रविवार, 21 जून 2020

कथावार्ता : ललित निबन्ध : सूर्यग्रहण और हमारे मिथक

-डॉ रमाकान्त राय 

          आज सूर्यग्रहण निश्चित है।

          वैसे तो यह एक खगोलीय घटना है लेकिन इसका मिथकीय स्वरूप बहुत दिलचस्प है। वह समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम से सम्बद्ध है। राहु-केतु से जुड़ा हुआ। राहु सूर्य को और केतु चंद्रमा को जब तब ग्रसने के लिए उद्धत होते हैं। गाँव में तो ग्रहण को सूर्य भगवान और चन्द्र देव पर संकट की तरह माना जाता है और मैंने देखा है कि कई धर्मपरायण लोग ऐसी अवधि में एक पैर पर खड़ा होकर उग्रह होने के लिए तपस्या करते हैं, पानी के परात में उनपर आए संकट को देखा जाता है और उसके कटने तक धार्मिक कथाओं का श्रवण किया जाता है। इस अवधि में भोजन आदि ग्रहण नहीं किया जाता और कोई ऐसा खाद्य पदार्थ है तो उसमें तुलसीदल डालकर शुद्ध रखने का प्रयास किया जाता है।

          महाभारत युद्ध की एक घटना को मैं इसी सूर्यग्रहण से जोड़कर देखता हूँ। अभिमन्यु के वीरगति के बाद अर्जुन शपथ लेते हैं कि अगले दिन के सूर्यास्त से पहले वह इस हत्या के जिम्मेदार जयद्रथ को यमपुरी पहुँचा देंगे। ऐसा न कर सके तो अग्नि समाधि ले लेंगे।

          यह एक कठिन शपथ है। अत्यन्त आवेश में लिया गया। पुत्रशोक में अर्जुन ने सबके समक्ष इसे दुहराया। कौरव पक्ष के लिए यह अवसर है। आपदा में अवसर। कुटिल लोगों के लिए आपदा में अवसर इसी तरह का होता है। सहज सामान्य लोगों के लिए ऐसे में जीवन को मजबूत करने का उपाय खोजना/नये अनुसंधान करना, समय का सदुपयोग करना अवसर है तो कुटिल, खल और कामी जन के लिए इसमें अपने लिए "अवसर" है। अवसर एक लचीला शब्द है। इसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है। स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूँद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर बनती है, सीप के मुख में पड़कर मोती और साँप के पास जाकर विष! यह पात्र पर निरभर करता है कि वह अवसर को कैसे लेता है। खैर,

          कौरव पक्ष के पास यह अवसर है कि अगर जयद्रथ को बचा लिया गया तो अर्जुन स्वतः जल मरेगा। जिस काम को बड़े बड़े योद्धा बड़ी कोशिश के बाद भी नहीं कर पा रहे हैं, वह निमिष मात्र में हो जायेगा। बस रणनीति बनानी है। आपदा में अपने लिए जगह बनाना है। कौरव पक्ष ने पिछले दिन सुशर्मा को इसके लिए राजी किया था कि वह अर्जुन को प्रातः काल ही युद्ध के लिए ललकारेगा और युद्ध भूमि से इतनी दूर ले जायेगा कि सूर्यास्त तक अर्जुन कुरुक्षेत्र में चक्रव्यूह तक ही न पहुँच सके। चक्रव्यूह में ही अभिमन्यु को मारा गया है।

          फिर जयद्रथ विशेष गुण सम्पन्न योद्धा है। उसे मारना एक अलग ही कौशल की अपेक्षा रखता है। उसके पिता ने अपने बेटे के लिए विशेष आयुष कवच बनाया है। जो मारेगा, जिसके हाथ से उसका सिर धराशायी होगा, वह तत्क्षण भस्म हो जायेगा। अर्जुन की चुनौती बड़ी है। उसे इसका ध्यान भी रखना है कि विषाणु का उन्मूलन करते हुए स्वयं संक्रमित न हो जाए।

          उस दिन सभी कुरुवीर जयद्रथ की रक्षा में सन्नद्ध हो गए थे। जयद्रथ के आगे कई छोटी छोटी चुनौतियाँ भी थीं। आप एक बड़ा काम करने चलते हैं तो राह में छोटी-छोटी बाधाएँ उपस्थित हो ही जाती हैं। विद्वान कहते हैं कि उससे किनारा कर लेना ही उचित है लेकिन कूटनीति और राजनीति के विद्वान कौटिल्य/चाणक्य कुछ दूसरा ही सोचते थे। कहते हैं कि चाणक्य विवाह करने जा रहे थे। दूल्हा बने थे। जामा जोड़ा पहनकर सज धज कर जा रहे थे। राह में एक कुश की नोक उनके पैर में चुभ गयी। यह उनके लिए पीड़ादायी था। कहाँ सुख के लिए दल बल चला है, बारात सजी है और कहाँ पैरों में कांटा चुभ रहा है! चाणक्य ने माथे पर सजा मौर उतारा और कुश उन्मूलन में लग गया। कुश की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। उसकी नोक भी बहुत तीक्ष्ण होती है। एक जमाने में कुश लाने वाले लोग प्रशिक्षित होते थे। उन्हें 'कुशल' कहा जाता था। अब तो कोई भी व्यक्ति जो अपने काम में निष्णात है, कुशल कहा जाता है और उसके 'कौशल' की चर्चा की जाती है। कुशल शब्द का खूब अर्थ विस्तार हुआ है।

          तो चाणक्य ने कुश उन्मूलन शुरू किया। जब हाथ से, उपकरणों से वह सफल न हुआ तो उसकी जड़ों में मट्ठा डालने लगा। उसने बारात स्थगित कर दी। पहले यह कर लेगा तभी बियाह करेगा। वह दूसरे ही तरीके का ब्राह्मण था। उसकी प्राथमिकतायें सुस्पष्ट थीं। तभी वह मगध के महाप्रतापी राजा महापद्मनंद का राज एक सामान्य लड़के चंद्रगुप्त की मदद से मिटा सका।

          आज के युद्ध के प्रारम्भ में ही कृष्ण ने बताया था कि आपका लक्ष्य क्या है? कृष्ण ने शुरू में सलाह दी कि आज तुमने कुछ शपथ ली है लेकिन बाद में वह अपने रथी की आज्ञा का अनुपालन करने लगे। एक सारथि का यही कर्तव्य है। उसे शल्य बनने से बचना चाहिए। शल्य कर्ण का सारथी बने तो हर बात पर उसे कहते रहते कि तुम्हें ऐसा नहीं, बल्कि वैसा करना चाहिए। कर्ण शल्य को रथ पूर्व दिशा में ले चलने को कहता तो वह बताने लगते कि उधर जाने में क्या हानि होगी। कहते हैं कि अंग्रेज राजा अपने मंत्रियों से कहते थे कि वह गलत नहीं हो सकता। अब राजा के विश्वस्त लोगों का काम है कि वह राजा के काम के औचित्य को सिद्ध करें और उसे ही न्यायसंगत बतायें। ताकत यही करती है। वह अपना इतिहास इसी तरह बनवाती है। कृष्ण ने एक बार बलराम से कहा था कि अगर कौरव युद्ध जीत जाते तो वह द्यूत क्रीड़ा और द्रोपदी के चीर हरण को भी तार्किक और विधि सम्मत सिद्ध कर देते।

          कृष्ण रथ बढ़ाते गये और अर्जुन कौरवों से युद्ध में उलझ गया। आज तो सभी योद्धा जयद्रथ की रक्षा में लग गए थे। इतने योद्धाओं के रहने पर कृष्ण जानते हैं कि जयद्रथ को मारना सम्भव नहीं! तब वह विधि को अनुकूल कर लेते हैं। अचानक सूर्यास्त हो जाता है। सब भौंचक हैं। अभी तो दिन ढलने में समय है। ऐसे कैसे सूर्यास्त हो सकता है? सभी पाण्डव आश्चर्यचकित हैं। शोकाकुल हो रहे हैं। अर्जुन को अग्निसमाधि लेनी पड़ेगी। राम अपने भाई के शक्ति बाण लगने पर फूट फूट कर रोते हैं- मेरो सब पुरुषारथ थाको! उनकी चिंता में भ्राता से विछोह के दुख के साथ-साथ अपना वचन न पूरा कर पाने का कष्ट भी है। लेकिन राम और उनकी कहानी शुद्ध लौकिक है। रामायण में चमत्कार कम हैं, न के बराबर। वह पुरुषार्थ से सम्पन्न होता है। महाभारत में पारलौकिक सत्ता का हस्तक्षेप बहुत अधिक है। चमत्कारिक ताकतें बहुत हैं।



          अर्जुन के इस गति से कौरव अत्यन्त प्रसन्न हैं। जश्न मनने लगता है। सभी वीर अर्जुन के पास आ जाते हैं। उसे याद दिलाने लगते हैं कि उसने कल प्रतिज्ञा की थी। अर्जुन भी गान्डीव रख चुका है। थक कर बैठ गया है। एक तरफ कौरव दल ने चिता सजा दी है। सब तमाशा देखने एकत्र हैं। जयद्रथ सबसे आगे खड़ा है। उसकी वजह से कौरव लगातार दूसरे दिन युद्ध में आगे हैं। आज तो एक शानदार 'अवसर' है। तभी सूर्य उदित हो जाते हैं। दिन निकल आता है। सब स्पष्ट हो जाता है। कृष्ण कहते हैं- 'अर्जुन! उठो। देखो, सूर्य आसमान में चमक रहे हैं, अभी दिन नहीं ढला है। जयद्रथ ठीक तुम्हारे सामने ही है। तुम्हारे पास प्रतिज्ञा पूरी करने का यह "अवसर" है। ध्यान रखना- शत्रु विशेष प्रकृति वाला है। इसका नाश करने के लिए विशेष पीपीई किट चाहिए।'

          क्या हुआ होगा उस समय? मैं जब इस प्रसंग के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सूर्यग्रहण की याद आती है। उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण रहा होगा। कुछ घड़ी के लिए ऐसी ही खगोलीय घटना हुई होगी। पिछला सूर्यग्रहण इतना जबरदस्त था कि पक्षी अपने नीड़ की ओर चल पड़े थे। सूरजमुखी के फूलों ने अपना पट बन्द कर लिया था। एक विशेष अन्धकार हर तरफ व्याप्त हो गया था। उस काल में यह ग्रहण बहुत विकट रहा होगा। सभी योद्धा इस खगोलीय घटना के प्रति उदासीन रहे होंगे। लेकिन फिर सोचता हूँ कि क्या वाकई? उन उद्भट विद्वानों को यह पता नहीं रहा होगा? जरुर रहा होगा! तो क्या वाकई श्री कृष्ण ने अपना चक्र चलाया था? वह सूर्य के प्रकाश को आच्छादित कर सकता था?

          एकादश रुद्रावतार हनुमान के बारे में भी यह कथा है कि उन्होंने सूर्य को निगल लिया था। मुझे लगता है कि यह भी सूर्यग्रहण का ही समय रहा होगा जिसकी कल्पना कवि ने उनके पराक्रम का वर्णन करने के लिए किया है। कवि की कल्पना मानस का निर्माण करने में सक्षम है। इसीलिए कवि की भूमिका बहुत मायने रखती है। लेकिन यूनानी विचारक प्लेटो तो कवियों से बहुत चिढ़ता है। उन्हें राज्य से बाहर फेंक देने के लिए राजा को उकसाता है लेकिन भारतीय परम्परा में वह परिभू: स्वयंभू कहे गये हैं! नयी सृष्टि के रचनाकार।

          लेकिन मेरा उद्देश्य यह सब विवेचन करना नहीं। मैं तो आज के सूर्यग्रहण के मिथकीय काव्य प्रयोग पर अपनी उधेड़बुन आपके समक्ष रख रहा था। आप बताइये तो!


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com



रविवार, 7 जून 2020

कथावार्ता : अकाल केन्द्रित तीन आधुनिक कवितायें

अकाल और उसके बाद
-नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

(1955)

अकाल
-रघुवीर सहाय

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।
लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।
पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।
जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।
मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।
दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!


(1967)

अकाल में दूब

-केदारनाथ सिंह

भयानक सूखा है
पक्षी छोड़कर चले गए हैं
पेड़ों को
बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे
चींटियाँ
देहरी और चौखट
पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं
घरों को छोड़कर

भयानक सूखा है
मवेशी खड़े हैं
एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए

 

कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाए
सुना नहीं कभी
दूब मगर मरती नहीं -
कहते हैं वे
और हो जाते हैं चुप

निकलता हूँ मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूँ परती-पराठ
झाँकता हूँ कुँओं में
छान डालता हूँ गली-चौराहे
मिलती नहीं दूब
मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े
बाल्टियाँ लोटे परात
झाँकता हूँ घड़ों में
लोगों की आँखों की कटोरियों में
झाँकता हूँ मैं
मिलती नहीं
मिलती नहीं दूब

अंत में
सारी बस्ती छानकर
लौटता हूँ निराश
लाँघता हूँ कुएँ के पास की
सूखी नाली
कि अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हाँ-हाँ दूब है -
पहचानता हूँ मैं

लौटकर यह खबर
देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी
दमक उठता है उनका चेहरा
'है - अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब...'
बुदबुदाते हैं वे

फिर गहरे विचार में
खो जाते हैं पिता।

(1988)


शुक्रवार, 5 जून 2020

कथावार्ता : कुबेरनाथ राय के साहित्य का भारतवादी पक्ष


कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 02

-ऋषिकेश कुमार


"अकेला निर्माण ?
वह भी है,
अगर उसकी चाह
सभी के कल्याण के हित
छोड़ी गई हो।” 
-‘अज्ञेय’
आधुनिक काल के प्रसिद्ध आर्ष-मनीषा के अन्वीक्षक आख्याता, सारस्वत साधना के साधक, ललित निबंध लेखक, ‘देशी’ क़िस्म के ग्रामीण बुद्धिजीवी, चिंतक, आचार्य कुबेरनाथ राय हिन्दी साहित्य में अपने ढंग से अकेला निर्माण करने वाले लेखक हैं, जिनके यहाँ सभी के कल्याण की भावना निहित है। कुबेरनाथ राय ने बदलते समय और परिवेश को ध्यान में रखते हुए, भारतीय चिंतन परंपरा में जहां सुधार कि गुंजाइश दिखाई दी वहाँ सुधार हेतु सुझाव दिए और जहां व्याख्या की आवश्यकता थी, वहां संदर्भ सहित व्याख्या की। “नीलकंठ की नगरी वाराणसी और प्राग-भारती का प्रभामय प्रांगण कामरूप दोनों कुबेरनाथ राय के स्वाध्याय और वांग्मय तपस्या का केंद्र हैं। प्रसन्न पुण्य सलिला भगवती भागीरथी ने कुबेरनाथ को ‘रस’ प्रदान किया तो असम की आत्मीयता ने उनको ‘तत्त्वबोध’ कराया । दोनों का मंजुल सामंजस्य श्री कुबेरनाथ राय की लेखनी में विद्यमान है ।”[1] जिसका आनंद पाठक ले सकते हैं लेकिन हाँ,  शर्त यह है की पाठक को सजग रहना होगा अन्यथा कुछ खास प्राप्त नहीं होने वाला है । जिस लेखक को “अपनी भाषिक संस्कृति का आदर्श तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ से मिला है [2] जो यह साफ शब्दों में लिखता हों कि “ मेरा उद्देश्य रहा है पाठक के चित्त को परिमार्जित भव्यता देना और साथ ही उसकी चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना ।”[3] उनके प्रति सतर्क तो रहना ही पड़ेगा अन्यथा कुछ हाथ नहीं आने वाला है, ‘परिमार्जित भव्यता, चित्त-ऋद्धि का विस्तार’ तो दूर की बात है । कुबेरनाथ राय के साहित्य के मर्मज्ञ और गांधीवादी विचारक डॉ मनोज राय अपने आलेख ‘लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए’ में लिखते हैं कि “श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है । यह लगभग असामान्य घटना है । उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो ।”[4] 


कुबेरनाथ राय विषय के अनुसार, उसकी स्वभाविक अभिव्यक्ति के अनुरूप शैली ग्रहण करते हुए अपने चिंतन प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों पर ललित निबंध लिखा आत्मकथात्मक शैली में, गांधी जी के विचारों को केंद्र में रखकर निबंध लिखा पत्रात्मक शैली में, असम के प्रकृति को केंद्र में रखकर निबंध लिखा संस्मरणात्मक शैली में। कुबेरनाथ जी का उदेश्य साफ था, सोचने समझने वाला पाठक तैयार करना है न कि ‘आधुनिक चरण’ रखने वाला पाठक । अपने निबंध संग्रह ‘किरात नदी में चन्द्र मधु’ में कुबेरनाथ राय लिखते हैं- “पुस्तक का प्रथम उद्देश्य है ‘भारतीय संस्कृति के अन्दर आर्येतर तत्वों की महिमा का उद्घाटन। द्वितीय उदेश्य है किरात तन्मात्राओं (रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द) का स्वाद हिंदी पाठक के लिए सुलभ करना ।”[5]  ताकि वह उन महानुभावों के सामने सीना तान कर खड़े हो कर उन्हें बता सके, जब वे कहते हों की भारत को ‘भारत’ हमने बनाया है। जब तक समाज के लोगों को पता नहीं होगा कि भारत जिसमें हम रहते हैं, इसमें मेरा क्या है? मेरे पूर्वजों का क्या योगदान है? जब तक वह जान नहीं लेगा तब तक वह बस, रेल आदि को जलाता ही रहने वाला है। क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि जिसे वह जला रहा है वह तो उसकी अपनी, अपने पूर्वजो की धरोहर है। उसे तो यह बताया गया है कि तुम अल्पसंख्यक हो, तुम शोषित हो, तुम्हें सुविधाओं से जान बूझकर वंचित रखा गया है। किन्तु कुबेरनाथ अपने चिंतन मनन के बाद उन्हें बताते है- “मैं सत्त्ताईस-अट्ठाईस वर्ष हिन्दी क्षेत्रों से बाहर रहा और मैंने पग-पग पर अनुभव किया कि भारतवर्ष को ‘भारतवर्ष’ बनाने की प्रक्रिया में पिछड़े से पिछड़े वर्ग का भी सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक योगदान रहा है। सबने मिल जुलकर इसके इतिहास, इसकी भाषा और इसकी संस्कृति की रचना की है और सहस्राब्दियों से इसका लोक-जीवन दर्शन और रस-बोध की दृष्टि से सबने मिलजुलकर हमारी एक अलग ‘पहचान’ बनायी है”।[6] पर आज की विडम्बना यह है कि इस ‘पहचान’ को पहचानने वाले कम हैं और जो उनको भारत की पहचान कराने की क्षमता रखते भी हैं, उन पर आरोप लगाया जाता है कि उनके निबंध के विषय और उसमें उपयोग किए गए शब्दों के कारण पाठक को पढ़ने समझने में कष्ट होता है! यह बात किसी और लेखक के बारे में नहीं कुबेरनाथ राय के बारे में वे लोग कहते हैं जो न तो कुबेरनाथ राय जी को पढ़ते हैं न उनपर कार्य करने वाले लोगों को। युवा आलोचक डॉ. रमाकांत राय, कुबेरनाथ राय के लेखन के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “कुबेरनाथ राय के निबंधों में पण्डिताई कूट-कूट कर भरी हुई है। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है। उनके निबंधों में भारतीय और पाश्चात्यदोनों सन्दर्भ खूब आते हैं। भारतीय पौराणिकता का पूरा सम्मान करते हुए अपने बहाव में वे वेदउपनिषद्पुराण और लौकिक साहित्य से उद्धरण और उदाहरण देते चलते हैं। उनकी प्रस्तुति इस उदाहरणों में उदात्तता से भरपूर होती है। वे भारतीय संस्कृति के उन मौलिक तत्त्वों की ओर लगातार संकेत करते चलते हैंजिन्हें हमने अपने क्षुद्र स्वार्थों और जीवन की जटिलताओं से घबराकर सरलीकृत कर लिया है”।[7] और जो हर क्षेत्र में ‘सरलीकृत’ विचार-दृष्टि अपनाता है वह सत्य से दूर, बहुत दूर रह जाता है। निबंधकार के कुछ अपने महत्वपूर्ण दायित्व हैं। कुबेरनाथ राय के शब्दों में- “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। यदि वह पाठक के बौद्धिक स्तर को ही लक्ष्मण रेखा मानकर चलेगा तो यह संभव नहीं है ।”[8] 



कुबेरनाथ राय अपने और लेखक के दायित्वबोध को जानने और समझने वाले रचनाकर हैं। अपने दायित्वों के सम्बन्ध में वह लिखते हैं- “मैं शुद्धतः ललित निबंधकार हूँ और लालित्य के साथ बौद्धिक रस का सम्प्रेषण एवं इसके द्वारा पाठक के मानसिक क्षितिज का विस्तार, यही मेरा उद्देश्य रहा है ।”[9] उनके यहाँ कोई लाग लपेट नहीं। बहुत साफ शब्दों में बता देते हैं कि मेरा उद्देश्य क्या है । असल में कुबेरनाथ राय के लेखन का आरंभ ही चुनौती से होता है। उन्हीं के शब्दों में- “बचपन में कभी लिखता था– ‘माधुरी’, ‘विशाल भारत’ आदि अच्छे पत्रों में। बीच में मौन रहा। सन् 1962 में प्रोफेसर हिमायूँ कबीर की इतिहास सम्बन्धी ऊलजलूल  मान्यताओं पर मेरा एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक-उत्तरदायित्व के प्रति सजग था। मैं सरस्वती में लगातार लिखने लगा।”[10] ‘बीच में मौन’ अकारण नहीं था, सकारण था। जब चीजें अपने वश में नहीं रहतीं, तब हमें अपनी जीवनचर्या पर रूक कर विचार करना चाहिए। कुछ समय के लिए रूकना भी पड़े तो रुक जाना चाहिए। रुकना भी एक तरह का बदलाव है। हम रुकते हैं, चिंतन मनन करने के लिए, नई योजना बनाने के लिए। बदलते समय और समाज में अपने को क़ायम रखने के लिए, परिवर्तित काल में अपने को लगातार परिष्कृत और परिमार्जित करने के लिए। हमें अपने को समय के साथ बदलना बहुत जरुरी है। सकारात्मक मौन परिष्कृत और परिमार्जित रूप में ‘प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बांसुरी, विषाद योग, पर्ण मुकुट , महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन पवन की नौका, किरात नदी में चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु, मराल , उत्तरकुरु, चिन्मय भारत, वाणी का क्षीरसागर, कंथामणि, अंधकार में अग्निशिखा, रामायण महातीर्थम और आगम की नाव’ लेकर उपस्थित होते हैं। जिसमें “भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान, अर्थात भारत की सही ‘आइडेन्टिटी’ का पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हज़ार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहे हैं, इस बात को जाने कि यह भारत और भारतीयता का उत्तराधिकार उनके ही ‘महिदास’ जैसे पूर्वजों की रचना है और इस तथ्य को जानकर वे अपने खोए आत्म-विश्वास को प्राप्त करें, उनका सुप्त आत्मबल पुनः जागे”।[11]
कुबेरनाथ राय ने रामायण और राम को केंद्र में रखकर  जितने भी निबंध लिखे उन सब के उदेश्य उनके सामने साफ थे। उन्होंने अपने ‘त्रेता का बृहत्साम’ निबंध संग्रह में लिखा कि “पुस्तक का उदेश्य राम भक्ति का प्रचार नहीं है, बल्कि ‘रामत्व’ की कुछ विशिष्टताओं का उद्घाटन है। ... रामत्व के उस सौन्दर्य का उद्धाटन जो तप, संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज से जुड़ा है।”[12] ‘तप, संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज कुबेरनाथ राय का व्यक्तित्व है जिसे राम के समान ही तिरस्कृत किया गया है। उस समय के प्रसिद्ध आलोचक साहित्यकार आदि में कुछ को छोड़ कर सब ने उनके साथ, राम, गाँधी और भारतीय जनता के साथ अन्याय किया, पाप कर्म किया। पर कौन सोचता करता है इस ओर? साहित्य जगत में आज तो ‘हम सुन्दरी हमार पिया सुन्दर और गऊंआ के लोग बनरा बनरी’ यही देखने को मिलता है। आज भी उनका ही बोलबाला है जिन्होंने देह का साहित्य में सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया । जब तक, वे थे; देह का आनंद लेते रहे!! अब जो तब उनके सहयोगी थे देह विमर्श पर चर्चा करते नहीं थकते!! इसओर, इस चिंतन की ओर कितनों ने ध्यान दिया जो आत्मा को उन्नयन की ओर ले जाए, जिससे हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि “हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं, उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का विशेषतः साहित्य का मूलधर्म है ।”[13]  किन्तु उपभोक्तावादी दृष्टिकोण  वाले लोगों को देह से फुर्सत ही कहाँ है जो ‘चित्त’ की ओर दृष्टि डालें!! टॉलस्टॉय ने लिखा- “कला का लक्ष्य है नैतिक परिपूर्णता।”[14] कुबेरनाथ राय भी लिखते हैं “साहित्य की नींव है ‘शील’, इसके गर्भगृह की प्रतिमा है ‘रस’ पर, शिखर कलश है; एक ‘आत्मिक निरुजता और मुक्ति’ जिसे पुरानी भाषा में कहा गया है । सौन्दर्यबोध मध्य की कड़ी- ‘हीर’ या ह्रदय होते हुए भी आदि और अन्त के संकेतों से रिक्त होने पर त्याज्य है।”[15] किन्तु तथाकथित लोगों ने कुबेरनाथ के लेखन को ही उपेक्षित कर दिया !! क्योंकि कुबेरनाथ राय ने जितना लिखा, जहाँ बोले, जिस किसी को भी जबाब दिया दो टूक जबाब दिया। मिसाल के तौर पर उनके निबंध ‘मराल’ की भूमिका में वह लिखते हैं- “निबंधकार फ़िल्म-निर्माता नहीं है। उसका कर्तव्य है कि वह फ़िल्म-निर्माता से भिन्न हो कर सोचे। वह तो अंतिम विश्लेषण में अध्यापक है। उसका काम है मन बुद्धि के आयामों को विस्तार देना- शब्दों और संदर्भों के माध्यम से।...मैंने अपनी क्षुद्र सामर्थ्य में जो कुछ किया है वह पाठक के भाषिक क्षमता को समृद्ध करने और उसे अपनी देशी भाषिक संस्कृति से मूल-संलग्न करने की दृष्टि से किया है।”[16]  बदलते समय और परिवेश के साथ गौरवशाली चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाना एक चुनौती भरा कार्य रहा है। इस मंगल चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य इस देश के चिंतक, समाज-सुधारक, साहित्यकार आरम्भ काल से करते चले आ रहे हैं। इस चिंतन परंपरा में कुबेरनाथ राय का योगदान भी स्तुत्य है । उन्होंने अपने ललित निबंधों में पुरातन और नवीनतम के समन्वय के साथ युगबोध के चिंतन, संस्कृति की परिवर्तनशीलता, लोकसंस्कृति की झांकी, मानव मूल्यों के बनते-बिगड़ते संबंधों और तिथि पर्वो को अपने निबंधों में स्थान देकर भारतीय चिंतन परंपरा को सुदृढ़ किया है । कुबेरनाथ राय के निबंधों को पढ़ने के बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है वह यह कि ‘भद्र मनुष्य अपने मांगलिक कोष से मंगलमय वस्तुओं को प्रस्तुत करता है’।

 








[1] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –4 
[2] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[3] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[4] डॉ. मनोज राय,  लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
[5]  कुबेरनाथ राय, किरात नदी में चन्द्रमधु - 155
[6]  कुबेरनाथ राय, उत्तरकुरु, पृष्ठ संख्या- 9
[7]  डॉ. रमाकांत राय, रस आखेटक : ललित निबन्ध का रम्य दारुण स्वर- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष    
[8]  कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या-  348,49
[9]  कुबेरनाथ राय,  रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या- 338
[10] कुबेरनाथ राय, प्रिया नीलकंठी, पृष्ठ संख्या- 126
[11] कुबेरनाथ राय, निषाद बांसुरी, पृष्ठ संख्या-  262
[12] कुबेरनाथ राय, त्रेता का बृहत्साम, पृष्ठ संख्या-  7
[13]  कुबेरनाथ राय, कामधेनु, पृष्ठ संख्या-  8
[14]  तोलस्तोय- कला क्या है,  55
[15]  कुबेरनाथ राय, पर्ण–मुकुट, पृष्ठ संख्या-  216    
[16]  कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या- 8  


ऋषिकेश कुमार

(ऋषिकेश कुमार युवा हैं, उत्साही किन्तु पर्याप्त संकोची। वह सुरुचि सम्पन्न पाठक हैं। मिथक, सौंदर्य और प्रेम के विषय उनके प्रिय क्षेत्र हैं। वह मूलतः औरंगाबाद, बिहार के हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई की है और वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में "कुबेरनाथ राय के निबंधों में मिथक और सौंदर्य का अध्ययन" विषय पर शोधरत हैं। मेरा गाँव मेरा देश ब्लॉग पर यह उनका पहला आलेख है।)

(आज कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

सद्य: आलोकित!

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