शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

कथावार्ता : कफ़न, प्रेमचंद की कहानी

कफ़न
प्रेमचंद 

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’
‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।
‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’
‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।
घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।
जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।
‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’
‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’
‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’
‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’
‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।
उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।
घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!
‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’
‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’
घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!
आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।
दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’
‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’
‘पूछेगी तो जरूर!’
‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’
माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।
‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’
‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’
‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।
वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!
माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।
घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।
माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।
घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे-
‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।
पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।

रविवार, 30 जून 2019

कथावार्ता : पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने

जनकवि नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनका जन्म बिहार के मधुबनी जनपद के तरौनी नामक गाँव में सन 1911 ई० में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा पारंपरिक तरीके से लघुसिद्धान्त कौमुदी और अमरकोश से शुरू हुई और स्वाध्याय से ही संस्कृत, मैथिली, हिन्दी, नेपाली, सिंहली, अङ्ग्रेज़ी आदि भाषाओं के पण्डित हुए। सनातन और बौद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया और सिंहल प्रवास के दौरान सन 1936 ई० में बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। बौद्ध धर्म में दीक्षा के बाद उन्होंने अपना नाम नागार्जुन रखा। वह मैथिली में यात्री उपनाम से कवितायें लिखते थे। उनका एक अन्य रचनात्मक नाम प्रवासी था। ०५ नवंबर, 1998 को नागार्जुन का निधन हुआ।

          नागार्जुन ने विपुल साहित्य रचा। उन्होंने कविता और उपन्यास के क्षेत्र में विशेष ख्याति अर्जित की। उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं-

1.    युगधारा -१९५३

2.    सतरंगे पंखों वाली -१९५९

3.    प्यासी पथराई आँखें -१९६२

4.    खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०

5.    हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१

6.    पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३

उनके अग्रलिखित उपन्यास बहुत चर्चित हुए-

1.    रतिनाथ की चाची -१९४८

2.    बलचनमा -१९५२

3.    नयी पौध -१९५३

4.    बाबा बटेसरनाथ -१९५४

5.    वरुण के बेटे -१९५६-५७

सन २००३ में, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से नागार्जुन की रचनावली सात खण्डों में, प्रकाशित हुई है, जिसका सम्पादन शोभाकांत ने किया है।

          नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जन को आवाज दी है। राजनीतिक विषयों पर लिखी गयी उनकी कवितायें विशुद्ध क्रांतिकारी तेवर के साथ मौजूद हैं। राजनीतिक कविताओं के अतिरिक्त जहां वह जनता के कवि हैं, वहाँ उन सा बड़ा जनकवि दूसरा नहीं। उनकी कविताएं प्रयोगधर्मी हैं। वह कविता के हर क्षेत्र में प्रयोग करते हैं। लय में, छंद में और विषय वस्तु में। घनघोर नास्तिक और बौद्ध मत में दीक्षित हो जाने के बाद भी इस कविता – पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने में उनका अकुण्ठ मानस सहज देखा जा सकता है। वह अपने जनपद में रहते हुए बौद्धिकता अथवा किसी तरह के दिखावे से सर्वथा दूर हैं,  इसलिए वह स्वयं पर भी कटाक्ष करने से नहीं चूकते। लंबी अवधि के बाद शरद का सूर्य देखने के बाद वह आंचलिक कथाकार पर तीखा व्यंग्य करते हैं, यह आंचलिक कथाकार और कोई नहीं, वह स्वयं हैं। शरद के प्रात:कालीन सूर्य को देखने के बाद उनकी आस्तिकता जागृत हो जाती है। इसका उद्गार सूर्य और सावित्री के मंत्रों के मुक्त उच्चार में दिखता है। उसे छिपाने के लिए छोटा सा झूठ बोलने की स्वीकृति दिलवाकर उसके पाप  से मुक्त हो जाते हैं। नागार्जुन का यह आत्मस्वीकार इस कविता को बहुत महत्त्वपूर्ण बनाती है कि उनके नास्तिक मन को प्रकृति में व्याप्त सौंदर्य और तज्जनित आस्तिकता ने पीछे छोड़ दिया है।

          वह पढे लिखे युवक रत्नेश्वर से इस डेविएशन की चर्चा करते हैं और दलगत विवशता का भी उल्लेख करते हैं। यह विवशता विचारधारा की संकीर्णता का सूचक है और नागार्जुन का कवि मानस इस संकीर्णता का अतिक्रमण कर जाता है-



प्रस्तुत है - नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता- पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने।

शुरू-शुरू कातिक में

निशा शेष ओस की बूंदियों से लदी हैं
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप ………
टहलने निकलता हूँ परमानके किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेडों पर से, आगे
वापस जा मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद का बाल रवि

चमकता रहेगा घड़ी आधी घड़ी…

पूर्वांचल प्रवाही परमानकी
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहलकदमी
सैकत पुलिन पर

छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप….
और फिर आएगी, हँसी मुझे अपने आप पर
उतर पडूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएंगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान
झुक जाएगा ये मस्तक अनायास
दुधारू भैंसों की याद में….
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उड़ता आया है नीलकंठ
गुज़र जाएगा ऊपर-ही-ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?

इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर
या उस बूढे पीपल की बदरंग डाल पर ?
या किउड़ता ही जाएगा
पहुंचेगा विष्णुपुर के बीचोबीच
मन्दिर की अंगनाई में मौलसिरी की
सघन पत्तियोंवाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अदृश्य, करेगा वहीं आराम!


जाने भी दो,

आओ तुम मेरे साथ रत्नेश्वर
देखेंगे आज जी भरकर
उगते सूरज का अरुण-अरुण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हों हमारे नेत्र
देखना भाई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ दिखता है रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)

आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्घ
गुनगुनायेंगे गदगद हो कर
ॐ नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ॐ नमो ज्योतिश्वराय
ॐ नमः सूर्याय सवित्रे…”
देखना भाई रत्नेश्वर, जल्दी न करना।
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
        नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान पोस्ट-ग्रेजुएट
मेरे इस डेविएशनका !
नहीं, मैं झूठ कहता हूँ ?
मुकर जाऊँ शायद कभी….
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था
        मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
        सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुस्कुरा-भर देना मेरी उस
        मिथ्या पर!

 

शुक्रवार, 14 जून 2019

कथावार्ता : पालतू बोहेमियन यानी मनोहर श्याम जोशी की याद

जब मैं कोई अच्छी किताब पढ़ने लगता हूँ तो यह भावना मन में घर करने लगती है कि अगर यह जल्दी ही पढ़ ली जाएगी तो कैसा लगेगा! फिर एक उदासी, सूनापन, रिक्ति का अहसास घर करने लगता है क्योंकि उसे पढ़ते समय जैसी समृद्धि रहती है वैसी उसके आखिरी शब्द पढ़ने के बाद नहीं रहेगी। बीते दिन भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पानी पर पटकथा पढ़ते हुए भी यही भावना मन में थी और उसका एकाध निबंध अभी भी नहीं पढ़ सका हूँ।


आज उल्लेख करना है #प्रभात_रंजन की पुस्तक #पालतू_बोहेमियन की। यह कृति प्रख्यात साहित्यकार और धारावाहिक लेखक मनोहर श्याम जोशी को याद करते हुए लिखी गयी है। मैंने प्रभात रंजन द्वारा अनुदित एक किशोरी की डायरी पढ़ी है, उनका उपन्यास कोठागोई मुझे किस्सा शैली का बेहतरीन उदाहरण मानने में कोई संकोच नहीं होता। उनकी कहानियां, विशेषकर जानकीपुल ने बहुत कीर्ति अर्जित की है। यह कृति मनोहर श्याम जोशी को याद करते हुए लिखी गयी है तो इसे पढ़ने के कई कारण हैं। मनोहर श्याम जोशी को पसंद करने के कई कारण हैं। उनका उपन्यास 'कसप' किशोर जीवन का सबसे शानदार आख्यान है। जब हमने उनका उपन्यास 'हमजाद' एमए के दिनों में पढ़ा था तो हम उनसे मोहाविष्ट थे और हमजाद के चरित्रों को अपने आसपास खोजते और थुक्का फजीहत करते थे। उनकी और भी किताबें मसलन ट-टा-प्रोफेसर, क्याप और हरिया हरक्यूलिस की कहानी ने हमलोगों को बहुत आकर्षित किया था।
प्रभात रंजन की यह किताब अपने शीर्षक के कारण भी आकर्षक लगी थी और मन में इच्छा थी कि मनोहर श्याम जोशी जैसे 'असामाजिक' लेखक ने कैसा जीवन जिया, इसे जरूर जाना जाए। वह अपने लेखन के प्रति बहुत सजग थे और यही करना चाहते थे। यह समर्पण भाव उन्हें बड़ा भी बनाता है और उनके प्रति श्रद्धा भाव भी जगाता है।

प्रभात जी ने इसका हवाला देते हुए लिखा भी है कि जोशी जी अक्सर इस बात पर रंज प्रकट करते थे कि हिंदी में लेखन को लेकर समर्पण भाव का अभाव है, इसलिए उम्दा लेखन का भी टोटा रहता है।
पालतू बोहेमियन मनोहर श्याम जोशी के जीवन के कई पहलू उजागर करती है और प्रभात रंजन ने उनके साथ जिये समय को बहुत आत्मीयता और साफगोई से अभिव्यक्त किया है। यह किताब न सिर्फ जोशी जी के जीवन और लेखन के विविध पक्षों को उद्घाटित करती है अपितु लिखने,  लेखन के प्रबंधन और पढ़ने के तौर तरीके भी सिखाती है। इस किताब में कई ऐसे प्रसंग हैं जहां से नए और पुराने लेखकों को सबक मिल सकता है।
इस पुस्तक के विवरण से पता चलता है कि प्रभात रंजन उनके बेहद करीबी रहे हैं और उन्हें अच्छे से जानते बूझते रहे हैं। उन्होंने मनोहर श्याम जोशी के जीवन के कई ऐसे प्रसंगों पर विस्तार से लिखा है जब वह जरूरतमंद लोगों की आगे बढ़कर मदद करते थे और इसका श्रेय भी नहीं चाहते थे।
पालतू बोहेमियन कई दिन से पढ़ रहा था। एक अध्याय पढ़कर दूसरा कुछ पढ़ने लगता था, लेकिन आज मिले कुछ निराशाजनक खबरों के बीच इसे पढ़कर पूरा कर लिया। यह पुस्तक अपने आखिरी पन्नों में शोक विह्वल कर देती है जब मनोहर श्याम जोशी के न रहने का वृतांत लेखक शब्दबद्ध करता है।
अपने लिखे/पढ़े/अधूरा छोड़ दिये/योजना में शामिल साहित्य, पत्रकारिता, धारावाहिक और फ़िल्म को लेकर मनोहर श्याम जोशी की भावना का बेहतरीन अंकन करने में प्रभात रंजन कामयाब रहे हैं।
इस किताब की भूमिका पुष्पेश पंत ने लिखी है जो मनोहर श्याम जोशी को पहाड़ के दिनों से यानि उनके आरम्भिक संघर्ष और निर्माण के समय से जानते हैं। उनकी भूमिका इस किताब को पढ़ने का गवाक्ष भी देती है।
वैसे तो इस किताब में कई उल्लेखनीय प्रसंग और प्रेरक बाते हैं लेकिन 'क्याप' उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद लेखक को दी गयी प्रतिक्रिया उद्धृत कर इस अनुशंसा के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि यह किताब नवोदित और स्थापित सभी साहित्यकारों को जरूर पढ़नी चाहिए और उन लोगों को भी जो लेखकों के जीवन में झांककर उनका अंतर्मन और बाह्य जीवन जानने के इच्छुक हैं। लेखक ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद जब मनोहर श्याम जोशी को फोन किया तो  उन्होंने 'स्थितप्रज्ञ' भाव से कहा था- "इसमें बधाई की क्या बात है? हर बार एक ज्यूरी बैठती है और अपनी पसंद के किसी लेखक को पुरस्कार दे देती है। इस बार संयोग से ऐसी ज्यूरी थी जो मुझे पसंद करती थी। हिन्दी में पुरस्कारों का यही हाल है।"

पुस्तक का नाम- पालतू बोहेमियन मनोहर श्याम जोशी-एक याद
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 125₹
भूमिका- पुष्पेश पंत

गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

कथावार्ता : नया ज्ञानोदय- अप्रैल,19 अंक

        आज भारतीय ज्ञानपीठ की चर्चित पत्रिका  #नया_ज्ञानोदय मिल गयी। अप्रैल-19 का अंक। कुछ विशेष आ रहा है, ऐसी सूचना आठ दिन पहले मिली थी तो 'हबक' लिया। पढ़ लिया। उत्सुकता शमित हुई तो कुछ दूसरी चीजें भी सरसरी तौर पर गुजरीं। #हैदर_अली का राही मासूम रज़ा पर अच्छा लेख था। विजय बहादुर सिंह ने अष्टभुजा शुक्ल के निबंध संग्रह 'पानी पर पटकथा' की बढ़िया समीक्षा की है। शिवकुमार यादव ने केदारनाथ सिंह के कविता संग्रह 'मतदान केंद्र पर झपकी' पर ठीक ही लिखा है। सुभाष राय की कविताएं पसंद आईं। एक कहानी पढ़ने की कोशिश की। कहानी क्या थी एक तेयम दर्जे का बेसिरपैर वाला रूपक था। संपादकीय पढ़ने पर ध्यान लगाया। खयाल आया कि किसी ने बताया था कि मंडलोई जी की जगह मधुसूदन आनन्द को पद मिला है। देखा- इस बार का संपादकीय शुद्ध राजनीतिक है। मुझे नहीं स्मरण कि ऐसा राजनीतिक सम्पादकीय मैंने कब पढ़ा था किसी साहित्य, संस्कृति और कला को समर्पित पत्रिका में। खैर, सम्पादकीय भी कोई उल्लेखनीय दृष्टि नहीं देता। चुनाव, राजनीतिक दल, इन्दिरा गांधी, संजय गांधी, जूता उठाने, तलवे चाटने का प्रसंग, मोदी, लोकतंत्र पर संकट आदि, इत्यादि। ऐसा ही था।

      यहाँ तक तो ठीक था, सबसे अधिक परेशान हुआ #नया_ज्ञानोदय जैसी पत्रिका में वर्तनी/वाक्य विन्यास की भयंकर भूलों को देखकर। सम्पादकीय में ही "गाँधी" कई बार आया है। सही वर्तनी "गांधी" है। "राफेल" विमान वहाँ "रेफाल" है। कांग्रेस अधिकांश जगह काँग्रेस भी लिखा है।
          हैदर अली के लेख में आधा गांव उपन्यास के पात्र का नाम फुन्नन मियां की जगह "फुन्न" लिखा है। सैफुनिया "सैफनियाँ" हो गयी है।
शिवकुमार यादव के लेख में असाध्य वीणा "असाध्य पीड़ा" अंकित है। सम्भ्रान्तता के स्थान पर "सम्भ्रान्ता" छ्पा दिखा। और भी बेशुमार छपाई की भूल हैं।

             स्तरीय और प्रतिष्ठित मानी जानी वाली पत्रिकायें और प्रकाशन संस्थान भाषा और वर्तनी के प्रति इस कदर लापरवाह हुए हैं, कि एक संस्कृति ही बनती जा रही है। कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में कहें- "हमारे युग का मुहावरा है/ कोई फर्क नहीं पड़ता।"

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

कथावार्ता : ऐतिहासिक चरित गल्प- प्रेम लहरी

      अगर आप शाहजहांयुगीन मुगल दरबार और बनारस की कुछ अनछुई, अनकही कहानियाँ पढ़ना/गुनना चाहते हैं तो त्रिलोकनाथ पाण्डेय का उपन्यास 'प्रेम लहरी' जरुर पढ़ना चाहिए। वैसे तो यह उपन्यास पण्डितराज जगन्नाथ और उनकी प्रेयसी लवंगी को केंद्र में रखकर लिखा गया है। जगन्नाथ का मूल स्थान बनारस है, तो कहानी में बनारस अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक हलचल के साथ मौजूद है। लवंगी, शाहजहाँ और मुमताज महल की सबसे छोटी बेटी थी और सब जानते हैं कि मुगल बादशाही परम्परा में शाहजादियों का विवाह नहीं होता था; ऐसे में लवंगी अपने दरबारी कवि जगन्नाथ से प्रेम कर बैठती है और तब खुलती हैं परतें मुगल दरबार और हरम की।

     लवंगी और जगन्नाथ का प्रेम साहस और जोखिम की मिसाल है, साथ ही शाहजहाँ और दाराशिकोह की कोमल भावनाओं का भी। लवंगी मुमताज महल की आखिरी संतान होने का फायदा उठाती है और अपनी बड़ी बहन, पिता शाहजहाँ और भाई दाराशिकोह को इस बात के लिए लगभग मना लेती है कि वह उसका विवाह जगन्नाथ से कर दें। वह अपने महल में उससे बार बार मिलती है और यह अंतरंग मिलन मुगल हरमों की कहानियाँ कहता है।

        पण्डितराज जगन्नाथ की ख्याति संस्कृत में काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ के रूप में है। रस और साहित्य के विषय में उनका मत साहित्य में समादर से लिया जाता है। उन्होंने संस्कृत और ब्रजभाषा में बेहतरीन कविताएं लिखीं और लम्बी अवधि तक मुगल दरबार की शोभा रहे जहाँ उन्हें दारा शिकोह और लवंगी को शास्त्र सिखाने का अवसर मिला। इसी में यह प्रेम परवान चढ़ा और फिर उसकी एक विशेष परिणति हुई।

      यह उपन्यास हमें जगन्नाथ के कई अनजाने/अन्चीन्हे पहलुओं से परिचित कराता है जिसमें एक दिलचस्प है उनका पहलवानी का शौक। जगन्नाथ को दण्ड बैठक और कसरत का शौक था और लवंगी का हाथ देने के बदले शाहजहाँ ने अपने दरबार के प्रमुख पहलवान से उनका द्वन्द्व रखवा दिया था। जगन्नाथ ने उसे अपने शारिरिक और योगबल से पछाड़कर विशेष स्नेह और आदर की जगह प्राप्त की थी। प्रेम कहानी के इस उतार चढ़ाव के बीच इस उपन्यास में दर्ज है मुगल संस्कृति का बहुत सा स्याह पक्ष।

        प्रेम लहरी मुगल परिवारों में सेक्स, कुण्ठा, षड्यन्त्र, यौनशोषण, हीनताग्रंथि, हिंसा, इर्ष्या और ऐसी ही बहुत सी भावनाओं का बहुत प्रमाणिक चित्रण करती है। इस उपन्यास में मुगल बादशाह की यौनपिपासा है, परिवार में इस व्याधि से पीड़ित राजकुमारियां हैं और है उनका यौन बुभुक्षा शान्त करने का अवैध उपक्रम। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक सब शामिल हैं। शाहजहाँ की मझली बेटी तो इस मामले में सिरमौर है। वह न सिर्फ आकंठ यौन पिपासा में संलग्न है बल्कि वह औरंगजेब को खुफिया जानकारी भी देती है।
          
         मुगल परिवार में यह सब जो नंगा नाच चलता है, इसमें कोई व्यवधान नहीं डालता। हाँ, जो इसका अंग नहीं बनता उसे मरवा दिया जाता है। शाह परिवार की धौंस ऐसी है कि कोई चूं भी नहीं कर सकता।

         उपन्यासकार ने इस स्याह पक्ष को गाढ़ा उकेरने के लिए वैद्यजी की भूमिका को बहुत यादगार रंग दिया है। वैदक शास्त्र की स्थापना प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति की धाक जमाती है। वैद्यराज जब बादशाह का सफल इलाज करते हैं तो बादशाह उनसे यौन शक्ति बढाने वाली औषधि बनाने को कहते हैं और राजकुमारियां गर्भनिरोधक लेप। वैद्यराज ऐसा सफल काम करते हैं और सबके चहेते बन जाते हैं। प्रेम लहरी इस सब विशिष्टताओं के चित्रण के साथ मुगल परिवारों में सत्ता के संघर्ष, कला और साहित्य के उत्थान और उपलब्धि आदि पर भी प्रकाश डालती चलती है। वह बताती है कि स्वर्णयुग का दावा करने वाली मुगलिया सल्तनत में उत्तराधिकार को लेकर गजब घमासान है। औरंगजेब अपने भाई दारा शिकोह का सिर अपने पिता के पास भिजवा देता है, जो आगरा के किले में बन्द है। यह इस उपन्यास के लोमहर्षक दृश्यों में से एक है।

       पण्डितराज जगन्नाथ अपनी प्रेमिका लवंगी को लेकर बंगाल भाग जाते हैं और फिर वहाँ से वापस बनारस लौटते हैं। बनारस में उन्हें छिपकर रहना पड़ता है लेकिन एक दिन गंगा स्नान के अवसर पर उन्हें पहचान लिया जाता है और वह सपत्नीक जलसमाधि ले लेते हैं।

            जो लोग इस उपन्यास को जगन्नाथ के साहित्यिक यात्रा को ध्यान में रखकर पढ़ना चाहते हैं, उन्हें भी यह उपन्यास रंजनकारी लगेगा।

          नयी दृष्टि से, भारतीय दृष्टि से एक विशेष ऐतिहासिक चरित गल्प है प्रेम लहरी।

शनिवार, 19 जनवरी 2019

कथावार्ता :

    मैंने महसूस किया है कि हमारी पीढ़ी के बहुतेरे लोग ग्रामीण जीवन के अनेक शब्दों से अपरिचित हैं। कृषि, रसोई, विभिन्न पेशे के शब्द हमारे दैनिक जीवन से दूर होते जा रहे हैं।

      आज से हम ग्रामीण जीवन से जुड़े हुए कुछ शब्दों का उल्लेख करेंगे और उनका अर्थ तथा व्यवहार का विवरण देंगे। उनके विषय में लालित्यपूर्ण चर्चा होगी। वस्तुतः ग्रामीण जीवन के शब्दों से हमारा परिचय इसलिए भी खत्म हो रहा है कि एक तो हम उस परिदृश्य से दूर होते जा रहे हैं, दूसरे पूंजीवादी संस्कृति ने न सिर्फ ग्रामीण बल्कि इसी के लगायत दुनिया भर की स्थानीय संस्कृतियों को ग्रसना शुरू किया है। फिर विज्ञान, तकनीक और सूचना के प्रचार प्रसार से जीवन शैली में बुनियादी बदलाव आ गए हैं। बाजार हमारे घर में बहुत भीतर तक पैठ बना चुका है और उपभोक्तावादी संस्कृति हमको और अधिक आश्रित करती जा रही है।
तो ऐसे समय में ग्रामीण जीवन के खजाने को लेकर आपके बीच उपस्थित रहूँगा।
कोशिश रोज किसी नए विषय पर बात करने की रहेगी।
तो इंतजार

रविवार, 6 जनवरी 2019

कथावार्ता : वन्दे मातरम् -सम्पूर्ण गीत

वन्दे मातरम्‌
सुजलाम्  सुफलाम्  मलयजशीतलाम्‌
शस्य श्यामलां मातरम्  .
शुभ्र ज्योत्स्न पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्‌
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्‌
सुखदां वरदां मातरम्‌ .. वन्दे मातरम्‌
सप्त कोटि कन्ठ कलकल निनाद करले
निसप्त कोटि भुजैध्रुत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीं नमामि तारिणीम्‌
रिपुदलवारिणीं मातरम्‌ .. वन्दे मातरम्‌
तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि हृदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गडि मंदिरे मंदिरे .. वन्दे मातरम्‌
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्‌
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्‌
सुजलाम सुफलाम मातरम्‌ .. वन्दे मातरम्‌
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्‌
धरणीं भरणीं मातरम्‌ .. वन्दे मातरम्‌
गीत की प्रस्तुति देखें।

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.