गुरुवार, 22 नवंबर 2012

दशहरे का एक दिन बनारस में.



इस दशहरे में एक दिन बनारस में लहुराबीर पर रहा कुछ समय. हमारे सर और प्रिय मित्र आनंद तिवारी ने कहा कि वहां की दुर्गा पूजा और पंडाल की बहुत धूम है. हम अगले कुछ मिनटों में लहुराबीर थे. वहां की दुर्गा प्रतिमा और पंडाल ने मुझे बहुत निराश किया और सच बात यह है कि मैं कभी भी इस कदर निराश नहीं हुआ था. अपनी समग्र भव्यता में वहां खटक रहा था बुद्ध का होना.
जी हाँ! पंडाल के बाहर बुद्ध की बड़ी सी मूर्ति थी और पंडाल में/पर सैकड़ों की संख्या में बुद्ध विराजमान थे. जातक कथाओं के कई चित्र भीतर उकेरे गए थे और दुर्गा प्रतिमा भी महिषासुर का वध न करने की मुद्रा में बोधियुक्त शांति से लीन लगीं. बज रहे संगीत में बुद्धं शरणं गच्छामि , संघं शरणं गच्छामि, धम्मम शरणं गच्छामि...का उद्घोष था..
बुद्ध के धर्म को यूँ घालमेल करके परोसना अच्छा नहीं लगा..
हाँ, कल्पना करने वाले के मानस पर आश्चर्य भी हुआ और रीझा भी गया...

रसूल हमजातोव की एक खूबसूरत पंक्ति.

बड़ा साहित्य तरकारी खरीदने की भाषा में लिखा जाता है -- यानी निपट सरल, सहज भाषा में!
 

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

शोध की नयी पत्रिका

इस १४ दिसम्बर, २०१० को हम लोगों ने तय किया की शोध को समर्पित एक पत्रिका निकालेंगे।
वास्तव में,
इसके लिए दो प्रेरणा काम कर रही थी,
१- हमारे इलाहबाद शहर से एक भी कायदे की शोध पत्रिका नहीं है और
२- I S S N नंबर की पत्रिका निकालने वाले लोग इसे व्यवसाय की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। 
यह बात देखने में आ रही है कि वे लोग शोध पत्र के नाम पर कूड़ा छाप रहे हैं और बदले में एक अच्छी रकम चाह रहे हैं। यू जी सी का नया नियम, कि शोध पत्र के प्रकाशन में इस नंबर का होना जरुरी है, इस प्रवृति को बढ़ावा दे रहा है। इसे ध्यान में रख कर हम लोगों ने सोचा कि क्यों न कुछ सार्थक प्रयास किया जाय।

आप अपने उत्कृष्ट शोध पत्र हमें इस ईमेल पर भेजे या संपर्क करें-
०९८३८९५२४२६
हमारे इस काम में सहयोग कर रहे हैं डा रूपेश सिंह , कुलभूषण मौर्या और शत्रुघ्न सिंह।
क्या आप हमारे साथ नहीं आयेंगे?


एक शेर के साथ बात ख़त्म करूँगा-
मुझे मालूम है तेरी  दुआएं साथ       चलती हैं
सफ़र में मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

हमारा शहर इलाहाबाद

हमारा शहर इलाहाबाद अजीब सा चरित्र वाला है।
इस शहर में रहने वाले दावा तो करते हैं कि वो बुद्धिजीवी हैं लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि ये शहर अभी संक्रमण से गुजर रहा है।
यहाँ स्त्री विमर्श पर बात करने वाले लोग स्त्री अधिकारों का मखौल उड़ाते नज़र आयेंगे।
आधुनिकता पर चर्चा करने वाले लोग दूसरों कि जिंदगी में ताक झांक करते नज़र आयेंगे।
और सबसे खास बात ये कि चटखारे लेकर वैयक्तिक मामलों में उलझते नज़र आयेंगे।
मुझे बहुत तरस आता है, जब मैं ये देखता हूँ कि अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी इस रस चर्चा में भागीदार होते हैं और कहने को मासूम और सयाने एक साथ नज़र आयेंगे।
खैर,
जैसा भी है, अपना शहर है और हम इसे बहुत चाहते हैं।
आमीन!
एक शेर कहूँगा -
सलवटें उभरती हैं दोस्तों के माथे पर
बैठकर के महफिल में मेरे मुस्कराने से.

शनिवार, 1 मई 2010

Kathavarta : नीलम शंकर की कहानी का नया संग्रह 'सरकती रेत'.....

युवा कहानीकार नीलम शंकर की कहानियों का नया संग्रह सरकती रेतवाणी प्रकाशन, दिल्ली से छपकर आया है।

          नीलम शंकर की अधिकांश कहानियों का तानाबाना हमारे आसपास के परिवेश से लेकर बुना गया है। इन कहानियों में समाज का निम्न और मध्यम तबका प्रमुख रूप से उभरकर सामने आता है। मशहूर स्त्रीवादी लेखिका वर्जिनिया वूल्फ का मानना है कि स्त्री का लेखन स्त्रीवादी ही होगा। अपने सर्वोत्तम रूप में वह स्त्री का लेखन होने से बच नहीं सकता। नीलम जी कि अधिकांश कहानियों में स्त्रीवादी स्वर मिलेगा। हालांकि यह स्वर हमारे दौर की प्रचलित तथाकथित बोल्ड और देहवादी विमर्श से इतर है, उनमें पितृसत्ता से मुक्ति की बेचैनी, आत्मनिर्भर होने की जद्दोजहद, स्वनिर्णय करने की बेकरारी साफ़ झलकती है। उनकी कहानियो में लगभग हर महिला पात्र अपनी अलग पहचान के लिए बेक़रार नज़र आती है। अपना रास्ता लो बाबा!, विडम्बना, ठूंठ, अंततोगत्वा, मरदमारन जैसी कहानियों में इसे सहज ही देखा जा सकता है।

          उनकी कहानी रामबाई इस दृष्टिकोण से भी उल्लेखनीय है कि नायिका रामबाई न सिर्फ अपने सौन्दर्य बोध से परिचित है बल्कि उसे इसकी शक्ति का अहसास भी है। खास बात यह है कि वह अपने सौन्दर्य का बेजा फायदा नहीं उठाती। उनकी यह कहानी नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व को बखूबी आंकती है। उनकी कहानी में खास बात भी यही है कि उनको मानव मन के द्वंद्व के अंकन की महारत हासिल है।

          मुझे उनकी कहानी विडम्बना सबसे अच्छी लगी।

सरकती रेत

          कुछ बाते खटकने वाली भी हैं लेकिन अब मैं उनको न कहूँगा, ऐसा भी तो किया जा सकता है कि उनकी ओर संकेत किये बिना भी टिप्पणी की जा सकती है....

          कल यानि ३० अप्रैल को महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से पुस्तक चर्चा हुई। इस परिचर्चा में मैंने उपरोक्त बात रखी और मेरे बाद प्रो अनीता गोपेश, कवि बद्रीनारायण, प्रो अली अहमद फातमी तथा श्री दूधनाथ सिंह ने अपना वक्तव्य रखा। मैंने अपनी और भी बातें कीं, जिसे खासा सराहा गया।

          विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय भी इस अवसर पर बतौर अध्यक्ष विराजमान रहे....

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

आज पुस्तक चर्चा में मेरी भागीदारी पर कुछ बातें.

          कल यानि ३० अप्रैल, २०१० को महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद विस्तार केंद्र पर कथाकार नीलम शंकर के कहानी संग्रह "सरकती रेत" पर पुस्तक चर्चा आयोजित है। वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय विभूति नारायण राय, कहानीकार, उपन्यासकार और आलोचक दूधनाथ सिंह, कवि बद्रीनारायण जैसे लोगों के बीच मैं भी चर्चा करूँगा। यह पहली बार होगा कि मैं किसी बड़े मंच से किसी पुस्तक पर चर्चा करता नज़र आऊंगा।

सरकती रेत

          मैं इस होने वाली परिचर्चा से बहुत रोमांचित हूँ और थोडा नर्वस भी। मैं जानता हूँ कि यह परिचर्चा मेरे लिए बहुत मायने रखेगी। नीलम शंकर की कहानी में मध्यवर्ग का जो चित्रांकन है, मैं उसपर बात करूँगा। मैं चाहूँगा बात करना कि उनकी कहानी में स्त्री का कैसा चित्रण है।

          मैं कल जब चर्चा करके आऊंगा तो आपको विस्तार से इसके बारे में बताऊंगा। मैं जानता हूँ कि यह बहुत चुनौतीपूर्ण है क्योंकि कोई भी टिप्पणी मुझे आधार रूप में रखना है मेरे लिए ये करना संभव होगा? देखेंगे, लाजिम है के हम भी देखेंगे.....

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

फ़ैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म....

          आज फैज़ की एक नज़्म आपके लिए लेकर आया हूँ।

          फ़ैज़ अहमद फैज, उन गिने चुने शायरों में हैं जिन्होंने अपनी नज़्मों और शायरी में शोषितों और दलितों की आवाज़ पुरजोर तरीके से उठाई है। हालांकि अपनी कविताओं में वह कट्टर धार्मिक व्यक्ति की तरह व्यवहार करते प्रतीत होते हैं। जनरल अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ आवाज़ बुलंद करती ये नज़्म.....

          हम देखेंगे

          लाजिम है की हम भी देखेंगे


                    वो दिन के जिसका वादा है

                    जो लौह-ए-अजल में लिख्खा है

                    जब जुल्म-ओ-सितम के कोहें-ए-गरां

                    रुई की तरह उड़ जाएंगे

                    हम महकूमों के पांव तले

                    जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

                    और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़कड़ कड़केगी

                    जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाये जाएंगे

                    हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाये जाएँगे

                    सब ताज उछाले जाएँगे सब तख्त गिराए जाएँगे

                   

          बस नाम रहेगा अल्लाह का

          जो गायब भी है हाज़िर भी

          जो मंजर भी है नाज़िर भी

          उठ्ठेगा अनल-हक का नाराजो मैं भी हूँ और तुम भी हो

          और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदाजो मैं भी हूँ और तुम भी हो

          हम देखेंगे

          लाजिम है की हम भी देखेंगे

          हम देखेंगे

          लाजिम है की हम भी देखेंगे

 

कोक स्टूडियो की यह शानदार प्रस्तुति देखिए।

https://youtu.be/unOqa2tnzSM

सद्य: आलोकित!

जन्मभूमि : मानस शब्द संस्कृति

 जद्यपि सब बैकुंठ समाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।। अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।। जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि...

आपने जब देखा, तब की संख्या.