मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

कथावार्ता : नायक जिन्हें भुला दिया गया - महाराजा सुहेलदेव

-डॉ रमाकान्त राय 

आज महाराजा सुहेलदेव राजभर की जयंती है। महाराजा सुहेलदेव का जन्म बहराइच में बसंत पंचमी के दिन 990 ई0 में हुआ था। वह सन 1027 ई0 से 1077 ई0 तक श्रावस्ती के राजा रहे। सुहेलदेव ने सन 1034ई0 में बहराइच में गाजी सालार मसूद को बुरी तरह परास्त किया था। इस युद्ध में उनकी सहायता कई छोटे छोटे राजाओं ने की थी। गाजी सालार मसूद महमूद गजनवी का भांजा था जो गजनवी के गजनी लौटने के बाद अभियान का नेतृत्व कर रहा था। आज बहराइच में गाज़ी की मजार है जबकि सुहेलदेव का नाम भी कुछ साल पहले तक कोई नहीं जानता था।

महाराजा सुहेलदेव राजभर

महाराजा सुहेलदेव राजभर ने आजीवन लोक की रक्षा की, आम जन और स्त्रियों के शील की रक्षा के लिए युद्ध किए और गाज़ी सालार मसूद को परास्त किया।

जब फिरोज तुगलक शासक बना तो उसने सुहेलदेव के स्मारक नष्ट कर दिए और गाजी को पीर औलिया बना दिया। फिर जब देश का इतिहास लिखा जाने लगा तो राजभर (सुहेलदेव), पासी (महाराजा बिजली पासी), खरवार (सोनभद्र में इनके वंशज हैं), गोंड (गोडवाना लैंड एक विस्तृत क्षेत्र है), यादव (लोरिक) आदि जातियों को सांस्कृतिक संदर्भ से विच्छिन्न कर दिया। अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' में तालाब के निर्माण की भूमिका के क्रम में मुसहर लोगों का उल्लेख किया है और बताया है कि मुसहर समाज में “चोहरमल उनके एक शक्तिशाली नेता थे किसी समय”। उनकी पुस्तक के तीसरे अध्याय संसार सागर के नायक में ऐसे कई समुदायों का वृतांत मिलता है।

देश की एक बड़ी आबादी को बताया कि तुम महज शासित रहे हो और सदा सर्वदा से वंचित। समुदायों में फूट डालने का सफल प्रयास हुआ। लोगों में वैमनस्यता बढ़ाने के उपक्रम हुए और फिर वर्तमान धारणा बनी।महाराजा सुहेलदेव उस धारणा के विपरित एक ज्वलंत नाम है। जो शासन की क्षमता रखता है- वही राजा है।

सुहेलदेव का राज्य बनारस, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़ तक विस्तृत था। कहा जाता है कि बनारस का प्रसिद्ध राजातालाब महाराजा सुहेलदेव राजभर ने बनवाया था। वह प्रजावत्सल शासक और महान योद्धा थे।

भारत सरकार ने वर्ष 2018 में उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया था। वर्ष 2016 में भारतीय रेलवे ने महाराजा सुहेलदेव एक्सप्रेस नामक एक रेलगाड़ी चलाई जो नई दिल्ली और गाजीपुर को जोड़ती है। वर्ष 2021 में महाराजा सुहेलदेव के विजय स्थल पर स्मारक बनाया जा रहा है और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा उनके योगदान को याद किया जा रहा है। डॉ निगम मौर्य लिखते हैं- अपने नायकों को सम्मान देना व आने पीढ़ियों को उनसे परिचित कराना भी एक जागरूक व गर्वित समाज का कर्तव्य है। यह एक अच्छी शुरुआत है।हमें उन नायकों को वह सम्मान देना ही चाहिए जो कुछ लोगो की कुत्सित चालों के फलस्वरूप इतिहास के पन्नो से गायब हो गए

          उनकी जयंती पर भावपूर्ण स्मरण।

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

कथावार्ता : चौरी-चौरा प्रतिरोध के सौ वर्ष और इतिहास की गुत्थियाँ

इतिहास लेखन एक चुनौती है। इसलिए कि इसे निरपेक्ष होकर नहीं लिखा जा सकता है और उपलब्ध संसाधनों और तथ्यों का पाठ कभी भी इतना वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता कि घटना की वास्तविकता को ज्यों का त्यों रख सके। फिर लिखे हुए कि भी एक सीमा है। उसके पाठ की और अंतर्पाठ की भी। यह और कठिन तब हो जाता है जब हम एक औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए हों। औपनिवेशिक शासन अपनी सत्ता को वैध बनाने और स्थायित्व देने के लिए कई तरह के छल-छद्म रचता है। उसमें एक है, घटनाओं को प्रस्तुत करने का औपनिवेशिक तरीका। इस तरीके में सत्ता विरोधी घटनाएँ इस स्याही से लिखी जाती हैं कि उनकी कालिमा मिटाने में तथ्यों के अंतर्पाठ भी सहायक नहीं हो पाते। औपनिवेशिक शासन अपने लिए इतिहासकारों को गढ़ता है ताकि वे उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर सकें।

भारत में इतिहास लेखन का एक दूसरा पहलू यह है कि इसे कांग्रेसी सरकारों ने अपने मनमुताबिक करवाया। हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा है कि इस देश के मुक्ति का संग्राम लड़ने वाली अग्रणी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने मूल चरित्र में जनविरोधी रही है। इसकी स्थापना ही अंग्रेजी सत्ता के लिए सेफ्टी वाल्व के उद्देश्य से हुई। इस पार्टी में जमींदारों, रजवाड़े और सत्ता के लोलुप अवसरवादी भरे हुए थे। जिन महात्मा गांधी के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने इस पार्टी को आमजन से जोड़ा, उन महात्मा गांधी का मूल रुझान भी बहुत जनवादी नहीं था। वे व्यवस्था के पोषक चरित्रों में से एक थे। जमींदारों और पूंजीपतियों के लिए ट्रस्टीशिप वाला उनका सिद्धांत कोई परिवर्तनकामी नहीं था। इस तरह से देश का इतिहास कांग्रेसी इतिहास बन कर रह गया। इसके उलट वामपंथी इतिहास सबाल्टर्न और जनवादी होने के अतिशय आग्रह में भी उस तरह का नहीं रह गया है जिसे स्वीकार्य कहा जा सके। राष्ट्रवादियों का इतिहास लेखन तो अतीत के स्वर्णिम नास्टेल्जिया में उलझ जाता है। इस तरह देश में कम से कम चार तरह के इतिहास बनते हैं। औपनिवेशिक, कांग्रेसी, वामपंथी और राष्ट्रवादी। इसमें अपनी मान्यता के लिए सबसे अधिक संघर्ष राष्ट्रवादी इतिहासकार करते हैं। यही कारण है कि जब इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएं जब खतरे में पड़ती हैं या आधी अधूरी-अधकचरी सिद्ध होने लगती हैं तो राष्ट्रवादी इतिहासकार इतिहास के पुनर्लेखन की मांग करने लगते हैं। इसके अलावा एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इतिहास के लिए और आधुनिक इतिहास के लिए उपलब्ध अधिकांश सामग्री भी उस मनोयोग और श्रमसाध्य तरीके से उपयोग में नहीं लाई जाती कि कम से कम तथ्य और घटनाएं सही हों।

इतिहास के साथ एक समस्या यह भी है, जिसे साहित्य के साथ रखकर अक्सर कहा जाता है कि साहित्य में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब सही होता है और इतिहास में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब गलत। बहस में आगे न बढ़ते हुए सुभाष चन्द्र कुशवाहा की किताब “चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन” पर बात की जाए जो चौरी चौरा मसले का विधिवत, तथ्य सहित और बहुत परिश्रम से तैयार किये हुए इतिहास पर गवेषणापूर्वक बात करती है। किस्सागोई की हद तक की रोचक यह किताब बहुत गहराई से जाँच पड़ताल करती है और कई पुरानी मान्यताओं पर प्रश्न खड़े करती है।

चौरी-चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन

          चौरी चौरा का स्वाधीनता आन्दोलन इतिहास की उन चुनिन्दा घटनाओं में से एक है, जिसके मूल्यांकन में इतिहासकार चूक गए हैं। कई ऐतिहासिक स्मारक स्थलों, अभिलेखों और प्रस्तुतियों में इस घटना का जो विवरण दर्ज है वह सच्चाई को तोड़ता-मरोड़ता है। कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक पुस्तक में चौरी चौरा विद्रोह के पहलुओं का बहुत विचारोत्तेजक और हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस पुस्तक में बताया है कि उन्होंने इसे तैयार करने में तमाम उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रयोग किया है और उनका साम्य बिठाने और तर्क आधारित व्याख्या करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्होंने न सिर्फ सरकारी, गैरसरकारी तथ्यों का अपितु स्थानीय साक्ष्यों का प्रयोग भी किया है। इस पुस्तक के निर्माण में उन्होंने चौरी चौरा स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों के परिजनों से मिलकर उन सूत्रों को गूंथने की कोशिश की है, जो इतिहास और तत्कालीन सरकारी दमन तथा दूर दराज के क्षेत्रों में बैठकर गढ़ने में ओझल कर दिया गया है।

          चौरी चौरा स्वाधीनता संघर्ष इतिहास की एक बहुत चर्चित घटना है जिसमें दिनांक ०४ फ़रवरी, १९२२ को चौरी चौरा थाना, जिला गोरखपुर, को २४ सिपाहियों समेत लगभग २००० ग्रामीणों ने फूंक दिया था। इस घटना से भारतीय इतिहास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पन्ना जुड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि इस घटना में हुई हिंसा के फलस्वरूप क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस आन्दोलन ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी और अगर वह आन्दोलन चलता रहता तो देश को स्वाधीनता उसी के आसपास मिल गयी होती।

चौरी चौरा विद्रोह की स्मृति

          सुभाष चन्द्र कुशवाहा अपनी पुस्तक में उन तमाम विसंगतियों और तथ्यात्मक भूलों की तरफ संकेत कराते हैं, जिनकी वजह से एक त्रुटिपूर्ण इतिहास की नींव रखी जा रही है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस विद्रोह का सही और समुचित मूल्यांकन के न होने के लिए जिस महत्त्वपूर्ण कारक का उल्लेख किया है वह सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने तमाम साक्ष्यों को रखकर स्थापना की है कि “जिस समाज ने चौरी चौरा विद्रोह का नेतृत्व किया, वह मूलतः दलित समाज ही था।” (पृष्ठ-९१) वे लिखते हैं, “चौरी चौरा के मूल्यांकन में अस्पृश्यता ने दशकों तक भारी भूमिका निभाई। कांग्रेस इस नतीजे पर पहुँची थी कि गोरखपुर के आसपास स्वयंसेवकों की भर्ती के समय उनके सामजिक स्तर का ख्याल नहीं रखे जाने से वैसा काण्ड हुआ।” (पृष्ठ-९३) चौरी चौरा के विद्रोह को गांधीजी ने गुंडों का कृत्य कहा। सुभाष चन्द्र कुशवाहा चौरी चौरा विद्रोह के बहाने उस साजिश की तरफ भी संकेत करते हैं जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन को कुछ जमींदारों, ऊँची जाति के लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया। किताब बहुत तर्कपूर्ण तरीके से गांधीजी के आन्दोलन और औचित्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। लेखक इस बात की तरफ अनेकशः ध्यान आकृष्ट कराता है कि गांधीजी के विरोधी और अनुयायी भी उनके सिद्धांतों के अंतर्विरोधों को पहचानते थे। उनका विरोध करने के बावजूद, “उनका चमत्कारी व्यक्तित्व जनता के दिलो दिमाग पर छाया हुआ था। वह (जनता) अपने सारे आन्दोलन महात्मा गांधी के नाम और नारों से ही करने लगी थी।, क्योंकि वह जानती थी कि इसी करिश्माई व्यक्तित्व ने देश को आंदोलित किया है।” (पृष्ठ- ४९)

चौरी चौरा स्मारक

          चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक इस किताब में सबसे रोचक, तार्किक लाग्ने वाला और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण किन्तु उलझाऊ अध्याय वह है, जिसमें 4 फरवरी, १९२२ की घटना के कारणों को खोजने की कवायद हुई है। उक्त तिथि को लगभग दो हजार लोगों के समूह ने थाना को फूंक दिया था और सिपाहियों को पीटकर मार डाला था तथा उन्हें आग में फेंक दिया था। सुभाष चन्द्र कुशवाहा बताते हैं कि इसका तात्कालिक कारण तो यह था कि सिर्फ दो दिन पहले थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने भगवान अहीर नामक एक स्वयंसेवक को बुरी तरह पीटा था, जिसके विरोध में लोग इकठ्ठा हो रहे थे। वे यह भी बताते हैं कि यह स्वतःस्फूर्त था लेकिन इस स्वतःस्फूर्तता में वे गांधीजी के असहयोग आन्दोलन की भूमिका भी बताते हैं। उनके दिए गए विवरण के अनुसार गांधी जी के इस असहयोग आन्दोलन वाले स्वरूप को कतिपय स्थानीय नेताओं ने अपनी व्याख्या से संचालित किया था और लोगों को इस स्वयंसेवक बनने के लिए डर और प्रलोभन भी दिया। स्वयंसेवक जहाँ बाजार में दारू की दुकानों पर पिकेटिंग करने के लिए कार्ययोजना बनाते थे वहीँ लोगों को यह भी बताते थे कि- “जब स्वराज आ जायेगा तो सभी स्वयंसेवकों को प्रति बीघा चार आना कर देना होगा और उसे आठ आना की आमदनी होगी।” (पृष्ठ- ९९) लेखक यह भी बताते हैं कि ०४ फरवरी को स्वयंसेवक जिस समूह के साथ चल रहे थे वह बहुत अहिंसक था और दारोगा के उकसाने तथा लाठी चार्ज करने से उत्तेजित हुआ था। फिर यह भी कि इस आन्दोलनकारी समूह पर गांधी जी के चमत्कारी व्यक्तित्व का प्रभाव कम था। यह सही है कि चौरी चौरा के विद्रोहियों का समूचा अभियान महज विरोध जताने के लिए था और वे शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात मनवाना चाहते थे लेकिन वहां इस तरह का घटनाक्रम हुआ कि जनता उत्तेजित हो गयी और हिंसा पर उतारू हो आई। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने लिखा है कि इस घटना के पीछे बरसों से सुलग रही उस चिनगारी को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए जो अंग्रेजी शासन और जमींदारों के अत्याचार से जनता के दिलो-दिमाग में सुलग रही थी।

          लेखक ने बहुत मार्मिक तरीके से बताया है कि चौरी चौरा के विद्रोहियों को असहाय अवस्था में छोड़ दिया गया और उन्हें न तो ठिकाने की कानूनी सहायता दी गयी और न ही उनकी रिहाई का समुचित प्रयास किया गया। यह कोशिश भी नहीं की गयी कि इस घटना के बाद जो पुलिसिया अत्याचार बढ़ा उसपर कोई प्रतिरोध दर्ज कराया जाए। इस घटना के बाद जिला कांग्रेस के सचिव, उपाध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी खिलाफत कमिटी के सदस्यों के साथ चौरी चौरा पहुँचे तो थे लेकिन लेखक के अनुसार, “आश्चर्य का विषय तो यह है कि जांचकर्ताओं और मौलवी सुभानुल्लाह ने एक बार भी स्वयंसेवकों से मिलने, उनका पक्ष जानने की आवश्यकता नहीं समझी। ०५ फ़रवरी को सुभानुल्लाह डुमरी खुर्द गाँव गए थे। वहां २०-२५ मिनट तक रुके भी लेकिन उन्होंने किसी से बात नहीं की थी।” लोग उस घटना के बाद न सिर्फ पुलिस के जुर्म से बल्कि अवसरवादियों के हाथों प्रताड़ित हुए। जमींदारों का खौफ और बढ़ा। यह तथ्य भी इस पुस्तक में उल्लेखित है कि इस घटना के बाद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विद्रोही स्वयंसेवकों से विलग ही रहने में अपनी भलाई समझता रहा। गांधी जी ने तो स्पष्ट रूप से माना था कि स्वयंसेवकों ने स्वराज के रास्ते में बाधा पहुंचाई है।

          चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक इस किताब में असहयोग आन्दोलन के स्थगित किये जाने के औचित्य पर प्रश्न उठाया गया है। लेखक ने साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी है कि असहयोग आन्दोलन स्थगित किये जाने का कारण दूसरा था। अंग्रेजों के साथ साथ स्वयं गांधी जी और तमाम जमींदार भी नहीं चाहते थे कि चौरी चौरा विद्रोह की आँच पूरे देश में धधके और अंग्रेजी हुकूमत को खतरा हो। लेखक के अनुसार “गांधीजी के असहयोग आन्दोलन से जमींदारों का नुक्सान हो रहा था। लगान देने या न देने से हिंसा नहीं हो रही थी। मामला उस वर्ग हित का था जिसको इस आन्दोलन से नुकसान हो रहा था और गांधी जी कतई नहीं चाहते थे कि जमींदारों के हितों पर कुठाराघात हो। कांग्रेसियों को इस बात  का अनुमान ही न था कि असहयोग आन्दोलन में जनता इतनी व्यग्रता से भाग लेगी कि जमींदारों को खतरा महसूस होने लगेगा।”

           चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक यह पुस्तक बहुत रोचक है और कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है। लेखक ने बहुत प्रतिबद्धता से इस बात को रखा है कि चौरी चौरा विद्रोह का मूल्यांकन इसलिए सही से नहीं किया गया और यह आन्दोलन इसीलिए सबके डर का कारक बना कि इसमें मुख्य भूमिका किसानों और दलितों की थी। फिर इतिहास को जिन स्वार्थों के तहत तैयार किया गया है वह भी ध्यातव्य है।

स्वाधीनता आंदोलन में जनप्रतिरोध की एक झलक

          आखिर में, इसी किताब में उल्लिखित इतिहास की न्यूनताओं को संज्ञान में रखकर यह कहना है कि देश का इतिहास फिर से लिखे जाने की आवश्यकता है ताकि उसमें सबको पर्याप्त स्थान मिल सके और उन सबकी भूमिकाओं का सही मूल्यांकन हो सके जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई किन्तु जिनके योगदान को रेखांकित नहीं किया गया। इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम सहज ही अनुमान कर पाते हैं कि लेखक ने सबाल्टर्न सिद्धांतों का उपयोग करते हुए इतिहास लेखन का प्रयास किया है। उनका एक विशेष कोण दलित और किसानों की भूमिका को रेखांकित करना है। कई बार ऐसा करते हुए उनके शब्द अति की सीमा तक पहुँच जाते हैं और दुर्भावना झलकने लगती है।

          अब जबकि चौरी चौरा की घटना शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रही है, तब ऐसी कृतियों का महत्त्व बढ़ जाता है। यह कृति लोगों को उकसाएगी कि वह स्वाधीनता आन्दोलन ही नहीं, इतिहास की बहुतेरी स्थापनाओं की जांच करें और उसके न्यून पक्षों का परिहार करते हुए सबल पक्षों को रेखांकित करें। हमें अपने देश का इतिहास नए सिरे से निर्मित करने की महती आवश्यकता है।

         

पुस्तक- चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन

लेखक- सुभाष चन्द्र कुशवाहा

पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली

मूल्य- २९९rs

 

समीक्षक- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com

 

बुधवार, 20 जनवरी 2021

“वाहे गुरुजी का खालसा/ वाहे गुरुजी की फतेह!”

 -डॉ रमाकान्त राय

गुरु गोविन्द सिंह गुरु तो हैं ही, महान योद्धा भी हैं। उन्होंने सिखों को संगठित किया। आजीवन औरंगजेब के अत्याचारी और क्रूर शासन के विरोध में सशस्त्र प्रतिरोधी रहे। उनकी "पंज प्यारे" की खोज अद्भुत है। सिखों के लिए पांच "क" अनिवार्य कर दिया। हर समुदाय के लोगों को एक मंच दिया। इस्लाम के खिलाफ बड़ी दीवार बना दी। इस्लाम समानता के समादृत सिद्धांत के साथ आया था और यह उसकी ताकत थी। गुरु गोविन्द सिंह ने उसे सिखों के समूह का मूल बना दिया। वहां सब सिंह हैं।

गुरु गोविन्द सिंह ने गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन किया। हिन्दी के कई संत कवियों की वाणी को संकलित किया। कबीर, दादू, रैदास आदि के पदों को शामिल किया। यह बहुत बड़ा काम था। वह कवि थे। उन्होंने भक्ति और शक्ति की कविताएं लिखी हैं। उनकी यह कविता तो जगत प्रसिद्ध है-

चिड़ियों से मैं बाज लडाऊं,

गीदड़ों को मैं शेर बनाऊ।

सवा लाख से एक लडाऊं

तभी गोबिंद सिंह नाम कहाउँ !!

वह संत थे लेकिन धज राजा की थी। वह कुशल घुड़सवार थे। उन्हें देखकर याद आता है कि संत योद्धा, संगठनकर्ता, सेनापति और शासक हो सकता है। उन्होंने सम्पत्ति के प्रति अनासक्ति नहीं दिखाई। लोकोपकारक कार्य बिना समृद्धि के नहीं आ सकती। और इसके लिए कर्मवीर होना आवश्यक है।

गुरु गोविंद सिंह

उन्होंने सिखों को कर्मवीर होने के लिए प्रवृत्त किया। हमारे समाज में यह सहज धारणा है कि सिख भीख नहीं मांगता। गुरुद्वारों में अहर्निश चलने वाला लंगर उनके भोजन की आवश्यकता पूरी कर देता है। उन्होंने सिखों को श्रम का महत्त्व बताया। कोई काम छोटा नहीं होता। खूब धनी सिख, गुरुद्वारों में दर्शनार्थियों के जूता सहेजता, लंगर के उपरांत जूठा हुए बर्तन साफ करता दिख जाता है। यह "सेवा" का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को सिखाया।

गुरु गोविंद सिंह का योगदान क्या था? बुल्ले शाह, जो बहुत प्रसिद्ध सूफी कवि थे, ने अपनी एक कविता में लिखा है-

            मैं अतीत की बात नहीं कहता

            मैं वर्तमान की बात करता हूँ

            यदि गुरु गोविन्द सिंह नहीं होते

            हर व्यक्ति तब मुस्लिम होता।

मूल पंजाबी पाठ

            ना कहूँ जब की, ना कहूँ तब की,

            बात कहूँ मैं अब की,

            अगर ना होते गुरु गोविन्द सिंह,

            सुन्नत होती सभ की।

          गुरु गोविंद सिंह ने तलवार के बल पर चल रहे धर्मांतरण को रोकने के लिए सशस्त्र बल बनाया। सिखों को लड़ाकू बनाया। उन्हें कृपाण रखना और उसका उपयोग करना सिखाया। कृपाण उन पाँच क में से एक है, जिसे सिखों द्वारा धारण करना अनिवार्य कर दिया गया था। यह अस्त्र आत्मरक्षा और निर्बल, असहाय की रक्षा का उपकरण है। यह मन में विश्वास भरता है, आत्मनिर्भर बनाता है।

          महान योद्धा और रक्षक गुरु गोविंद सिंह तरल, सरल हृदय के संत थे। ईश्वर के अनन्य भक्त थे। खालसा पंथ की स्थापना ने उन्हें इतिहास का अमर पुरुष बना दिया।

                    “वाहे गुरुजी का खालसा

                    वाहे गुरुजी की फतेह!”

गुरु गोविंद सिंह की जयंती पर पुण्य स्मरण!

प्रस्तुत है गुरु गोविंद सिंह के दो पद-

(1)

          कोऊ भयो मुंडिया संनियासी कोऊ जोगी भयो कोई ब्रह्मचारी कोऊ जती अनुमानबो।

          हिन्दू-तुरक कोऊ राफजी इमाम साफ़ी मानस की जात सबै एकै पहचानबो।

          करता करीम सोई राजक रहीम ओई दूसरों न भेद कोई भूल भ्रम मानबो।

          एक ही की सेव सब ही को गुरुदेव, एक एक ही सरूप सबै एकै जोत जानबो॥

(2)

          देहरा मसीत सोई पूजा और निवाज ओई मानस सबै एक पै अनेक को भ्रमाउ है।

          देवता अदेव जच्छ गंधरब तुरक हिन्दु निआरे निआरे देसन के भेस को प्रभाउ है।

          एके नैन एके कान एके देह एके बान खाक बाद आतस और आब को रलाउ है।

          अलह अभेख सोई पुरान और कुरान ओई एक ही सरूप सबै एक ही बनाउ है॥



असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


तांडव : हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।

-----__-डॉ रमाकान्त राय

चौतरफा निन्दा, विरोध-प्रदर्शन और विभिन्न राज्य सरकारों, विशेषकर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज कराने के बाद इस सीरीज के निर्माता निर्देशक अली अब्बास जफर ने क्षमा मांगी है और कहा है कि इस वेबसीरीज के विवादित अंशों को हटा दिया जाएगा।

          सबसे पहले तांडव पर धार्मिक भावनाएं भड़काने, हिन्दू देवताओं के बारे में घटिया प्रस्तुति करने का आरोप लगा और जब यह रिलीज हुई तो देखा गया कि इस फिल्म में लगभग हर वह विषय उठाया गया है जिससे संवेदनशील और देश को प्यार करने वाले लोग उत्तेजित हों और इसकी चौतरफा निन्दा करें। इसके साथ ही लिबरल्स और कुछ स्वघोषित एक्टिविस्टों को लामबंद कर लिया गया है कि वह इसका समर्थन करें।

          तांडव अपने उद्देश्य में सफल रही है और इस बहाने से इस वेबसीरीज़ को पर्याप्त दर्शक मिल गए हैं, जबकि यह एक घटिया, बेसिरपैर की कहानी वाली, अतार्किक और वाहियात वेबसीरीज़ है। imdb पर इसे 10 में 3.4 अंक मिला है, जो इसके स्तर का सहज परिचायक है।

          तांडव का पहला एपिसोड तानाशाह ही कई विवादित विषयों को छू लेता है। किसान आंदोलन, मुस्लिम समुदाय के लड़कों का एनकाउंटर, पुलिस की मिली भगत, जेएनयू आजादी विवाद, कैम्पस में पुलिस का प्रवेश और तोड़फोड़, राजनीति में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और चुनाव के तिकड़म आदि-आदि। सैफ अली खान के रूप में जो युवा नेता उभरता है, वह अपने दो बार प्रधानमंत्री रह चुके पिता का हत्यारा है। कौन हो सकता है यह चरित्र? भारतीय राजनीति के तमाम घटनाक्रमों को एक साथ रखकर देखें तो यह समझ में आ जाता है कि किसने राजीव गांधी की हत्या करवाई, फिल्म में आई अनुराधा किशोर कौन है, उसका पुत्र जो अफीमची है, उसकी लत का सम्बन्ध किस राजनेता से है। सैफ अली खान किस राजनेता का कितना अंश लेकर चलता है। लेकिन कई घटनाक्रमों को इस तरह से फेंट दिया गया है कि सब गड्डमड्ड हो गया है। वैसे इस वेबसीरीज़ को देखते हुए जिन्हें वास्तव में शर्मसार होना चाहिए, जाने कैसी विवशता है कि वह समर्थन में हैं। जॉन एलिया का शेर है- "हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।"

#तांडव

तांडव के आरंभ में ही प्रधानमंत्री अंजनी यह स्वीकार करते हैं कि अपने कार्यकाल में हमने लोगों को बांटने के लिए गलतियां की हैं लेकिन "तानाशाही" नहीं की। अगर उनका पुत्र समर प्रताप सिंह नेता बना तो वह तानाशाह बनेगा और "लोकतंत्र खत्म कर देगा"। और फिर चुनाव परिणाम घोषित होने के पूर्व ही समर प्रताप सिंह अपने पिता को एक ऐसा जहर देकर मार देता है, जिसका अवशेष पोस्ट मार्टम में भी नहीं मिलता। फिर सत्ता का तिकड़मी संघर्ष आरंभ होता है, जिसमें अनुराधा किशोर हावी हो जाती है।

          सत्ता के तिकड़मी संघर्षों के समानान्तर देश के सबसे चर्चित विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (वेब सीरीज में विवेकानन्द विश्वविद्यालय) में छात्रसंघ की राजनीति और लड़कीबाजी आदि फीस वृद्धि  जैसे जन सरोकार के मुद्दों की छौंक के साथ चलती है। वस्तुतः निर्देशक और कथाकार दिग्भ्रमित है कि उसे किस प्रकरण को हाईलाइट करना है। इसलिए किसानों के आंदोलन और दो मुसलिम युवकों के सत्ता प्रायोजित हत्या के प्रतिरोध में उभरे शिवा को छात्रनेता के रूप में चुनाव, हिंसा, सेक्स आदि का आइकन बनवाया गया है। वह यूपीएससी करना चाहता था किन्तु सत्ता के शीर्ष पर बैठा समर प्रताप उसे बताता है कि मंत्री बनकर वह आदेश देगा और नियंत्रित करेगा जबकि अफसर बनकर आदेश सुनेगा और उनका अनुपालन करवाएगा। शिवा नेता बनना स्वीकार करता है किन्तु वह निश्चित करता है कि वह एक नए दल का निर्माण करेगा। उसके नए दल का नाम है- तांडव।

          संसदीय लोकतन्त्र की प्रणाली, मंत्रिमण्डल का गठन, शासन और सत्ता की कार्यप्रणाली, तथा छात्रसंघ चुनाव, संगठन का काम, आंदोलन, संघर्ष आदि के तमाम विषय इस सीरीज में इतना सतही तरीके से आया है कि एकबारगी लगता नहीं कि इसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। निर्देशक अली अब्बास जफर की बौद्धिक क्षमता तो पप्पू सरीखी है, इसलिए उसपर कोई बात करने का मतलब नहीं। हम अभिनेताओं से भी इसकी अपेक्षा नहीं करते हालांकि उन्हें इतनी बुनियादी बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। छात्रसंघ के चुनाव में प्रक्रियागत जो त्रुटियाँ हैं, अगर उन्हें उपेक्षित भी कर दिया जाये तो भी यह बात बहुत खटकती है कि सभी छात्रनेता अपने भाषण में विश्वविद्यालय की जगह “कालेज” की बात करते हैं, जैसे कालेज की फीस नहीं बढ़ने देंगे, कालेज में सीट कटौती नहीं होने देंगे आदि। छात्रसंघ के अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाला कालेज की बात कर रहा है, इसका सीधा आशय यह है कि पात्र अपने कैरेक्टर से कितना दूर हैं।

तांडव : हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।

          तांडव से जुड़े हुए सभी कलाकार, निर्देशक, कथाकार आदि सांस्कृतिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनपर तरस आता है। शिवा का वीएनयू के सांस्कृतिक केंद्र में नाट्यप्रस्तुति के दौरान शिव और राम का संवाद हो अथवा हत्या के समय टीवी के बड़े स्क्रीन पर चल रहा प्रवचन, सब पिष्टपेषण प्रतीत होता है। निर्देशक इतना लल्लू है कि मृत्यु के बाद अस्थियाँ विसर्जित करने की क्रिया के फिल्मांकन में सुनील गोबर द्वारा अन्त्येष्टि स्थल से बाकायदा हड्डी निकलवाता है। अली अब्बास जफर अथवा टीम का कोई भी सदस्य इस संस्कार के बारे में नहीं जानता, यह पक्का है। इसमें चाणक्य नीति को ऐसे समझा गया है जैसे वह लौंडे-लफाड़ियों का काम है। दलित अस्मिता को भी फूहड़ तरीके से पेश किया गया है।

          इस एपिसोड में स्थानों के नाम ऐसे रखे गए हैं कि आसानी से चिह्नित किए जा सकें। मसलन जेएनयू को वीएनयू, गोमतीनगर को बोमती नगर, एम्स और सीएनएन के लिए भी ऐसे ही मिलते जुलते नाम रखे गए हैं ताकि आसानी से उनका साम्य स्थापित किया जा सके। लेकिन खान मार्किट मेट्रो स्टेशन को ज्यों का त्यों रहने दिया गया है। यह सब एक कूटनीति के तहत हुआ है ताकि एजेण्डा सेट किया जा सके।

          इस वेब सीरीज में दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र दलित अस्मिता, छात्र राजनीति, यूपीए का शासन, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वर्तमान शासन, पुलिस, प्राध्यापक, चिकित्सकों आदि सब पर भोंडा व्यंग्य किया गया है और उनका न सिर्फ सरलीकरण किया गया बल्कि लोगों को भी अव्वल दर्जे का अहमक़ मानकर फिल्मांकन हुआ है। इस सोच के साथ कि औसत से नीचे का व्यक्ति शासन, सत्ता, तिकड़म, विश्वविद्यालय, छात्रसंघ, आंदोलन, सोशल मीडिया, हत्या आदि को ऐसे ही कृत्रिम तरीके से सोचता है और जानता है कि चीजें बहुत सपाट तरीके से चलती जाती हैं। जबकि जीवन इतना सरल और एकरेखीय नहीं है।

          तांडव बनाते हुए निर्देशक और टीम के लोगों का उद्देश्य ही था कि इसे विवादग्रस्त करना है, अतः इसे 18+ के प्रमाणपत्र के साथ लिया गया। जबकि इसमें हिंसा, सेक्स आदि के वैसे कंटेन्ट नहीं हैं। अलबत्ता अनावश्यक दृश्य अवश्य हैं। धूमपान और शराबखोरी को अनावश्यक फुटेज दी गई है और प्रधानमंत्री निवास को अय्याशी का अड्डा दिखाया गया है। यह सब कुछ निहायत बकवास और बचकाना है।

          चूंकि तांडव पर पर्याप्त चर्चा हो गयी है और इसे महज धार्मिक भावना भड़काने वाला मानकर प्रतिबंधित करने की बात हो रही है तब मुझे डॉ गौरव तिवारी की यह टिप्पणी बहुत सटीक लगी। वह लिखते हैं- “ताण्डव का सिर्फ धार्मिक कारणों से विरोध गलत है। यह पूरी सीरीज जहर है। इसमें जाति का जहर है, सम्बन्धों का और आइडियालोजी का भी। सीरीज में जो राजनीति है वह गटर वाली राजनीति है। इस सीरीज का निर्माण मनोरंजन के लिए नहीं समाज में नफरत और जहर फैलाने के लिए किया गया है। #बायकॉट_ताण्डव

          तांडव को कथावार्ता की फिल्म समीक्षा में पाँच में से ऋण 4 अंक।

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

कथावार्ता : राजेश जोशी की कविता, बच्चे काम पर जा रहे हैं।

सुबह घना कोहरा घिरा देखकर प्रख्यात कवि राजेश जोशी की कविता याद आई - 

"बच्चे काम पर जा रहे हैं।"

कविता बाद में, पहले कुछ जरूरी बातें।


इस कविता में प्रारंभ में ही आता है - 

"कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह।"

लेकिन बच्चे काम पर न जाकर अगर विद्यालय ही जा रहे होते, जैसा कि बाद में दर्ज हुआ है, ऐसी कोहरे से भरी सड़क पर तो यह भी भयावह होना चाहिए।


राजेश जोशी की यह कविता उद्वेग में लिखी गई है। वह लिखते हैं कि यह हमारे समय की भयावह पंक्ति है। इसे विवरण की तरह नहीं, 'सवाल' की तरह पूछा जाना चाहिए। कितना अच्छा होता कि विवरण के प्रतिपक्ष में प्रश्न रखा जाता सवाल नहीं। तथापि।

कोहरे से ढंकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं, यह भयानक है, बच्चों को ऐसे में खेलना चाहिए। कवि प्रश्न कर रहा है कि क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें?  उसका मंतव्य यह है कि बच्चों को खेलना चाहिए किन्तु इसके लिए वह गेंद के अन्तरिक्ष में गुम हो जाने का रूपक लिया है। कोहरे में गेंद ठीक से दिखती नहीं, इसलिए गेंद वाला कोई भी खेल करना अच्छा नहीं होता। अतः कोहरे के दौरान खेल का कोई दूसरा रूपक रचना चाहिए था। बच्चे कबड्डी खेल सकते थे, चिक्का या छिपने वाला कोई खेल।

कोहरे में बच्चे रंग बिरंगी पुस्तक पढ़ें, यह कामना सुन्दर है। वह खेलें, खिलौनों से; यह भी होना चाहिए। लेकिन मदरसे की इमारतों से उनका क्या लेना - देना। कवि लिखता है - 

"‍क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं

सारे मदरसों की इमारतें।"

कोहरे से ढंकी पृथिवी पर बच्चे मदरसे में क्यों जाएंगे? वह अपने घर में रहें। नर्म और मुलायम, गद्देदार बिस्तर पर, अथवा अंगीठी के पास अथवा किसी सूखे "पहल" पर धमाचौकड़ी करें। मदरसे में क्यों जाएं? अपने घर में सुरक्षित क्यों न रहें।

फिर कवि यह कविता लिखते हुए मदरसों का उल्लेख क्यों करता है? विद्यालय क्यों नहीं कहता। अथवा स्कूल या कालेज? राजेश जोशी अपनी कविताओं में सायास ऐसे प्रयोग करते हैं। ऊपर सवाल के सम्बन्ध में यह जिज्ञासा उगी थी। मदरसा के प्रयोग पर यह मुखर हो गया है। मदरसा कतई अति व्यवहृत और प्रचलित शिक्षण संस्थान नहीं हैं। विद्यालय अथवा कालेज हैं। फिर मदरसा का प्रयोग क्यों है? क्या काम पर जाने वाले बच्चों का सम्बन्ध मदरसों से ही है? यह बहुत स्पष्ट है कि मदरसा इस्लामिक पद्धति से अध्ययन अध्यापन का केंद्र है जहां कुरआन और हदीस प्रमुख अध्ययन सामग्री है। जिसे हम आधुनिक शिक्षा मानते हैं, उससे मदरसे अद्यतन अछूते हैं। उसके मुकाबले विद्यालय और स्कूल अधिक उन्नत भी हैं और ज्ञान विज्ञान की अद्यतन अवधारणा से सम्पन्न भी।

इसीलिए ऊपर स्थापना की गई है कि यह कविता उद्वेग में लिखी गई है, जबकि इसे प्रशांति की दशा में लिखा जाना चाहिए। कविता पढ़ते हुए जब हम यह विवरण देखते हैं कि दुनिया में  "हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल" तो इस हस्बमामूल पर फिर टिकने और विचार करने का मन करता है। यह अपेक्षाकृत कठिन शब्द प्रयुक्त हो गया है। हस्बमामूल अर्थात ज्यों की त्यों। यथास्थिति में। पूर्ववत। ऐसा नहीं है कि हस्बमामूल छंद अथवा सौंदर्य की विवशता में प्रयुक्त हुआ शब्द है। वह सवाल, मदरसा और इमारतों के प्रवाह में आया है। इसलिए समस्त प्रकरण एक विशेष मनोदशा का परिचायक बन जाता है। उद्वेग में लिखे जाने के बावजूद,  इस कविता में -
"दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे" 
का उल्लेख होने के बावजूद यह कविता एक संकरी गली से रास्ता बनाती हुई दिखने लगती है। यह कविता सीबीएसई के पाठ्य क्रम में कक्षा नौ में शामिल है।

पूरी कविता पढ़िए।


कविता

बच्चे काम पर जा रहे हैं - राजेश जोशी


कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें

क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

सोमवार, 4 जनवरी 2021

कथावार्ता : गोपालदास नीरज : कारवां गुजर गया


डॉ रमाकान्त राय

        नीरज उनका उपनाम था। वह इटावा के थे। उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के पुरावली नामक ग्राम में उनका जन्म 04 जनवरी, सन 1925ई० को हुआ था। यह गाँव इटावा जनपद मुख्यालय के निकट स्थित इकदिल रेलवे स्टेशन से बहुत निकट है। गोपालदास नीरज का बचपन सामान्य नहीं था। छः वर्ष की उम्र में पिता स्वर्गवासी हुए तो किसी किसी तरह हाईस्कूल पास किया। इटावा कचहरी में टाइप करना शुरू किया। सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की, सफाई विभाग में रहे, कलर्की की और इस सबके साथ प्राइवेट परीक्षाएँ पासकर एम ए उत्तीर्ण कर लिया। तब मेरठ में अध्यापक बने। वहाँ से निकाले गए तो अलीगढ़ में धर्म समाज कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक बने। उन्होंने जब कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे 1958 में पहली बार आकाशवाणी लखनऊ से प्रस्तुत किया तो उसे सुनकर उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का आमंत्रण मिला। नीरज ने गीत विधा में साहित्य के स्थापित प्रतिमानों को अपने तरीके से तोड़ा।

          कवि प्रदीप, गोपालदास नीरज और पण्डित नरेंद्र शर्मा हिन्दी फिल्मों की ऐसी त्रिमूर्ति थे जिन्होंने सही मायने में गीत लिखे। इससे पहले के फिल्मों वाले गीत नज्म अधिक थे। उनमें हिन्दी के शब्द कम उर्दू के शब्द अधिक थे। नीरज हिन्दी शब्दावली से युक्त गीत लेकर आए और उन्हें सुमधुर बनाए रखकर कई वहम दूर किए। एक मान्यता थी कि हिन्दी शब्दों में वह माधुर्य नहीं है, जो गीत की कोमलकान्त पदावली के अनुकूल हो। नीरज ने अपने शब्द विन्यास से इस भ्रम को तोड़ा।

          गोपालदास नीरज रोमांटिक गीत लिखकर बहुत शीघ्र ही मंचों की शान बन गए। उनके गीत बहुत जल्दी लोगों की जुबान पर चढ़ जाते थे और कंठाहार बन जाते थे। उनके गीतों का पहला संग्रह 1944 में संघर्ष नाम से आया। फिर अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत आदि संकलन आए। 1970, 71 और 1972 में लगातार उनके गीतों को प्रतिष्ठित फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामांकन हुआ और 1970 में काल का पहिया घूमे रे भैया के लिए यह पुरस्कार मिला भी।

          नीरज का कविता के प्रति दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट था। वह मानते थे कि कविता आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है। यदि मानव जीवन मिलना अच्छे भाग्य का प्रतिफल है तो कवि होना सौभाग्य का। वह अपनी कविताओं में भारतीय परंपरा के देवताओं, ऋषियों और भक्त कवियों का अभिनन्दन करते हैं। दोहा को वह कविता रूपी वधू का वर मानते थे। यह दोहा ही है जिसने सभी भावों और विचारों को सार्थकता प्रदान की। यद्यपि आज के काव्यशास्त्रीय मान्यताओं के आलोक में यह बातें बहुत मूल्यवान नहीं जान पड़तीं तथापि इंका महत्त्व इस बात से है कि नीरज ने कविता लेखन के प्रति यही दृष्टिकोण रखा।

गोपालदास नीरज

          नीरज प्रेम की वेदना और मस्ती के कवि हैं। उनके गीतों में बाली उम्र का प्रेम बहुत परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुआ है, वह प्रेम गलदश्रु भावुकता वाला प्रेम नहीं है बल्कि जीवन के झंझावातों से टकराकर निःसृत जीवन दर्शन वाला है। इसीलिए नीरज अपने को शृंगार के कवि नहीं दर्शन का कवि मानते थे। उन्हें शृंगार का कवि कहलाना पसंद नहीं था क्योंकि वह अपनी कविताओं में ब्रह्म को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते रहते थे। -

          कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो।

          जिंदगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह॥

          गोपालदास नीरज के गीतों में मस्ती और रोमानी अंदाज तो है ही, उनके गीतों में अभिव्यक्त दर्शन भारतीय परंपरा से जुड़ा हुआ था। वह अपने गीतों के लिए संदर्भ भारतीय परिदृश्य से चुनते थे, इसलिए उनका एक विशेष संदर्भ बनता है। जब वह इंसान के लिए अलग मजहब की चर्चा करते हैं तो वह सामूहिकता के दर्शन के विपरीत निजी अनुभूति को प्रमुख मानते हैं। इसीलिए वह छद्म धर्मनिरपेक्षता के कटु आलोचक भी हैं- उनका यह दोहा-

          सेक्युलर होने का उन्हें, जब से चढ़ा जुनून।

          पानी लगता है उन्हें,  हर  हिन्दू का खून॥

वह बहुत साफ साफ लिखते हैं कि यह देश बहुसंस्कृतिवादी है किन्तु इस बहुलता की रक्षा का दायित्व सब पर है। अगर किसी एक समुदाय का हस्तक्षेप बढ़ता जाएगा तो यह लोकतन्त्र के खिलाफ होगा। उनका दोहा है-

          यदि यूं ही हावी रहा, इक समुदाय विशेष।

          निश्चित होगा एक दिन, खंड-खंड ये देश॥

          जीवन के उत्तर काल में गोपाल दास नीरज को राजनीतिक दलों ने खूब सम्मान दिया। समाजवादी पार्टी ने उन्हें मंत्री का दर्जा दिया। वह पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किए गए तथा उन्हें यश भारती सम्मान भी मिला। इटावा में नीरज को लोग आत्मीयता से याद करते हैं लेकिन अकादमिक स्तर पर ठोस प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। गोपालदास नीरज हिन्दी फिल्मों में लिखे गए हिट गीतों से बहुत लंबे समय तक याद किए जाते रहेंगे। 19 जुलाई, 2018 को उनका निधन हुआ।

         

          जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनके दो प्रसिद्ध गीत-

 

1.     कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठें कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहां
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे

सांस की शराब का खुमार देखते रहे,
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और सांस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे
नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वह गिरी
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी
और हम अजान-से
दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

 

2.    जलाओ दिए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,

उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,

लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,

निशा की गली में तिमिर राह भूले,

खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,

ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,

कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,

मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,

कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,

चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,

भले ही दिवाली यहाँ रोज आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,

नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,

उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,

नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,

कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,

स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०, २०६००१

9838952426, royramakantrk@gmail.com

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.