शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : कद्दू की स्वादिष्ट तरकारी बनाने की विधि!

     रामचरित मानस की बहुत प्रसिद्ध अर्धाली है-
    'इहाँ कुम्हड़ बतिआ कोउ नाहीं।
     जे तरजनी देखि मर जाहीं।।'
     शिव धनुष टूटने के बाद भगवान परशुराम और लक्ष्मण का संवाद चल रहा है। लक्ष्मण परशुराम से कह रहे हैं कि यहां कुम्हड़े के बतिया यानी नवजात फल की बात नहीं हो रही कि तर्जनी दिखा देने से वह मुरझा जाएगा। आप सूर्यवंशी राजकुमारों से बात कर रहे हैं। बहरहाल, रामचरित मानस की यह चौपाई पढ़-सुनकर कुम्हड़े या कद्दू से जैसे वितृष्णा हो गयी थी। यह कोई तरकारी है या फल? कूष्माण्ड फल और बनती है तरकारी। और तो और इस कूष्माण्ड फल का आकार इतना बड़ा होता है कि बिना सामूहिक आयोजन के खप ही नहीं सकता। प्रतापगढ़ और प्रयागराज के विप्र समुदाय के बीच पूड़ी के साथ इसकी तरकारी के कॉम्बिनेशन की लोकप्रियता से मन किञ्चित ललचाया था लेकिन तब भी मैं इसकी तरकारी से चिढ़ता था। भैया को यह पसंद थी। वह जब तब यह लेते आते थे तो एक दिन हमने इसमें कुछ प्रयोग किये और पाया कि कद्दू को कुछ यूं पकाया जाए तो वह जिह्वा पर चढ़ जाती है। आप फॉलो करें!

सामग्री (दो जन के लिए)-
       एक करछुल से कुछ कम सरसों तेल,
पंचफोरन, (पंचफोरन जीरा, कलौंजी, मेथी, सौंफ और राई का बराबर मिश्रण आता है, लेकिन इस व्यंजन के लिए जीरा हटाकर अजवायन का प्रयोग किया जाए।)
कद्दू- आधा किग्रा,
आलू- दो-तीन मंझले आकार के।
लहसुन एक पोटी,
हरी मिर्च,
अदरख और 
नमक स्वादानुसार।

विधि-
        कद्दू और आलू को अलग अलग काट लें। आकार ठीक वैसा हो जैसा पपीता खाने के लिए काटते हैं। नॉन स्टिक कड़ाही में तेल गरम होने के लिए डालें। पंचफोरन डालें। पंचफोरन न हो तो मेथी से काम चला सकते हैं, जीरा नहीं डालना है। फिर लहसुन-मिर्च-अदरक के कटे टुकड़े  डालें। भुनते हुए जब लालिमा झलकने लगे तो आलू डालें। कुछेक मिनट के अंतराल पर कद्दू डाल दें। ध्यान दें कि सारी सामग्री पड़ जाने तक करछुल का प्रयोग नहीं करना है। इस तरह जो परत होगी, उसका क्रम यों होगा-
पंचफोरन-लहसुन-मिर्च-अदरख-आलू और कद्दू। आंच न्यूनतम। ढँक दें। कुछ अंतराल के बाद नमक छिड़क दें। ढँक दें। पकने दें। देखेंगे कि इतना सत्व बन गया है कि तरकारी पक सके। धैर्य रखें। देखते रहें कि कड़ाही से चिपक तो नहीं रहा। जब सत्व कम हो जाये, करछुल का प्रयोग करें। एकाध बार चला दें। सबको मिल जाने दें। कुछ अंतराल के बाद जब आलू पक जाए, (कद्दू पक चुका होगा) उतार लें। अगर हरी धनिया है- बारीक काटकर छिड़क लें। ढँक दें। पाँचेक मिनट के बाद रोटी के साथ  खाएं।
फिर मेरी तारीफ करें।
     धन्यवाद।

नोट- अपने रिस्क पर पकाएं।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : महात्मा गांधी और विभिन्न सम्प्रदाय

    
       महात्मा गांधी जब इंग्लैण्ड और दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्हें ईसाई और मुस्लिम समुदाय के कई ख्यातिनाम लोगों ने लालच दिया और प्रेरित किया कि गांधी धर्मांतरण कर लें। गांधी को प्रोटेस्टेंट प्रार्थना सभा में ले जाया गया। यह बताना जरूरी है कि वेलिंग्टन कन्वेंशन में गांधी को मि० बेकर ले गए थे। बेकर जिस संघ का सदस्य था, उस संघ का सदस्य रविवार को यात्रा नहीं करता था। (कोई विद्वान यह बताए कि तथाकथित 'आधुनिक' 'यह ईसाई' 'रविवार' को यात्रा क्यों नहीं करते थे।) बेकर गांधी को लेकर जब गए तो उन्हें इस बात के लिए भी लताड़ा गया कि वह 'काले' व्यक्ति के साथ यात्रा कर रहे हैं। वेलिंग्टन स्टेशन में गांधी को पहले घुसने नहीं दिया गया और होटल में साथ खाने भी नहीं दिया गया। (यह बात इसलिए भी बता रहा हूँ कि 'आधुनिक सभ्यता' वाले अंग्रेज कितने बर्बर थे।)
       वेलिंग्टन कन्वेंशन में गांधी को निराशा हुई। ईसाई धर्म के ज्ञानी लोग भी गांधी की शंका का समाधान नहीं कर सके। गांधी की नजर में न तो सिद्धांत और न त्याग की दृष्टि से ईसाई धर्म हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ ठहरा। गांधी पर ईसाई प्रार्थना का दांव भी असफल रहा। उनको यह बात अतार्किक लगी कि अकेले ईसा ही भगवान के पुत्र हैं। गांधी के विचार में यदि कोई एक ईश्वर का पुत्र हो सकता है तो धरती पर सभी मानवी ईश्वर का पुत्र हैं।
       ईसाई समुदाय गांधी को गिरिजाघर ले जाने पर तुला था तो उनके विश्वस्त सहयोगी 'अब्दुल्ला सेठ' ने उन्हें इस्लाम से परिचित करवाया। गांधी ने कुरान तो पढ़ा, ईसाई धर्म की दूसरी किताबें भी पढ़ीं लेकिन इस सबसे गांधी के हिन्दू मतों की पुष्टि ही हुई। रायचन्द भाई ने गांधी को जो वाक्य लिख भेजा था, उसका भावार्थ था कि "निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई है कि हिंदू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं है।"
दूसरे धर्म के मिशनरियों के दबाव के बीच गांधी बहुत दृढ़ थे। उन्होंने सबकी सुनी लेकिन आस्था गीता के श्लोकों पर अधिक रखी। उनकी आत्मकथा में गीता के दूसरे अध्याय का 35वां श्लोक बेलाग अनुवाद के साथ आया है, यह पढ़ा जाना चाहिए और धर्म/मिशनरीज/ आधुनिकता/संपन्नता के कई बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।-
    श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मातस्वानुष्ठितात।
    स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:।।
(श्रीमद्भागवतगीता, अध्याय- ३, श्लोक- ३५)

   (ऊँचे परधर्म से नीचा स्वधर्म अच्छा है। स्वधर्म में मौत भी अच्छी है, परधर्म भयावह है।)

महात्मा गांधी को 150 वीं जन्मजयंती पर नमन।

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

कथावार्ता : कृष्ण की चेतावनी


रामधारी सिंह "दिनकर"


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

कथावार्ता : एक बूँद- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

दैव मेरे भाग्य में क्या है बदा।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

कथावार्ता : ढेलहिया चौथ- 2

"की हम सांझ क एकसर तारा, की भादव चऊथ क ससि।
इथि दुहु माँझ कओन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।"
(विद्यापति की नायिका (राधा) कहती है कि क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ या भाद्रपद महीने के चतुर्थी का चंद्रमा, जो प्रभु (श्रीकृष्ण) मुझे न तो देखते हैं न मुझपर हँसते हैं।)

भाद्रपद के चतुर्थी के चंद्रमा को देखने की मनाही है। कहते हैं- इसे देखने पर कलंक लगता है। श्रीकृष्ण ने इसे गलती से देख लिया था तो उनपर स्यमंतक मणि की चोरी का कलंक लग गया था और उसके चक्कर में उन्हें जाम्बवती से विवाह करना पड़ा।

कथा है कि जब सत्राजित ने सूर्य की उपासना की तो उसे दिव्य मणि स्यमंतक उपहार में मिली। इस मणि को सब पाना चाहते थे। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सत्राजित से उस मणि को पाने की इच्छा प्रकट की तो सत्राजित ने इसका अनादर किया और मणि अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। प्रसेनजित मणि लेकर शिकार के लिए वन में गया तो वहाँ उसे सिंह ने मार डाला। सिंह मणि लेकर चला ही था कि जाम्बवंत ने उसे मारकर मणि छीन ली। इधर जब लम्बी अवधि तक प्रसेनजित घर नहीं लौटा तो सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर लांछन किया कि मणि के लोभ में उन्होंने प्रसेनजित को मार दिया है। श्रीकृष्ण इसका पता लगाने निकले और सिंह द्वारा प्रसेनजित को मार डालने का साक्ष्य जुटाया।

इस क्रम में उन्हें जाम्बवंत की गुफा का पता चला और वह मणि की तलाश में जाम्बवन्त से भिड़ गए। गुफा के भीतर 21 दिन तक युद्ध होता रहा। तब जाम्बवन्त को प्रभु के कृष्णअवतार का अन्देशा हुआ। यह पता लगते ही रीछराज ने अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया और उपहारस्वरूप वह मणि दी।

कृष्ण ने वह मणि लौटाकर कलंक दूर किया। सत्राजित ने अपप्रचार से  लज्जित हो अपनी पुत्री का विवाह कृष्ण से कर दिया। हालांकि यह प्रकरण आगे भी बन्द नहीं हुआ। जब श्रीकृष्ण एक बार इन्द्रप्रस्थ गये तो अक्रूर की राय पर शतधन्वा ने सत्राजित को मारकर मणि हस्तगत कर ली। कृष्ण तत्काल लौटे। बलराम की मदद से वह शतधन्वा पर आक्रमण करने की तैयारी ही कर रहे थे कि उसने मणि अक्रूर को दे दी और भाग गया। शतधन्वा मारा गया किन्तु मणि न मिली। क्षोभवश बलराम विदर्भ चले गए तो श्रीकृष्ण पर पुन: कलंक लगा कि मणि के लालच में उन्होंने भाई को भी त्याग दिया है।

श्रीकृष्ण इस समूचे घटनाक्रम से व्यथित थे। तब महर्षि नारद ने उन्हें बताया कि वास्तव में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा को देखने से लांछित होना पड़ रहा है। उन्होंने गणेश जी की आराधना करने को कहा। पूजन के उपरांत श्रीकृष्ण इससे मुक्त हो सके।

बात यह है कि गणेश जी की भूमिका कहाँ से है?

हुआ यूँ था कि गणपति की उपासना ब्रह्मा ने की और वर मांगा कि मुझे इस सृष्टि की रचना का कभी घमंड न हो। विनायक ने तथास्तु कहा। इसपर चन्द्रमा ने गणपति के रूप-रचना की खिल्ली उड़ाई। गणपति ने चन्द्रमा को शाप दे दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।

बस चन्द्रमा को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह जाकर कुमुदनियों के बीच छिप गया। तीनो लोक में खलबली मच गयी। तब ब्रह्मा के कहने पर गणेश ने शाप में रियायत कर दी और इसे इस एक दिन के लिये नियत कर दिया। इस दिन चांद देखने पर कलंक लगना तय है।

लोक ब्रह्मा और गणपति से बड़ा स्रष्टा है तो उसने इस कलंक से मुक्ति के लिये उपाय खोज लिया। मान्यता है कि अगर किसी ने इस तिथि के चांद को देख लिया है तो उसे चाहिए कि वह पड़ोसी के छत पर पत्थरबाजी करे। पड़ोसी इस हरकत से खिन्न होकर गालियां देगा। यह गाली उसे कलंक मुक्त कर देगी। पत्थर/ढेला फेंकने से कलंक मुक्ति का उपाय इतना रोचक और मनोरंजक हो गया कि कालांतर में यह चतुर्थी लोक में ढेलहिया चौथ के रूप में विख्यात हो गयी।

गणपति का दिन इस तरह भी लोक में प्रचलित है। हमने आज शाम चाँद देख लिया। देखने के बाद याद आया कि नहीं देखना था। हर बार यही होता है। अब उपाय एक ही है- पत्थरबाजी। लेकिन यह पत्थरबाजी stone pelting नहीं है!

आप सबको गजानन, विघ्न हर्ता भगवान गणेश की तिथि पर हार्दिक शुभेच्छा!

सोमवार, 16 सितंबर 2019

कथावार्ता : पारिजात-दिव्य पुष्प की भव्य कथा

पारिजात।


यह पुष्प बेहद आकर्षक है। रूप-गन्ध और पौराणिक दृष्टि से। इसे शेफाली या हरसिंगार भी कहते हैं। आख्यान से पता चलता है कि यह पुष्प समुद्र मंथन में मिला था। इन्द्र इसे अपने साथ स्वर्गलोक ले गये जहाँ उर्वशी इसका सानिध्य लाभ कर नृत्य की थकान मिटाया करती थीं।

कथा है कि एक बार रुक्मिणी अपने एक व्रत का उद्यापन करने श्रीकृष्ण सहित रैवतक पर्वत पर पहुंचीं। उस समय देवऋषि नारद वहां से गुजर रहे थे। उनके हाथ में पारिजात वृक्ष का पुष्प था। कृष्ण और रुक्मिणी के साहचर्य से मुदित होकर पुष्प उन्होंने रुक्मिणी को दे दिया। रुक्मिणी ने इस फूल को अपने बालों में लगा लिया।

द्वारका लौटने पर इस दिव्य पुष्प को देखकर श्रीकृष्ण की पट्टमहिषी  सत्यभामा ने कहा कि मुझे यह फूल चाहिए। फिर उन्होंने कहा कि फूल तो एक दो दिन में मुरझा जायेगा, इसलिये आप उस वृक्ष को ही ले आयें। जब चाहे फूलों का गजरा बना लिया जायेगा। कृष्ण ने बहुत समझाया लेकिन सत्यभामा न मानीं। तो हारकर कृष्ण को स्वर्ग जाना पड़ा। इन्द्र इस असमय आगमन से घबरा गए। आने का कारण पूछा और जानकर संतुष्ट हुए कि यह साम्राज्यवादी अभियान नहीं है। उन्होंने पारिजात का वृक्ष कृष्ण को दे दिया। धूमधाम से वृक्ष का स्वागत हुआ। लेकिन सत्यभामा ने अगले दिन हंगामा कर दिया- 'यह पेड़ तो मुरझा रहा है।'

सारे यदुकुल में यह समाचार फैल चुका था कि पारिजात नामक दिव्य वृक्ष द्वारका आ चुका है। अब किसी को थकान न होगी। लेकिन जब उन्हें पता चला कि इन्द्र ने एक नकली पौधा देकर यादवों को मूर्ख बनाया है तो वह सब भी भड़क गए। सारे रथी-महारथी लाठी, बल्लम, मुगदर लेकर द्वारकाधीश के दरवाजे पर आ गये। कृष्ण ने सभी वीरों को देखा। बलराम जी एक तरफ हल की मूठ पकड़े फुँफ़कार रहे थे। साम्ब हल हाँकने वाला पैना लेकर आया था। प्रद्युम्न की गोद में अनिरुद्ध भी उपस्थित था और सब कोलाहल कर रहे थे। एक ने कहा कि इन्द्र की इतनी हिम्मत कैसे पड़ी कि वह हम सबको धोखा दे। इसबार उसकी ईंट से ईंट बजा देंगे। कृष्ण को माजरा समझने में थोड़ी देर हुई लेकिन जब उनको बात समझ में आई तब तक सत्यभामा कोपभवन में जा चुकी थीं। 

उधर इन्द्र को समाचार मिला कि यदुवंशी नाराज हैं और किसी भी क्षण हमला कर सकते हैं तो वह नारद के पास गये। सबकी जड़ यही देवर्षि थे। पारिजात से परिचय कराने की क्या दरकार थी।
नारद तत्क्षण द्वारका पहुँचे। सबको समझाया कि देवलोक की बात दूसरी है। वह भोग का लोक है। धरती कर्मभूमि है। यहाँ पारिजात दूसरे ढंग से पुष्पित पल्लवित होगा। उसको रोपना पड़ेगा, आल बाल बनाकर सींचना पड़ेगा। कर्मभूमि में बैठे-बिठाये खाने का कोई तुक नहीं है। सत्यभामा को बात समझ में आई। पारिजात रोपा गया। सींचा गया। उसमें खाद डाला गया। समय पर वह पुष्पित पल्लवित हुआ। हर तरफ उसकी सुगंध फैली। सत्यभामा ने उसके फूलों की सेज बनाई। रुक्मिणी ने उससे शृंगार किया। जाम्बवती ने इसे पूजा के लिए सहेजा। सारे यादवों ने हर्षध्वनि की। इन्द्र ने चैन की साँस ली।

पारिजात धरती पर आया तो रात में खिलने लगा और सुबह उसके पुष्प स्वत: झरने लगे। यह एकमात्र ऐसा पुष्प बना जो झरकर भी पवित्र बना रहता है। दैवीय गुणों से युक्त है। नासिरा शर्मा ने इस नाम से एक उपन्यास लिखा है। बंगाल ने इसे राजकीय पुष्प का दर्जा दिया है।

मुझे बहुत प्रिय है।

शनिवार, 14 सितंबर 2019

कथावार्ता : मातृ-भाषा के प्रति

भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।

सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.