सोमवार, 19 अगस्त 2013

रामजी यादव की कहानी 'गाँव-गिरांव' पर एक त्वरित टिप्पणी



एक अच्छी कहानी बहुत कुछ कहने के व्यामोह में चौपट हो जाती है. कहानी की प्राथमिक शर्तों में यह शामिल है कि उसे सुगठित होना चाहिए और तारतम्यता भी. 'समकालीन सरोकार' का जुलाई, २०१३ अंक; मैं नरेन्द्र पुण्डरीक का अनुभव ' जुगाड़ और जुगाड़ का साहित्य' पढ़ने के लिए लाया था. उस पर बातें बाद में होंगी. कुछ बातें आचार्य उमाशंकर परमार सर ने कही भी थीं. बहरहाल, इस अंक में Ramji Yadav की कहानी "गाँव गिरांव" पढ़ते हुए लगा कि अगर इसे थोड़ा समेटते हुए लिखा जाता तो यह एक मास्टरपीस कहानी हो सकती थी. जियालाल गौतम और दिनकर की मित्रता  गाँव के बहुत सारे बदलाव को रेखांकित करती है. जियालाल गौतम का द्विज बनते जाना एक बड़ी सचाई है. और यही कारण है कि वे प्रधानी के चुनाव में  मातादीन को नहीं चुनते. कहानी में आंबेडकर जयंती और रविदास जयंती का प्रसंग कहानी का अधिक प्रसंग है. इसकी बातें किसी दूसरे प्रसंग में कही जा सकती थीं. इसी तरह डॉ के हाथों तथाकथित हत्या वाला प्रसंग भी.
बाकी. एक अच्छी कहानी के लिए उन्हें बधाई..

अर्थव्यवस्था पर विचार करते हुए.

देश में बन रहे १९९१ जैसे हालात के लिए यूपीए सरकार किसी को जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकती. आखिरकार वह पिछले नौ सालों से भारतीय जनता के सीने पर मूँग दलती आई है. अभी भी जोर-शोर से यही कर रही है. ये जो रुपये में डालर के मुकाबले गिरावट है और शेयर बाजार में तरलता की कमी आई है, वह उस दौर के आर्थिक मंदी की सुगबुगाहट है. अभी कुछ ही दिन हुए, जब वैश्विक आर्थिक मंदी की लहर में तमाम सेवा क्षेत्रों में अभूतपूर्व कटौतियां हुई थीं. क्या हम यह कह सकते हैं कि उस मंदी के दौर से बहार निकलने के बाद पुनः सेवा क्षेत्र में रोजगार पुनःसृजित हुए? क्या उन कंपनियों ने वापस अपने कर्मचारियों को बुलाने का कोई उपक्रम किया? क्या हम वापस अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सके?
मुझे लगता है कि नहीं. हमने फौरी उपाय किये. तुरंता के इन उपायों ने हमें बस उस जगह से गिरने नहीं दिया. हम थिर रहे. सरकार ने हमें दूसरे मुद्दों में उलझा कर यह समझाया कि हम आर्थिक विकास की अपेक्षित गति हासिल कर ले रहे हैं. जबकि वास्तविकता यह है बीते कई सालों से हमने तय किये हुए लक्ष्य को हासिल ही नहीं किया. आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ जानते हैं, कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार जो उपाय कर रही है वह फ़ूड सप्लीमेंट की तरह है. हम किसी कुपोषित बच्चे को पौष्टिक आहार देने की जगह रिवाइटल खिलाते रहें तो जो परिणाम मिलेंगे, हमारी अर्थव्यवस्था कमोबेश उसी तरह के परिणाम दे रही है.
इसलिए जब मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के इतिहास की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए यह बता रहे हों कि देश में १९९१ जैसे हालात नहीं हैं और देश का विदेशी मुद्रा भण्डार छः-सात महीने के लिए है, और चिंता करने की बात नहीं है तो हमें चिंता करना शुरू कर देना चाहिए.आपको याद होगा कि चिदंबरम जी ने कुछ दिन पहले देशवासियों से सोना खरीदने से परहेज करने की सलाह दी थी. उन्हें लगता था कि यह डालर का अन्प्रोडक्टिव इन्वेस्टमेंट है. आखिर सोना आयात करने में विदेशी मुद्रा ही काम आती है. बहरहाल.
देश एक गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के होने के बावजूद इस गह्वर से निकलने की कोई राह नहीं दिख रही है. दिक्कत यह है कि १९९१ के जो हालात थे, उसमें हम निकलने में सफल हो गए क्योंकि आर्थिक सुधारों ने बहुत सारे सरकारी क्षेत्रों को बाजार में खुली प्रतिस्पर्धा के लिए छोड़ दिया था.
असली चुनौती आगामी सरकार के लिए है. यह लगभग पक्का है कि यूपीए सरकार पुनः नहीं आने वाली. हालाँकि यह कोई असंभव भी नहीं है. लेकिन अगर कोई दूसरी सरकार चुन कर आएगी तो उसके लिए शुरूआती दो साल भारी चुनौती के साल रहेंगे. उस पर तमाम उपाय करने का दबाव रहेगा और संभव है कि अर्थव्यवस्था चरमरा भी जाए. आप देखिएगा, तब हमें लगेगा कि यूपीए सरकार ही बेहतर थी. ऐसा इसलिए लगेगा कि हमने दूर तक देखने-समझने का हुनर खो दिया है. और अगर यही सरकार दुबारा बनी तो फिर क्या कहियेगा और किस मुंह से कहियेगा. जार-जार रोइए, कि कहिये क्या??

रविवार, 20 जनवरी 2013

किसकी है जनवरी किसका अगस्त है.

अभी कुछ देर पहले सीमावर्ती राज्य झारखण्ड के गढ़वा जिले से लौटा हूँ. बीहड़ और निखालिस गाँव दिखे. जीवन कितना दुरूह है फिर भी है. मूलभूत समस्याएँ बरकरार हैं. पानी नहीं है, बिजली नहीं है.जंगलों में महुआ के पेड़ हैं जिसके चूए हुए फूल से जहाँ तहां रस निकाले जा रहे हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा वहां लुटाकर हमारे नागरिक समस्याओं को ठेंगा दिखा रहे हैं, टुन्न पड़े हैं.(ये मत कहियेगा कि आजकल तो सीजन नहीं है. धंधा है यह) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और मनरेगा की टूटी-फूटी सड़कें हैं और और सड़कों पर जान जोखिम में डाल कर सवारियां ढोती जीप और बसें हैं. दरिद्रता का साम्राज्य एकछत्र बना हुआ है. लोग हताश और निराश हैं. बाबा नागार्जुन की कविता याद आ रही है.
"किसकी है जनवरी और किसका अगस्त है."

''किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है

चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है

कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है

जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है

उसी की जनवरी छब्बीस

उसी का पंद्रह अगस्त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है

कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है

खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा

मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है

सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है

उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!

देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है

गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है

धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है

कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है

मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है

उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है..''


हम गणतंत्र के ६४वें वर्ष की दहलीज पर हैं.

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

दशहरे का एक दिन बनारस में.



इस दशहरे में एक दिन बनारस में लहुराबीर पर रहा कुछ समय. हमारे सर और प्रिय मित्र आनंद तिवारी ने कहा कि वहां की दुर्गा पूजा और पंडाल की बहुत धूम है. हम अगले कुछ मिनटों में लहुराबीर थे. वहां की दुर्गा प्रतिमा और पंडाल ने मुझे बहुत निराश किया और सच बात यह है कि मैं कभी भी इस कदर निराश नहीं हुआ था. अपनी समग्र भव्यता में वहां खटक रहा था बुद्ध का होना.
जी हाँ! पंडाल के बाहर बुद्ध की बड़ी सी मूर्ति थी और पंडाल में/पर सैकड़ों की संख्या में बुद्ध विराजमान थे. जातक कथाओं के कई चित्र भीतर उकेरे गए थे और दुर्गा प्रतिमा भी महिषासुर का वध न करने की मुद्रा में बोधियुक्त शांति से लीन लगीं. बज रहे संगीत में बुद्धं शरणं गच्छामि , संघं शरणं गच्छामि, धम्मम शरणं गच्छामि...का उद्घोष था..
बुद्ध के धर्म को यूँ घालमेल करके परोसना अच्छा नहीं लगा..
हाँ, कल्पना करने वाले के मानस पर आश्चर्य भी हुआ और रीझा भी गया...

रसूल हमजातोव की एक खूबसूरत पंक्ति.

बड़ा साहित्य तरकारी खरीदने की भाषा में लिखा जाता है -- यानी निपट सरल, सहज भाषा में!
 

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.