मंगलवार, 11 मार्च 2014

कथावार्ता : उल्टा पड़ाईन


एक कहानी कहता हूँ. हमारे तरफ ख़ूब कही जाती है.
एक पंडिताइन मईया थीं. उनकी खासियत यह थी कि पंडीजी जो कुछ कहते, मईया ठीक उसका उल्टा करतीं. जैसे पंडीजी कहते, आज व्रत रहा जाएगा. पंडिताइन मईया कहतीं, हुँह, क्यों ब्रत रहा जायेगा? आज तो व्यंजन पकेगा. और वही पकता. पंडी जी कहते, आज खिचड़ी पका दो, बहुत मन है खाने का. पंडिताइन कहतीं, नहीं. आज तो छननमनन होगा. पंडीजी कहते- सुनो हो, मैं जरा बाहर जा रहा हूँ, तुम इसी बीच नैहर मत चली जाना. मईया कहतीं, काहे नहीं. हम नैहर जईबे करेंगे. और पंडीजी से पहले वे चली जातीं.
पंडीजी परेशान. करें तो का करें. फिर उन्होंने एक तरीका खोजा. वे इस तकनीक को समझ गए कि पंडिताइन ठीक उल्टा करती हैं तो उनने स्वयं उल्टा कहना शुरू किया. मसलन, जब उनका मन छनन मनन खाने का होता, वे कहते- आज सत्तू मिल जाता, या खिचड़ी या कुछ हल्का-फुल्का तो बहुत सही रहता. पंडिताइन पहले झनकती पटकती और फिर छनन मनन पकता. जब उन्हें आराम करना होता, वे कहते- आज ही मैं जाना चाहता हूँ. पंडिताइन कहतीं- आज कैसे जाओगे. आज नहीं जाना है. पंडीजी ने पंडिताइन की नस पकड़ ली थी.
फिर एक बार गंगा नहान का मौका आया. दंपत्ति नहाने चला. किनारे पहुँचकर पंडीजी ने कहा- सुनो, किनारे किनारे ही नहाना. भीतर पानी गहरा है. पंडिताइन ने कहा- हुँह! किनारे किनारे क्या नहाना. और वे आगे बढ़ती गयीं. पंडीजी मना करते जाते और पंडिताइन और गहरे बढ़ती जातीं..
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फिर?
फिर क्या! पंडिताइन नदी के तेज बहाव में अपनी जमीन खो बैठीं. लगीं 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाने. पंडीजी उन्हें बचाने कूदे. पंडिताइन दक्खिन की और बह रही थीं. और पंडीजी उत्तर की ओर छपाका मारते जाते!
अंततः पंडिताइन बह गयीं. पंडीजी बाहर निकल आये. सबने पंडीजी की खूब लानत मलामत की. 'आप देख रहे थे कि मईया दक्खिन बह रही हैं तो बचाने के लिए हाथ-पाँव उत्तर की तरफ क्यों मार रहे थे?'
पंडीजी ने कहा- पंडिताइन ने जीते-जी मेरी कोई बात नहीं मानी. मरते समय भी मुझे पक्का भरोसा था कि वह धारा के विपरीत ही लगेगी. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
...
(मुझे यह कहानी क्यों याद आ रही है? बस सुना रहा हूँ. आप तो जानते ही हैं- सुनने वाला सच्चा, कहने वाला झूट्ठा. लेकिन;कहनी गईल वने में, सोच अपनी मने में!)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कथावार्ता : उपन्यास में आम आदमी कहाँ है?


अरविन्द केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी के दिल्ली में सत्ता सँभालने से एक नए युग का सूत्रपात माना गया। इसी के साथ यह बहस भी शुरू हुई कि आम आदमी से उनका आशय क्या है? जब उनकी पार्टी में पी साईनाथ, मल्लिका साराभाई और इसी तरह की गणमान्य हस्तियाँ शामिल होने लगीं तो आम बनाम ख़ास का मुद्दा उठा। आखिर आम आदमी कौन है? रोजमर्रा का जीवन बहुत साधारण तरीके से रोजी-रोटी के चक्कर में उलझने वाला, भविष्य के लिए दो पैसे बचाकर रखने की चाहत में अपनी सुख-सुविधाओं में क़तर-ब्योंत करने वाला या हवाई जहाज के ऊँचे दर्जे में सफ़र करने वाला और पाँच सितारा होटल में ठहरने वाला? अपने एक साक्षात्कार में अरविन्द केजरीवाल ने चौतरफा आलोचनाओं के बाद स्थापना दी कि ‘हर वह आदमी आम आदमी है, जो अपना काम ईमानदारी से करता है। भ्रष्टाचार नहीं करता।’ उनकी इस बात ने इस बहस को एक नया रूप दिया। अरविन्द केजरीवाल की इस स्थापना के बाद मैंने खुद को आम आदमी के खाँचे से बाहर पाया।
आम आदमी कौन है? प्रेमचंद के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का होरी क्या आम आदमी है? गोदान का होरी भी आम आदमी नहीं है। वह अपना जीवन संघर्षों में व्यतीत करता है और किसान से मजदूर जीवन की त्रासदी सहते हुए मर जाता है। क्या होरी का साठ साला जीवन ईमानदार जीवन था? उपन्यास में एक प्रसंग आता है जब होरी बाँस बेचता है। बाँस बेचने के उस प्रसंग में होरी अपने भाई से छल करता है। यद्यपि इस छल में वही छला जाता है। बाँस बेचने वाला होरी को ब्लैकमेल कर लेता है। प्रेमचंद ने एक प्रसंग में यह बात भी उठाई है कि जब होरी के हाथ कुछ अतिरिक्त पैसे लगे थे तो उसने उन्हें सूद पर चलाया था। उस व्यापार में भी उसे घाटा हुआ था। होरी अपने साथी से छल से गाय खरीदता है। कहने का आशय यह है कि वह अपने जीवन में तथाकथित ईमानदारी का कितना निर्वाह करता है? अगर केजरीवाल के परिभाषा में रखें तो वह ईमानदार नहीं है। धनिया हो सकती है। परिवार का मुखिया नहीं होगा। मेहता हो सकते हैं। पूरे उपन्यास में मेहता के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह आम आदमी हो सकता है। प्रेम और विवाह के विषय में उसकी विचारधारा भी खाप पंचायतों की विचारधारा से मेल खाती है। योगेन्द्र यादव ने बीते दिन खाप पंचायतों की कार्यशैली को उचित ठहराया था। तो गोदान में आम आदमी के रूप में मेहता को चिह्नित किया जा सकता है। राय साहब तो क्या होंगे। वे गाय की खाल में भेड़िया हैं।
गोदान के बाद अगर ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘मैला आँचल’ की बात करें तो लगेगा कि वहां एक आम आदमी है। बावनदास। बावनदास में सत्य और आचरण की शुद्धता को लेकर कुछ तफसील हैं। बावनदास आचरण की पवित्रता के लिए उपवास और आज के केजरीवाल की तरह धरना आदि का आश्रय लेता है। रेणु ने मैला आँचल लिखते हुए बावनदास का जो चरित्र गढ़ा है वह विलक्षण है। वह चेथरिया पीर पर शहीद हो जाता है। वह भ्रष्टाचार रोकने की कवायद में जान दे देता है। क्या आम आदमी वही है? समूचे उपन्यास में और कौन पात्र होगा जो आम आदमी कहा जा सके? उपन्यास में प्रशान्त एक जगह ममता को चिट्ठी लिखता है। चिट्ठी में वह यह कहता है कि यहाँ के लोग देखने में सीधे हैं। लेकिन साथ ही यह भी उद्घाटित करता है कि मेरे तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में दस बार ठग लें। और तारीफ़ यह कि ठगा जाकर भी हम ठगा नहीं महसूस करेंगे। मेरीगंज के लोग भी, जो ऐसा करते हैं, वे आम आदमी कैसे होंगे। तहसीलदार तो कतई नहीं। उन्होंने तो गाँववालों और आदिवासियों की जमीनें हड़प ली हैं।
श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी में आम आदमी के खाँचे में आने वाला एक सज्जन है- लंगड़दास। लंगड़दास का जितना भी प्रसंग आता है, उसमें वह कचहरी का चक्कर लगाता मिलता है। चक्कर लगाने के जो कारण हैं, वे बहुत सटीक हैं। वह ईमानदारी से नक़ल पाना चाहता है और कचहरी का बाबू बिना पैसे लिए नक़ल देने को तैयार नहीं है। यह द्वंद्व बहुत दिलचस्प हो गया है। बाबू को पता है कि कैसे लंगड़दास को नक़ल मिलेगी। लंगड़ को भी पता है कि ईमानदारीपूर्वक उसे नक़ल नहीं मिलेगी। लेकिन उसका संघर्ष जारी है। हमारे लिए यह संघर्ष इस तरह हो गया है कि हास्यास्पद सा लगने लगता है। व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी का संघर्ष हास्यास्पद हो उठता है। आप देखेंगे कि लोग-बाग़ नक़ल के लिए लंगड़ से महज इस लिए पूछते हैं कि थोड़ा मजा आ जायेगा। लंगड़ की संजीदगी देखने लायक है। क्या आम आदमी इतना निरीह आदमी है? उपन्यास में शिवपालगंज के मेले का जिक्र है। एक बारगी यह मानने का मन करता है कि मेले में मिठाई की दुकान चलाने वाला आम आदमी होगा। लेकिन छोटे पहलवान और गंजहों से उलझने के बाद जब कोर्ट-कचहरी तक जाने का मामला आता है, वह सुलह करने को तैयार हो जाता है। लेकिन वह आम आदमी कैसे हो सकता है? श्री लाल शुक्ल ने मेले की मिठाइयों का जो वर्णन किया है वह पढ़कर पहली नजर में ही लगता है कि ये मिठाइयाँ जानलेवा ही हैं। ऐसी मिठाई बेचने वाला आम आदमी कैसे होगा? क्या रंगनाथ है? रंगनाथ में आम आदमी बनने की पूरी संभावना है। वह बन सकता है। शायद वही आम आदमी है भी।
हिन्दी के उपन्यासों में आम आदमी कहीं है तो आदर्शवादी किस्म के उपन्यासों में। ठीक ठीक यह बताना बहुत कठिन है कि यहाँ कहाँ मिलेगा। प्रेमचंद के कर्मभूमि में प्रेमशंकर के रूप में अथवा रंगभूमि के सूरदास में। यशपाल के महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘झूठा-सच’ में भी कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसे कहा जाए कि वह आम आदमी है। राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ में तो कोई है ही नहीं। छिकुरिया, कोमिला, मिगदाद जैसे हो सकते थे लेकिन उनका चरित्र ज्यादा उभारा ही नहीं गया। ‘टोपी शुक्ला’ का बलभद्र नारायण शुक्ला उर्फ़ टोपी आम आदमी बन सकता था लेकिन उसकी असंख्य न्यूनतायें हैं।
दरअसल ईमानदारी एक युटोपिक अवधारणा है। यह कुटिलता से स्थापित की जाती है। इसे स्थापित करने के अपने कैनन हैं। जब अरविन्द केजरीवाल यह कह रहे होते हैं तो वे बहुत सतही किस्म की बात कर रहे होते हैं। अपना काम ईमानदारी से कौन कर रहा है। क्या केजरीवाल ने किया? जब वे सरकारी सेवा में थे तो अपना काम ईमानदारी से कर रहे थे? उन्होंने सरकारी कार्यों का अगर सही से निर्वहन किया होता तो वे सरकारी सेवक होते न कि एक राजनेता।
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि ईमानदारी, सत्य, निष्ठा और अपरिग्रह आदि व्यवस्था का पोषण करने के लिए बनाये गए टूल्स हैं। प्राचीन समय में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इन टूल्स की बहुत आवश्यकता थी। इन टूल्स की मदद से राजा और उनके पुरोहितों ने एक संस्कृति विकसित की। इस संस्कृति में वे हमेशा राजा और पुरोहित बने रहने वाले थे और स्वयं इस नीति-नियम से ऊपर रहने वाले थे। ऐसा ही हुआ। दुनिया भर में यह तकनीक सबसे ज्यादा कारगर रही और दुनिया भर में इसे अपनाया भी गया।
लेकिन यहाँ इन बहसों के लिए अवकाश नहीं है। यहाँ यह देखना है कि केजरीवाल ने जो परिभाषा दी है, उस परिभाषा की कितनी चीर-फाड़ की जाती है। दरअसल नैतिकता के मामलों में हम बिना किसी तर्क के वाक-ओवर दे देते हैं। यह वाक-ओवर ही केजरीवाल की जीत और बढ़त का राज है। वरना हम सब जानते हैं कि आम आदमी का कहीं अता-पता नहीं है। सब गुणा-गणित का फेर है।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

बया का अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३

कोई बताएगा कि यह 'उपन्यासिका' क्या होती है? क्या यह लम्बी कहानी और उपन्यास के बीच की कोई विधा है या कुछ और?
‘बया’ के नवीनतम अंक अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३ में मनाली चक्रवर्ती की उपन्यासिका 'सवेरा होने वाला है' बड़ी मेहनत से पढ़ गया. यह खासा उलझाऊ था. स्त्री मुद्दे को लेकर लिखे गए इस उपन्यासिका में विमर्श के कई पहलू छूने की कोशिश हुई है. थोड़ा अनाड़ीपन के साथ और थोड़ा अति उत्साह में. बहरहाल कुछ खास बना नहीं. हाँ, रेल के पटरियों के किनारे रहने वाले लोगों का जीवन बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है.
अंक में आशिमा की पहली कहानी 'चूड़े वाली भाभी' प्रभावित करती है, यद्यपि उसकी थीम जानी पहचानी है लेकिन कसाव ऐसा है कि कहानी पढ़ने के बाद देर तक प्रभाव बनाये रहती है. चूड़ेवाली भाभी के मर जाने के बाद सब के मन में उपजी सहानुभूति का अंकन बहुत अच्छे से हुआ है.
बया का यह अंक एक तरह से श्रद्धांजलि अंक है. सुरेश सलिल ने विजय सोनी, गोविन्द पुरुषोत्तम देशपांडे और परमानन्द जी के विषय में बहुत आत्मीयता से लिखा है. अंक में मशहूर कलाकार अशोक भौमिक के बारे में रोचक सामग्री है. 
अंक की कवितायेँ निराश करने वाली हैं, सिवाय रविशंकर उपाध्याय, अस्मुरारी नन्दन मिश्र और सुरेश सेन निशांत की कविताओं के. अशोक भौमिक ने शताब्दी राय की कविता का जो अनुवाद किया है वह जल्दीबाजी में किया गया लगता है. या यह भी हो सकता है कि शताब्दी राय ने यह कविता एक पुरुष होकर लिखी है. आखिरी हिस्से का अनुवाद आप खुद देखें-
ए लड़की तेरा धरम क्या है रे?
- औरतों का भी कोई धर्म होता है, जी
सब कुछ तो शरीर का मामला है
सलमा कहती धरम ही समाज को बनाता है
जब शाम को वह खड़ी होती है, कोई नहीं पूछता उससे 'क्या तू हिन्दू है'
बस यही पूछते हैं, 'कितने में चलेगी'
बिस्तर ही धर्म को मिलाता है
शरीर जब शरीर से खेलता है
इसलिए सोचता हूँ
अबसे शरीर और बिस्तर को ही धर्म कहूँगा..
....
"सोचता हूँ" और "धर्म कहूँगा", यह शताब्दी राय तो नहीं ही कहेंगी. अशोक भौमिक जरूर कह सकते हैं. यह अनुवाद की गड़बड़ी ही है.


अंक में जैसा कि मैंने बताया, सुरेश सेन निशांत की कवितायेँ बहुत मार्मिक हैं, पहाड़ का जीवन उनकी इन कविताओं में स्पंदित सा है. निर्मला को संबोधित करते हुए यह आठ कवितायेँ बेहद संजीदा तस्वीर पेश करती हैं और बहुत प्रभावित करती हैं. एक आप भी पढ़ें-
निर्मला!
कभी-कभी लगता है
तुम एक पहाड़ हो हरा-भरा
और मैं एक छोटा-सा
घर हूँ उसपर बना हुआ
अपने होने की ख़ुशी में
डोलता हुआ.
तुम्हारी देह में
गहरे तक धँसी हुई है
मेरी जीवन जड़ें.
.
कभी-कभी लगता है
तुम धूप हो सर्द दिनों की
हमें जीने की तपिश भेंटती हुई
तुम्हारे बिना जीना
बहुत मुश्किल है
इन पहाड़ों पर .
.
कभी-कभी लगता है
मैं गहरी नींद में हूँ
तुम एक सुन्दर स्वप्न हो
मेरी नींद में विचरता हुआ.
.
मैं चाहता हूँ
मैं सोया रहूँ सदियों तक
गहरी नींद
ये स्वप्न चलता रहे
यूँ ही....
बया Antika Prakashan से छपती है और गौरीनाथ जी इसके संपादक हैं.

बुधवार, 22 जनवरी 2014

कथावार्ता : सिक्सटीन- सोलह बरस की साली उमर की फिल्म



Sixteen (सिक्सटीन) राज पुरोहित द्वारा निर्देशित २०१३ में आई बॉलीवुड फिल्म है। यह सोलह बरस की बाली उमर के मुकाबले सोलह बरस की साली उमर को रेखांकित करती है। जिस सोलह बरस की उमर को हिन्दी जगत में बहुत रोमानी कह कर गुणगान किया गया है, उस सोलह की उमर में शहरी क्षेत्र के युवा क्या सोचते हैं, कैसे जीते हैं, इस थीम को लेकर इसकी कहानी बुनी गयी है। जाहिर सी बात है कि इस फिल्म में जिन चरित्रों को लेकर कथा बढ़ाई गयी है, वे खाते-पीते घर के, तथाकथित अडवांस परिवार के बच्चे हैं। जिनके लिए सोलह की उमर सेक्स और अफेयर के आगे अगर कहीं है तो एक सेलिब्रेटी बनने की चाह में है। वे इस उमर में महत्वाकांक्षी इतने हैं कि कुछ भी कर गुजरते हैं, या कर गुजरने की हिम्मत रखते हैं। लेकिन हिम्मत भी ऐसी कि एक झटके में धसक जाय। खालिस आत्मकेन्द्रित।
सभी सोलह साला बच्चों की मूल चिन्ता में सेक्स है। कॉलेज जीवन में अक्सर, उनकी बातचीत उसी पर केन्द्रित है। कौन किससे फ्लर्ट कर रहा है? किसका अफेयर कहाँ तक पहुंचा और कौन असफल है?  इस दुनिया में षड्यंत्र हैं, असफलताएं हैं, प्यार भी है। सबका एक मोटो भी  है। लव, सेक्स और/या फ्रेंडशिप इसके केन्द्र में है। बच्चियाँ सिगरेट पी रही हैं, हुक्का भी। शराब पी रही हैं और लेट नाईट पार्टी में जा रही हैं। लड़के भी। लड़कियां अपनी वर्जिनिटी के टूटने को सेलिब्रेट कर रही हैं और उचित पात्र की तलाश में आपस में झगड़ा भी कर ले रही हैं।
सेक्स इस कदर प्रमुखता से जीवन में शामिल है बल्कि यह कहना चाहिये कि इस फिल्म में फोकस्ड है कि सभी गतिविधियाँ उसी से संचालित हैं। अभिनव झा काम/सेक्स से इस कदर फ्रस्टेट है कि पढ़ाई में फिसड्डी बन जाता है। इस वजह से उसकी पिटाई होती है। पिता को चिन्ता होती है तो वे इसकी गहराई में झांकते हैं, जहाँ उन्हें पता चलता है कि बच्चे के कंप्यूटर में ढेरों अश्लील सामग्री भरी पड़ी है। परम्परागत ख्याल वाले पिता इसे सहन नहीं पाते। बच्चे को मारते-पीटते हैं। फिर नेपथ्य से जब वास्तविकता सामने आती है तो पता चलता है कि अभिनव ने अपने पिता की हत्या कर दी है। यहाँ से फिल्म में अपराध भी शामिल हो जाता है। यह बताना जरूरी है कि किसी भी अभिभावक के पास अपने बच्चे के लिए समय नहीं है। हाँ, औपचारिकतायें जरूर हैं।
फिल्म में सोलह की उमर वाले बच्चों के शुरुवाती जीवन की शैली उन्हें एक भयानक गह्वर में ले जाकर फँसा देती है। उनमें से एक गर्भवती हो जाती है, एक हत्यारा बनकर जरायम की दुनिया में दाखिल हो जाता है, एक जो मिस इण्डिया बनने का ख्वाब देखती है, का एमएमएस हर तरफ फ़ैल जाता है। एक अपने प्यार में असफल हो जाती है। कहने का मतलब यह कि युवाओं की जिन्दगी में हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा छा जाता है।
तब एक साल के बाद अचानक से चीजें बदल जाती हैं। जब बच्चों के हाथ से जीवन उनके समझदार परिवारीजनों के हाथ आता है, जीवन बदल जाता है। यह फिल्म को सुखान्त बनाने का आइडिया है। हमारे यहाँ के फिल्मों का ट्रीटमेंट भी अक्सर यही होता है। सब कुछ अच्छे से जीवन में चलने लगता है। जब हम फिल्म देखकर छूटते हैं तो एक गंभीर समस्या का सरलीकरण करते हुए बाहर आ जाते हैं। यहाँ फिल्म कमजोर होती है। बहरहाल।
फिल्म में, जैसा कि मैंने बताया, शहरी जीवन है, उच्च वर्ग के धन्ना लोगों के बच्चे हैं तो उनकी प्राथमिकतायें और चिंताएं भी उनके अपने वर्ग की हैं। यह हमारे समाज का सच नहीं है। एक हिस्से का सच है। शायद। मैं उस समाज से परिचित नहीं हूँ। यह पेज-3 वाले समाज की कहानी है। इस समाज में बच्चों को अपने भविष्य की चिंताओं में करियर कहीं नहीं है। यह जो हम अपने बच्चों को, पढ़ो-पढ़ो की रट के साथ डाँटते-डपटते रहते हैं, लगातार ताने देते रहते हैं, और हमारे बच्चे करियर की चिन्ता में प्यार की क़ुरबानी देते हुए अपने को हलाक करते हैं, वह यहाँ कहीं नहीं है। जिस एक पात्र अभिनव के यहाँ है, वह जरायम में शामिल हो गया है और अंततः सुधार गृह में भेज दिया गया है।
सिक्सटीन भद्रलोक की कहानी है। यह भले फार्मूला फिल्म है, लेकिन हमें सोचने पर मजबूर करने वाली फिल्म है। इस फिल्म में मुख्य थीम सेक्स भले हो, फिल्म में अश्लील दृश्य कहीं नहीं हैं। फिल्म में जहाँ वयस्क दृश्य की संभावना है, वहां चतुराई से काम लिया गया है। लेकिन क्या अश्लीलता बस नग्न दृश्य दिखाने में ही है? इस फिल्म को देखते हुए कहा जा सकता है कि उत्तरार्द्ध को छोड़कर समूची फिल्म ही राही मासूम रज़ा के शब्दों में अश्लील है।
फिल्म में कोई चेहरा जाना पहचाना नहीं है। यह फिल्म का सबसे बेहतर और महत्त्वपूर्ण पहलू है। मेरी सम्मति है कि यह फिल्म देखी जानी चाहिए।

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.