मंगलवार, 27 अगस्त 2013

अमीर खुसरो का एक गीत जो लोकगीत में बदल गया.



काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे.

रविवार, 25 अगस्त 2013

The Children Of Heaven-- तीसरी दुनिया का सिनेमा



प्रथम आना आसान है लेकिन तृतीय स्थान पर रहना और भी कठिन. अली रेस में तृतीय स्थान आना चाहता है ताकि पुरस्कार के तौर पर जूता पा सके. जूता वह अपनी बहन के लिए जीतना चाहता है. उसी ने उसका जूता खो दिया है. वह तृतीय नहीं आ पाता. प्रथम आ जाता है. प्रथम आने की उसे कोई ख़ुशी नहीं होती. वह बहुत दुखी है. सब खुश हैं, वह दुखी है. ट्रेजेडी. ट्रेजेडी यही है कि सबके लिए जो खुश होने की चीज है वह अली के लिए नहीं है. मैडल और शील्ड पाकर वह बहुत दुखी है. उसने अपनी बहन से वायदा किया है कि वह तृतीय आएगा और जूता ही जीतेगा. वह नहीं जीत पाता. फिल्म के आखिर में जिस मनहूसियत के साथ वह लौटता है वह उसके ट्रैजिक अहसास को कई गुना बढ़ा देता है. यद्यपि उसके अब्बा ने जूता खरीद लिया है, वह प्रथम आया है और उसकी खुशियाँ परिवार में मनाई जाएँगी लेकिन फिल्म वह नहीं दिखाती. फिल्म हैप्पी एन्डिंग तक जाते जाते ख़तम हो जाती है.
किसी फिल्म के शुरुवात में ही अगर कैमरा एक मामूली घटना पर केन्द्रित हो जाए और कई एक फुटेज तक खा जाये तो वह जाहिरा तौर पर फिल्म या कहानी का महत्त्वपूर्ण संकेतक होगा. फिल्म के आरंभ में जूता जिस तन्मयता से रिपेयर किया जाता है, धागे की सहायता से सिलकर और ठोंक पीट कर तैयार किया जाता है. वह फिल्म का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. जूता बनवाकर जिस संतुष्ट अहसास के साथ अली लौटता है वह देखने लायक है. जूते से शुरू हुई कहानी जूते के साथ ही ख़तम होती है. जूते के लिए जाहरा जिस तेजी से दौड़ लगाती है और उसे पहनकर क्लास में देर से न पहुँचने के लिए अली जो भागमभाग करता है वह भी फिल्म में कई दफ़ा फिल्मांकित किये जाने के बावजूद सार्थकता की एक कोटि बनाता है.
पूरी फिल्म में जूता हावी है. आते-जाते, पढ़ते-पढ़ाते और हर पल हर छिन ख्याल में. आप देखेंगे कि भाषा सम्प्रेषण के आड़े नहीं आएगी. अली और जाहरा के मनोभाव इतने स्पष्ट है कि भाषा की कोई खास जरूरत नहीं है. इसलिए बात-चीत चाहे इरानी भाषा में हो या किसी और में, क्या फरक पड़ता है. हाँ, सुविधा के लिए अंग्रेजी में subtitle उपलब्ध हो तो कोई कसर नहीं रहती.
मैं माजिद मजीदी की फिल्म The Children Of Heaven की बात कर रहा हूँ. मैं धन्यवाद दूंगा Vikas Singh को, जिन्होंने यह बेहतरीन फिल्म मुझे दी और Ramji Tiwari सर को जिन्होंने कई एक उल्लेखों से कोंच-कोंचकर प्रेरित किया कि इसे जरूर देखा जाना चाहिए. बीते दिन सिताब दियारा पर यानि अपने ब्लॉग पर उन्होंने माजिद मजीदी की चर्चा छेड़कर इस फिल्म को देखने की बेसब्री और बढ़ा दी थी. उनकी किताब "ऑस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे" ने तो कमाल ही कर दिया था.
आप भी देखें. अगर बेहतरीन सिनेमा देखना चाहते हैं और मार-धाड़ से इतर कुछ बेहतर संवेदनशील फ़िल्में देखना चाहते हों तो..

शनिवार, 24 अगस्त 2013

कहीं कुछ तो है.-- साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित अर्चना भैंसारे की कविता

अर्चना भैंसारे को उनके कविता संग्रह' कुछ बूढ़ी उदास औरतें' ( मेधा बुक्स से प्रकाशित) पर साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार मिला है। बधाई हो । कविता प्रेमियों के संग साझा है उनकी एक कविता :

कहीं कुछ तो है

इस वक़्त जबकि आधी रात
गुज़र गई है
घड़ी के काँटे
दौड़ रहे हैं एक-दूसरे के पीछे
तुम सो रहे हो... !

इस वक़्त –
कोई पागल बुदबुदा रहा होगा कई शब्द
कोई मेहनतकश सोच रहा होगा
बची मजूरी के बारे में
कोई बच्चा खेल रहा होगा नींद में ही
मैदान पर
कोई औरत सजधज कर बैठी होगी
दरवाज़े पर

इस वक़्त –
जब तुम बदलते हो करवट
बदल रही होंगी सरकारी नीतियाँ
बदल रही होंगी
हमारे नेता के भाषण की लाइनें
बदल रहे होंगे चीज़ों के दाम
बदल रहे होंगे पुरानी किताबों के कवर

इस वक़्त –
जब तुम डूब रहे हो स्याह अँधेरे में
नींद के बीच
कही कुछ तो है
जिसने हराम कर रखी है नींद... !
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( 'सृजनगाथा' से साभार साझा)

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

राही मासूम रज़ा की दो ग़ज़लें




 (१)

  क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए 
  
  क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
 
  हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
 
  जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
 
  इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
 
  जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।।
 
  हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
 
  आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।
 
  क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।

  क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।


 (२)

 जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
 
 शाखे गुल कैसे हैं खुश्‍बू के मकां कैसे हैं ।।
 
 ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
 
 उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
 
 कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
 
 आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
 
 मैं तो पत्‍थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
 
 
 आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
 
 जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

बहनें- नवनीत सिंह की कविता


आकांक्षाएं,
उनकी धीमी हँसी की तरह
आँगन से बाहर निकलने में शरमाती रहीं,

इच्छाएं,
इतनी हल्की कि
सूखी पत्तियों की तरह झर जाती रही,

उसने
दूसरे दहलीज के लिये बचा कर रखी थी
अपनी सिसकियाँ,

वे पिता के माथे की सिलवटे थीं,

मेरे बचपन की बारिशों में
कागज की नाव थीं

माचिस की डिबिया में
खनखनाती चूड़ियाँ थी

स्कूल के बस्ते में चमकती
इमली के बीज थीं,

वे बहनें थीं

वे बनाती थीं सपनों के ब्रह्माण्ड
इन्द्रधनुष के रंगों से

मेरे माथे पर गालों पर
टाँकती चाँद-सितारो के आकार

वो मेरे चेहरे की रौनक थीं.

सोमवार, 19 अगस्त 2013

बुद्ध और एक गृहस्थ का संवाद



आज एक गृहस्थ और बुद्ध का संवाद.

यह संवाद आज होने वाली बारिश के मद्देनजर याद आ रहा है. मैं किस ओर हूँ? और आप किस तरफ हैं?

गृहस्थ--

पक्कोदनो दुग्ध खीरो हमस्मि, अनुतीरे माहिया समान वासो.
छन्ना कुटी  आहितो गिनी, अथ चे  पन्हयसि पवस्स देव...

(
भात पक चुका है, दूध दुहा जा चुका है. मही-नदी के तीर पर हम समवयसी ग्वाले एक साथ रहते हैं, कुटिया छाई हुई है; रात के लिए आग का जोगाड़ कर रखा है. अतः पावस देव जितना चाहे बरसें. )

बुद्ध--

अक्कोधन, विगत खिलोह हमस्मि, अनुतीरे महिया एक रत्ती वासी.
विवटा  कुटीनिव्वुतो  गिनी,  अथ  चे पन्हयसि पवस्स  देव...

(
मैं क्रोध से मुक्त हूँ, खिल यानि खंडित मन या ग्रंथि से मुक्त हूँ, मही-नदी के तीर पर महज एक रात का वास है, विवृत यानी खुला आकाश ही मेरी कुटीर है, सारी आग अर्थात मानस ज्वालाएं शांत हैं, बुझी हुई हैं. अब पावस देव जितना चाहें बरसें.)

बुद्ध और गृहस्थ

कथ-हुज्जत



-एगो हनुमान जी थे.
-एगो हनुमान जी? हनुमान जी त एकेगो न हैं?
-हाँ भाई, त हम कहाँ कह रहे कि दू गो. हमहूँ त कह रहे हैं कि एगो हनुमान जी ...
-अच्छा, आगे कहिये.
-त दूनों जना नहाये गईले..
-दूनों जाना???..
-हाँ भाई..तूँ कहानी सुनबा की ना..
-सुनब. बाकी बिना सर पैर क ना. अब दूनों जाना कहाँ से आ गईलें?
-अरे भाई, साथ में गणेशो जी न लाग गईले.
-त पहिले न कहे के चाही.
-दिखे नहीं न थे.
-कैसे दिखे नहीं थे? हेतना बड़ा सूंढ़, हतहत बड़ा पेट, आ दिखे ही नहीं??
-अरे भाई, भगवान जी क माया. कभी दिखें आ कभी अलोपित..
-अच्छा.. तब?
-तब तीनों जाना नहा के निकलल लोग..
-तीनों जाना?
-हाँ भाई,  गणेश जी क मूसवा के भुला गईला का..
-हाँ.. जब गणेशे जी ना लउकले,  त मूसवा कईसे लौकाई.
-त चारों जाना वापस लौटे लागल लोग.
-चारों जना? अब ई चौथा कहाँ से?
-अरे, मूसवा क पीछे एगो बिलार न लाग गई.
-हैं..?
-, दूनों जना एक जगह बैठ के सुस्ताये न लागल लोग..
-दूनों जना? आ दू जना?  बताईं?  गणेश जी के मूसवा के मरवा दिहलीं का?
- अरे नहीं भाई! मूसवा,  बिलाई के लखेद न लिया.
-???
-हाँ जी.

-देखिये, जबान संभाल के बात कीजिये.
-का हुआ?
-का हुआ? पूछते हैं. गणेश जी के मूस को कुत्ता कह रहे हैं और पूछते हैं कि का हुआ?
- हम कहाँ कहे?
- ना कहे त का हुआ?  हमको बुझाई नहीं देता है का?  बिलाई को कौन लखेदता है? कुत्ते न!!
- ???
-हाँ, खबरदार, जो मूस को कुत्ता कहा..
.
.
बहुत पहले सुनी कहानी. स्मृति में कुछ इसी तरह रह गई है..

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.