गुरुवार, 22 नवंबर 2012

दशहरे का एक दिन बनारस में.



इस दशहरे में एक दिन बनारस में लहुराबीर पर रहा कुछ समय. हमारे सर और प्रिय मित्र आनंद तिवारी ने कहा कि वहां की दुर्गा पूजा और पंडाल की बहुत धूम है. हम अगले कुछ मिनटों में लहुराबीर थे. वहां की दुर्गा प्रतिमा और पंडाल ने मुझे बहुत निराश किया और सच बात यह है कि मैं कभी भी इस कदर निराश नहीं हुआ था. अपनी समग्र भव्यता में वहां खटक रहा था बुद्ध का होना.
जी हाँ! पंडाल के बाहर बुद्ध की बड़ी सी मूर्ति थी और पंडाल में/पर सैकड़ों की संख्या में बुद्ध विराजमान थे. जातक कथाओं के कई चित्र भीतर उकेरे गए थे और दुर्गा प्रतिमा भी महिषासुर का वध न करने की मुद्रा में बोधियुक्त शांति से लीन लगीं. बज रहे संगीत में बुद्धं शरणं गच्छामि , संघं शरणं गच्छामि, धम्मम शरणं गच्छामि...का उद्घोष था..
बुद्ध के धर्म को यूँ घालमेल करके परोसना अच्छा नहीं लगा..
हाँ, कल्पना करने वाले के मानस पर आश्चर्य भी हुआ और रीझा भी गया...

रसूल हमजातोव की एक खूबसूरत पंक्ति.

बड़ा साहित्य तरकारी खरीदने की भाषा में लिखा जाता है -- यानी निपट सरल, सहज भाषा में!
 

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.