बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

कथावार्ता : बेसिक- इसमें क ख ग नहीं है.



मुझे फिल्मों में ड्रामा पसन्द है। ड्रामा के साथ एक अच्छी बात यह है कि यह समय में पार जाकर आपने को प्रासंगिक बनाए रखता है। उस समय और समाज की धड़कन कैद होती है। मार-धाड़ वाली फ़िल्में मैं नहीं देख पाता। सस्पेंस थोड़ा रुचता है लेकिन अव्वल दर्जे का हो तो। जासूसी फ़िल्में भी देख लेता हूँ। उनके लिए हालांकि वैसी उत्सुकता नहीं होती। हॉलीवुड की फिल्मों में मुझे आर्मी के ऑपरेशन वाली फिल्मों में रीयल ऑपरेशन वाली फ़िल्में घटनाओं की वास्तविकता जानने के लिहाज से पसंद हैं। वरना किसी भी दर्जे की आर्मी ऑपरेशन वाली ऐसी फिल्म, जिसमें अपने ही समूह के लोगों के विषय में जानकारी जुटाने की गरज से सस्पेंस बनाया जाता है,  मुझे अच्छी नहीं लगतीं

आज हॉलीवुड की एक फिल्म देखी- बेसिक। अमरीकन फ़ौज की एक टुकड़ी अपनी फ़ौज में ड्रग्स का धंधा करने वालों का खुलासा करने के लिए एक षड्यंत्र रचते हैं। कुछ हत्याएं दिखाई जाती हैं। और फिर शुरू होता है- चोर-सिपाही का खेल। यह कहना ही होगा कि हॉलीवुड की फिल्मों का ट्रीटमेंट बॉलीवुड की तरह तो नहीं ही होता है। वैसा ड्रामा वे करते भी नहीं। उनके यहाँ विभाजन स्पष्ट है। अगर सस्पेंस है तो सस्पेंस ही होगा। हमारे यहाँ की तरह ड्रामा और नाटक की खिचड़ी नहीं। तो इस ऑपरेशन में ऐसी चीजें घटती जाती हैं, जिनके सामने आने पर लगता है कि गुत्थी सुलझ गयी। लेकिन वास्तव में एक क्लू एक सूत्र उसे फिर से उलझा देता है। फिल्म में रहस्यमयता गहराती जाती है। और यह रहस्य पल-प्रतिपल और गहरा होता जाता है। फिल्म के आखिर में जब रहस्य खुलता है तो सब ठगे रह जाते हैं।
मैं वास्तव में अपना समय जाया करके ऐसी फ़िल्में देखना नहीं चाहता। ऐसी फिल्म जिसे देखकर खुद ठगा रह जाऊं।

आपको एक वाकया बताता हूँ- अभी बीते दिन दशहरे के आयोजन में एक दिन शाम को एक दुर्गापूजा पंडाल में गया। वहां जादू का एक कार्यक्रम चल रहा था। जादूगर हाथ की सफाई से अजीबो-गरीब कारनामे कर रहा था। हम दत्त-चित्त होकर उसे देख रहे थे। आखिर में उसने कहा कि 'अब आखिर में मैं आपको एक विशेष चीज से परिचित कराना चाहता हूँ। आप मेरे कहे अनुसार करिए। आपको आपके हाथ से मनचाही सुगंध प्राप्त हो सकेगी।" हम उसके प्रभाव में आ चुके थे। हमने उसके कहेनुसार सब उपक्रम किये। उसने फिर हमें ठग लिया। हम ठगे जाकर भौचक थे। यह ठगना वास्तव में झेंपना था। लेकिन यह अहसास भी कि उसने हमें फँसा लिया।
बेसिक जैसी फ़िल्में भी हमें ठगती हैं। लगता है कि समय जाया हुआ। लेकिन सस्पेंस बना रहता है। यह खूबसूरती भी है। मेरी कमजोरी है कि मैं इस खूबसूरती को सहन नहीं कर पाता।
बहरहाल। 'बेसिक' देखकर सोचता हूँ कि आगे से ऐसी फिल्मों पर समय जाया नहीं करूँगा। वैसे इस तरह के निर्णय कई दफा ले चुका हूँ। आप इसे देखें या नहीं, यह निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूँ।
डॉ० रमाकान्त राय
३६५-ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११

कथावार्ता : शुद्ध देसी रोमांस- प्यार की कहानी



शुद्ध देसी रोमांस को एक रोमांटिक कामेडी फिल्म कहा गया है। जबकि हकीकत इसके उलट है। यह आधुनिक प्रेम की वास्तविक दास्तान है। इसमें नए दिनों का प्रेम है। शुद्ध प्रेम। इस प्रेम में शरीर है, स्वतंत्रता है, स्वायत्तता की चाहत है। सभी पात्र प्रेम तो चाहते हैं लेकिन जिम्मेदारी से भागते हैं। वे बस खेलना चाहते हैं। यह प्रेम की परिभाषा बन गया है। इस प्रेम में दूसरे से सम्बन्ध रखते हुए अपने साथी पर शक किया जाता है। उसकी वफादारी की जानकारी के लिए जासूसी की जाती है। तीसरे से झूठ बोला जाता है। हम स्वयं भले बेवफा हों, अगले से अपेक्षा रखते हैं कि वह साफ़-पाक और वफादार रहे। और तिस पर यह कि निर्णय लेने में उहापोह आखिरी दम तक बना रहता है। निर्णय लिया भी जाता है तो पलायनवादी निर्णय। यह पलायनवादिता आज के प्रेम का सबसे बड़ा लक्षण है।

       शुद्ध देसी रोमांस देखते हुए परिपार्श्व में बजते हुए गीतों को ध्यान से सुना जाना चाहिए। ये गीत न सिर्फ दृश्य की सांद्रता बढ़ाते हैं अपितु फिल्म को गति भी देते हैं। इनसे अर्थ और स्पष्ट होता चलता है। मनोभावों को ठीक से व्यक्त करते हुए। फिल्म में युवा वर्ग के शादी से भागने किन्तु शारीरिक और मानसिक संतुष्टि के लिए रिलेशनशिप बनाए रखने की चाहत बहुत सफाई से व्यक्त हुई है। मुझे लगता रहा कि एक और नायक होना चाहिए था और मामले की संश्लिष्टता और भी बढ़ानी चाहिए थी। फिर भी मूल कथ्य का निर्वाह सही हुआ है।
फिल्म में टॉयलेट का कई दफा उपयोग हुआ है। एक ही प्रसंग में। यह स्थायी सम्बन्ध से भागने के लिए चोर रास्ता बना है। तकरीबन हर बार टॉयलेट के दृश्य आते हैं। यह बारहा आना एक तरह से जुगुप्सा पैदा करता है। शायद निर्देशक को शौचालय शब्द में सोचालय की अर्थवत्ता प्राप्त होती है। यह बार-बार आना भदेस की तरह हो जाता है और हास्य पैदा करने की बजाय सड़ांध पैदा करता है। इससे हास्य/व्यंग्य की धार भोथरी हुई है।
फिल्म में पात्रों के नैरेशन बहुत सहायक बने हैं। इन नैरेशन से फिल्म में बचा-खुचा भी अभिव्यक्त हो गया है। यह प्रविधि नई तो नहीं है लेकिन यहाँ बहुत सुघड़ तरीके से आई है। फिल्म के संवाद कमाल के हैं। कई जगह उनमें दुहराव हुआ है। यह दुहराव संवाद की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। हर बारात में जाते ही गोयल यानि ऋषि कपूर का टॉयलेट जाने के लिए कहना उनके पेशेवर होने को दिखाता है। साथ ही यह भी दिखाता है कि वे इस पेशे में अब रूढ़िपरक हो गए हैं। उनके पास और कोई आइडिया नहीं है। वे पुरातनता के सटीक प्रतीक बन कर आये हैं।
कल ही परिणित चोपड़ा का जन्मदिन भी था, जब मैं यह फिल्म देख रहा था। अच्छी लगी यह लड़की। उसका अभिनय भी कमाल का है। सुशांत सिंह राजपूत भी जमे हैं। ऋषि कपूर को ऐसे देखना सुखद था। वाणी कपूर ने ख़ासा प्रभावित किया है।
और यह कि यह फिल्म कोई कामेडी फिल्म नहीं है, यह एक विशिष्ट प्रेम कथा है। इसे एक प्रेम कहानी की तरह देखा जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए। यह एक गंभीर फिल्म है
Shuddh Desi Romance.



द्वारा- डॉ. रमाकान्त राय.
३६५ ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६ 

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.