बुधवार, 23 सितंबर 2020

कथावार्ता : शेखर जोशी की कहानी- गलता लोहा

 

कथा-वार्ता की नवीनतम प्रस्तुति- शेखर जोशी की कहानी- गलता लोहा।

गलता लोहा- शेखर जोशी की कहानी




 

                शेखर जोशी (जन्म- १९३२ ई०, अल्मोड़ा) नयी कहानी के प्रमुख लेखक हैं। उनकी कहानियों के संग्रह हैं- कोसी का घटवार’, ‘साथ के लोग’,  हलवाहा’, ‘नौरंगी बीमार है,’ ‘मेरा पहाड़’, ‘डागरी वाले’, ‘दस बच्चे का सपना’, ‘आदमी का डर’, ‘शब्दचित्र।  एक पेड़ की यादऔर स्मृति में रहें वेउनके संस्मरण हैं।  न रोको उन्हें शुभा शीर्षक से उनकी कविताओं का एक संग्रह २०१२ ई० में प्रकाशित हुआ है। शेखर जोशी को महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, साहित्य भूषण और पहल सम्मान मिल चुका है।

 

          शेखर जोशी नयी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी कहानियों में मजदूर जीवन और पहाड़ का परिवेश बहुत बहुत अनूठे तरीके से अभिव्यक्त हुआ है। गलता लोहा, वास्तव में एक राजनीतिक चेतना सम्पन्न कहानी है, जिसमें आफ़र पर लोहा नहीं गल रहा, वर्ण व्यवस्था की कठोरता पिघल रही है और नया आकार ले रही है। यह कहानी शिक्षा और समाज व्यवस्था का बहुत मार्मिक चित्र भी हमारे सामने प्रस्तुत करती है।

 

          आगामी वीडियो में हम इस कहानी का आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत करेंगे। अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी तो टिप्पणी करें और अपने प्रश्न तथा सुझाव से अवगत कराएं।

 

          वाचन स्वर है- डॉ रमाकान्त राय का।       

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

कथावार्ता : यादगारे फिराक़ : लीजेण्ड फ़िराक़

आज फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्मदिन है। लीजेण्ड फ़िराक़। किम्बदंती फ़िराक़। इलाहाबाद में रहने वाला, तनिक भी साहित्यिक अभिरुचि का व्यक्ति फ़िराक़ साहब के बारे में गजब की जानकारी रखता/शेयर करता है। रघुपति सहाय फ़िराक़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। उर्दूअदब में बहुत आदर से गिने जाते हैं। उनकी पुस्तक गुल-ए-नगमा को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। किताबी हिंदी के प्रखर विरोधी फ़िराक़ साहब तहजीब के प्रति अव्वल दर्जे तक जुनूनी थे। उज्जडता की हद तक जुनूनी थे।

फिराक गोरखपुरी ने गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी आदि शायरी की पुस्तकों के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया भी लिखा। 


फ़िराक़ गोरखपुरी ने भारतीयता को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। उनके यहाँ कविता में पारंपरिक उर्दू कविता की तरह साकी, हाला, ग़म और इश्क-मुश्क भर नहीं है। उनकी कविता में उच्च स्तर की दार्शनिक प्रतिपत्ति, वात्सल्य की अभिव्यक्ति और देश-प्रेम की भावना की प्रधानता है। उनकी सांस्कृतिक विरासत की हद भारतीय सनातन परम्परा से जुड़ती है और इस तरह विशिष्ट हो जाती है। वह लिखते हैं-

          खेतों को संवारा तो सँवरते गए ख़ुद भी

          फ़सलों को उभारा तो उभरते गए ख़ुद भी

          फ़ित्रत को निखारा तो निखरते गए ख़ुद भी

          नित अपने बनाए हुए साँचों में ढलेंगे।

 

          हम ज़िंदा थे, हम ज़िंदा हैं, हम ज़िंदा रहेंगे।

 

बीते दिन फ़िराक़ साहब पर केंद्रित कॉमरेड रामजी राय की पुस्तिका 'यादगारे फ़िराक़' मिली। फ़िराक़ साहब के जीवन, अदब, शायरी और चिंतन को केंद्र में रखकर संस्मरण की शैली में लिखी यह पुस्तिका बहुत रोचक और शानदार बन पड़ी है। फ़िराक़ साहब के बारे में जानने, समझने के लिहाज से यह विशिष्ट पुस्तिका है। इसमें आये उनके संस्मरण फ़िराक़ साहब के व्यक्तित्व को बखूबी उजागर करते हैं। उनके विट, उनकी अदा, सोचने और समझने की काबिलियत और व्यवहार को स्पष्ट करती है। यों ही फ़िराक़ साहब नहीं कहा करते थे कि आने वाली नस्लें उनपर फक्र करेंगी।


पुस्तिका उनकी शायरी, उनके लिखे पर बहुत आत्मीयता किन्तु बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करती है। यह मिसाल है कि एक पुस्तिका कैसे अपनत्व रखकर भी निर्मम हो सकती है। अपने को अस्सी फीसद मार्क्सवादी मानने वाले फ़िराक़ साहब को समझने के लिहाज से यह पुस्तिका बहुत मानीखेज है।

          उनकी एक रुबाई से यह बात खत्म करता हूँ। उनकी इस रुबाई में माँ और बालक के वात्सल्य भरे व्यवहार में जो सरलता और तरलता है, वह फ़िराक़ को अत्यंत ऊँचे स्तर पर स्थापित करती है। जन्मदिवस पर भावपूर्ण स्मरण- 

                    “किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से

                    कुछ त्योरी चढ़ाये हुए मुँह फेरे हुए

                    इस रुठने पर प्रेम का संसार निसार

                    कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे”।


मंगलवार, 25 अगस्त 2020

कथावार्ता : आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी : हिन्दी के संवेदनशील महात्मा जिन्हें मुख्यधारा ने कभी गले नहीं लगाया


-आदित्य कुमार गिरि
मैं ठीक-ठीक सोचकर कह रहा हूँ कि आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी के बड़े लेखक थे/हैं। मेरे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा व आदर है। उनके लेखन ने मुझे बहुत समृद्ध किया है, संवेदनशील बनाया है और मुझे मेरी अल्पज्ञता का एहसास कराया है और इसका भी कि विद्या केवल विनम्र होकर ही अर्जित की जा सकती है। द्विवेदी जी विनम्रता और सीधेपन को मनुष्य के लिए बेहद जरूरी मानते थे। और उन्हें इसका एहसास भी था कि सीधा होना, बहुत टेढ़ा काम है। तभी तो उन्होंने लिखा कि सीधी लकीर खींचना सबसे टेढ़ा काम है। उन्होंने स्वयं की तलाश में, विद्यार्जन के मार्ग पर निडर होकर आगे बढ़ने को नियम की तरह ज़रूरी माना है। वे कहते हैं किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।

मैं द्विवेदी जी को हिन्दी आलोचना में शुक्ल जी की अगली कड़ी मानता हूँ। हिंदी में बहुत संकीर्ण सोच के तहत शुक्ल जी और द्विवेदी जी को लड़ा दिया गया जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शुक्ल न होते तो द्विवेदी भी न होते। द्विवेदी जी के लेखन का एक अंश शुक्ल जी से संवाद के क्रम में विकसित हुआ है। और शुक्ल जी जो नहीं कह सके हैं द्विवेदी जी ने उन बिंदुओं को बेहतरीन ढंग से प्रकट किया है। ये दोनों हमारी हिन्दी की थाती हैं। संवाद के क्रम में ही दुनिया और ज्ञान का विकास होता है।

  अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास दर्शनमें दोनों की दृष्टियों के अंतर को स्पष्ट करते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का केंद्र हिंदी प्रदेश था जबकि द्विवेदी जी ने पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया है।

  शुक्ल जी का आलोचकीय विवेक छायावादी साहित्यिक आंदोलन से निर्मित हुआ था जबकि द्विवेदी जी का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से। दोनों के बीच का यह बुनियादी फर्क ही उनके लेखन की धुरी थी लेकिन आधुनिक आलोचना जगत (जिसमें डॉ रामविलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह प्रमुख है) ने शुक्ल-द्विवेदी स्कूलों की कल्पना कर दोनों के बीच एक कृत्रिम लड़ाई खड़ी कर दी और बाद में पूरा हिन्दी जगत इसी फ्रेम में फ्रेम्ड हो गया और दो खेमे बन गए- शुक्ल-खेमा और द्विवेदी खेमा। शुक्ल को ब्राह्मणवादी और द्विवेदी को ब्राह्मणवाद का विरोधी कहकर खूब प्रचारित किया गया जबकि इस तरह की ज़मीन पर दोनों ही महात्मा लेखक लेखन नहीं कर रहे थे।

  एक लेखक का लेखकीय विवेक किस पृष्ठभूमि में तैयार होता है, बिना उसे समझे लेखक के लेखन और दृष्टि को कभी भी समझा नहीं जा सकता है। लेखक अपने निर्णयों से ज़्यादा अपनी संवाद शैली के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। वह किन विषयों को छूता है और किन्हें छोड़ता है वह उसका निजी फैसला नहीं होता अथवा वह किसी गैंगवॉर की दृष्टि से लेखन नहीं करता बल्कि उसका लेखन उसके समकालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज होता है। असल में उसका मानस ही ऐसे तैयार होता है।

  जो लेखक छायावादीन साहित्यिक आंदोलन से आप्लावित था उसके आदर्श में लोककल्याण और तुलसीदास थे और जो लेखक प्रगतिशील आंदोलन के आलोक में तैयार हुआ उसके आदर्श कबीर और नाथपंथ था। द्विवेदी जी अपने युगबोध को रिप्रेजेंट कर रहे थे। हर लेखक यही करता है। प्रतिरोध की जो हवा उनके युग में चल रही थी उसका मध्यकालीन वैचारिक संबल कबीर में ही था। इसलिए वे कबीर और उनके युगबोध को इतनी सजीवता से प्रकट कर सके। जबतक प्रगतिशील आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में द्विवेदी जी का लेखन कसकर नहीं देखा जाएगा तबतक वे शुक्ल जी तो इस जी या उस जी के विरोध करते तुक्कों में फिट होते देखते रहेंगे।

  द्विवेदी जी ने अपने एक उपन्यास में लिखा है- एकांत का तप बड़ा तप नहीं है। संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है, लोग दुःख से व्याकुल हैं। उनमें जाना चाहिए। उनके दुःख का भागी बनकर उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही वास्तविक तप है।

  यह तप और कष्टों को केन्द्र में रखकर लेखन किस मस्तिष्क की उपज हो सकती है, यह पाठक तय करें। अगर भारत में विराट प्रगतिशील आंदोलन न हुआ होता तो द्विवेदी जी का ऐसा स्वर भी न होता। द्विवेदी जी तो खैर, दूर की बात है; छायावाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि सुमित्रानंनदन पंत और निराला तक पर प्रगतिशील आंदोलन का भयंकर प्रभाव पड़ा। इतना कि छायावाद को छोड़ प्रगतिशीलता में आकंठ डूब गए।

  द्विवेदी जी का यह स्वर देखिए जब वे खुद को कोसते हुए कहते हैं- मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ विराट रिक्तता। जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है।

'छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा है, पेट पालने के लिए छीना-झपटी को कर्म माना है, झूठी प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं- इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े को लक्ष्य को समर्पित नहीं हो सका, किसी के दुःख दूर करने के लिए अपने को उलीचकर नहीं दे सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया।यह कितना तीव्र और ब्लंट आत्मसाक्षात्मकार है। इसकी तुलना मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंकी पंक्ति अब तक क्या किया, जीवन क्या जियासे कर सकते हैं। समाज के लिए जीने और कुछ करने की इतनी तीव्र छटपटाहट और भूख प्रगतिशील आंदोलन में तैयार मानस की ही हो सकती है।

  इसकाल के विवेक के लिए साहित्य अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है बल्कि समाज कल्याण का शस्त्र है। यह काल औसा ही विवेक तैयार करता है जिसे चाँद में प्रेमिका का चेहरा नहीं बल्कि रोटी का टुकड़ा दिखता है।

  द्विवेदी जी इसी कारण प्रगतिशील आलोचक थे उनका साहित्य कर्म समाज को केंद्र में रखकर चल रहा था। वे अपने युग को दरकिनार करके नहीं चल सकते थे। कोई भी नहीं चल सका। वे सच्चे मायने में मानवतावादी लेखक थे। उनका मानवतावाद नारा नहीं था, बल्कि वह उनके अंदर गहरे पैठा था। उनका समूचा लेखन वंचितों की दृष्टि से लिखा तो गया ही है लेकिन साथ ही वह उपेक्षित एवं विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके खड़े हुए अनुभवों और व्यक्तियों के पक्ष में भी रहा है।

यह उनकी पृष्ठभूमि का परिणाम थी जिसकी ओर ऊपर मैंने इशारा किया है। तो दो अलग-अलग काल के, अलग-अलग परिस्थितियों के, अलग-अलग विवेक के, अलग-अलग सरोकारों के लेखकों को एक ज़मीन पर खड़ा करके एक दूसरे के शत्रु के रूप में चित्रित करना कितना बड़ा पाप है, यह आप खुद तय कीजिए।

  द्विवेदी जी के भीतर शुक्ल जी के प्रति अगाध प्रेम और आदर था। एक विद्वान दूसरे विद्वान का अनादर कर भी नहीं सकता। जब भी कोई चरित्रहनन का प्रयास होता है तब असल में वह छोटे मन और व्यक्तित्वों द्वारा किए प्रयास होते हैं।

कहते हैं एकबार रवींद्रनाथ ठाकुर ने द्विवेदी जी को अपने कमरे में बुलाया। शांतिनिकेतन में उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। इतनी कि घुटने-घुटने भर पानी था। कलकत्ते की बारिश तो ऐसे ही मशहूर है। द्विवेदी जी को लेकिन उस अँधेरी रात में कोई भ्रम नहीं था कि बारिश है, कि पानी है, कि अँधेरा, कि कैसे जाएँ और न जाएँ। गुरुदेव ने बुलाया है, तो जाना तो है ही। अतः भीगते-भागते वे रवींद्रनाथ के कमरे तक पहुंचे।

देखा, रवींद्रनाथ आराम कुर्सी पर लेटे खिड़की के परे उस छप्पनों कोट हो रही बारिश को देख रहे थे। द्विवेदी जी वहीं, एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए। कोई आधे घण्टे बाद रवींद्रनाथ की तंद्रा भंग हुई और उनकी नज़र द्विवेदी जी पर गयी। उन्होंने बच्चों के से उत्साह से आह्लादित होकर कहा 'देख चो, एतो शुन्दोर बृष्टि।' (देख रहे हो, कितनी अच्छी बारिश हो रही है।)

द्विवेदी जी ने खिड़की के बाहर नज़र घुमाई और एकटक देखते रह गए। द्विवेदी जी ने उस पल को अपनी आत्मा में क़ैद कर लिया।

यह कथा सुनाने के पीछे मेरी एक मंशा है। वह यह कि कोई साधारण व्यक्ति होता तो कमरे में घुसते ही कहता कि हाँ सर, आ गया। क्यों बुलाया आपने ?’

लेकिन द्विवेदी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। वे वहाँ गए और चुपचाप खड़े हो गए। क्यों ? क्योंकि वे एक लेखक थे, एक संवेदनशील व्यक्ति थे। एक लेखक और एक संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे लेखक की संवेदनाओं को समझ सकता है। और उसपर रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति को।

द्विवेदी जी देखकर समझ गए होंगे कि रवींद्रनाथ इतनी तल्लीनता से बाहर देख रहे हैं तो दृश्य को देखकर अपनी किसी काव्यात्मक संवेदना में खोए गए होंगे। अतः उन्होंने उन्हें टोका नहीं। लेखक को टोकना उसे उसके भावलोक से खींचना होता है। उसकी तंद्रा में बाधा पहुँचाना होता है। इसे द्विवेदी जी जैसा व्यक्ति ही समझ सकता है।

  लिखने वाला हर आदमी लेखक नहीं होता। लेखक बनाती है उसकी संवेदनशीलता, उसकी सूक्ष्मता और अन्यको समझने और सम्मान देने की उसकी दृष्टि और मनःस्थिति।

  मैंने इसलिए ही कहा कि एक विद्वान कभी भी दूसरे विद्वान की उपेक्षा या अनादर कर ही नहीं सकता। द्विवेदी जी जैसा प्रकांड पंडित तो और नहीं कर सकता था। उनके लेखन में शुक्ल जी के प्रति यदा-कदा आदर झलकता रहता है।

अज्ञेय ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा है कि किसी व्यक्ति को समझना हो तो उसे किसी की बुराई करते सुनो। दूसरों की बुराई करते समय एक आदमी कैसी भाषा, कैसा टेम्परामेंट, कैसी उदारता या अनुदारता बरतता है, उसी से उसके चरित्र और स्वभाव का पता चलता है।

लेकिन मैं अज्ञेय से सहमत होते हुए भी इसकी आगे की कड़ी में कहना चाहूँगा कि अगर किसी व्यक्ति के चरित्र को समझना हो तो उसे किसी की प्रशंसा करते सुनो। आप देखेंगे कि उस समय व्यक्ति उदार है या काईंयाँ, इसका सबसे ज़्यादा पता चलता है। क्योंकि प्रशंसा भी उदारता की निशानी है, कृपण व्यक्ति तो प्रशंसा करने में भी कंजूसी करता है।

तो इस दृष्टि से देखें तो द्विवेदी जी जैसा उदार तो कोई है ही नहीं। द्विवेदी जी का समूचा आलोचकीय और नैरेटिव लेखन उठाकर देख लीजिए। वे जब-जब किसी की प्रशंसा करते हैं कलम तोड़ देते हैं। एकदम मुक्त कंठ से,खुले हृदय से , उच्छावासित होकर प्रशंसा करते हैं।

तुलसीदास पर लिखते समय उन्होंने उनकी प्रशंसा में जो-जो लिखा है वह तो शुक्ल जी ने भी नहीं कहा है। हिन्दी का हर विद्यार्थी, हर आलोचक तुलसीदास पर लिखते समय द्विवेदी जी को बिना उद्धृत किए पार ही नहीं पा सकता।

उनके तमाम उद्धरणों में से एक यह है- भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना-भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। वे स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। ब्राह्मणवंश में उनका जन्म हुआ था, दरिद्र होने के कारण उन्हें दर-दर भटकना पड़ा था, गृहस्थ-जीवन की सबसे निकृष्ट आसक्ति के वे शिकार हो चुके थे, अशिक्षित और संस्कृतिविहीन जनता में वह रह चुके थे और काशी के दिग्गज पंडितों तथा संन्यासियों के संसर्ग में उन्हें खूब आना जाना पड़ा था।

  'नाना-पुराण-निगमागम का अभ्यास उन्होंने किया था और लोकप्रिय साहित्य और साधना की नाड़ी उन्होंने पहचानी थी। पंडितों ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि उस युग में प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य-पद्धति नहीं थी, जिसपर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो।

इसी तरह कबीर की प्रशंसा में उन्होंने जो कहा वह हिन्दी में मील का पत्थर बन गया। कबीर पर अनपढ़ता और विद्वता के आलोक में हुए आघातों के इस उद्धरण से परखच्चे उड़ सकते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी के पाठकों को आलोचना की सभ्य तमीज़ दी। उद्धरण है- हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है-तुलसीदास।

(नामवर सिंह लॉबी ने जिन द्विवेदी जी को प्रो-कबीर दिखाया है वे कबीर और तुलसी को लेकर क्या सोचते थे देखिए।) भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।कबीर के अशास्त्रीय लेखन का दुनिया में इससे बड़ा डिफेंस हो नहीं सकता। असल में द्विवेदी जी सकारात्मकता के लेखक थे। द्विवेदी जी जिस गद्गद भाव से प्रशंसा करते थे वह उनके निश्छल हृदय का परिचायक है। ऐसा आदमी किसी के प्रति विद्वेष रखकर लिखता हो, यह शिष्यमंडली ने कैसे देख लिया, भगवान जाने।

  द्विवेदी जी गरीबी के उस स्तर से आए थे जहाँ कई-कई दिन भूखे रातें कटती हैं। वे बलिया के भोजपुरी भाषी थे। पूजा करके घर चलता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या की पढ़ाई ही इसलिए की ताकि उन्हें कमाने का ज़रिया मिल सके। उनके गुरु ने कहा कि संस्कृत सीख लो फिल कभी भूखे नहीं मरोगे। अतः कालीदास के साहित्य को चिखुर जाओ। (चिखुरना एक भोजपुरी शब्द है जिसका अर्थ गाय या बकरी द्वारा ज़मीन से घास चरने के तरीके से है।) बस द्विवेदी जी कालीदास को चिखुर गए। उनके संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही कलकत्ते के शांतिनिकेतन में उन्हें बुलाया गया था लेकिन बाद में उन्हें हिन्दी-विभाग का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। रवींद्रनाथ का द्विवेदी जी पर विशेष स्नेह था।

द्विवेदी जी सही मायने में विराटता के पूजक थे। उन्होंने खंड में अखंड के होने की बात को मज़बूती से स्वीकारा है। वे मानते थे कि सत्य एक और अखंड है। इसके एक भी पहलू को सही-सही पकड़ लेने पर बाकी साफ हो जाते हैं।द्विवेदी जी साहित्य या समाज को संपूर्णता में देखने वाले जीव थे, वे किसी को भी निंदा या रिजेक्शन की नज़र से नहीं देखते थे।

उनका विमर्श विपरीत फल देने पर भी किसी को छोड़ने या उपेक्षा करने के पक्ष में नहीं था। तभी तो शुक्ल जी द्वारा त्याज्य साहित्य(सिद्ध्-नाथ-जैन साहित्य) को भी साहित्य के विमर्श में ले आए। द्विवेदी जी का लेखकीय विवेक संप्रदाय के संकुचित घेरे में रहकर नहीं सोचता था। वह अखिल भारतीय था।

वे जिस सांस्कृतिक-पृष्ठभूमि से आए थे वह किसी दलीय हित के परे मानवता को केंद्र में रखकर सोचता था इसीलिए वे सबको गले लगाते गए लेकिन तमाम पूर्वग्रहों और संकीर्णताओं वाले इस मुख्यधारा ने सदैव उनकी उपेक्षा की, तिरस्कार किया।

वे सच में फफ्कड़ थे, शिरीष के फूल थे, अशोक के फूल, कुटज थे। विपरीत परिस्थितियों में, बेतरह गरीबी में रहकर, पलकर अपनी योग्यता के बल पर न सिर्फ खुद को बल्कि अपने सारे विद्यार्थियों को स्थापित किया। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जहाँ द्विवेदी जी की षिष्य परंपरा का कोई एक प्रतिनिधि न हो। द्विवेदी जी ने अपने लेखन में घृणा और रिजेक्शन्स को कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने ही लेखन को संवाद शैली से जोड़ा वर्ना आलोचना एक सूत्रयुक्त गूढ़ लेखन था। द्विवेदी जी के बाद आलोचना में उपन्यास का सा मज़ा प्रविष्ट हो गया।

आचार्य द्विवेदी की सकारात्मक आलोचना दृष्टि को उनकी पुण्यतिथि पर स्मरण करते हुए उनके प्रति आदर और कृतज्ञता से भरकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।


आदित्य कुमार गिरि

(युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक, मौलिक चिन्तक और सुधी आलोचक हैं। वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों पर उनका विवेचन और विश्लेषण मौलिक और तथ्यपरक होता है। यह आलेख उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के जन्मदिवस पर हमारे विशेष अनुरोध पर लिखा था।

हमारे ब्लॉग पर आदित्य कुमार गिरि की यह दूसरी प्रस्तुति!)

रविवार, 21 जून 2020

कथावार्ता : ललित निबन्ध : सूर्यग्रहण और हमारे मिथक

-डॉ रमाकान्त राय 

          आज सूर्यग्रहण निश्चित है।

          वैसे तो यह एक खगोलीय घटना है लेकिन इसका मिथकीय स्वरूप बहुत दिलचस्प है। वह समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम से सम्बद्ध है। राहु-केतु से जुड़ा हुआ। राहु सूर्य को और केतु चंद्रमा को जब तब ग्रसने के लिए उद्धत होते हैं। गाँव में तो ग्रहण को सूर्य भगवान और चन्द्र देव पर संकट की तरह माना जाता है और मैंने देखा है कि कई धर्मपरायण लोग ऐसी अवधि में एक पैर पर खड़ा होकर उग्रह होने के लिए तपस्या करते हैं, पानी के परात में उनपर आए संकट को देखा जाता है और उसके कटने तक धार्मिक कथाओं का श्रवण किया जाता है। इस अवधि में भोजन आदि ग्रहण नहीं किया जाता और कोई ऐसा खाद्य पदार्थ है तो उसमें तुलसीदल डालकर शुद्ध रखने का प्रयास किया जाता है।

          महाभारत युद्ध की एक घटना को मैं इसी सूर्यग्रहण से जोड़कर देखता हूँ। अभिमन्यु के वीरगति के बाद अर्जुन शपथ लेते हैं कि अगले दिन के सूर्यास्त से पहले वह इस हत्या के जिम्मेदार जयद्रथ को यमपुरी पहुँचा देंगे। ऐसा न कर सके तो अग्नि समाधि ले लेंगे।

          यह एक कठिन शपथ है। अत्यन्त आवेश में लिया गया। पुत्रशोक में अर्जुन ने सबके समक्ष इसे दुहराया। कौरव पक्ष के लिए यह अवसर है। आपदा में अवसर। कुटिल लोगों के लिए आपदा में अवसर इसी तरह का होता है। सहज सामान्य लोगों के लिए ऐसे में जीवन को मजबूत करने का उपाय खोजना/नये अनुसंधान करना, समय का सदुपयोग करना अवसर है तो कुटिल, खल और कामी जन के लिए इसमें अपने लिए "अवसर" है। अवसर एक लचीला शब्द है। इसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है। स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूँद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर बनती है, सीप के मुख में पड़कर मोती और साँप के पास जाकर विष! यह पात्र पर निरभर करता है कि वह अवसर को कैसे लेता है। खैर,

          कौरव पक्ष के पास यह अवसर है कि अगर जयद्रथ को बचा लिया गया तो अर्जुन स्वतः जल मरेगा। जिस काम को बड़े बड़े योद्धा बड़ी कोशिश के बाद भी नहीं कर पा रहे हैं, वह निमिष मात्र में हो जायेगा। बस रणनीति बनानी है। आपदा में अपने लिए जगह बनाना है। कौरव पक्ष ने पिछले दिन सुशर्मा को इसके लिए राजी किया था कि वह अर्जुन को प्रातः काल ही युद्ध के लिए ललकारेगा और युद्ध भूमि से इतनी दूर ले जायेगा कि सूर्यास्त तक अर्जुन कुरुक्षेत्र में चक्रव्यूह तक ही न पहुँच सके। चक्रव्यूह में ही अभिमन्यु को मारा गया है।

          फिर जयद्रथ विशेष गुण सम्पन्न योद्धा है। उसे मारना एक अलग ही कौशल की अपेक्षा रखता है। उसके पिता ने अपने बेटे के लिए विशेष आयुष कवच बनाया है। जो मारेगा, जिसके हाथ से उसका सिर धराशायी होगा, वह तत्क्षण भस्म हो जायेगा। अर्जुन की चुनौती बड़ी है। उसे इसका ध्यान भी रखना है कि विषाणु का उन्मूलन करते हुए स्वयं संक्रमित न हो जाए।

          उस दिन सभी कुरुवीर जयद्रथ की रक्षा में सन्नद्ध हो गए थे। जयद्रथ के आगे कई छोटी छोटी चुनौतियाँ भी थीं। आप एक बड़ा काम करने चलते हैं तो राह में छोटी-छोटी बाधाएँ उपस्थित हो ही जाती हैं। विद्वान कहते हैं कि उससे किनारा कर लेना ही उचित है लेकिन कूटनीति और राजनीति के विद्वान कौटिल्य/चाणक्य कुछ दूसरा ही सोचते थे। कहते हैं कि चाणक्य विवाह करने जा रहे थे। दूल्हा बने थे। जामा जोड़ा पहनकर सज धज कर जा रहे थे। राह में एक कुश की नोक उनके पैर में चुभ गयी। यह उनके लिए पीड़ादायी था। कहाँ सुख के लिए दल बल चला है, बारात सजी है और कहाँ पैरों में कांटा चुभ रहा है! चाणक्य ने माथे पर सजा मौर उतारा और कुश उन्मूलन में लग गया। कुश की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। उसकी नोक भी बहुत तीक्ष्ण होती है। एक जमाने में कुश लाने वाले लोग प्रशिक्षित होते थे। उन्हें 'कुशल' कहा जाता था। अब तो कोई भी व्यक्ति जो अपने काम में निष्णात है, कुशल कहा जाता है और उसके 'कौशल' की चर्चा की जाती है। कुशल शब्द का खूब अर्थ विस्तार हुआ है।

          तो चाणक्य ने कुश उन्मूलन शुरू किया। जब हाथ से, उपकरणों से वह सफल न हुआ तो उसकी जड़ों में मट्ठा डालने लगा। उसने बारात स्थगित कर दी। पहले यह कर लेगा तभी बियाह करेगा। वह दूसरे ही तरीके का ब्राह्मण था। उसकी प्राथमिकतायें सुस्पष्ट थीं। तभी वह मगध के महाप्रतापी राजा महापद्मनंद का राज एक सामान्य लड़के चंद्रगुप्त की मदद से मिटा सका।

          आज के युद्ध के प्रारम्भ में ही कृष्ण ने बताया था कि आपका लक्ष्य क्या है? कृष्ण ने शुरू में सलाह दी कि आज तुमने कुछ शपथ ली है लेकिन बाद में वह अपने रथी की आज्ञा का अनुपालन करने लगे। एक सारथि का यही कर्तव्य है। उसे शल्य बनने से बचना चाहिए। शल्य कर्ण का सारथी बने तो हर बात पर उसे कहते रहते कि तुम्हें ऐसा नहीं, बल्कि वैसा करना चाहिए। कर्ण शल्य को रथ पूर्व दिशा में ले चलने को कहता तो वह बताने लगते कि उधर जाने में क्या हानि होगी। कहते हैं कि अंग्रेज राजा अपने मंत्रियों से कहते थे कि वह गलत नहीं हो सकता। अब राजा के विश्वस्त लोगों का काम है कि वह राजा के काम के औचित्य को सिद्ध करें और उसे ही न्यायसंगत बतायें। ताकत यही करती है। वह अपना इतिहास इसी तरह बनवाती है। कृष्ण ने एक बार बलराम से कहा था कि अगर कौरव युद्ध जीत जाते तो वह द्यूत क्रीड़ा और द्रोपदी के चीर हरण को भी तार्किक और विधि सम्मत सिद्ध कर देते।

          कृष्ण रथ बढ़ाते गये और अर्जुन कौरवों से युद्ध में उलझ गया। आज तो सभी योद्धा जयद्रथ की रक्षा में लग गए थे। इतने योद्धाओं के रहने पर कृष्ण जानते हैं कि जयद्रथ को मारना सम्भव नहीं! तब वह विधि को अनुकूल कर लेते हैं। अचानक सूर्यास्त हो जाता है। सब भौंचक हैं। अभी तो दिन ढलने में समय है। ऐसे कैसे सूर्यास्त हो सकता है? सभी पाण्डव आश्चर्यचकित हैं। शोकाकुल हो रहे हैं। अर्जुन को अग्निसमाधि लेनी पड़ेगी। राम अपने भाई के शक्ति बाण लगने पर फूट फूट कर रोते हैं- मेरो सब पुरुषारथ थाको! उनकी चिंता में भ्राता से विछोह के दुख के साथ-साथ अपना वचन न पूरा कर पाने का कष्ट भी है। लेकिन राम और उनकी कहानी शुद्ध लौकिक है। रामायण में चमत्कार कम हैं, न के बराबर। वह पुरुषार्थ से सम्पन्न होता है। महाभारत में पारलौकिक सत्ता का हस्तक्षेप बहुत अधिक है। चमत्कारिक ताकतें बहुत हैं।



          अर्जुन के इस गति से कौरव अत्यन्त प्रसन्न हैं। जश्न मनने लगता है। सभी वीर अर्जुन के पास आ जाते हैं। उसे याद दिलाने लगते हैं कि उसने कल प्रतिज्ञा की थी। अर्जुन भी गान्डीव रख चुका है। थक कर बैठ गया है। एक तरफ कौरव दल ने चिता सजा दी है। सब तमाशा देखने एकत्र हैं। जयद्रथ सबसे आगे खड़ा है। उसकी वजह से कौरव लगातार दूसरे दिन युद्ध में आगे हैं। आज तो एक शानदार 'अवसर' है। तभी सूर्य उदित हो जाते हैं। दिन निकल आता है। सब स्पष्ट हो जाता है। कृष्ण कहते हैं- 'अर्जुन! उठो। देखो, सूर्य आसमान में चमक रहे हैं, अभी दिन नहीं ढला है। जयद्रथ ठीक तुम्हारे सामने ही है। तुम्हारे पास प्रतिज्ञा पूरी करने का यह "अवसर" है। ध्यान रखना- शत्रु विशेष प्रकृति वाला है। इसका नाश करने के लिए विशेष पीपीई किट चाहिए।'

          क्या हुआ होगा उस समय? मैं जब इस प्रसंग के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सूर्यग्रहण की याद आती है। उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण रहा होगा। कुछ घड़ी के लिए ऐसी ही खगोलीय घटना हुई होगी। पिछला सूर्यग्रहण इतना जबरदस्त था कि पक्षी अपने नीड़ की ओर चल पड़े थे। सूरजमुखी के फूलों ने अपना पट बन्द कर लिया था। एक विशेष अन्धकार हर तरफ व्याप्त हो गया था। उस काल में यह ग्रहण बहुत विकट रहा होगा। सभी योद्धा इस खगोलीय घटना के प्रति उदासीन रहे होंगे। लेकिन फिर सोचता हूँ कि क्या वाकई? उन उद्भट विद्वानों को यह पता नहीं रहा होगा? जरुर रहा होगा! तो क्या वाकई श्री कृष्ण ने अपना चक्र चलाया था? वह सूर्य के प्रकाश को आच्छादित कर सकता था?

          एकादश रुद्रावतार हनुमान के बारे में भी यह कथा है कि उन्होंने सूर्य को निगल लिया था। मुझे लगता है कि यह भी सूर्यग्रहण का ही समय रहा होगा जिसकी कल्पना कवि ने उनके पराक्रम का वर्णन करने के लिए किया है। कवि की कल्पना मानस का निर्माण करने में सक्षम है। इसीलिए कवि की भूमिका बहुत मायने रखती है। लेकिन यूनानी विचारक प्लेटो तो कवियों से बहुत चिढ़ता है। उन्हें राज्य से बाहर फेंक देने के लिए राजा को उकसाता है लेकिन भारतीय परम्परा में वह परिभू: स्वयंभू कहे गये हैं! नयी सृष्टि के रचनाकार।

          लेकिन मेरा उद्देश्य यह सब विवेचन करना नहीं। मैं तो आज के सूर्यग्रहण के मिथकीय काव्य प्रयोग पर अपनी उधेड़बुन आपके समक्ष रख रहा था। आप बताइये तो!


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com



रविवार, 7 जून 2020

कथावार्ता : अकाल केन्द्रित तीन आधुनिक कवितायें

अकाल और उसके बाद
-नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

(1955)

अकाल
-रघुवीर सहाय

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।
लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।
पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।
जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।
मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।
दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!


(1967)

अकाल में दूब

-केदारनाथ सिंह

भयानक सूखा है
पक्षी छोड़कर चले गए हैं
पेड़ों को
बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे
चींटियाँ
देहरी और चौखट
पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं
घरों को छोड़कर

भयानक सूखा है
मवेशी खड़े हैं
एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए

 

कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाए
सुना नहीं कभी
दूब मगर मरती नहीं -
कहते हैं वे
और हो जाते हैं चुप

निकलता हूँ मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूँ परती-पराठ
झाँकता हूँ कुँओं में
छान डालता हूँ गली-चौराहे
मिलती नहीं दूब
मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े
बाल्टियाँ लोटे परात
झाँकता हूँ घड़ों में
लोगों की आँखों की कटोरियों में
झाँकता हूँ मैं
मिलती नहीं
मिलती नहीं दूब

अंत में
सारी बस्ती छानकर
लौटता हूँ निराश
लाँघता हूँ कुएँ के पास की
सूखी नाली
कि अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हाँ-हाँ दूब है -
पहचानता हूँ मैं

लौटकर यह खबर
देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी
दमक उठता है उनका चेहरा
'है - अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब...'
बुदबुदाते हैं वे

फिर गहरे विचार में
खो जाते हैं पिता।

(1988)


शुक्रवार, 5 जून 2020

कथावार्ता : कुबेरनाथ राय के साहित्य का भारतवादी पक्ष


कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 02

-ऋषिकेश कुमार


"अकेला निर्माण ?
वह भी है,
अगर उसकी चाह
सभी के कल्याण के हित
छोड़ी गई हो।” 
-‘अज्ञेय’
आधुनिक काल के प्रसिद्ध आर्ष-मनीषा के अन्वीक्षक आख्याता, सारस्वत साधना के साधक, ललित निबंध लेखक, ‘देशी’ क़िस्म के ग्रामीण बुद्धिजीवी, चिंतक, आचार्य कुबेरनाथ राय हिन्दी साहित्य में अपने ढंग से अकेला निर्माण करने वाले लेखक हैं, जिनके यहाँ सभी के कल्याण की भावना निहित है। कुबेरनाथ राय ने बदलते समय और परिवेश को ध्यान में रखते हुए, भारतीय चिंतन परंपरा में जहां सुधार कि गुंजाइश दिखाई दी वहाँ सुधार हेतु सुझाव दिए और जहां व्याख्या की आवश्यकता थी, वहां संदर्भ सहित व्याख्या की। “नीलकंठ की नगरी वाराणसी और प्राग-भारती का प्रभामय प्रांगण कामरूप दोनों कुबेरनाथ राय के स्वाध्याय और वांग्मय तपस्या का केंद्र हैं। प्रसन्न पुण्य सलिला भगवती भागीरथी ने कुबेरनाथ को ‘रस’ प्रदान किया तो असम की आत्मीयता ने उनको ‘तत्त्वबोध’ कराया । दोनों का मंजुल सामंजस्य श्री कुबेरनाथ राय की लेखनी में विद्यमान है ।”[1] जिसका आनंद पाठक ले सकते हैं लेकिन हाँ,  शर्त यह है की पाठक को सजग रहना होगा अन्यथा कुछ खास प्राप्त नहीं होने वाला है । जिस लेखक को “अपनी भाषिक संस्कृति का आदर्श तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ से मिला है [2] जो यह साफ शब्दों में लिखता हों कि “ मेरा उद्देश्य रहा है पाठक के चित्त को परिमार्जित भव्यता देना और साथ ही उसकी चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना ।”[3] उनके प्रति सतर्क तो रहना ही पड़ेगा अन्यथा कुछ हाथ नहीं आने वाला है, ‘परिमार्जित भव्यता, चित्त-ऋद्धि का विस्तार’ तो दूर की बात है । कुबेरनाथ राय के साहित्य के मर्मज्ञ और गांधीवादी विचारक डॉ मनोज राय अपने आलेख ‘लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए’ में लिखते हैं कि “श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है । यह लगभग असामान्य घटना है । उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो ।”[4] 


कुबेरनाथ राय विषय के अनुसार, उसकी स्वभाविक अभिव्यक्ति के अनुरूप शैली ग्रहण करते हुए अपने चिंतन प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों पर ललित निबंध लिखा आत्मकथात्मक शैली में, गांधी जी के विचारों को केंद्र में रखकर निबंध लिखा पत्रात्मक शैली में, असम के प्रकृति को केंद्र में रखकर निबंध लिखा संस्मरणात्मक शैली में। कुबेरनाथ जी का उदेश्य साफ था, सोचने समझने वाला पाठक तैयार करना है न कि ‘आधुनिक चरण’ रखने वाला पाठक । अपने निबंध संग्रह ‘किरात नदी में चन्द्र मधु’ में कुबेरनाथ राय लिखते हैं- “पुस्तक का प्रथम उद्देश्य है ‘भारतीय संस्कृति के अन्दर आर्येतर तत्वों की महिमा का उद्घाटन। द्वितीय उदेश्य है किरात तन्मात्राओं (रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द) का स्वाद हिंदी पाठक के लिए सुलभ करना ।”[5]  ताकि वह उन महानुभावों के सामने सीना तान कर खड़े हो कर उन्हें बता सके, जब वे कहते हों की भारत को ‘भारत’ हमने बनाया है। जब तक समाज के लोगों को पता नहीं होगा कि भारत जिसमें हम रहते हैं, इसमें मेरा क्या है? मेरे पूर्वजों का क्या योगदान है? जब तक वह जान नहीं लेगा तब तक वह बस, रेल आदि को जलाता ही रहने वाला है। क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि जिसे वह जला रहा है वह तो उसकी अपनी, अपने पूर्वजो की धरोहर है। उसे तो यह बताया गया है कि तुम अल्पसंख्यक हो, तुम शोषित हो, तुम्हें सुविधाओं से जान बूझकर वंचित रखा गया है। किन्तु कुबेरनाथ अपने चिंतन मनन के बाद उन्हें बताते है- “मैं सत्त्ताईस-अट्ठाईस वर्ष हिन्दी क्षेत्रों से बाहर रहा और मैंने पग-पग पर अनुभव किया कि भारतवर्ष को ‘भारतवर्ष’ बनाने की प्रक्रिया में पिछड़े से पिछड़े वर्ग का भी सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक योगदान रहा है। सबने मिल जुलकर इसके इतिहास, इसकी भाषा और इसकी संस्कृति की रचना की है और सहस्राब्दियों से इसका लोक-जीवन दर्शन और रस-बोध की दृष्टि से सबने मिलजुलकर हमारी एक अलग ‘पहचान’ बनायी है”।[6] पर आज की विडम्बना यह है कि इस ‘पहचान’ को पहचानने वाले कम हैं और जो उनको भारत की पहचान कराने की क्षमता रखते भी हैं, उन पर आरोप लगाया जाता है कि उनके निबंध के विषय और उसमें उपयोग किए गए शब्दों के कारण पाठक को पढ़ने समझने में कष्ट होता है! यह बात किसी और लेखक के बारे में नहीं कुबेरनाथ राय के बारे में वे लोग कहते हैं जो न तो कुबेरनाथ राय जी को पढ़ते हैं न उनपर कार्य करने वाले लोगों को। युवा आलोचक डॉ. रमाकांत राय, कुबेरनाथ राय के लेखन के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “कुबेरनाथ राय के निबंधों में पण्डिताई कूट-कूट कर भरी हुई है। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है। उनके निबंधों में भारतीय और पाश्चात्यदोनों सन्दर्भ खूब आते हैं। भारतीय पौराणिकता का पूरा सम्मान करते हुए अपने बहाव में वे वेदउपनिषद्पुराण और लौकिक साहित्य से उद्धरण और उदाहरण देते चलते हैं। उनकी प्रस्तुति इस उदाहरणों में उदात्तता से भरपूर होती है। वे भारतीय संस्कृति के उन मौलिक तत्त्वों की ओर लगातार संकेत करते चलते हैंजिन्हें हमने अपने क्षुद्र स्वार्थों और जीवन की जटिलताओं से घबराकर सरलीकृत कर लिया है”।[7] और जो हर क्षेत्र में ‘सरलीकृत’ विचार-दृष्टि अपनाता है वह सत्य से दूर, बहुत दूर रह जाता है। निबंधकार के कुछ अपने महत्वपूर्ण दायित्व हैं। कुबेरनाथ राय के शब्दों में- “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। यदि वह पाठक के बौद्धिक स्तर को ही लक्ष्मण रेखा मानकर चलेगा तो यह संभव नहीं है ।”[8] 



कुबेरनाथ राय अपने और लेखक के दायित्वबोध को जानने और समझने वाले रचनाकर हैं। अपने दायित्वों के सम्बन्ध में वह लिखते हैं- “मैं शुद्धतः ललित निबंधकार हूँ और लालित्य के साथ बौद्धिक रस का सम्प्रेषण एवं इसके द्वारा पाठक के मानसिक क्षितिज का विस्तार, यही मेरा उद्देश्य रहा है ।”[9] उनके यहाँ कोई लाग लपेट नहीं। बहुत साफ शब्दों में बता देते हैं कि मेरा उद्देश्य क्या है । असल में कुबेरनाथ राय के लेखन का आरंभ ही चुनौती से होता है। उन्हीं के शब्दों में- “बचपन में कभी लिखता था– ‘माधुरी’, ‘विशाल भारत’ आदि अच्छे पत्रों में। बीच में मौन रहा। सन् 1962 में प्रोफेसर हिमायूँ कबीर की इतिहास सम्बन्धी ऊलजलूल  मान्यताओं पर मेरा एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक-उत्तरदायित्व के प्रति सजग था। मैं सरस्वती में लगातार लिखने लगा।”[10] ‘बीच में मौन’ अकारण नहीं था, सकारण था। जब चीजें अपने वश में नहीं रहतीं, तब हमें अपनी जीवनचर्या पर रूक कर विचार करना चाहिए। कुछ समय के लिए रूकना भी पड़े तो रुक जाना चाहिए। रुकना भी एक तरह का बदलाव है। हम रुकते हैं, चिंतन मनन करने के लिए, नई योजना बनाने के लिए। बदलते समय और समाज में अपने को क़ायम रखने के लिए, परिवर्तित काल में अपने को लगातार परिष्कृत और परिमार्जित करने के लिए। हमें अपने को समय के साथ बदलना बहुत जरुरी है। सकारात्मक मौन परिष्कृत और परिमार्जित रूप में ‘प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बांसुरी, विषाद योग, पर्ण मुकुट , महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन पवन की नौका, किरात नदी में चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु, मराल , उत्तरकुरु, चिन्मय भारत, वाणी का क्षीरसागर, कंथामणि, अंधकार में अग्निशिखा, रामायण महातीर्थम और आगम की नाव’ लेकर उपस्थित होते हैं। जिसमें “भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान, अर्थात भारत की सही ‘आइडेन्टिटी’ का पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हज़ार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहे हैं, इस बात को जाने कि यह भारत और भारतीयता का उत्तराधिकार उनके ही ‘महिदास’ जैसे पूर्वजों की रचना है और इस तथ्य को जानकर वे अपने खोए आत्म-विश्वास को प्राप्त करें, उनका सुप्त आत्मबल पुनः जागे”।[11]
कुबेरनाथ राय ने रामायण और राम को केंद्र में रखकर  जितने भी निबंध लिखे उन सब के उदेश्य उनके सामने साफ थे। उन्होंने अपने ‘त्रेता का बृहत्साम’ निबंध संग्रह में लिखा कि “पुस्तक का उदेश्य राम भक्ति का प्रचार नहीं है, बल्कि ‘रामत्व’ की कुछ विशिष्टताओं का उद्घाटन है। ... रामत्व के उस सौन्दर्य का उद्धाटन जो तप, संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज से जुड़ा है।”[12] ‘तप, संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज कुबेरनाथ राय का व्यक्तित्व है जिसे राम के समान ही तिरस्कृत किया गया है। उस समय के प्रसिद्ध आलोचक साहित्यकार आदि में कुछ को छोड़ कर सब ने उनके साथ, राम, गाँधी और भारतीय जनता के साथ अन्याय किया, पाप कर्म किया। पर कौन सोचता करता है इस ओर? साहित्य जगत में आज तो ‘हम सुन्दरी हमार पिया सुन्दर और गऊंआ के लोग बनरा बनरी’ यही देखने को मिलता है। आज भी उनका ही बोलबाला है जिन्होंने देह का साहित्य में सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया । जब तक, वे थे; देह का आनंद लेते रहे!! अब जो तब उनके सहयोगी थे देह विमर्श पर चर्चा करते नहीं थकते!! इसओर, इस चिंतन की ओर कितनों ने ध्यान दिया जो आत्मा को उन्नयन की ओर ले जाए, जिससे हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि “हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं, उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का विशेषतः साहित्य का मूलधर्म है ।”[13]  किन्तु उपभोक्तावादी दृष्टिकोण  वाले लोगों को देह से फुर्सत ही कहाँ है जो ‘चित्त’ की ओर दृष्टि डालें!! टॉलस्टॉय ने लिखा- “कला का लक्ष्य है नैतिक परिपूर्णता।”[14] कुबेरनाथ राय भी लिखते हैं “साहित्य की नींव है ‘शील’, इसके गर्भगृह की प्रतिमा है ‘रस’ पर, शिखर कलश है; एक ‘आत्मिक निरुजता और मुक्ति’ जिसे पुरानी भाषा में कहा गया है । सौन्दर्यबोध मध्य की कड़ी- ‘हीर’ या ह्रदय होते हुए भी आदि और अन्त के संकेतों से रिक्त होने पर त्याज्य है।”[15] किन्तु तथाकथित लोगों ने कुबेरनाथ के लेखन को ही उपेक्षित कर दिया !! क्योंकि कुबेरनाथ राय ने जितना लिखा, जहाँ बोले, जिस किसी को भी जबाब दिया दो टूक जबाब दिया। मिसाल के तौर पर उनके निबंध ‘मराल’ की भूमिका में वह लिखते हैं- “निबंधकार फ़िल्म-निर्माता नहीं है। उसका कर्तव्य है कि वह फ़िल्म-निर्माता से भिन्न हो कर सोचे। वह तो अंतिम विश्लेषण में अध्यापक है। उसका काम है मन बुद्धि के आयामों को विस्तार देना- शब्दों और संदर्भों के माध्यम से।...मैंने अपनी क्षुद्र सामर्थ्य में जो कुछ किया है वह पाठक के भाषिक क्षमता को समृद्ध करने और उसे अपनी देशी भाषिक संस्कृति से मूल-संलग्न करने की दृष्टि से किया है।”[16]  बदलते समय और परिवेश के साथ गौरवशाली चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाना एक चुनौती भरा कार्य रहा है। इस मंगल चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य इस देश के चिंतक, समाज-सुधारक, साहित्यकार आरम्भ काल से करते चले आ रहे हैं। इस चिंतन परंपरा में कुबेरनाथ राय का योगदान भी स्तुत्य है । उन्होंने अपने ललित निबंधों में पुरातन और नवीनतम के समन्वय के साथ युगबोध के चिंतन, संस्कृति की परिवर्तनशीलता, लोकसंस्कृति की झांकी, मानव मूल्यों के बनते-बिगड़ते संबंधों और तिथि पर्वो को अपने निबंधों में स्थान देकर भारतीय चिंतन परंपरा को सुदृढ़ किया है । कुबेरनाथ राय के निबंधों को पढ़ने के बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है वह यह कि ‘भद्र मनुष्य अपने मांगलिक कोष से मंगलमय वस्तुओं को प्रस्तुत करता है’।

 








[1] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –4 
[2] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[3] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[4] डॉ. मनोज राय,  लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
[5]  कुबेरनाथ राय, किरात नदी में चन्द्रमधु - 155
[6]  कुबेरनाथ राय, उत्तरकुरु, पृष्ठ संख्या- 9
[7]  डॉ. रमाकांत राय, रस आखेटक : ललित निबन्ध का रम्य दारुण स्वर- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष    
[8]  कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या-  348,49
[9]  कुबेरनाथ राय,  रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या- 338
[10] कुबेरनाथ राय, प्रिया नीलकंठी, पृष्ठ संख्या- 126
[11] कुबेरनाथ राय, निषाद बांसुरी, पृष्ठ संख्या-  262
[12] कुबेरनाथ राय, त्रेता का बृहत्साम, पृष्ठ संख्या-  7
[13]  कुबेरनाथ राय, कामधेनु, पृष्ठ संख्या-  8
[14]  तोलस्तोय- कला क्या है,  55
[15]  कुबेरनाथ राय, पर्ण–मुकुट, पृष्ठ संख्या-  216    
[16]  कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या- 8  


ऋषिकेश कुमार

(ऋषिकेश कुमार युवा हैं, उत्साही किन्तु पर्याप्त संकोची। वह सुरुचि सम्पन्न पाठक हैं। मिथक, सौंदर्य और प्रेम के विषय उनके प्रिय क्षेत्र हैं। वह मूलतः औरंगाबाद, बिहार के हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई की है और वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में "कुबेरनाथ राय के निबंधों में मिथक और सौंदर्य का अध्ययन" विषय पर शोधरत हैं। मेरा गाँव मेरा देश ब्लॉग पर यह उनका पहला आलेख है।)

(आज कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.