गुरुवार, 22 अगस्त 2013

राही मासूम रज़ा की दो ग़ज़लें




 (१)

  क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए 
  
  क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
 
  हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
 
  जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
 
  इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
 
  जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।।
 
  हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
 
  आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।
 
  क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।

  क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।


 (२)

 जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
 
 शाखे गुल कैसे हैं खुश्‍बू के मकां कैसे हैं ।।
 
 ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
 
 उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
 
 कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
 
 आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
 
 मैं तो पत्‍थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
 
 
 आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
 
 जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

बहनें- नवनीत सिंह की कविता


आकांक्षाएं,
उनकी धीमी हँसी की तरह
आँगन से बाहर निकलने में शरमाती रहीं,

इच्छाएं,
इतनी हल्की कि
सूखी पत्तियों की तरह झर जाती रही,

उसने
दूसरे दहलीज के लिये बचा कर रखी थी
अपनी सिसकियाँ,

वे पिता के माथे की सिलवटे थीं,

मेरे बचपन की बारिशों में
कागज की नाव थीं

माचिस की डिबिया में
खनखनाती चूड़ियाँ थी

स्कूल के बस्ते में चमकती
इमली के बीज थीं,

वे बहनें थीं

वे बनाती थीं सपनों के ब्रह्माण्ड
इन्द्रधनुष के रंगों से

मेरे माथे पर गालों पर
टाँकती चाँद-सितारो के आकार

वो मेरे चेहरे की रौनक थीं.

सोमवार, 19 अगस्त 2013

बुद्ध और एक गृहस्थ का संवाद



आज एक गृहस्थ और बुद्ध का संवाद.

यह संवाद आज होने वाली बारिश के मद्देनजर याद आ रहा है. मैं किस ओर हूँ? और आप किस तरफ हैं?

गृहस्थ--

पक्कोदनो दुग्ध खीरो हमस्मि, अनुतीरे माहिया समान वासो.
छन्ना कुटी  आहितो गिनी, अथ चे  पन्हयसि पवस्स देव...

(
भात पक चुका है, दूध दुहा जा चुका है. मही-नदी के तीर पर हम समवयसी ग्वाले एक साथ रहते हैं, कुटिया छाई हुई है; रात के लिए आग का जोगाड़ कर रखा है. अतः पावस देव जितना चाहे बरसें. )

बुद्ध--

अक्कोधन, विगत खिलोह हमस्मि, अनुतीरे महिया एक रत्ती वासी.
विवटा  कुटीनिव्वुतो  गिनी,  अथ  चे पन्हयसि पवस्स  देव...

(
मैं क्रोध से मुक्त हूँ, खिल यानि खंडित मन या ग्रंथि से मुक्त हूँ, मही-नदी के तीर पर महज एक रात का वास है, विवृत यानी खुला आकाश ही मेरी कुटीर है, सारी आग अर्थात मानस ज्वालाएं शांत हैं, बुझी हुई हैं. अब पावस देव जितना चाहें बरसें.)

बुद्ध और गृहस्थ

कथ-हुज्जत



-एगो हनुमान जी थे.
-एगो हनुमान जी? हनुमान जी त एकेगो न हैं?
-हाँ भाई, त हम कहाँ कह रहे कि दू गो. हमहूँ त कह रहे हैं कि एगो हनुमान जी ...
-अच्छा, आगे कहिये.
-त दूनों जना नहाये गईले..
-दूनों जाना???..
-हाँ भाई..तूँ कहानी सुनबा की ना..
-सुनब. बाकी बिना सर पैर क ना. अब दूनों जाना कहाँ से आ गईलें?
-अरे भाई, साथ में गणेशो जी न लाग गईले.
-त पहिले न कहे के चाही.
-दिखे नहीं न थे.
-कैसे दिखे नहीं थे? हेतना बड़ा सूंढ़, हतहत बड़ा पेट, आ दिखे ही नहीं??
-अरे भाई, भगवान जी क माया. कभी दिखें आ कभी अलोपित..
-अच्छा.. तब?
-तब तीनों जाना नहा के निकलल लोग..
-तीनों जाना?
-हाँ भाई,  गणेश जी क मूसवा के भुला गईला का..
-हाँ.. जब गणेशे जी ना लउकले,  त मूसवा कईसे लौकाई.
-त चारों जाना वापस लौटे लागल लोग.
-चारों जना? अब ई चौथा कहाँ से?
-अरे, मूसवा क पीछे एगो बिलार न लाग गई.
-हैं..?
-, दूनों जना एक जगह बैठ के सुस्ताये न लागल लोग..
-दूनों जना? आ दू जना?  बताईं?  गणेश जी के मूसवा के मरवा दिहलीं का?
- अरे नहीं भाई! मूसवा,  बिलाई के लखेद न लिया.
-???
-हाँ जी.

-देखिये, जबान संभाल के बात कीजिये.
-का हुआ?
-का हुआ? पूछते हैं. गणेश जी के मूस को कुत्ता कह रहे हैं और पूछते हैं कि का हुआ?
- हम कहाँ कहे?
- ना कहे त का हुआ?  हमको बुझाई नहीं देता है का?  बिलाई को कौन लखेदता है? कुत्ते न!!
- ???
-हाँ, खबरदार, जो मूस को कुत्ता कहा..
.
.
बहुत पहले सुनी कहानी. स्मृति में कुछ इसी तरह रह गई है..

रामजी यादव की कहानी 'गाँव-गिरांव' पर एक त्वरित टिप्पणी



एक अच्छी कहानी बहुत कुछ कहने के व्यामोह में चौपट हो जाती है. कहानी की प्राथमिक शर्तों में यह शामिल है कि उसे सुगठित होना चाहिए और तारतम्यता भी. 'समकालीन सरोकार' का जुलाई, २०१३ अंक; मैं नरेन्द्र पुण्डरीक का अनुभव ' जुगाड़ और जुगाड़ का साहित्य' पढ़ने के लिए लाया था. उस पर बातें बाद में होंगी. कुछ बातें आचार्य उमाशंकर परमार सर ने कही भी थीं. बहरहाल, इस अंक में Ramji Yadav की कहानी "गाँव गिरांव" पढ़ते हुए लगा कि अगर इसे थोड़ा समेटते हुए लिखा जाता तो यह एक मास्टरपीस कहानी हो सकती थी. जियालाल गौतम और दिनकर की मित्रता  गाँव के बहुत सारे बदलाव को रेखांकित करती है. जियालाल गौतम का द्विज बनते जाना एक बड़ी सचाई है. और यही कारण है कि वे प्रधानी के चुनाव में  मातादीन को नहीं चुनते. कहानी में आंबेडकर जयंती और रविदास जयंती का प्रसंग कहानी का अधिक प्रसंग है. इसकी बातें किसी दूसरे प्रसंग में कही जा सकती थीं. इसी तरह डॉ के हाथों तथाकथित हत्या वाला प्रसंग भी.
बाकी. एक अच्छी कहानी के लिए उन्हें बधाई..

अर्थव्यवस्था पर विचार करते हुए.

देश में बन रहे १९९१ जैसे हालात के लिए यूपीए सरकार किसी को जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकती. आखिरकार वह पिछले नौ सालों से भारतीय जनता के सीने पर मूँग दलती आई है. अभी भी जोर-शोर से यही कर रही है. ये जो रुपये में डालर के मुकाबले गिरावट है और शेयर बाजार में तरलता की कमी आई है, वह उस दौर के आर्थिक मंदी की सुगबुगाहट है. अभी कुछ ही दिन हुए, जब वैश्विक आर्थिक मंदी की लहर में तमाम सेवा क्षेत्रों में अभूतपूर्व कटौतियां हुई थीं. क्या हम यह कह सकते हैं कि उस मंदी के दौर से बहार निकलने के बाद पुनः सेवा क्षेत्र में रोजगार पुनःसृजित हुए? क्या उन कंपनियों ने वापस अपने कर्मचारियों को बुलाने का कोई उपक्रम किया? क्या हम वापस अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सके?
मुझे लगता है कि नहीं. हमने फौरी उपाय किये. तुरंता के इन उपायों ने हमें बस उस जगह से गिरने नहीं दिया. हम थिर रहे. सरकार ने हमें दूसरे मुद्दों में उलझा कर यह समझाया कि हम आर्थिक विकास की अपेक्षित गति हासिल कर ले रहे हैं. जबकि वास्तविकता यह है बीते कई सालों से हमने तय किये हुए लक्ष्य को हासिल ही नहीं किया. आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ जानते हैं, कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार जो उपाय कर रही है वह फ़ूड सप्लीमेंट की तरह है. हम किसी कुपोषित बच्चे को पौष्टिक आहार देने की जगह रिवाइटल खिलाते रहें तो जो परिणाम मिलेंगे, हमारी अर्थव्यवस्था कमोबेश उसी तरह के परिणाम दे रही है.
इसलिए जब मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के इतिहास की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए यह बता रहे हों कि देश में १९९१ जैसे हालात नहीं हैं और देश का विदेशी मुद्रा भण्डार छः-सात महीने के लिए है, और चिंता करने की बात नहीं है तो हमें चिंता करना शुरू कर देना चाहिए.आपको याद होगा कि चिदंबरम जी ने कुछ दिन पहले देशवासियों से सोना खरीदने से परहेज करने की सलाह दी थी. उन्हें लगता था कि यह डालर का अन्प्रोडक्टिव इन्वेस्टमेंट है. आखिर सोना आयात करने में विदेशी मुद्रा ही काम आती है. बहरहाल.
देश एक गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के होने के बावजूद इस गह्वर से निकलने की कोई राह नहीं दिख रही है. दिक्कत यह है कि १९९१ के जो हालात थे, उसमें हम निकलने में सफल हो गए क्योंकि आर्थिक सुधारों ने बहुत सारे सरकारी क्षेत्रों को बाजार में खुली प्रतिस्पर्धा के लिए छोड़ दिया था.
असली चुनौती आगामी सरकार के लिए है. यह लगभग पक्का है कि यूपीए सरकार पुनः नहीं आने वाली. हालाँकि यह कोई असंभव भी नहीं है. लेकिन अगर कोई दूसरी सरकार चुन कर आएगी तो उसके लिए शुरूआती दो साल भारी चुनौती के साल रहेंगे. उस पर तमाम उपाय करने का दबाव रहेगा और संभव है कि अर्थव्यवस्था चरमरा भी जाए. आप देखिएगा, तब हमें लगेगा कि यूपीए सरकार ही बेहतर थी. ऐसा इसलिए लगेगा कि हमने दूर तक देखने-समझने का हुनर खो दिया है. और अगर यही सरकार दुबारा बनी तो फिर क्या कहियेगा और किस मुंह से कहियेगा. जार-जार रोइए, कि कहिये क्या??

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.