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रविवार, 15 जनवरी 2023

खिचड़ी विप्लव देखा हमने : नागार्जुन की कविता

खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्ण क्रांति का भ्रांति विलास
प्रवचन की बहती धारा का
रुद्ध हो गया शांति विलास
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
मिला क्रांति में भ्रांति विलास
मिला भ्रांति में शांति विलास
मिला शांति में क्रांति विलास
मिला क्रांति में भ्रांति विलास
पूर्ण क्रांति का चक्कर था
पूर्ण भ्रांति का चक्कर था
पूर्ण शांति का चक्कर था
पूर्ण क्रांति का चक्कर था
टूटे सींगोंवाले साँडों का यह कैसा टक्कर था!

उधर दुधारू गाय अड़ी थी
इधर सरकसी बक्कर था!
समझ  पाओगे वर्षों तक
जाने कैसा चक्कर था!
तुम जनकवि हो, तुम्हीं बता दो
खेल नहीं था, टक्कर था।


(1975 में लिखी कविता।)

रविवार, 7 जून 2020

कथावार्ता : अकाल केन्द्रित तीन आधुनिक कवितायें

अकाल और उसके बाद
-नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

(1955)

अकाल
-रघुवीर सहाय

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।
लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।
पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।
जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।
मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।
दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!


(1967)

अकाल में दूब

-केदारनाथ सिंह

भयानक सूखा है
पक्षी छोड़कर चले गए हैं
पेड़ों को
बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे
चींटियाँ
देहरी और चौखट
पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं
घरों को छोड़कर

भयानक सूखा है
मवेशी खड़े हैं
एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए

 

कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाए
सुना नहीं कभी
दूब मगर मरती नहीं -
कहते हैं वे
और हो जाते हैं चुप

निकलता हूँ मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूँ परती-पराठ
झाँकता हूँ कुँओं में
छान डालता हूँ गली-चौराहे
मिलती नहीं दूब
मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े
बाल्टियाँ लोटे परात
झाँकता हूँ घड़ों में
लोगों की आँखों की कटोरियों में
झाँकता हूँ मैं
मिलती नहीं
मिलती नहीं दूब

अंत में
सारी बस्ती छानकर
लौटता हूँ निराश
लाँघता हूँ कुएँ के पास की
सूखी नाली
कि अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हाँ-हाँ दूब है -
पहचानता हूँ मैं

लौटकर यह खबर
देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी
दमक उठता है उनका चेहरा
'है - अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब...'
बुदबुदाते हैं वे

फिर गहरे विचार में
खो जाते हैं पिता।

(1988)


रविवार, 30 जून 2019

कथावार्ता : पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने

जनकवि नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनका जन्म बिहार के मधुबनी जनपद के तरौनी नामक गाँव में सन 1911 ई० में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा पारंपरिक तरीके से लघुसिद्धान्त कौमुदी और अमरकोश से शुरू हुई और स्वाध्याय से ही संस्कृत, मैथिली, हिन्दी, नेपाली, सिंहली, अङ्ग्रेज़ी आदि भाषाओं के पण्डित हुए। सनातन और बौद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया और सिंहल प्रवास के दौरान सन 1936 ई० में बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। बौद्ध धर्म में दीक्षा के बाद उन्होंने अपना नाम नागार्जुन रखा। वह मैथिली में यात्री उपनाम से कवितायें लिखते थे। उनका एक अन्य रचनात्मक नाम प्रवासी था। ०५ नवंबर, 1998 को नागार्जुन का निधन हुआ।

          नागार्जुन ने विपुल साहित्य रचा। उन्होंने कविता और उपन्यास के क्षेत्र में विशेष ख्याति अर्जित की। उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं-

1.    युगधारा -१९५३

2.    सतरंगे पंखों वाली -१९५९

3.    प्यासी पथराई आँखें -१९६२

4.    खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०

5.    हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१

6.    पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३

उनके अग्रलिखित उपन्यास बहुत चर्चित हुए-

1.    रतिनाथ की चाची -१९४८

2.    बलचनमा -१९५२

3.    नयी पौध -१९५३

4.    बाबा बटेसरनाथ -१९५४

5.    वरुण के बेटे -१९५६-५७

सन २००३ में, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से नागार्जुन की रचनावली सात खण्डों में, प्रकाशित हुई है, जिसका सम्पादन शोभाकांत ने किया है।

          नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जन को आवाज दी है। राजनीतिक विषयों पर लिखी गयी उनकी कवितायें विशुद्ध क्रांतिकारी तेवर के साथ मौजूद हैं। राजनीतिक कविताओं के अतिरिक्त जहां वह जनता के कवि हैं, वहाँ उन सा बड़ा जनकवि दूसरा नहीं। उनकी कविताएं प्रयोगधर्मी हैं। वह कविता के हर क्षेत्र में प्रयोग करते हैं। लय में, छंद में और विषय वस्तु में। घनघोर नास्तिक और बौद्ध मत में दीक्षित हो जाने के बाद भी इस कविता – पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने में उनका अकुण्ठ मानस सहज देखा जा सकता है। वह अपने जनपद में रहते हुए बौद्धिकता अथवा किसी तरह के दिखावे से सर्वथा दूर हैं,  इसलिए वह स्वयं पर भी कटाक्ष करने से नहीं चूकते। लंबी अवधि के बाद शरद का सूर्य देखने के बाद वह आंचलिक कथाकार पर तीखा व्यंग्य करते हैं, यह आंचलिक कथाकार और कोई नहीं, वह स्वयं हैं। शरद के प्रात:कालीन सूर्य को देखने के बाद उनकी आस्तिकता जागृत हो जाती है। इसका उद्गार सूर्य और सावित्री के मंत्रों के मुक्त उच्चार में दिखता है। उसे छिपाने के लिए छोटा सा झूठ बोलने की स्वीकृति दिलवाकर उसके पाप  से मुक्त हो जाते हैं। नागार्जुन का यह आत्मस्वीकार इस कविता को बहुत महत्त्वपूर्ण बनाती है कि उनके नास्तिक मन को प्रकृति में व्याप्त सौंदर्य और तज्जनित आस्तिकता ने पीछे छोड़ दिया है।

          वह पढे लिखे युवक रत्नेश्वर से इस डेविएशन की चर्चा करते हैं और दलगत विवशता का भी उल्लेख करते हैं। यह विवशता विचारधारा की संकीर्णता का सूचक है और नागार्जुन का कवि मानस इस संकीर्णता का अतिक्रमण कर जाता है-



प्रस्तुत है - नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता- पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने।

शुरू-शुरू कातिक में

निशा शेष ओस की बूंदियों से लदी हैं
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप ………
टहलने निकलता हूँ परमानके किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेडों पर से, आगे
वापस जा मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद का बाल रवि

चमकता रहेगा घड़ी आधी घड़ी…

पूर्वांचल प्रवाही परमानकी
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहलकदमी
सैकत पुलिन पर

छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप….
और फिर आएगी, हँसी मुझे अपने आप पर
उतर पडूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएंगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान
झुक जाएगा ये मस्तक अनायास
दुधारू भैंसों की याद में….
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उड़ता आया है नीलकंठ
गुज़र जाएगा ऊपर-ही-ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?

इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर
या उस बूढे पीपल की बदरंग डाल पर ?
या किउड़ता ही जाएगा
पहुंचेगा विष्णुपुर के बीचोबीच
मन्दिर की अंगनाई में मौलसिरी की
सघन पत्तियोंवाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अदृश्य, करेगा वहीं आराम!


जाने भी दो,

आओ तुम मेरे साथ रत्नेश्वर
देखेंगे आज जी भरकर
उगते सूरज का अरुण-अरुण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हों हमारे नेत्र
देखना भाई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ दिखता है रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)

आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्घ
गुनगुनायेंगे गदगद हो कर
ॐ नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ॐ नमो ज्योतिश्वराय
ॐ नमः सूर्याय सवित्रे…”
देखना भाई रत्नेश्वर, जल्दी न करना।
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
        नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान पोस्ट-ग्रेजुएट
मेरे इस डेविएशनका !
नहीं, मैं झूठ कहता हूँ ?
मुकर जाऊँ शायद कभी….
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था
        मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
        सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुस्कुरा-भर देना मेरी उस
        मिथ्या पर!

 

रविवार, 20 जनवरी 2013

किसकी है जनवरी किसका अगस्त है.

अभी कुछ देर पहले सीमावर्ती राज्य झारखण्ड के गढ़वा जिले से लौटा हूँ. बीहड़ और निखालिस गाँव दिखे. जीवन कितना दुरूह है फिर भी है. मूलभूत समस्याएँ बरकरार हैं. पानी नहीं है, बिजली नहीं है.जंगलों में महुआ के पेड़ हैं जिसके चूए हुए फूल से जहाँ तहां रस निकाले जा रहे हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा वहां लुटाकर हमारे नागरिक समस्याओं को ठेंगा दिखा रहे हैं, टुन्न पड़े हैं.(ये मत कहियेगा कि आजकल तो सीजन नहीं है. धंधा है यह) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और मनरेगा की टूटी-फूटी सड़कें हैं और और सड़कों पर जान जोखिम में डाल कर सवारियां ढोती जीप और बसें हैं. दरिद्रता का साम्राज्य एकछत्र बना हुआ है. लोग हताश और निराश हैं. बाबा नागार्जुन की कविता याद आ रही है.
"किसकी है जनवरी और किसका अगस्त है."

''किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है

चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है

कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है

जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है

उसी की जनवरी छब्बीस

उसी का पंद्रह अगस्त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है

कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है

खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा

मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है

सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है

उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!

देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है

गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है

धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है

कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है

मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है

उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है..''


हम गणतंत्र के ६४वें वर्ष की दहलीज पर हैं.

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

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