शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

शोध की नयी पत्रिका

इस १४ दिसम्बर, २०१० को हम लोगों ने तय किया की शोध को समर्पित एक पत्रिका निकालेंगे।
वास्तव में,
इसके लिए दो प्रेरणा काम कर रही थी,
१- हमारे इलाहबाद शहर से एक भी कायदे की शोध पत्रिका नहीं है और
२- I S S N नंबर की पत्रिका निकालने वाले लोग इसे व्यवसाय की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। 
यह बात देखने में आ रही है कि वे लोग शोध पत्र के नाम पर कूड़ा छाप रहे हैं और बदले में एक अच्छी रकम चाह रहे हैं। यू जी सी का नया नियम, कि शोध पत्र के प्रकाशन में इस नंबर का होना जरुरी है, इस प्रवृति को बढ़ावा दे रहा है। इसे ध्यान में रख कर हम लोगों ने सोचा कि क्यों न कुछ सार्थक प्रयास किया जाय।

आप अपने उत्कृष्ट शोध पत्र हमें इस ईमेल पर भेजे या संपर्क करें-
०९८३८९५२४२६
हमारे इस काम में सहयोग कर रहे हैं डा रूपेश सिंह , कुलभूषण मौर्या और शत्रुघ्न सिंह।
क्या आप हमारे साथ नहीं आयेंगे?


एक शेर के साथ बात ख़त्म करूँगा-
मुझे मालूम है तेरी  दुआएं साथ       चलती हैं
सफ़र में मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

हमारा शहर इलाहाबाद

हमारा शहर इलाहाबाद अजीब सा चरित्र वाला है।
इस शहर में रहने वाले दावा तो करते हैं कि वो बुद्धिजीवी हैं लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि ये शहर अभी संक्रमण से गुजर रहा है।
यहाँ स्त्री विमर्श पर बात करने वाले लोग स्त्री अधिकारों का मखौल उड़ाते नज़र आयेंगे।
आधुनिकता पर चर्चा करने वाले लोग दूसरों कि जिंदगी में ताक झांक करते नज़र आयेंगे।
और सबसे खास बात ये कि चटखारे लेकर वैयक्तिक मामलों में उलझते नज़र आयेंगे।
मुझे बहुत तरस आता है, जब मैं ये देखता हूँ कि अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी इस रस चर्चा में भागीदार होते हैं और कहने को मासूम और सयाने एक साथ नज़र आयेंगे।
खैर,
जैसा भी है, अपना शहर है और हम इसे बहुत चाहते हैं।
आमीन!
एक शेर कहूँगा -
सलवटें उभरती हैं दोस्तों के माथे पर
बैठकर के महफिल में मेरे मुस्कराने से.

शनिवार, 1 मई 2010

Kathavarta : नीलम शंकर की कहानी का नया संग्रह 'सरकती रेत'.....

युवा कहानीकार नीलम शंकर की कहानियों का नया संग्रह सरकती रेतवाणी प्रकाशन, दिल्ली से छपकर आया है।

          नीलम शंकर की अधिकांश कहानियों का तानाबाना हमारे आसपास के परिवेश से लेकर बुना गया है। इन कहानियों में समाज का निम्न और मध्यम तबका प्रमुख रूप से उभरकर सामने आता है। मशहूर स्त्रीवादी लेखिका वर्जिनिया वूल्फ का मानना है कि स्त्री का लेखन स्त्रीवादी ही होगा। अपने सर्वोत्तम रूप में वह स्त्री का लेखन होने से बच नहीं सकता। नीलम जी कि अधिकांश कहानियों में स्त्रीवादी स्वर मिलेगा। हालांकि यह स्वर हमारे दौर की प्रचलित तथाकथित बोल्ड और देहवादी विमर्श से इतर है, उनमें पितृसत्ता से मुक्ति की बेचैनी, आत्मनिर्भर होने की जद्दोजहद, स्वनिर्णय करने की बेकरारी साफ़ झलकती है। उनकी कहानियो में लगभग हर महिला पात्र अपनी अलग पहचान के लिए बेक़रार नज़र आती है। अपना रास्ता लो बाबा!, विडम्बना, ठूंठ, अंततोगत्वा, मरदमारन जैसी कहानियों में इसे सहज ही देखा जा सकता है।

          उनकी कहानी रामबाई इस दृष्टिकोण से भी उल्लेखनीय है कि नायिका रामबाई न सिर्फ अपने सौन्दर्य बोध से परिचित है बल्कि उसे इसकी शक्ति का अहसास भी है। खास बात यह है कि वह अपने सौन्दर्य का बेजा फायदा नहीं उठाती। उनकी यह कहानी नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व को बखूबी आंकती है। उनकी कहानी में खास बात भी यही है कि उनको मानव मन के द्वंद्व के अंकन की महारत हासिल है।

          मुझे उनकी कहानी विडम्बना सबसे अच्छी लगी।

सरकती रेत

          कुछ बाते खटकने वाली भी हैं लेकिन अब मैं उनको न कहूँगा, ऐसा भी तो किया जा सकता है कि उनकी ओर संकेत किये बिना भी टिप्पणी की जा सकती है....

          कल यानि ३० अप्रैल को महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से पुस्तक चर्चा हुई। इस परिचर्चा में मैंने उपरोक्त बात रखी और मेरे बाद प्रो अनीता गोपेश, कवि बद्रीनारायण, प्रो अली अहमद फातमी तथा श्री दूधनाथ सिंह ने अपना वक्तव्य रखा। मैंने अपनी और भी बातें कीं, जिसे खासा सराहा गया।

          विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय भी इस अवसर पर बतौर अध्यक्ष विराजमान रहे....

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

आज पुस्तक चर्चा में मेरी भागीदारी पर कुछ बातें.

          कल यानि ३० अप्रैल, २०१० को महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद विस्तार केंद्र पर कथाकार नीलम शंकर के कहानी संग्रह "सरकती रेत" पर पुस्तक चर्चा आयोजित है। वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय विभूति नारायण राय, कहानीकार, उपन्यासकार और आलोचक दूधनाथ सिंह, कवि बद्रीनारायण जैसे लोगों के बीच मैं भी चर्चा करूँगा। यह पहली बार होगा कि मैं किसी बड़े मंच से किसी पुस्तक पर चर्चा करता नज़र आऊंगा।

सरकती रेत

          मैं इस होने वाली परिचर्चा से बहुत रोमांचित हूँ और थोडा नर्वस भी। मैं जानता हूँ कि यह परिचर्चा मेरे लिए बहुत मायने रखेगी। नीलम शंकर की कहानी में मध्यवर्ग का जो चित्रांकन है, मैं उसपर बात करूँगा। मैं चाहूँगा बात करना कि उनकी कहानी में स्त्री का कैसा चित्रण है।

          मैं कल जब चर्चा करके आऊंगा तो आपको विस्तार से इसके बारे में बताऊंगा। मैं जानता हूँ कि यह बहुत चुनौतीपूर्ण है क्योंकि कोई भी टिप्पणी मुझे आधार रूप में रखना है मेरे लिए ये करना संभव होगा? देखेंगे, लाजिम है के हम भी देखेंगे.....

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

फ़ैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म....

          आज फैज़ की एक नज़्म आपके लिए लेकर आया हूँ।

          फ़ैज़ अहमद फैज, उन गिने चुने शायरों में हैं जिन्होंने अपनी नज़्मों और शायरी में शोषितों और दलितों की आवाज़ पुरजोर तरीके से उठाई है। हालांकि अपनी कविताओं में वह कट्टर धार्मिक व्यक्ति की तरह व्यवहार करते प्रतीत होते हैं। जनरल अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ आवाज़ बुलंद करती ये नज़्म.....

          हम देखेंगे

          लाजिम है की हम भी देखेंगे


                    वो दिन के जिसका वादा है

                    जो लौह-ए-अजल में लिख्खा है

                    जब जुल्म-ओ-सितम के कोहें-ए-गरां

                    रुई की तरह उड़ जाएंगे

                    हम महकूमों के पांव तले

                    जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

                    और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़कड़ कड़केगी

                    जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाये जाएंगे

                    हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाये जाएँगे

                    सब ताज उछाले जाएँगे सब तख्त गिराए जाएँगे

                   

          बस नाम रहेगा अल्लाह का

          जो गायब भी है हाज़िर भी

          जो मंजर भी है नाज़िर भी

          उठ्ठेगा अनल-हक का नाराजो मैं भी हूँ और तुम भी हो

          और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदाजो मैं भी हूँ और तुम भी हो

          हम देखेंगे

          लाजिम है की हम भी देखेंगे

          हम देखेंगे

          लाजिम है की हम भी देखेंगे

 

कोक स्टूडियो की यह शानदार प्रस्तुति देखिए।

https://youtu.be/unOqa2tnzSM

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

एक छोटी सी बात : रक्तदान की

          इससे पहले कि मैं आपसे घर से लौट कर आने की बात करूँ; आज की एक छोटी लेकिन महत्त्वपूर्ण बात आपसे साझा करना चाहता हूँ। आज गणतन्त्र दिवस है, लोकतंत्र का उत्सव पर्व! और आज ही मुझे मौका मिला कि मैं रक्तदान करूँ। 

          हालांकि मुझे थोड़ी सी हिचकिचाहट हुई। अरे नहीं! इसलिए नहीं कि मैं डरा, बल्कि इसलिए कि कल मेरी एक परीक्षा है और मुझे कल ही २ दिन के लिए दिल्ली भी जाना है। वहां भी एक परीक्षा है और फिर वापस ३१ जनवरी को इलाहाबाद में। तो मैं डरा। लेकिन चूँकि यह एक अच्छा मौका था कि इस दिन एक ऐसा काम हो जो यादगार हो, जिसमें दूसरे व्यक्ति का हित हो, निःस्वार्थ हो तो मैंने किया। और ये भी कि मैं बिलकुल ठीक हूँ।

          बाकी की बातें ३१ के बाद.....


मंगलवार, 12 जनवरी 2010

मेरे गांव को जानिए.....

          कल गाँव जा रहा हूँ।

          मेरा अपना घर. मेरा घर जिस सुन्दर से गाँव में है उसका नाम है- चौरंगीचक। यह गाँव गाजीपुर जनपद में है।

          जब आप बनारस से बिहार की लिए निकलते हैं और सीधा रास्ता चुनते हैं तो आपको तकरीबन ८० किलोमीटर के बाद ये जनपद मिलेगा। गाजीपुर जिन कुछ चीजों के लिए देश भर में जाना जाता है उनमें एक तो है अफीम फैक्ट्री।

          जिन साहित्यकारों  ने यहाँ की धरती पर जन्म लिया और साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित हुएउनमें एक नाम है आचार्य कुबेरनाथ राय का। वह हिन्दी के शीर्षस्थ निबंधकार हैं। उपन्यास और शायरी तथा फिल्मी पटकथा लेखन के क्षेत्र में ख्याति अर्जित करने वाले एक अन्य साहित्यकार का नाम है राही मासूम रज़ा

          अरे! राही मासूम रज़ा का नाम नहीं जानतेआधा गाँव नहीं पढ़ा क्या? ‘टोपी शुक्ला’?  महाभारत तो देखा होगाअरे वही जिसे बी. आर. चोपड़ा ने निर्देशित किया था। तब तो आपको जरुर पता होगा कि उसके संवाद राही मासूम रज़ा ने ही लिखे थे। यदि आपने दूरदर्शन पर नीम का पेड़ धारावाहिक देखा है तो आपके लिए ये नाम अनजाना नहीं होगा। खैरअभी बस इतना ही राही मासूम रज़ा के बारे में।

          हमारा गाजीपुरगवर्नर जनरल कार्नवालिस की अंतिम साँसे गिनते देख कर बहुत ही खुश हुआ था। स्वाधीनता संग्राम में अष्टशहीदों के बलिदान से गौरवान्वित हुआ। सन १९६५ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के अमर शहीद परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद से आप परिचित हैं। उनके नाम पर गंगा नदी पर सेतु है।

          तो कुछ अपने गाँव के बारे में! जिला मुख्यालय से बलिया की तरफ कोई १३ किलोमीटर की दूरी पर शाहबाजकुली मिलेगा। यहाँ १९०२ में ही रेल का स्टेशन बन गया था। गाजीपुर से सड़क मार्ग से भी जाया जा सकता है। शाहबाजकुली गंगा नदी के तट पर ही है। वहाँ से कोई एक किलोमीटर दूरचारो तरफ से प्राकृतिक सुषमा से घिरा हुआ मेरा गाँव है- चौरंगीचक।

          मैं जब भी अपने इस गाँव की बात करता हूँमुझे भवभूति की लिखी और राम द्वारा कही उक्ति याद आती है- जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

          कल जब मैं अपने गाँव जाऊंगा तो मेरे जिम्मे कई काम होंगे। मैं घर से लौट कर जब आऊंगा तो आपको बताऊंगा की मेरे गाँव में इस कड़कड़ाती ठण्ड से लड़ने के लिए लोग क्या कर रहे हैं। मैं पक्का जानता हूँ कि वहां मुझे गन्ने का रसमटर की घुघुनी और अलाव में भुना हुआ आलू खाने को मिलेगा।

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.