजड़ चुका था। बचत आदि लूट ली गई थी। फसल आवारा सांड बरबाद कर चुके थे। रोजगार चौपट हो गया था। वह बहुत दुखी था। उसका दुख उसके मुंह और झोले से छलक रहा था।

          उस व्यक्ति ने कहा कि उसके जीवन में खुशी का एक क्षण भी नहीं है। यह सुनकर मुल्ला नसरुद्दीन बहुत दुखी हुआ। उसने सांत्वना दी। सब्जबाग दिखाए। किन्तु उस व्यक्ति का मुंह लटका रहा। तब मुल्ला ने कहा कि वह उसका दुख दूर कर सकता है, बशर्ते वह अपना झोला उसे दे दे।

          व्यक्ति ने कहा कि झोले में उसकी शेष जमापूंजी है। वह ऐसा कैसे कर सकता है। संकेत पाकर, एक लापरवाही भरे क्षण में मुल्ला के शागिर्द ने एक झटके में उससे झोला झटक लिया और यह गया वह गया, हो गया। व्यक्ति ने पीछा किया। मुल्ला भी पकड़ने भागा। व्यक्ति  बहुत चीखा, चिल्लाया। अंततः थककर बैठ गया। सांझ ढल रही थी। 'जीवन में और न जाने कितने कष्ट देखने को हैं', - वह सोचने लगा। अचानक उसने देखा कि उसका झोला उसके सामने वाले वृक्ष पर लटका है। वह सोत्साह आगे बढ़ा। अरे! यह तो उसी का झोला है। वह खिल गया। आगे बढ़कर झोला उतारा। देखा, सभी वस्तुएं सही सलामत थीं। उसके हर्ष का पारावार न रहा।

          तब उसके समक्ष मुल्ला नसरुद्दीन प्रकट हुआ। आदमी ने अपना झोला छिपा लिया।

          मुल्ला ने कहा – “तुम तो बहुत खुश दिख रहे हो!

          उसने कहा - "हां। आज मैं बहुत प्रसन्न हूं।"

          मुल्ला बोला - "किंतु अभी कुछ देर पहले तो तुम कह रहे थे कि तुम्हारे जीवन में खुशी का एक क्षण भी नहीं है!"

          मुझे नहीं लगता कि कहानी में और कुछ कहने को शेष रह जाता है!

          कहनी गई वन में, सोचो अपने मन में।

          कहने वाला झूठा, सुनने वाला सच्चा।।

 

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-डॉ रमाकान्त राय

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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

कथावार्ता : नायक जिन्हें भुला दिया गया - महाराजा सुहेलदेव

-डॉ रमाकान्त राय 

आज महाराजा सुहेलदेव राजभर की जयंती है। महाराजा सुहेलदेव का जन्म बहराइच में बसंत पंचमी के दिन 990 ई0 में हुआ था। वह सन 1027 ई0 से 1077 ई0 तक श्रावस्ती के राजा रहे। सुहेलदेव ने सन 1034ई0 में बहराइच में गाजी सालार मसूद को बुरी तरह परास्त किया था। इस युद्ध में उनकी सहायता कई छोटे छोटे राजाओं ने की थी। गाजी सालार मसूद महमूद गजनवी का भांजा था जो गजनवी के गजनी लौटने के बाद अभियान का नेतृत्व कर रहा था। आज बहराइच में गाज़ी की मजार है जबकि सुहेलदेव का नाम भी कुछ साल पहले तक कोई नहीं जानता था।

महाराजा सुहेलदेव राजभर

महाराजा सुहेलदेव राजभर ने आजीवन लोक की रक्षा की, आम जन और स्त्रियों के शील की रक्षा के लिए युद्ध किए और गाज़ी सालार मसूद को परास्त किया।

जब फिरोज तुगलक शासक बना तो उसने सुहेलदेव के स्मारक नष्ट कर दिए और गाजी को पीर औलिया बना दिया। फिर जब देश का इतिहास लिखा जाने लगा तो राजभर (सुहेलदेव), पासी (महाराजा बिजली पासी), खरवार (सोनभद्र में इनके वंशज हैं), गोंड (गोडवाना लैंड एक विस्तृत क्षेत्र है), यादव (लोरिक) आदि जातियों को सांस्कृतिक संदर्भ से विच्छिन्न कर दिया। अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' में तालाब के निर्माण की भूमिका के क्रम में मुसहर लोगों का उल्लेख किया है और बताया है कि मुसहर समाज में “चोहरमल उनके एक शक्तिशाली नेता थे किसी समय”। उनकी पुस्तक के तीसरे अध्याय संसार सागर के नायक में ऐसे कई समुदायों का वृतांत मिलता है।

देश की एक बड़ी आबादी को बताया कि तुम महज शासित रहे हो और सदा सर्वदा से वंचित। समुदायों में फूट डालने का सफल प्रयास हुआ। लोगों में वैमनस्यता बढ़ाने के उपक्रम हुए और फिर वर्तमान धारणा बनी।महाराजा सुहेलदेव उस धारणा के विपरित एक ज्वलंत नाम है। जो शासन की क्षमता रखता है- वही राजा है।

सुहेलदेव का राज्य बनारस, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़ तक विस्तृत था। कहा जाता है कि बनारस का प्रसिद्ध राजातालाब महाराजा सुहेलदेव राजभर ने बनवाया था। वह प्रजावत्सल शासक और महान योद्धा थे।

भारत सरकार ने वर्ष 2018 में उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया था। वर्ष 2016 में भारतीय रेलवे ने महाराजा सुहेलदेव एक्सप्रेस नामक एक रेलगाड़ी चलाई जो नई दिल्ली और गाजीपुर को जोड़ती है। वर्ष 2021 में महाराजा सुहेलदेव के विजय स्थल पर स्मारक बनाया जा रहा है और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा उनके योगदान को याद किया जा रहा है। डॉ निगम मौर्य लिखते हैं- अपने नायकों को सम्मान देना व आने पीढ़ियों को उनसे परिचित कराना भी एक जागरूक व गर्वित समाज का कर्तव्य है। यह एक अच्छी शुरुआत है।हमें उन नायकों को वह सम्मान देना ही चाहिए जो कुछ लोगो की कुत्सित चालों के फलस्वरूप इतिहास के पन्नो से गायब हो गए

          उनकी जयंती पर भावपूर्ण स्मरण।

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

कथावार्ता : चौरी-चौरा प्रतिरोध के सौ वर्ष और इतिहास की गुत्थियाँ

इतिहास लेखन एक चुनौती है। इसलिए कि इसे निरपेक्ष होकर नहीं लिखा जा सकता है और उपलब्ध संसाधनों और तथ्यों का पाठ कभी भी इतना वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता कि घटना की वास्तविकता को ज्यों का त्यों रख सके। फिर लिखे हुए कि भी एक सीमा है। उसके पाठ की और अंतर्पाठ की भी। यह और कठिन तब हो जाता है जब हम एक औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए हों। औपनिवेशिक शासन अपनी सत्ता को वैध बनाने और स्थायित्व देने के लिए कई तरह के छल-छद्म रचता है। उसमें एक है, घटनाओं को प्रस्तुत करने का औपनिवेशिक तरीका। इस तरीके में सत्ता विरोधी घटनाएँ इस स्याही से लिखी जाती हैं कि उनकी कालिमा मिटाने में तथ्यों के अंतर्पाठ भी सहायक नहीं हो पाते। औपनिवेशिक शासन अपने लिए इतिहासकारों को गढ़ता है ताकि वे उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर सकें।

भारत में इतिहास लेखन का एक दूसरा पहलू यह है कि इसे कांग्रेसी सरकारों ने अपने मनमुताबिक करवाया। हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा है कि इस देश के मुक्ति का संग्राम लड़ने वाली अग्रणी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने मूल चरित्र में जनविरोधी रही है। इसकी स्थापना ही अंग्रेजी सत्ता के लिए सेफ्टी वाल्व के उद्देश्य से हुई। इस पार्टी में जमींदारों, रजवाड़े और सत्ता के लोलुप अवसरवादी भरे हुए थे। जिन महात्मा गांधी के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने इस पार्टी को आमजन से जोड़ा, उन महात्मा गांधी का मूल रुझान भी बहुत जनवादी नहीं था। वे व्यवस्था के पोषक चरित्रों में से एक थे। जमींदारों और पूंजीपतियों के लिए ट्रस्टीशिप वाला उनका सिद्धांत कोई परिवर्तनकामी नहीं था। इस तरह से देश का इतिहास कांग्रेसी इतिहास बन कर रह गया। इसके उलट वामपंथी इतिहास सबाल्टर्न और जनवादी होने के अतिशय आग्रह में भी उस तरह का नहीं रह गया है जिसे स्वीकार्य कहा जा सके। राष्ट्रवादियों का इतिहास लेखन तो अतीत के स्वर्णिम नास्टेल्जिया में उलझ जाता है। इस तरह देश में कम से कम चार तरह के इतिहास बनते हैं। औपनिवेशिक, कांग्रेसी, वामपंथी और राष्ट्रवादी। इसमें अपनी मान्यता के लिए सबसे अधिक संघर्ष राष्ट्रवादी इतिहासकार करते हैं। यही कारण है कि जब इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएं जब खतरे में पड़ती हैं या आधी अधूरी-अधकचरी सिद्ध होने लगती हैं तो राष्ट्रवादी इतिहासकार इतिहास के पुनर्लेखन की मांग करने लगते हैं। इसके अलावा एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इतिहास के लिए और आधुनिक इतिहास के लिए उपलब्ध अधिकांश सामग्री भी उस मनोयोग और श्रमसाध्य तरीके से उपयोग में नहीं लाई जाती कि कम से कम तथ्य और घटनाएं सही हों।

इतिहास के साथ एक समस्या यह भी है, जिसे साहित्य के साथ रखकर अक्सर कहा जाता है कि साहित्य में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब सही होता है और इतिहास में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब गलत। बहस में आगे न बढ़ते हुए सुभाष चन्द्र कुशवाहा की किताब “चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन” पर बात की जाए जो चौरी चौरा मसले का विधिवत, तथ्य सहित और बहुत परिश्रम से तैयार किये हुए इतिहास पर गवेषणापूर्वक बात करती है। किस्सागोई की हद तक की रोचक यह किताब बहुत गहराई से जाँच पड़ताल करती है और कई पुरानी मान्यताओं पर प्रश्न खड़े करती है।

चौरी-चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन

          चौरी चौरा का स्वाधीनता आन्दोलन इतिहास की उन चुनिन्दा घटनाओं में से एक है, जिसके मूल्यांकन में इतिहासकार चूक गए हैं। कई ऐतिहासिक स्मारक स्थलों, अभिलेखों और प्रस्तुतियों में इस घटना का जो विवरण दर्ज है वह सच्चाई को तोड़ता-मरोड़ता है। कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक पुस्तक में चौरी चौरा विद्रोह के पहलुओं का बहुत विचारोत्तेजक और हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस पुस्तक में बताया है कि उन्होंने इसे तैयार करने में तमाम उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रयोग किया है और उनका साम्य बिठाने और तर्क आधारित व्याख्या करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्होंने न सिर्फ सरकारी, गैरसरकारी तथ्यों का अपितु स्थानीय साक्ष्यों का प्रयोग भी किया है। इस पुस्तक के निर्माण में उन्होंने चौरी चौरा स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों के परिजनों से मिलकर उन सूत्रों को गूंथने की कोशिश की है, जो इतिहास और तत्कालीन सरकारी दमन तथा दूर दराज के क्षेत्रों में बैठकर गढ़ने में ओझल कर दिया गया है।

          चौरी चौरा स्वाधीनता संघर्ष इतिहास की एक बहुत चर्चित घटना है जिसमें दिनांक ०४ फ़रवरी, १९२२ को चौरी चौरा थाना, जिला गोरखपुर, को २४ सिपाहियों समेत लगभग २००० ग्रामीणों ने फूंक दिया था। इस घटना से भारतीय इतिहास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पन्ना जुड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि इस घटना में हुई हिंसा के फलस्वरूप क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस आन्दोलन ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी और अगर वह आन्दोलन चलता रहता तो देश को स्वाधीनता उसी के आसपास मिल गयी होती।

चौरी चौरा विद्रोह की स्मृति

          सुभाष चन्द्र कुशवाहा अपनी पुस्तक में उन तमाम विसंगतियों और तथ्यात्मक भूलों की तरफ संकेत कराते हैं, जिनकी वजह से एक त्रुटिपूर्ण इतिहास की नींव रखी जा रही है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस विद्रोह का सही और समुचित मूल्यांकन के न होने के लिए जिस महत्त्वपूर्ण कारक का उल्लेख किया है वह सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने तमाम साक्ष्यों को रखकर स्थापना की है कि “जिस समाज ने चौरी चौरा विद्रोह का नेतृत्व किया, वह मूलतः दलित समाज ही था।” (पृष्ठ-९१) वे लिखते हैं, “चौरी चौरा के मूल्यांकन में अस्पृश्यता ने दशकों तक भारी भूमिका निभाई। कांग्रेस इस नतीजे पर पहुँची थी कि गोरखपुर के आसपास स्वयंसेवकों की भर्ती के समय उनके सामजिक स्तर का ख्याल नहीं रखे जाने से वैसा काण्ड हुआ।” (पृष्ठ-९३) चौरी चौरा के विद्रोह को गांधीजी ने गुंडों का कृत्य कहा। सुभाष चन्द्र कुशवाहा चौरी चौरा विद्रोह के बहाने उस साजिश की तरफ भी संकेत करते हैं जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन को कुछ जमींदारों, ऊँची जाति के लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया। किताब बहुत तर्कपूर्ण तरीके से गांधीजी के आन्दोलन और औचित्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। लेखक इस बात की तरफ अनेकशः ध्यान आकृष्ट कराता है कि गांधीजी के विरोधी और अनुयायी भी उनके सिद्धांतों के अंतर्विरोधों को पहचानते थे। उनका विरोध करने के बावजूद, “उनका चमत्कारी व्यक्तित्व जनता के दिलो दिमाग पर छाया हुआ था। वह (जनता) अपने सारे आन्दोलन महात्मा गांधी के नाम और नारों से ही करने लगी थी।, क्योंकि वह जानती थी कि इसी करिश्माई व्यक्तित्व ने देश को आंदोलित किया है।” (पृष्ठ- ४९)

चौरी चौरा स्मारक

          चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक इस किताब में सबसे रोचक, तार्किक लाग्ने वाला और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण किन्तु उलझाऊ अध्याय वह है, जिसमें 4 फरवरी, १९२२ की घटना के कारणों को खोजने की कवायद हुई है। उक्त तिथि को लगभग दो हजार लोगों के समूह ने थाना को फूंक दिया था और सिपाहियों को पीटकर मार डाला था तथा उन्हें आग में फेंक दिया था। सुभाष चन्द्र कुशवाहा बताते हैं कि इसका तात्कालिक कारण तो यह था कि सिर्फ दो दिन पहले थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने भगवान अहीर नामक एक स्वयंसेवक को बुरी तरह पीटा था, जिसके विरोध में लोग इकठ्ठा हो रहे थे। वे यह भी बताते हैं कि यह स्वतःस्फूर्त था लेकिन इस स्वतःस्फूर्तता में वे गांधीजी के असहयोग आन्दोलन की भूमिका भी बताते हैं। उनके दिए गए विवरण के अनुसार गांधी जी के इस असहयोग आन्दोलन वाले स्वरूप को कतिपय स्थानीय नेताओं ने अपनी व्याख्या से संचालित किया था और लोगों को इस स्वयंसेवक बनने के लिए डर और प्रलोभन भी दिया। स्वयंसेवक जहाँ बाजार में दारू की दुकानों पर पिकेटिंग करने के लिए कार्ययोजना बनाते थे वहीँ लोगों को यह भी बताते थे कि- “जब स्वराज आ जायेगा तो सभी स्वयंसेवकों को प्रति बीघा चार आना कर देना होगा और उसे आठ आना की आमदनी होगी।” (पृष्ठ- ९९) लेखक यह भी बताते हैं कि ०४ फरवरी को स्वयंसेवक जिस समूह के साथ चल रहे थे वह बहुत अहिंसक था और दारोगा के उकसाने तथा लाठी चार्ज करने से उत्तेजित हुआ था। फिर यह भी कि इस आन्दोलनकारी समूह पर गांधी जी के चमत्कारी व्यक्तित्व का प्रभाव कम था। यह सही है कि चौरी चौरा के विद्रोहियों का समूचा अभियान महज विरोध जताने के लिए था और वे शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात मनवाना चाहते थे लेकिन वहां इस तरह का घटनाक्रम हुआ कि जनता उत्तेजित हो गयी और हिंसा पर उतारू हो आई। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने लिखा है कि इस घटना के पीछे बरसों से सुलग रही उस चिनगारी को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए जो अंग्रेजी शासन और जमींदारों के अत्याचार से जनता के दिलो-दिमाग में सुलग रही थी।

          लेखक ने बहुत मार्मिक तरीके से बताया है कि चौरी चौरा के विद्रोहियों को असहाय अवस्था में छोड़ दिया गया और उन्हें न तो ठिकाने की कानूनी सहायता दी गयी और न ही उनकी रिहाई का समुचित प्रयास किया गया। यह कोशिश भी नहीं की गयी कि इस घटना के बाद जो पुलिसिया अत्याचार बढ़ा उसपर कोई प्रतिरोध दर्ज कराया जाए। इस घटना के बाद जिला कांग्रेस के सचिव, उपाध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी खिलाफत कमिटी के सदस्यों के साथ चौरी चौरा पहुँचे तो थे लेकिन लेखक के अनुसार, “आश्चर्य का विषय तो यह है कि जांचकर्ताओं और मौलवी सुभानुल्लाह ने एक बार भी स्वयंसेवकों से मिलने, उनका पक्ष जानने की आवश्यकता नहीं समझी। ०५ फ़रवरी को सुभानुल्लाह डुमरी खुर्द गाँव गए थे। वहां २०-२५ मिनट तक रुके भी लेकिन उन्होंने किसी से बात नहीं की थी।” लोग उस घटना के बाद न सिर्फ पुलिस के जुर्म से बल्कि अवसरवादियों के हाथों प्रताड़ित हुए। जमींदारों का खौफ और बढ़ा। यह तथ्य भी इस पुस्तक में उल्लेखित है कि इस घटना के बाद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विद्रोही स्वयंसेवकों से विलग ही रहने में अपनी भलाई समझता रहा। गांधी जी ने तो स्पष्ट रूप से माना था कि स्वयंसेवकों ने स्वराज के रास्ते में बाधा पहुंचाई है।

          चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक इस किताब में असहयोग आन्दोलन के स्थगित किये जाने के औचित्य पर प्रश्न उठाया गया है। लेखक ने साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी है कि असहयोग आन्दोलन स्थगित किये जाने का कारण दूसरा था। अंग्रेजों के साथ साथ स्वयं गांधी जी और तमाम जमींदार भी नहीं चाहते थे कि चौरी चौरा विद्रोह की आँच पूरे देश में धधके और अंग्रेजी हुकूमत को खतरा हो। लेखक के अनुसार “गांधीजी के असहयोग आन्दोलन से जमींदारों का नुक्सान हो रहा था। लगान देने या न देने से हिंसा नहीं हो रही थी। मामला उस वर्ग हित का था जिसको इस आन्दोलन से नुकसान हो रहा था और गांधी जी कतई नहीं चाहते थे कि जमींदारों के हितों पर कुठाराघात हो। कांग्रेसियों को इस बात  का अनुमान ही न था कि असहयोग आन्दोलन में जनता इतनी व्यग्रता से भाग लेगी कि जमींदारों को खतरा महसूस होने लगेगा।”

           चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक यह पुस्तक बहुत रोचक है और कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है। लेखक ने बहुत प्रतिबद्धता से इस बात को रखा है कि चौरी चौरा विद्रोह का मूल्यांकन इसलिए सही से नहीं किया गया और यह आन्दोलन इसीलिए सबके डर का कारक बना कि इसमें मुख्य भूमिका किसानों और दलितों की थी। फिर इतिहास को जिन स्वार्थों के तहत तैयार किया गया है वह भी ध्यातव्य है।

स्वाधीनता आंदोलन में जनप्रतिरोध की एक झलक

          आखिर में, इसी किताब में उल्लिखित इतिहास की न्यूनताओं को संज्ञान में रखकर यह कहना है कि देश का इतिहास फिर से लिखे जाने की आवश्यकता है ताकि उसमें सबको पर्याप्त स्थान मिल सके और उन सबकी भूमिकाओं का सही मूल्यांकन हो सके जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई किन्तु जिनके योगदान को रेखांकित नहीं किया गया। इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम सहज ही अनुमान कर पाते हैं कि लेखक ने सबाल्टर्न सिद्धांतों का उपयोग करते हुए इतिहास लेखन का प्रयास किया है। उनका एक विशेष कोण दलित और किसानों की भूमिका को रेखांकित करना है। कई बार ऐसा करते हुए उनके शब्द अति की सीमा तक पहुँच जाते हैं और दुर्भावना झलकने लगती है।

          अब जबकि चौरी चौरा की घटना शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रही है, तब ऐसी कृतियों का महत्त्व बढ़ जाता है। यह कृति लोगों को उकसाएगी कि वह स्वाधीनता आन्दोलन ही नहीं, इतिहास की बहुतेरी स्थापनाओं की जांच करें और उसके न्यून पक्षों का परिहार करते हुए सबल पक्षों को रेखांकित करें। हमें अपने देश का इतिहास नए सिरे से निर्मित करने की महती आवश्यकता है।

         

पुस्तक- चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन

लेखक- सुभाष चन्द्र कुशवाहा

पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली

मूल्य- २९९rs

 

समीक्षक- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com

 

बुधवार, 20 जनवरी 2021

“वाहे गुरुजी का खालसा/ वाहे गुरुजी की फतेह!”

 -डॉ रमाकान्त राय

गुरु गोविन्द सिंह गुरु तो हैं ही, महान योद्धा भी हैं। उन्होंने सिखों को संगठित किया। आजीवन औरंगजेब के अत्याचारी और क्रूर शासन के विरोध में सशस्त्र प्रतिरोधी रहे। उनकी "पंज प्यारे" की खोज अद्भुत है। सिखों के लिए पांच "क" अनिवार्य कर दिया। हर समुदाय के लोगों को एक मंच दिया। इस्लाम के खिलाफ बड़ी दीवार बना दी। इस्लाम समानता के समादृत सिद्धांत के साथ आया था और यह उसकी ताकत थी। गुरु गोविन्द सिंह ने उसे सिखों के समूह का मूल बना दिया। वहां सब सिंह हैं।

गुरु गोविन्द सिंह ने गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन किया। हिन्दी के कई संत कवियों की वाणी को संकलित किया। कबीर, दादू, रैदास आदि के पदों को शामिल किया। यह बहुत बड़ा काम था। वह कवि थे। उन्होंने भक्ति और शक्ति की कविताएं लिखी हैं। उनकी यह कविता तो जगत प्रसिद्ध है-

चिड़ियों से मैं बाज लडाऊं,

गीदड़ों को मैं शेर बनाऊ।

सवा लाख से एक लडाऊं

तभी गोबिंद सिंह नाम कहाउँ !!

वह संत थे लेकिन धज राजा की थी। वह कुशल घुड़सवार थे। उन्हें देखकर याद आता है कि संत योद्धा, संगठनकर्ता, सेनापति और शासक हो सकता है। उन्होंने सम्पत्ति के प्रति अनासक्ति नहीं दिखाई। लोकोपकारक कार्य बिना समृद्धि के नहीं आ सकती। और इसके लिए कर्मवीर होना आवश्यक है।

गुरु गोविंद सिंह

उन्होंने सिखों को कर्मवीर होने के लिए प्रवृत्त किया। हमारे समाज में यह सहज धारणा है कि सिख भीख नहीं मांगता। गुरुद्वारों में अहर्निश चलने वाला लंगर उनके भोजन की आवश्यकता पूरी कर देता है। उन्होंने सिखों को श्रम का महत्त्व बताया। कोई काम छोटा नहीं होता। खूब धनी सिख, गुरुद्वारों में दर्शनार्थियों के जूता सहेजता, लंगर के उपरांत जूठा हुए बर्तन साफ करता दिख जाता है। यह "सेवा" का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को सिखाया।

गुरु गोविंद सिंह का योगदान क्या था? बुल्ले शाह, जो बहुत प्रसिद्ध सूफी कवि थे, ने अपनी एक कविता में लिखा है-

            मैं अतीत की बात नहीं कहता

            मैं वर्तमान की बात करता हूँ

            यदि गुरु गोविन्द सिंह नहीं होते

            हर व्यक्ति तब मुस्लिम होता।

मूल पंजाबी पाठ

            ना कहूँ जब की, ना कहूँ तब की,

            बात कहूँ मैं अब की,

            अगर ना होते गुरु गोविन्द सिंह,

            सुन्नत होती सभ की।

          गुरु गोविंद सिंह ने तलवार के बल पर चल रहे धर्मांतरण को रोकने के लिए सशस्त्र बल बनाया। सिखों को लड़ाकू बनाया। उन्हें कृपाण रखना और उसका उपयोग करना सिखाया। कृपाण उन पाँच क में से एक है, जिसे सिखों द्वारा धारण करना अनिवार्य कर दिया गया था। यह अस्त्र आत्मरक्षा और निर्बल, असहाय की रक्षा का उपकरण है। यह मन में विश्वास भरता है, आत्मनिर्भर बनाता है।

          महान योद्धा और रक्षक गुरु गोविंद सिंह तरल, सरल हृदय के संत थे। ईश्वर के अनन्य भक्त थे। खालसा पंथ की स्थापना ने उन्हें इतिहास का अमर पुरुष बना दिया।

                    “वाहे गुरुजी का खालसा

                    वाहे गुरुजी की फतेह!”

गुरु गोविंद सिंह की जयंती पर पुण्य स्मरण!

प्रस्तुत है गुरु गोविंद सिंह के दो पद-

(1)

          कोऊ भयो मुंडिया संनियासी कोऊ जोगी भयो कोई ब्रह्मचारी कोऊ जती अनुमानबो।

          हिन्दू-तुरक कोऊ राफजी इमाम साफ़ी मानस की जात सबै एकै पहचानबो।

          करता करीम सोई राजक रहीम ओई दूसरों न भेद कोई भूल भ्रम मानबो।

          एक ही की सेव सब ही को गुरुदेव, एक एक ही सरूप सबै एकै जोत जानबो॥

(2)

          देहरा मसीत सोई पूजा और निवाज ओई मानस सबै एक पै अनेक को भ्रमाउ है।

          देवता अदेव जच्छ गंधरब तुरक हिन्दु निआरे निआरे देसन के भेस को प्रभाउ है।

          एके नैन एके कान एके देह एके बान खाक बाद आतस और आब को रलाउ है।

          अलह अभेख सोई पुरान और कुरान ओई एक ही सरूप सबै एक ही बनाउ है॥



असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


सद्य: आलोकित!

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