शनिवार, 26 दिसंबर 2015

चुनावी कविता- परधानी का चुनाव




एक.

आज क़त्ल की रात पहरुए सावधान रहना।
मुर्गा-दारु-रुपया-पैसा लेकर के वह आएंगे,
साम दाम का अस्त्र थामकर,
दण्ड भेद का गिरह बनाकर; बातों में उलझायेंगे
यह चुनाव परधानी का है
लोकतंत्र की घानी का है
रुपया लेकर वोट माँगने, धमकाने वह आयेंगे
बड़ी जुलुम की रात पहरुए सावधान रहना।
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धनपशुओं की चाँदी होगी,
मतलबियों का सोना
बहुरूपियों का भेष ही होगा,
आँख खोलकर सोना
यह निर्णय की रात पहरुए सावधान रहना।
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वोट कहाँ तुम करोगे
मनचाहे को चुनोगे
आज के हीरो तुम होंगे
तुम ही खतरे सूंघोगे
लेकिन वह बहलायेंगे
पाँच साल का अवसर होगा, ससम्मान रहना।
आज कत्ल की रात पहरुए सावधान रहना।

दो.

भौरी-चोखा-दाल है,
चुनाव का कमाल है।
मुर्गा - दारू, रोटी - बोटी,
बिकती धोती और लंगोटी।
साड़ी बाँटें, साया बाँटें,
पोस्टर बैनर घर-घर साटें।
घूमें घर - घर करें प्रचार,
चरण चूमते हाथ पसार।
माई हैं और भौजी हैं,
पत्नी हैं मनमौजी हैं।
लड़ती बहुएँ हैं परधानी,
भइया बनते हैं सेनानी।
पांच साल का मौका,
मारो छक्का - चौका।

-कविवर रमाकान्त राय "छद्मश्री"

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

एकल व्याख्यानमाला में मेरा पहला व्याख्यान हो गया.

व्यख्यान की रूपरेखा

आज जिनकी बहुत याद आ रही है- खखनू बो!




हम सब उन्हें खखनू बो के नाम से जानते हैं। खखनू बो अर्थात् ‘खखनू की पत्नी’। वह खखनू की धर्मपत्नी हैं। वह खखनू के साथ खेतों में काम करती हैं। जब कभी खखनू गाँजा के पिनक में डांड पर बैठकर मस्ती में झूम रहे होते हैं तब भी उनकी पत्नी खेतों में काम कर रही होती हैं। खखनू न सिर्फ गाँजा पीते हैं, बल्कि ‘फिरी’ का मिल जाए तो अद्धा को पौव्वा में ख़ुशी ख़ुशी बदल देते हैं। जब वे इसकी खुमारी में रहते हैं तो दिन भर खटिया तोड़ते रहते हैं और उनकी पत्नी खेतों में काम करती रहती हैं, जानवरों को सानी-पानी और चारा का प्रबन्ध करती हैं और उनका साथ उनके छोटे-छोटे बच्चे देते हैं। खखनू के पिनक में बाधा पहुँचाने वाले को उनके क्रोध का सामना करना पड़ता है। खखनू बच्चों को बेरहमी से पीटते हैं। कई बार खखनू बो भी इस चपेट में आ जाती हैं और अपनी देह पर उग आये ‘गोहिया’ को दिखाने तथा खखनू की ज्यादती की शिकायत करने हमारे घर आती हैं। वह मेरी माँ से उनकी जमकर शिकायत करती हैं और अपने प्राणनाथ, पति परमेश्वर पर लानत भेजती हैं, डीह बाबा से दुआ करती हैं कि खखनू के देह में कीड़ा पड़े और ‘दहिजरा क नाती’ उफ्फर पड़ जाएँ। वे खखनू के हिंसा का विरोध करती हैं तो और मार खाती हैं लेकिन कई दफ़ा उनका हाथ भी उठ जाने को होता है लेकिन वे कुछ सोचकर रह जाती हैं। लेकिन जब कभी खखनू के सिर में दर्द होता है, वे गमकौवा तेल से मालिश करती हैं। पैर दबाती हैं और देह का बत्था उतार देती हैं।
खखनू बो, खखनू से ज्यादा कमाती हैं और उन्होंने मनरेगा के तहत जो जॉबकार्ड बनवाया है, उसके तहत पूरे सौ दिनों का काम पा जाती हैं। इस मेहनत की कमाई को वह घर की समृद्धि के लिए खर्च करती हैं। घर की समृद्धि का आशय है, बच्चों की फीस, दवा-दारू, कपड़ा लत्ता और फसल की खाद-पानी के लिए तत्परता। उनके लिए यह समृद्धि का दूसरा नाम है कि जब जरूरत हो तो वह पैसे के लिए किसी के आगे हाथ न फैलाने जाएँ! इसके मुकाबले खखनू जॉबकार्ड के बदले में एकमुश्त पैसा पा जाते हैं। प्रधान उनकी बात मान जाता है और सौ दिन के काम के बदले उनसे मस्टररोल पर हस्ताक्षर करवा लेता है। बदले में प्रधान उन्हें कभी-कभार दारू पीने के लिए पैसा दे देता है और साल भर में हजार दो हजार रूपये भी। खखनू को यह मनमाफ़िक लगता है और बिना हाथ डुलाये मिली रकम का वह मस्ती के लिए प्रयोग करते हैं। उनकी मस्ती के लिए पैसा खखनू बो भी देती हैं। न देने पर उन्हें गाली सुननी पड़ती है।
खखनू लगभग भूमिहीन हैं। उन्होंने कई खेतिहर लोगों की जमीन बटाई पर लिया है और आम के दो बगीचे भी साल भर/दो साल के लिए उठा लिया है। वे मौसम-बेमौसम जानवरों की ख़रीद-बिक्री भी करते हैं और जुआ खेलने में उस्ताद माने जाते हैं। खखनू इतना हाथ पैर मारने के बाद भी तंगी में रहते हैं और रोटी दाल का खर्चा खखनू बो के जिम्मे पड़ता है।
खखनू के परिवार में चार बच्चे हैं और भगवान की दया से पाँचवा आने की तैयारी में है। बड़ा बेटा दस साल का है और बेटी साढ़े आठ साल की। सबसे बड़ी संतान अगर रहती तो बारह साल की होती, लेकिन बकौल खखनू बो, देवी माई ने बेटी को ले लिया। खखनू बो धर्मभीरू हैं और डीह बाबा और देवी माई का विशेष ख़याल करती हैं। वे मुहर्रम के दिनों में शियाओं के परिवार में काम करती हैं और मलीदा लेकर लौटती हैं। वे हर साल ताजिया से मन्नत मांगती हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।
खखनू बो ने गाँव में अपनी छवि एक दबंग महिला एक रूप में तब बनाने में सफलता पाई जब उन्होंने एक मनचले को हँसिया लेकर दौड़ा लिया। मनचले ने खखनू बो के सामने एक अभद्र पेशकश की थी।
मैं खखनू बो से महिला सशक्तिकरण के बारे में पूछता हूँ, स्त्री विमर्श के विषय में जानना चाहता हूँ। उन्हें नहीं पता कि इस तरह का कोई आन्दोलन चल रहा है। उन्हें यह पता है कि कोई मोदी जी हैं जो परधान मंत्री बन गए हैं और उन्होंने ‘अच्छे दिन लाने का वादा’ किया है। उनके हिसाब से सब नेता एक समान हैं और सब अपना खजाना भरने के फेर में लगे रहते हैं। उनके हिसाब से इस बार शायद कुछ बदलेगा क्योंकि इसबार जो परधानमंत्री बना है उसने सबका खाता बैंक में खुलवाने का आदेश दिया है। इस खाते में पांच हजार रूपया भी रहेगा और एक लाख का बीमा भी। बीमा का मतलब उन्हें नहीं पता। बस यह पता है कि मोदी जी एक लाख रूपया सबको देंगे।
खखनू बो के बहाने मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक अति पिछड़े क्षेत्र की महिलाओं की दशा का वर्णन किया। इस अति पिछड़े क्षेत्र में पिछली दफ़ा श्री गुलाब सिंह यादव की पत्नी प्रधान रह चुकी हैं और अब श्री हनुमंत सिंह यादव की पत्नी हैं। इस समूचे क्षेत्र में प्रधान का मतलब उनका पति है। इस बार चुनाव में खखनू बो भी उम्मीदवार रहेंगी। परधानी में बहुत पैसा है।
(रमाकान्त राय)
ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं, खासकर निम्न वर्ग की महिलाएं स्त्री स्वतन्त्रता का पर्याय हैं। वे पति के साथ भी और उनके अनुपस्थिति में भी श्रमशील हैं। वे पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर जीवन के गाड़ी का दूसरा पहिया बनी हुई हैं। इसके विपरीत मध्यवर्ग की महिलाएं अभी भी घरों में सिमटी हुई हैं। हाँ, नयी पीढ़ी शहरों में पढ़ने के लिए निकली है। इस नयी पीढ़ी ने शहरी रंग-ढंग अपनाना शुरू कर दिया है। अंतर यह देखा जा सकता है कि जो महिलाएं जिम्मेदारी के बोझ तले दबी हुई हैं वे रोजी रोटी और परिवार को सहेजने के फेर में हैं। पितृ सत्ता से मुक्त होने के किसी भी ख़याल से बेखबर। उनके लिए शोषण जैसी कोई चीज नहीं है। अभी भी वे यह मानकर चल रही हैं कि जीवन ऐसे ही उतार चढ़ाव से होकर गुजरता है। हाँ, जो जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त हैं, उनके लिए जीवन स्वप्निल सा है। उनके लिए एक उन्मुक्त गगन है जहाँ वे टीवी और मोबाइल के सहारे उड़ान भरने को बेक़रार हैं।
जब मैं ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं में सशक्तिकरण की बात करता हूँ तो यह इस अवधारणा में झलकता है कि महिलाएं बिना किसी प्रोपेगंडा के अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं। उनके लिए सशक्तिकरण का मतलब नारेबाजी नहीं है बल्कि अपनी शर्तों पर जीना है। देह से मुक्ति, आर्थिक स्वतन्त्रता, पितृ सत्ता के वर्चस्व से मुक्ति और स्वावलंबी होने के किसी भी प्रत्यय से बेखबर इन महिलाओं का जीवन परम्परा और आधुनिकता का समुच्चय है। वे टीवी देख रही हैं, और सास बहू के सीरियल से खासा नाराज हैं। उनके मुताबिक यह खाये पिये अघाए लोगों के चोंचले हैं। वे विज्ञापनों के प्रभाव में तो हैं लेकिन उन्हें अवसर नहीं है कि वे खेतों में जींस और टॉप पहन कर काम करें। उन्हें इस बात की साध तो है कि वे भी सेनेटरी नैपकीन का इस्तेमाल करें और ‘उन दिनों’ में फ्री महसूस करें लेकिन यह बहुत खर्चीला है और वे इस मद में पैसे नहीं लगा सकतीं। उनके लिए बिजली, सड़क अभी दूर की चीज है और स्कूटी पर बैठकर फरफर उड़ना एक सपना। लेकिन मोबाइल ने उनके जीवन में मनोरंजन भरा है। उनके मेमोरी कार्ड में गाने और वीडियो भरे हुए हैं और एक मिसकाल से वे सपनों की दुनिया में घूम आने का अनुभव भी पा जा रही हैं। सूचना और संपर्क ने उनके जीवन में प्रेम की स्वच्छंदता भर दी है। नयी पीढ़ी ने इस स्वच्छंदता को पंख लगाकर हासिल किया है। गाँव में जीवन बदल रहा है और महिलाएं उस बदलाव को बहुत तेजी से अपना भी रही हैं।
-रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, भाऊराव देवरस राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दुद्धी, सोनभद्र, उ०प्र० २३१२०८
९४१५६९६३००, ९८३८९५२४२६

रविवार, 14 सितंबर 2014

छः दिन का छोटा बाबू..

छः दिन का यह छोटा बच्चा
हाथ है कच्चा पैर भी कच्चा
छिन पल खातिर खोले आँख
देखे यह संसार है सच्चा।
जब जब भूख लगे चिल्लाये
पीटे पैर अकड़ता जाए
हुलस के मम्मी नंदिनी जैसी
लेती छाती से चिपटाए।
पीता दूध मुकुलाता बाबू
हर्ष पुलक छलकाता बाबू।





श्रीमती जी, Reemakant Rai के उन दिनों में हम अक्सर इस बात को लेकर ढेर सारी उधेड़बुन में थे कि हमारी सन्तान हमें माँ-पिता बनने का सुख तो देगी, हमारे जीवन में बहुत सारे बदलाव भी लाएगी. हम इसको लेकर बहुत रोमांचित थे. जीवन बहुत सारे स्वप्न आदि से होकर ख्यालों में पकता जाता था. बस एक चिन्ता हम दोनों को परेशान करती थी कि डायपर बदलना एक कठिन काम होगा. हम सोचते थे, यह एक घिन पैदा करने वाला समय होगा. हम एक दूसरे से मजाक भी किया करते थे कि डायपर कौन कौन कैसे कैसे बदला करेगा.
फिर एक दिन यह फ़रिश्त आया, पेट में चीरा लगाकर! शुरूआती हफ्ता बहुत व्यस्त बीता. ज़च्चा-बच्चा दोनों की देखभाल करनी पड़ती थी. एक हफ्ते का समय बीमार की तीमारदारी में बीता. जब अस्पताल से घर आना हुआ और घर में साथ साथ रहना हुआ तो जाना कि डायपर बदलना एक कठिन काम तो है लेकिन यह घिनौना नहीं है. जब बच्चा रोता है, हममें से कोई एक उठकर पहले यह तजबीजता है कि गीला तो नहीं हुआ? अगर गीला हुआ है, तो उसे बदल दिया जाता है. यह इतना सामान्य सा है कि कभी भी किया जा सकता है. भोजन के थाली के आगे परोसने से ठीक पहले भी.
मैं इसमें यदा कदा आलस्य कर बैठता हूँ लेकिन श्रीमती जी, और उनकी माता जी बिना किसी आलस्य के यह सम्पन्न करती हैं. कभी कभी यह दसेक मिनट के अंतराल में ही घटता है लेकिन उसी तरह का धैर्य और संयम कायम रहता है.
पिता बनने के इस अवधि में महसूस कर रहा हूँ कि हमारी माँ हम सब को पालने के लिए कैसे कैसे जतन किया करती होंगी. पिता बनना एक पीढ़ी के दुःख दर्द को जानना है. हरबार डायपर बदलते हुए मैं अपनी माँ को याद करता हूँ. उनसे मिलकर उनकी गोद में अपना सर छुपाकर रहना चाहता हूँ.
(डायपर का अर्थ अस्थायी तौर की वह लंगोटी है, जो बच्चे के लिए उसकी माँ ने बहुत पहले पुराने कपड़ों को नए तरीके से सिलकर तैयार किया था.)

यह तुकबन्दी बस यूँ ही हो गयी थी..

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

ज्यादा चालाक लोग तीन जगह चपोरते हैं

यह कहानी ज्यादा चालाक लोगों के लिए है.
शीर्षक है- ज्यादा चालाक लोग तीन जगह चपोरते हैं.
तीन दोस्त थे. एक सामान्य समझ का था, एक थोड़ा चालाक और एक ज्यादा चालाक. राह चलते तीनों का पैर आग पर पड़ गया. मैं जब आग कह रहा हूँ तो उम्मीद करता हूँ कि आप इसके दूसरे अर्थ को जरूर जानते होंगे. आग पर पैर पड़ने के बाद तीनों विचलित हो गए. मन घिना गया.
सामान्य समझ वाले ने वहीँ घास देखी और पैर पोंछ कर आगे बढ़ चला.
थोड़ा चालाक जो था, उसने सोचा कि देखें आखिर क्या है जो पैरों तले आया है. उसने पैर में लगी ...गन्दगी को हाथ में लेकर देखा. फिर पोंछ कर आगे बढ़ लिया.
जो ज्यादा चालाक था, उसने भी यह जानने के लिए कि क्या था, हाथ में लिया और ठीक से जानने के लिए जीभ पर रखा. चखा और तब जाना कि ओह! यह तो मैला है.
तीन जगह चपोरने वाली बात यहीं ख़तम हुई.
कल देश के आम चुनाव का पहला बड़ा और महत्त्वपूर्ण चरण शुरू हो रहा है. हम सब आगामी पाँच साल के लिए एक सरकार चुनने जा रहे हैं. एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. ऐसे में निर्णय लेने की घड़ी आ गयी है.
चुनाव आयोग ने ईवीएम में नोटा का एक बटन रखा है. यह बटन इनमें से किसी भी नहीं के लिए है. यह बटन महज हमारी असहमति के लिए है. इससे चुनाव परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ेगा चाहे अस्सी फ़ीसदी लोग क्यों न नोटा बटन चुनें.
ढेर सारे उत्साही लोग इस बटन का प्रयोग करना चाहेंगे. इसलिए कि बता सकें कि उन्हें देश की संसदीय प्रणाली पर भरोसा नहीं है. ऐसे लोगों को आप किस कोटि में रखेंगे, आप स्वयं तय कर लें.
बाकी, कहानी का यह है कि कहानी वन में जाने के बाद भी आपके मन में बनी रहती है. सोचिये. सोचिये. सोचिये.
फिर निर्णय कीजिये.
शुक्रिया.

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.