रविवार, 15 नवंबर 2020

 कथावार्ता : ईश्वर पैसें दरिद्दर निकलें

 -डॉ रमाकान्त राय 

          कल 'दीया दीवारीथीआज बुद्धू बो की पारी है! प्रात:काल ही उठ गया। दरिद्दर खेदा जा रहा था। माँ सूप पीटते हुए घर के कोने कोने से हँकाल रही थीं। आवाज करते हुए प्रार्थना कर रही थीं। यह प्रार्थना दुहराई जा रही थी। -ईश्वर पैसें दरिद्दर निकलें- ईश्वर का वास होदरिद्र नारायण बाहर निकल जाएँ। दरिद्र भी नारायण हैं। रात में दीप जलेपूजा हुईखुशियाँ मनाई गयींराम राजा हुए। लक्ष्मी का वास हुआ। अब दरिद्रता का नाश हो। यह निर्धनता नहीं है। यह मतलब नहीं निकलना चाहिए कि हमारी गरीबी दूर हो गयी। निर्धनता और दरिद्रता में अंतर है। निर्धनता में व्यक्ति का स्वाभिमान बना रहता है। दरिद्रता व्यक्ति की गरिमा को नष्ट कर देती है। उसका आत्मबल छीन लेती है। निर्धन होना अच्छा हो सकता हैदरिद्र होना कतई नहीं। राम राजा हुए हैं तो स्वाभिमान लौटा है। ऐसे में दरिद्रता कैसे रह सकती है। हमने उसे हँकाल दिया है।

          मैं माताजी के साथ हो लिया। दरिद्रनारायण को करियात से बाहर हँकाल दिया गया। सूप लेकर हम छोटे भाई के साथ गाँव के बाहरी छोर पर चले गए। वहां बालकनवयुवकयुवतियाँमहिलायें दरिद्र नारायण को हँकालते हुए इकठ्ठा हुई थीं। सूपदौरी आदि को जलाया जा रहा था। दीया पर अंजन बना रहे थे लोग। कोई खुरपी तो कोई हँसुआ पर दीये की लौ सहेजकर अंजन बना रहा था।

दीया पारती भद्र महिलाएं

          अंजन यानि काजल बनाना एक कला हैविज्ञान हैकार्रवाई है। हर गृहस्थिन को यह विद्या सहज प्राप्त हो जाती है। आज का बना हुआ काजल सालभर आँखों की ज्योति को सुरक्षित रखेगा। अंजन बनते ही बच्चों को उनकी माएँ टीका लगा रही थीं। बच्चे आतिशबाजी कर रहे थे। कुछ ने जलती लौ में पटाखे फेंके और लोगों की बड़बड़ाहट का मजा लिया। खूब उधम हुआ। एक बूढ़ी माँ ने खरी-खोटी सुनाई। सबको यह आशीष जैसा लगा।

(वीडियो देखें)

दरिद्दर हँकालने के बाद अंजन निर्माण 

     दलिद्दर खेदने के बाद गंगा स्नान के लिए जाना रहता है। अब यह प्रथा बन्द हो गयी। तीन चार किमी दूर जाकर गंगा स्नान करना जोखिम भरा तो है हीबोरिंग भी है। अब नदी में क्रीड़ा करना जॉयफुल नहीं रहा। समाचार पत्रोंमीडिया की सूचनाएँ डराती हैं। और वह आनंद अभीष्ट भी नहीं रहा।

          दरिद्दर खेदनेगंगा स्नान करने के बाद आज दोपहर भर बहनें सरापेंगी। वह व्रती हैं। अन्न जल ग्रहण नहीं करना है। दोपहर के बाद गोधन कूटे जायेंगे। तब जो सराप (शाप) उन्होंने दिया थागोधन कूटते हुए अपने ऊपर लेंगी। 'मेरे भईयाजीवन में हर कठिनाई से मुक्त रहें। हर बलाय हम सहें।'

गोधन कूटने की तैयारी में माताजी

          दरिद्र नारायण को खेदने की जगह इकठ्ठा युवकों की बातचीत के केन्द्र में कई चीजें हैं। कई ने रात में जुआ खेलनेसजे फड़ पर अपनी टिप्पणियां दी। कौन फड़ पर रात भर जमा रहा। कौन कितना हारा और कितना जीतकर भाग निकला। एक तो सुबह चार बजे आया। तड़ातड़ दाँव बदे और फिर एक बड़ी रकम जीतकर निकल गया। किस तरह दीया/बल्ब की रोशनी करने वाले ने हर तीसरी बाजी के बाद लगान वसूली की और इसको लेकर झगड़ा हुआ। किसने किसने चिल्लर का जनम छुड़ा लिया आदि आदि।

          मैं वहां से हटा तो फड़ की तरफ बढ़ा। वहाँ दीया जल रहा था। 'आधा गाँवके फुन्नन मियाँ की याद आयी। हर दीवाली की रात को वह जुआ खेलते थे और फड़ पर लक्ष्मी की फोटो के नीचे बैठते थे। यहाँ कोई फुन्नन नहीं था। सब गोबर्धन साह थे। दस बीस का जुआ खेल रहे थे और बातें हजारो की कर रहे थे। कुछेक "गुण्डा" के नन्हकू सिंह बनने की फिराक़ में भी थे लेकिन वहाँ लोकतंत्र था। मैं थोड़ी देर रहकर चला आया। अभी भी वहाँ मजमा जुटा हुआ है। 

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          आओ हम-तुम भी जुआ खेलते हैं। अगर तुम जीतीं तो हम तुम्हारे हुए और मैं जीता तो तुम मेरी। है मंजूर!! आओ समर्पण की दीवाली मनाते हैं।

 

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

उत्तर प्रदेश, 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

शनिवार, 14 नवंबर 2020

कथावार्ता : दीपावली : राम के चरित्र का दीपक

-डॉ रमाकान्त राय

      दीपावली प्रकाश पर्व है।

     प्रकाश पर्व। जगमगाते दीपों का समूह हर अंधेरे को नष्ट कर डालता है। अंतर-बाहर दीप्त हो उठता है। सब कुछ प्रकट हो जाता है। उद्घाटित। आज 14 वर्ष का वनवास काटकर श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता सहित अयोध्या लौटे थे। राम लौटे तो अयोध्या ने खुशियाँ मनाई। घर घर में दीप जलाए गये। खील बतासे बाँटे गये। राम का आगमन चराचर जीवन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रकाश का आगमन है। उसकी अभिव्यक्ति अमावस्या की घुप्प अंधेरी रात में दीप का प्रकाश है। तुलसीदास इस भाव को सटीक शब्द देते हैं-

     राम नाम मनि दीप धरि, जीह देहरी द्वार।

     तुलसी भीतर-बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार।।

राम नाम मनि दीप धरु!


        एक दीपक देहरी के द्वार पर रखना है। चौखट पर। जहाँ से प्रवेश है। अंतर और बाह्य दोनों प्रकाशित हो उठेगा।
है अंधेरी रात, पर दीया जलाना कब मना है!
    राम का जीवन अद्भुत है। कल वसु राम की कथा सुना रहे थे। विश्वामित्र द्वारा ताड़का संहार की कथा जोड़ते हुए उन्होंने कभी मेरी सुनाई हुई कथा में कुछ जोड़ते घटाते हुए कहा- तब दशरथ ने कहा कि ताड़का का संहार ही करना है तो मैं अतिरथी, महारथी विकट वीरों को आपके साथ भेज देता हूँ, स्वयं चलता हूँ- बालक राम और लक्ष्मण को क्यों गाढ़े में डालते हैं। तब विश्वामित्र ने कहा- नहीं, हमें तो राम ही चाहिए। दशरथ ने कहा कि आपको राम चाहिए अथवा ताड़का से मुक्ति? चतुर महर्षि ने कहा- "राम द्वारा ताड़का से मुक्ति!" यह बात कहते हुए वसु स्मित मुस्कान से भर आए। उन्हें इस वक्रोक्ति का आशय मिल गया था। खूब नानुच करने के बाद विश्वामित्र को राम लक्ष्मण मिले।

      यह पहला वनवास था। यद्यपि राम अपने भाइयों के साथ वशिष्ठ के आश्रम में रह आए थे और उन्हें 'अल्प काल विद्या सब आई' तथापि वह प्रवास वनवास नहीं था। विश्वामित्र उन्हें वन में ले जा रहे थे। बक्सर। आज के बिहार में। हमारा जनपद उसी से लगा हुआ है। मान्यता  है कि एक रात्रि राम त्रिमुहानी के गंगा तट पर रुके भी थे। उसकी स्मृति में भाद्रपद की द्वादशी को दंगल होता है और अगले दिन मेला लगता था। उसके अगले दिन चतुर्दशी का व्रत भी करने की बात है। लोक का मन इस सबको सहेज लेता है। अस्तु,

        राम को यह पहला वनवास मिला था लेकिन उनके साथ ऋषि-मुनियों का प्रकट सहयोग था। लेकिन यह उस समूचे संघर्ष की पूर्व पीठिका थी। समझने में सहायक कि अगर इसी तरह के वातावरण से सामना हुआ तो स्मृति में यह वन रहेगा। इस वनवास के बाद सीता मिलीं। अगला वनवास हुआ तो सीता की पुनर्प्राप्ति हुई।

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है!

राम का जीवन इस मायने में भी अद्भुत है कि उन्हें जो मिला, स्नेही मिला। श्री कृष्ण के जन्म से पहले ही कुचक्री क्रियाशील थे और उनका बचपन चमत्कारों से भरा हुआ है। वह कालिया नाग और इन्द्र के अहं को भी इसी काल में विगलित करते हैं। असंख्य असुरों का संहार करते हैं। कंस से उद्धार के लिए वृन्दावन से मथुरा की छोटी सी यात्रा होती है। लेकिन राम का जीवन जैसे ठोक पीटकर निर्मित किया जा रहा है!

        राम सबका निर्वाह करते हैं। वह सहज हैं। जीवन में कोई छल-प्रपंच नहीं है। छोटा भाई आगे बढ़कर राजा जनक का मुँह बन्द कर देना चाहता है कि बहुत देखे ऐसे धनुष। अभी इसकी प्रत्यंचा चढ़ाता हूँ तो राम रोकते हैं। गुरु विश्वामित्र की आज्ञा तो होने दो। लेश मात्र भी घमंड रहता तो कहते- इस धनुष को तो मेरा अनुज ही साध लेगा। नहीं कहा। प्रतीक्षा की। सहज रहे। सीता के प्रति अपनी अभिलाषा को भी प्रकट नहीं किया।

       राम बहुत विशिष्ट हैं। उनका नेतृत्व तो अनूठा है। वह वानरों को साथी बना लेते हैं। उनके भी इष्ट  हो जाते हैं। राम का काम ही हमारा काम है। कपि, भालू, वानर, रीछ सब उनके सहयोगी हैं। लक्ष्मण को छोड़ दिया जाये तो मनुष्य एक भी नहीं। विभीषण असुर हैं। भीषण युद्ध में उनका सारथी देवकुल का है। बन्दरों से पुल बनवा लेना, सर्वाधिक अनुशासन वाला क्षेत्र सेना में सम्मिलित करना बहुत बड़ी बात है। वह रावण पर जो विजय प्राप्त करते हैं वह व्यक्ति नहीं वृत्ति की जय है।

         ऐसे राम, उत्कट योद्धा राम, रघुकुल के उज्ज्वल नक्षत्र राम, वचन के पक्के राम, स्नेही राम, प्रेमी राम घर लौट रहे हैं। वनवास हुआ तो दशरथ उनका वियोग नहीं सह पाये। अब अयोध्या में माँ प्रतीक्षा कर रही हैं। जब वनगमन हुआ तो दो अनुज ननिहाल में थे। अब जब लौटेंगे तो सब मिलेंगे। एक संक्षिप्त भेंट हुई थी सबसे चित्रकूट में। किन्तु वह वापसी नहीं थी।

         राम लौट रहे हैं। सबकी अपनी प्रतीक्षा थी, जिसकी घड़ी पूरी हुई है। सबने अपने घर में उजाला कर रखा है। 14 वर्ष का विकट अंधकार आज दूर हुआ है। अंतर बाहिर सब प्रकाशित है।

दीपावली पाँच दिन का पर्व है। धनतेरस पर धन्वंतरि के आयुष्मान से शुरू हुआ। "पहला सुख- निरोगी काया"। धनतेरस इस सुख का सहेजक है।

       धन्वंतरि समुद्र मंथन में मिले थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की स्मृति में मनाया जाता है। इस दिन नए बर्तन ख़रीदते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान धन्वंतरि को अर्पित करते हैं, यह उत्तम स्वास्थ्य और धन धान्य से परिपूर्ण रहने की कामना का पर्व है। आखिर सबसे बड़ी नेमत तो निरोगी काया है!

       चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी भी कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर के अत्याचार से आज के दिन मुक्ति दी थी। वह प्राग्ज्योतिषपुर का विकट शासक था। 16000 स्त्रियों का जीवन नरक कर चुका था। श्री कृष्ण ने पट्टमहिषी सत्यभामा के साथ मिलकर यह उद्धार किया। समस्त कन्याओं को अंगीकृत किया। उनकी 16008 रानियों की जो बात कही जाती है, उसमें 16000 यही हैं।

     नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पहले स्नान कर लेना रहता है। नरक से मुक्ति रहती है। आयुष पर्व का पहला पाठ यही है। सूर्योदय से पहले नित्यक्रिया से निवृत्ति। अब नयी जीवन पद्धति में यह सब बातें यूटोपिया प्रतीत होती हैं लेकिन महज दो दशक पहले तक यह स्वाभाविक था। गाँव में हम सबमें यह प्रतिस्पर्धा रही कि कम से कम नरक चतुर्दशी के दिन बच्चे तक स्नान कर लेंगे। दिन कितना बड़ा हो जाता है।

    दीपावली लक्ष्मी गणेश की पूजा का भी पर्व है। आज ईश्वर के वास का दिन है।

ज ईश्वर आ जाएं तो कल सुबह दलिद्दर भी खेद देंगे। कहीं कहीं नरक चतुर्दशी को ही दलिद्दर खेद देते हैं। वैसे भी ईश्वर के प्रवेश के बाद दलिद्दर को स्वयं ही निकल जाना चाहिए था लेकिन लोगों ने यह उपक्रम भी करना तय किया। भोर में ही सूप पीटते हुए यह सम्पन्न होता है। 

मिट्टी का दीया 
फिर भैया दूज भी है। यह श्री कृष्ण की कथा से जुड़ गया है। गोधन की कुटाई का दिन। बहनों का शाप देना और फिर सब अपने पर ले लेना। पाँच दिन के इस पर्व में बंगाली भद्रलोक लोक्खी पूजा मनाता है। यह जो हिन्दू धर्म बहुदेववादी है, अलग अलग अवसरों पर अलग अलग देवी-देवताओं के साथ उल्लास से भर कर लोगों के साथ बना रहता है, उसमें कहीं भी वर्चस्व का, एकाधिकार का झगड़ा नहीं है। कहीं भी सर्वशक्तिमान होने की प्रतिष्ठा नहीं है। जो ऐसी भावना करता है, मुँह की खाता है। गोधन की तो बल भर कुटाई होती है। दीपावली पर्व में सर्वेषाम के कल्याण की कामना है।

               गोधन कुटाई 

     आइए, इस प्रकाशपर्व पर आनंद करें। सुख पाएं। सुख दें। जिएं। जीने दें। राम का गुणगान करें। उनके चरित को धारण करें। उनके चरित्र से प्रकाशित हों। जीवन को उज्ज्वल रस से भर दें। खूब प्यार करें। मस्त रहें। दूसरों को स्पेस दें किन्तु अतिक्रमण करने वालों का फण कुचल दें। प्रणाम।

 



असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा,

उत्तर प्रदेश 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

 

 


सोमवार, 9 नवंबर 2020

कथावार्ता : अश्वत्थामा की कहानी से क्या सीखना है?

-डॉ रमाकान्त राय


        महाभारत में युद्ध के अठारहवें दिन दुर्योधन को भीम ने बुरी तरह मारा था। वह पीड़ा से तड़प रहा था। उसकी जाँघ टूट गयी थी। दुर्योधन आखिरी दिन सेनापति था। अब युद्ध समाप्तप्राय था कि शाम ढलने के बाद उसे खोजते हुए शेष बचे तीन कुरुपक्षी, महारथी और अतिरथी आए- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। अश्वत्थामा द्रोण का पुत्र था। कृपाचार्य कुलगुरु थे और कृतवर्मा वृष्णिवंशी वीर था। कृतवर्मा के कहने पर दुर्योधन ने अश्वत्थामा को प्रधान सेनापति बनाया। अश्वत्थामा को उस हससम एक विचित्र घटना दिखी। एक उल्लू कौवे के घोंसलें में रखे अंडों को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा था। उसी से प्रेरणा पाकर उसने आधी रात को पांडव पक्ष पर आक्रमण करना तय किया। इन तीनों ने आधी रात को पांडवों की अनुपस्थिति में जमकर मारकाट की और सबको मार दिया। अश्वत्थामा पांडवों के पाँच पुत्रों का सिर लेकर दुर्योधन के पास पहुँचा। उसे विश्वास था कि उसने पांडवों को मार दिया है। जब दुर्योधन ने जाँचकर बताया कि यह पांडव नहीं हैं, तब वह अति उद्विग्न हो गया।

        पांडवों को इस हत्याकाण्ड की सूचना मिली तो उसमें से अर्जुन अश्वत्थामा के वध के लिए उद्धत हो गया। प्रतिज्ञा की। कृष्ण ने अर्जुन की मदद की। अश्वत्थामा से घनघोर युद्ध हुआ। पराजय का आसन्न संकट देख अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चला दिया।

           आज यह कहानी इसी बिन्दु से शुरू करना चाहता था। ब्रह्मास्त्र की अपनी मर्यादा होती है। उसके नियम कानून होते हैं। वह प्रयोग की वस्तु नहीं है। आजमाया नहीं जाता। वह अन्तिम उपाय है। साम-दाम-दण्ड-भेद सब चुक जाये, आखिरी प्रयास भी निष्फल हो जाये तो भी एक क्षण विचार करने, चेतावनी देने के बाद का अस्त्र है। इसलिए इस अस्त्र को धारण करने वाले के लिए कई अर्हताएँ रखी गयी हैं। साथ ही यह व्यवस्था भी थी कि इसे वापस भी बुलाया जा सकता है। लेकिन दुर्भावना और कुंठा तथा हीन भावना से ग्रस्त, चंचल स्वभाव वाला, कलुषित और उदण्ड अश्वत्थामा ने अर्जुन के सम्मुख पराजय देख उसे चला दिया। प्रतिउत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। महामुनि व्यास को हस्तक्षेप करना पड़ा। अर्जुन ने तो यह अस्त्र वापस कर लिया किन्तु अश्वत्थामा वापस लेना नहीं जानता था। उसने यह सीखा ही नहीं था।

          अश्वत्थामाओं को इसका ज्ञान सदैव रहना चाहिए कि ब्रह्मास्त्र चलाना एक उद्वेग में हो सकता है, क्षणिक आवेश में इसका निर्णय लिया जा सकता है किन्तु एक बार इसका संधान कर लिया जाये तो उसे वापस बुलाना उतना आसान नहीं। इसके लिए सच्ची वीरता आवश्यक है। द्रोण अश्वत्थामा से परिचित थे। वह उसे यह विद्या देना नहीं चाहते थे किन्तु मोहवश, अपना पुत्र जान, अजेय बनाने के लिए प्रदान किया था। सभी द्रोणाचार्यों को इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि विद्यादान में उपयुक्त पात्र का विशेष महत्त्व है। और अधिकार के मामले में तो यह अत्यन्त ही ध्यातव्य है। द्रोण ने इसका कुछ ध्यान रखा था इसलिए अर्जुन को सभी विद्या दीं। वह इसके सर्वथा योग्य था। किन्तु अश्वत्थामा को पुत्रमोह में दी। महाभारत में पुत्रमोह कई स्थलों पर दिखाई देता है।

          अर्जुन के साथ छिड़े युद्ध में ब्रह्मास्त्र छोड़ देने के बाद अश्वत्थामा निरुपाय था। तब उससे कहा गया कि वह इस अस्त्र की दिशा मोड़ दे। कुटिल और कुंठित अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश वृक्ष को नष्ट करना चाहा और उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को निशाना बनाया। यह श्रीकृष्ण थे, जिन्होंने उत्तरा के गर्भस्थ शिशु को जीवन दान किया। सभी अर्जुनों को ध्यान रखना चाहिए कि एक श्रीकृष्ण अत्यावश्यक है। 

        अश्वत्थामा के इस कृत्य से कृष्ण इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने अर्जुन से कहा कि इसके प्राण हर लो। ‘हे अर्जुन! धर्मात्मासोए हुएअसावधानमतवालेपागलअज्ञानीरथहीनस्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया हैसोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।' (सौप्तिक पर्वमहाभारत) अर्जुन ने द्रोपदी से पूछा। द्रोपदी के केश दुःशासन के रक्त से धोए जा चुके थे। दुर्योधन की जंघा टूट गयी थी। पर्याप्त रक्तपात हो चुका था। अब करुणाजनित शान्ति पसर रही थी। और हत्या असहनीय हो रही थी। अर्जुन ने गुरुपुत्र से पूर्वकाल का स्नेहब्राह्मणकुमारगुरुमाता का ध्यान आदि कर अश्वत्थामा के केश कतर दियेभीम ने मणि निकाल ली। श्रीकृष्ण ने छ: हजार वर्षों तक भटकने का शाप दिया।

          अश्वत्थामा महामुनि व्यास के साथ व्यास वन चला गया। कहते हैं कि आज भी उसके माथे से मवाद रिसता है। वह श्रीहीन होकर विक्षिप्त अवस्था में मुक्ति की कामना करता हुआ यत्र-तत्र विचरण कर रहा है। सभी अश्वत्थामा इसी गति को प्राप्त होते हैं।


          मैंने यह कथा क्यों सुनाईजिन-जिन अश्वत्थामाओं को यह कथा विस्मृत हो गयी हैवह पढ़ें तो उन्हें जीवन को समझने में सहायता मिलेगी। ब्रह्मास्त्र छोड़ने से पहले विकल्प आजमाएँगे। माथे से मवाद का रिसना कोई दिव्य चमत्कार नहीं हैयह शापित जीवन का बहुत बड़ा कष्ट है। कृपाचार्य पुन: हस्तिनापुर के कुलगुरु हुएकृतवर्मा द्वारिका चले गए और कृष्ण के निकट रहे। जो महारथी थासेनापति बनाजिसने बिना सोचे-समझे ब्रह्मास्त्र छोड़ा वह वन-वन भटकता रहा। भटकने के लिए अभिशप्त हुआ।

          अश्वत्थामा महाभारत के अमर पात्रों में हैं। उनके लिए अमरता अभिशाप बन गयी। वह हमारे लिए आकाशदीप हैं।

 

असिस्टेण्ट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

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शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : टेसू और झेंझी : लोक के उत्सव

  शरद पूर्णिमा पर बाहर निकला तो बच्चों ने घेर लिया। सहयोग कीजिये। उनके हाथ में मूर्तियां थीं। मैं इन्हें नहीं जानता था। दरयाफ्त की तो ज्ञात हुआ, यह टेसू और झेंझी थे। यह भी पता चला कि टेसू-झेंझी का विवाह होना है। कौन थे टेसू और झेंझी? इटावा और आसपास के लोक में इनकी कहानियाँ कई कई संस्करणों में हैं।  

टेसू और झेंझी के विवाह का चंदा एकत्र करना एक मजेदार काम है।

टेसू और झेंझी का विवाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज में सहालग के आरम्भ का सूचक है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह देवोत्थान एकादशी से शुरू होता है। गाँव-गाँव में यह विवाह रचाया जाता है। उसके लिए चंदा जुटाते हैं। शाम ढले विवाह का उतसाव आरंभ हो जाता है। विधिवत बारात आती है। स्वागत होता हैलोकाचार के सभी कर्मकाण्ड किए जाते हैंलौंडा नाच होता है। यथासामर्थ्य भोज-भात या प्रसाद वितरण होता है। लोग जुटते हैं और यह विवाह सम्पन्न कराया जाता है। 

टेसू (Tesu)

टेसू-झेंझी के विवाह में मुझे यह गीत सुनने को मिला-

          मेरा टेसू झंई अड़ा,

          खाने को मांगे दही बड़ा।

          दही बड़े में पन्नी,

          धर दो बेटा अठन्नी।

         अठन्नी अच्छी होती तो ढोलकी बनवाते,

         ढोलकी की तान अपने यार को सुनाते।

टेसू की टेक

          टेसू और झेंझी का विवाह संपन्न हो जाने पर मिठाई बंटती है। नाच-गाना चलता रहता है।

         दूल्हा राजा बने हैं टेसू

शरद पूर्णिमा पर खीर भी बनती है। कहते हैंआज चन्द्रमा से अमृत बरसता है। सबसे अधिक धवल और उज्ज्वल चन्द्रमा शरद पूर्णिमा का ही रहता है। अपनी प्रकृति से हमारा कैसा घनिष्ठ रिश्ता है। सभ्यता के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की जयन्ती भी शरद पूर्णिमा पर ही पड़ती है। वह रामकथा के सबसे पहले उद्गाता हैं।


          भारत में लोक के पास हजारो मौके हैं- उत्सव के। हमने इन्हें 'लोकलही रहने दिया है। 'ग्लोबलकरते तो 'भेलेन्टाइनसे अधिक अपीलिंग आख्यान गली-गली  मिल जाते। हमने इसे जिया है- दूसरों के लिए जाल नहीं बनाया है। यही बात हमारी सनातनता को अधिक समृद्ध और श्रेष्ठ बनाती है। हम विश्व-बन्धुत्व और सर्वे भवन्तु सुखिन: के ध्वजवाहक बनते हैं।

 

-डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : सबको साधने में बिखर गया मिर्जापुर का सीजन -2

क्या सबको साधने में मिर्जापुर-2 बिखर गया हैनवरात्रि में मिर्जापुर-2 के अमेज़न प्राइम पर जारी होने का दबाव इस वेबसीरीज़ पर रहा हैनवरात्रि में स्त्री सशक्तिकरण के पारंपरिक विमर्श से इस नए सीजन को जोड़ने की कोशिश हुई हैबीते दिनों में आपत्तिजनक कहे जाने वाले प्रसंगों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरती गयी हैसोशल मीडिया के ट्रेण्ड्स हावी हुए हैंबीते दिनों के ज्वलंत मुद्दों को ध्यान में रखकर प्रसंगों को गढ़ा गया है और विवादित होने से बचाने के सभी प्रयास किए गए हैंअमेज़न प्राइम पर मिर्जापुर का सीजन -2 देखते हुए अनेकश: ऐसे खयाल उभरते हैं।

अमेज़न प्राइम पर मिर्जापुर का सीजन -2 दस बड़े अंकों (एपिसोड) के साथ कल देर शाम जारी हो गया। मिर्जापुर का आरंभिक सीजन बहुत लोकप्रिय हुआ था और कसे हुए कथानकउत्तम अभिनय और चुस्त संवाद के लिए जाना गया। अपराध की दुनिया को केंद्र में रखकर बुने गए कथानक में हिंसासेक्स और गालियों के छौंक से वह ठीक ठाक मसालेदार भी बना था। दूसरा सीजन कालीन भैयामुन्ना त्रिपाठीगुड्डू पण्डितशरद शुक्ला के आपसी गैंगवार में अपना क्षेत्र विस्तार करता है और अब इसका क्षेत्र मिर्जापुर से आगे जौनपुरलखनऊ के साथ-साथ बलियासोनभद्रगाजीपुरगोरखपुर गो कि समूचे पूर्वाञ्चल को समेट लेता है और अफीम के अवैध व्यापार का क्षेत्र बिहार के सिवान तक जा पहुँचता है। इस क्रम में कुछ नए माफियाओं का उदय होता है जिसमें सिवान का त्यागी खानदान और लखनऊ में रॉबिन की विशेष छाप है।


          पिछले सीजन के अंत तक यह बात समझ में आने लगती है कि माफियाओं की दुनिया में महिलाओं का प्रवेश होने वाला है। कालीन भैया की पत्नी की महत्वाकांक्षा ज़ोर पर है, जौनपुर में शुक्ला के मरने के बाद उसकी विधवा यह जिम्मा लेती है। गुड्डू पण्डित के साथ उसके छोटे भाई की मंगेतर है और छोटी बहन। सीजन दो में मुख्यमंत्री की विधवा पुत्री माधुरी यादव का अवतरण है जो मुन्ना त्रिपाठी की आकांक्षाओं को पंख देती है और सत्ता-संघर्ष में सबको पीछे छोडते हुए मुख्यमंत्री बन जाती है।

          सीजन दो में महिलाओं के प्रवेश और उनके हस्तक्षेप से यह सहज समझ में आने लगता है कि निर्माता इसमें स्त्री सशक्तिकरण का अध्याय जोड़ना चाहते हैं। माफियाओं की दुनिया में लड़कियाँ अग्रणी भूमिका में हैं। लगभग हर गिरोह में स्त्री शक्ति की भूमिका बन गयी है। उनकी महत्वाकांक्षा चरम पर है लेकिन सभी प्रसंग मिलकर भी कोई विशेष छवि नहीं गढ़ पाते। सारी कवायद संतुलन बनाने के लिए की गयी है और अगर वह बिखर नहीं गयी है तो वह कसाव नहीं बना पाई है, जो उदघाटन वाले सीजन में था।

          मिर्जापुर का सीजन -2 अपना क्षेत्र विस्तार करता है और लखनऊ समेत पूर्वाञ्चल के अन्यान्य जिलों में भी इसका कथानक पहुँचता है और बिहार के सिवान तक भी लेकिन सिवान और बलिया को छोडकर किसी अन्य जनपद की कोई विशेष उल्लेखनीय परिघटना नहीं मिलती। गाजीपुर का नाम अफीम के खेत के सिलसिले में उभरता है और बलिया का बिहार से सटे निकटवर्ती जनपद और गुड्डू पण्डित के ताज़ा अड्डे से जुड़कर। लखनऊ का इसलिए कि वह राजनीतिक घट्नाक्रमों का केंद्र है और रॉबिन का अवतरण स्थान। क्षेत्र विस्तार करने में सिर्फ नाम दे दिये गए हैं। किसी अन्य स्थानीय विशेषता से यह प्रकट नहीं होता कि पात्र बिहार में है अथवा जौनपुर में। यहाँ तक कि भाषिक भिन्नता भी रेखांकित नहीं की जा सकेगी।

          इस सीजन का सबसे लचर पक्ष राजनीतिक उठापटक है। मुख्यमंत्री बनने की लालसा में जेपी यादव अपने बड़े भाई और पुनर्निर्वाचित मुख्यमंत्री को मरवा देता है। जे पी यादव पिछले सीजन में मिर्जापुर की गद्दी दिलवाने के लिए राजनीतिक एजेंट की भूमिका में था जो इस बार मुख्यमंत्री बनने के लिए हर हथकंडे अपनाता है। लेकिन शपथ ग्रहण से पूर्व उसको जिस तरह से पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्काषित किया जाता है वह सबसे अविश्वसनीय पहलू है। फिर माधुरी यादव त्रिपाठी- माधुरी यादव मुन्ना त्रिपाठी की ब्याहता बनने के बाद मुख्यमंत्री पिता के मरने के बाद इसी रूप में आती हैं- विधायक दल की बैठक में अपना नाम स्वतः प्रस्तावित करती हैं। कालीन भैया भी मुख्यमंत्री बनने की रेस में हैं और प्रथमद्रष्टया तो लगता है कि माधुरी उनका नाम ही प्रस्तावित करेंगी। लेकिन इस सीजन के कथानक बुनने वालों ने राजनीतिक उठापटक को इतना एकरैखिक बनाया है और इस विषय पर इतना कम शोध किया है कि यह समूचा प्रकरण अतिनाटकीय और यथार्थ से बहुत परे चला गया है।

          सिवान का क्षेत्र इस सीरीज में दद्दा त्यागी के कारण उल्लेखनीय हो गया है। बिहार में शराबबंदी लागू है लेकिन दद्दा धड़ल्ले से उसका अवैध व्यापार कर रहे हैं। उनके दो बेटों में छोटे को भी सम्मान पाने की लालसा है। वह स्मैक का धंधा ले आता है जबकि दद्दा त्यागी ने संकल्प किया है कि वह अफीम के धंधे में नहीं उतरेगा क्योंकि उसका नाटा कद इसी नशे के कारण है। त्यागी अधिकांशतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वर्चस्व वाले हैं। इस सीरीज में वह सिवान में हैं, यह बात भी थोड़ी अटपटी लग सकती है।


         मिर्जापुर का सीजन -2 अंतत: गैंगवार और सत्ता संघर्ष है। आखिरी अंक में यह निर्णायक संग्राम होता है जिसमें मुन्ना त्रिपाठी मारा जाता है। कालीन भैया को शरद ने बचा लिया है लेकिन वह कब तक और किन शर्तों पर बचेंगे, यह अगले सीजन के लिए छोड़ दिया गया है। माधुरी के लिए वैधव्य ही नियति है। कालीन भैया को मंत्रीपद मिला है लेकिन पिता की मृत्यु के बाद वह जिस तरह अंतिम संस्कार करने पहुँचते हैं, वह यथार्थ से बहुत दूर की कौड़ी है।

          इस सीरीज के दस अध्यायों के नामकरण में भी कोई खास रचनात्मक विशेषता नहीं झलकती। इस सीरीज के अध्यायों में एक और खटकने वाली बात है कि सिवान, बलिया, जौनपुर से मिर्जापुर या लखनऊ तक पहुँचने की दूरी पलक झपकते पूरी कर ली जाती है। कोई पात्र मिलने की इच्छा प्रकट करता है और यह मिलन हो जाता है। यह इतना सहज है जैसे एक मुहल्ले से दूसरे तक का सफर करना हुआ हो। अतः यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि इस वेबसीरीज़ में कई पक्षों को साधने की कोशिश असफल हुई है और यह बिखर गया है।

          तमाम अव्यवस्थाओं और शिथिलताओं के बावजूद मिर्जापुर का सीजन -2 पंकज त्रिपाठी, अली फज़ल, दिव्येंदु शर्मा, ईशा तलवार, कुलभूषण खरबन्दा, श्वेता त्रिपाठी के दमदार अभिनय और कथाजनित सस्पेंस से दर्शनीय बन गया है। इसे एक बार तो देखा ही जा सकता है!

 

डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com


गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : झूला : मूल पाठ और व्याख्या

 

अम्मा आज लगा दे झूला

(मूल पाठ और व्याख्या)

-रीमा राय

अम्मा आज लगा दे झूला,

इस झूले पर मैं झूलूँगा।

उस पर चढ़कर, ऊपर बढ़कर,

आसमान को मैं छू लूँगा।

 

झूला झूल रही है डाली,

झूल रहा है पत्ता-पत्ता।

इस झूले पर बड़ा मज़ा है,

चल दिल्ली, ले चल कलकत्ता।

 

झूल रही नीचे की धरती,

उड़ चल, उड़ चल,

उड़ चल, उड़ चल।

बरस रहा है रिमझिम, रिमझिम,

उड़कर मैं लुटूँ  दल-बादल

इस प्यारी सी कविता में बालक अपनी माँ से आग्रह कर रहा है कि वह अपने बेटे के लिए एक झूला लगवा दे। झूला, जिसपर बैठकर वह बहुत ऊँचाई तक पींग भरे। बालक के मन में आकाश को लेकर गहरी उत्सुकता है और वह उस ऊँचाई तक पहुँचना चाहता है। झूले पर बैठकर वह आकाश को छू लेना चाहता है।  आसमान को छू लूँगा कहने से उसकी सहज महत्त्वाकांक्षा प्रकट हो रही है।

बालक अपने आसपास, प्रकृति के कई दृश्यों में झूला का रूप देख रहा है। डालियाँ हवा के असर से ऊपर नीचे हो रही हैं, उसके साथ-साथ पत्तियाँ भी तो बालक को प्रतीत होता है कि डाली और पत्तियाँ तक झूल रही हैं। झूले की ऊँची पींग को देखकर वह सोचता है कि इसपर बड़ा सुख मिलेगा, जैसे यात्रा करने पर प्राप्त होता है। बालक के मन में दो बड़े महानगरों- दिल्ली और कलकत्ता; की छवि है जो शान शौकत और ऊँची-ऊँची इमारतों के लिए प्रसिद्ध हैं।

झूले पर सवार बालक को नीचे आने पर लगता है कि धरती भी झूल रही है। फिर वह बहुत तेजी से ऊपर जाता है तो रोमांच से भर जाता है। ऊपर कविता में बालक की जो महत्त्वाकांक्षा व्यक्त हुई है, वह यहाँ स्पष्ट रूप से झलक रही है। 

आमतौर पर झूले का रिवाज सावन के महीने का है जब धरती पर वर्षा के बाद खूब हरियाली रहती है, बादल रिमझिम बरसते रहते हैं। कविता की आखिरी पंक्तियों में भी रिमझिम बरसते बादलों की स्मृति है। बालक कह रहा है कि रिमझिम बारिश में बहुत ऊँचाई पर जाकर वह बादलों के समूह को छू लेगा।

          बालक अपनी माँ से एक सहज अनुरोध कर रहा है। उसके अनुरोध में बालकोचित इच्छा है। आगे बढ़ाने और ऊँचाई तक जाने की आकांक्षा है। जब इतनी सहज माँग रहेगी तो कोई भी उसे पूरा करने का उपक्रम अवश्य करेगा। 

       इस कविता में विशेष ध्वन्यात्मकता है, जो लय के अनुरूप है। इसे बहुत आसानी से गाया जा सकता है और इसीलिए यह जल्दी ही याद हो जाती है। छोटे बालकों को यह बहुत मनोहर लगेगी।

(कक्षा एक की हिन्दी भाषा की पुस्तक में अम्मा आज लगा दे झूला शीर्षक कविता पाठ्यक्रम में रखी गयी है। इस कविता को समझने के लिए मूल पाठ और इसकी व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। व्याख्याकार श्रीमती रीमा राय अध्यापक हैं और बच्चों की अकादमिक और रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करती रहती हैं। उन्होंने आकाशवाणी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से बालकों के लिए कई वार्ताओं की प्रस्तुति भी की है।)

रविवार, 11 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : केशव की लघु कथाएँ

इंजीनियस 

          बिहार के लोग इंजीनियस हैं, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। बहुत दिनों बाद पटना जाना हुआ। पटना तेज़ी से बदल रहा है। हर बार पटना जाने पर कोई नई सड़क नया पुल, नई बिल्डिंग बनती दिख जाती है। पटना मीठापुर बस स्टैंड पर उतर कर मैं पैदल ही पटना जंक्शन की तरफ बढ़ने लगा। यद्यपि यहाँ टैंपो और ई-रिक्सा वाले बहुतायत हैं, और ऐसा आक्रामक रुख रखते हैं कि नहीं जाने वाले को भी खींच कर गाड़ी में बैठा लेंगे। पैदल जाने वालों को ऐसी हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं जैसे कह रहे हों, कितना कंजूस आदमी है, 10 रुपये बचाने के लिए घाम में पैदल जा रहा है”।

          पर इनकी नज़रों से नज़र बचा मैं पैदल ही आगे बढ़ने लगा। मीठापुर से जंक्शन जाने के रास्ते में कई शानदार इमारतें हैं। सबसे पहले है आर्यभट्ट नॉलेज यूनिवर्सिटी, उसके बाद फ़ैशन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और फिर कृषि विभाग का नया कार्यालय। मैं तीनों प्रतिष्ठानों के इन्सपैक्शन के इरादे से चला था।

          तभी पीछे से एक मोटरसाइकिल सवार मेरे पास आकर रुका। मुझे लगा रास्ता पूछ रहा होगा। भटके हुए मुसाफिर को रास्ता दिखाने का पुण्य मैं छोड़ना नहीं चाहता था, सो मैं उसकी तरफ लपका।

          पास आया तो वो मुझसे पूछने लगा, “कार्बिगाहिया जाना है”?

          मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया। उसने कहा चलिये छोड़ देते हैं। मैं तो ईश्वर के इस करिश्मे से दंग हो गया। बिहार में तो लोग माँगने पर लिफ्ट नहीं देते यहाँ तो बिना माँगे मिल रहा है। पुण्य करने की इच्छा मात्र से पुण्य का फल मिलने लगा। मैंने अवसर को दोनों हाथों से लपका और झट से मोटरसाइकिल पर सवार हो गया।

          अभी मोटरसाइकिल लुढ़कना ही शुरू हुई थी कि मोटर साइकिल सवार ने कहा, “मैं रैपीडो वाला हूँ।

          मैं अभी तक ईश्वर को धन्यवाद ही दे रहा था उसकी बात पर ज्यादा ध्यान न देते हुए मैंने ज़ोर से कह दिया- अच्छा !

          उसे लगा जैसे मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई। वह समझाते हुये बोला, “जो भाड़ा पर बाइक नहीं चलता हैहम वही हैं …”

          अब मोटर साइकिल थोड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी। और मेरा धन्यवाद ज्ञापन अभी खतम भी नहीं हुआ था

          ईश्वर की दया पर पूरा विश्वास करते हुए मैंने पूछ लिया, "तो हमसे भी भाड़ा लेंगे ?"

          वो बे संकोच सिर्फ इतना बोला, तो लेंगे नहीं।"

          वह चाहता तो यह भी बोल सकता था की ,आप क्या नितीश कुमार के भतीजा हैं कि आपसे नहीं लेंगे। अब तक मेरा ईश्वर से मोह भंग हो चुका था। मैंने भी बेसंकोच कहा, तो हम पैदल नहीं चल जाएँगे। उसने बेहयाई से मोटर साइकिल रोका और मुझे उतार दिया

          मैं जो बिहार के आधुनिक वास्तुकला का अध्ययन करने निकला था। जबर्दस्ती मानव संसाधन का विद्यार्थी बना दिया गया। बिहारियों के इस इंजीनियस तरीके की तारीफ करता मैं पैदल ही जंक्शन की तरफ़ बढ़ने लगा। 


आ जाई

          बिहार में 38 जिले हैं जिनमें 37 में गन्ने की खेती होती है। यहाँ एक समय में 16 सरकारी चीनी मिलें हुआ करती थी, आज एक भी नहीं है। बिहार का उत्तर पश्चिमी क्षेत्र आज भी गन्ने की खेती के लिए जाना जाता है। कहानी तब की है जब मुजफ्फरपुर का चीनी मिल बंद हो गया था। यहाँ के किसान अपनी गन्ने की फसल लेकर चम्पारण के प्राइवेट चीनी मिल जाते थे।

          मास्टर दीनानाथ बहुत सीधे सरल स्वभाव के आदमी थे। मास्टरी से रिटायर हो कर गाँव में ही रहने लगे थे। वहीं पुश्तैनी जमीन पर गन्ने की खेती करवाते थे। गन्ना चम्पारण चीनी मिल ले जाने के लिए उन्होंने एक ट्रैक्टर भी ले लिया था। गाँव में तब ट्रैक्टर की बहुत शान थी। शंकर जो शहर में ड्राइविंग करता था, उनके ट्रैक्टर का ड्राइवर बन गया था। चीनी मिल में गन्ना खरीद का काम तीन-चार महीने ही चलता है। यह समय गन्ना किसानों के लिए बहुत व्यस्तता का होता है। चीनी मिल के दरवाजे दो तीन दिनों में एक बार खुलते है। तब तक गन्ने से लदे ट्रैक्टर, बैल गाडियाँ लंबी लम्बी कतारों में अपनी बारी के इंतज़ार में खड़ी रहती है। ड्राइवर अपनी गाड़ियों पर ही सोते है घंटा बजने पर गाड़ी आगे बढ़ा लेते है।

          हर बार की तरह इस बार भी मास्टर जी के ट्रैक्टर पर दशहरी गन्ना लाद रहा था। उसका 6 साल का लड़का दिनु गन्ने लदे ट्रैक्टर पर चढ़ गन्ना चूस रहा था और खेल रहा था। जब शंकर ट्रैक्टर लेकर चला तो उसे मालूम ही नहीं था कि आज वो सिर्फ गन्ना नहीं ले जा रहा। दिनु खेलते खेलते ट्रैक्टर पर ही सो गया था।

          हमेशा की तरह इस बार भी शंकर ट्रैक्टर कतार में खड़ा कर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा। रात ढली तो ट्रैक्टर पर ही शंकर की भी आँख लग गई। सुबह किरण फूटने से पहले ही शोर शराबा शुरू हुआ। मिल का दरवाजा खुल गया था और सब अपनी अपनी गाडियाँ आगे बढ़ा रहे थे। शंकर ने भी अपनी गाड़ी स्टार्ट कि पर जैसे ही आगे बढ़ा एक चीख़ के साथ ज़ोर की आवाज हुई। कुछ ही देर में वहाँ लोग जुट गए। शंकर ने पीछे जा कर देखा तो सन्न रह गया। एक बच्चा ट्रैक्टर के चक्के के नीचे आ गया था। ट्रैक्टर का चक्का उसके पेट पर चढ़ा था। रात को जब शंकर ट्रैक्टर पर सो रहा था, दिनु शीत से बचने के लिए ट्रैक्टर के नीचे सो गया। उसका पेट रोड के साथ मिलकर एक हो रहा था। शरीर में प्राण का एक कतरा भी बचे होने की कोई संभावना नहीं थी।

          लेकिन सब को अपना गन्ना बेचने की जल्दी थी। कोई फालतू चक्कर में पड़ना नहीं चाहता था। देखने वालों ने पलकें झपकाई , शंकर ने लाश को चादर में लपेट कर बोरे में डाल दिया। फिर सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहा। शाम को जब शंकर गाँव लौटा तब हल्का हल्का अंधेरा हो चुका था। वह मास्टर जी के पास गया। उनको बुलाकर ट्रैक्टर तक लाया। लाश दिखाई और सब कुछ कह सुनाया।
          मास्टर जी को लगा जैसे अचानक गाँव की हवा मोटी हो गई हो, या उनके सांस की नलियाँ सिकुड़ने लगी हो। आंखों के सामने पुलिस, कचहरी, हथकरी और फांसी का फंदा एक साथ नाचने लगे।
शंकर का कंधा पकड़ कर बोले, “बउआ ई का कईले?” शंकर पहले तो चुप रहा फिर बोला, “मालिक हम का करती?” फिर मास्टर जी ने वो कहा जिसकी शंकर को उम्मीद नहीं थी, “मर गइल रहे त फेक देते”। शंकर तो यह सोच भी नहीं सकता था कि मास्टर दीनानाथ ऐसा कहेंगे। वह जानता तो लाश पहले ही ठिकाने लगा आता। शंकर बोला, “मालिक आराम करी, हम देख लेब”। शंकर ने थोड़ा और अंधेरा होने का इंतज़ार किया फिर लाश को पास ही बह रही बागमती में फेंक आया। इधर दशहरी जो दो दिन से अपने बच्चे को ढूंढ रहा था, सुबह सुबह ही मास्टर दीनानाथ के यहाँ आ गया। दिनु को किसी ने मास्टर जी के ट्रैक्टर पर बैठा देखा था। दशहरी पहले तो मास्टर जी से पूछता-जाँचता रहा, फिर फफककर रोने लगा।
          मास्टर जी अंदर से डरे हुए थे। भले आदमी को भगवान से ज़्यादा पुलिस का डर होता है। भगवान के डर से सच बोलता है, पुलिस के डर से झूठ। दीनानाथ दशहरी से केवल इतना कह पाये ,”रोअ मत, तहार बेटा आ जाई”।

          बेटा नहीं आना था सो नहीं आया। बगल के गाँव में मल्लाहों को एक बच्चे की लाश मिली। दारोगा दीनदयाल सिंह को खबर मिली। साथ ही यह भी खबर मिली की दशहरी का बेटा लापता है। किसी चौकीदार ने यह भी खबर दी कि चम्पारण चीनी मिल में ट्रैक्टर से एक बच्चा कुचला गया। मास्टर जी के चाहने वालों ने दारोगा को यह भी बता दिया कि आखिरी बार दिनु मास्टर जी के ट्रैक्टर पर दिखा था, और ट्रैक्टर पर उस रात लदनी हुई थी। दारोगा दीनदयाल सिंह ने एक और एक जोड़कर पूरी कहानी बना ली। फिर बुलेट उठाई और लाश देखने के बदले जा पहुँचे मास्टर जी के यहाँ। दीनानाथ मास्टर जी भी समझ गए की राज़ अब राज़ नहीं रहा। दारोगा जी को देख कर पहले तो उनका मन हुआ की पीछे के दरवाजे से भाग जाएँ लेकिन जब तक कुछ फैसला लेते दीनानाथ और दीनदयाल आमने-सामने खड़े थे। दारोगा जी अपनी स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते थे। बात घुमा फिरा कर करने की उनकी आदत नहीं थी या यूं कहिए कि उनको जरूरत भी नहीं थी। दारोगा दीनदयाल, “मास्टर जी 15 हज़ार लागी”। मास्टर जी ने भी नहीं पूछा कि 15 हज़ार किस बात के। बोले, “एतना कहाँ से आई दारोगा जी दारोगा दीनदयाल के बस इतना ही कहा, "कहाँ से आई, वो आप सोचिए”।

          मास्टर जी कुछ कहना चाहते थे तब तक दारोगा जी फिर बोले, “जो पाप किए है उसमें तो आपको पचास हज़ार भी खर्च कीजियेगा तो भी जेल तय है”। पुलिसकचहरीहथकड़ीजेलफांसीमास्टर जी पसीने से तर बतर होने लगे। दारोगा दीनदयाल गरजे,15 हज़ार में हम आपका वो पाप पी जा रहे है जो ब्रह्मा भी नहीं पचा सकतेकाहे की हम दीनदयाल हैं”। अगले दिन मास्टर जी का ट्रैक्टर बिक गया, कुछ खेत भी। दिनु का श्राद्ध नहीं हुआ, उसके लौटने का इंतजार होता रहा। दशहरी अब भी मास्टर जी से कहता, “मास्टर जी हमार बेटा ना आइल”।

          मास्टर दीनानाथ कहते, “आ जाई”।


                            

(केशव उदीयमान रचनाकार हैं। मूलतः बिहार के हैं। मुखर हैं और स्वयम को अभिव्यक्त करना जानते हैं। जिज्ञासु हैं। उनके प्रश्न अध्ययन-मनन और वर्तमान जगत के साहित्यिक सरोकारों से अनिवार्य सम्बद्ध होते हैं। केशव चाहते थे कि 'कथा-वार्ता' में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हों। उन्होंने अपने बारे में चंद पंक्तियाँ भेजी हैं- अविकल रख रहा हूँ। 

"नाम- केशव, हृदय से कवि हूँ, व्यंग्य में सोचता हूँ, स्वभाव से घुमक्कड़। छपरा जिला घर बा। पिता जी के लिए असकत ( आलस्य) के अलमारी।" - सम्पादक)

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

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