अभी
कुछ देर पहले सीमावर्ती राज्य झारखण्ड के गढ़वा जिले से लौटा हूँ. बीहड़ और
निखालिस गाँव दिखे. जीवन कितना दुरूह है फिर भी है. मूलभूत समस्याएँ बरकरार
हैं. पानी नहीं है, बिजली नहीं है.जंगलों में महुआ के पेड़ हैं जिसके चूए
हुए फूल से जहाँ तहां रस निकाले जा रहे हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा वहां
लुटाकर हमारे नागरिक समस्याओं को ठेंगा दिखा रहे हैं, टुन्न पड़े हैं.(ये मत
कहियेगा कि आजकल तो सीजन नहीं है. धंधा है यह) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क
योजना और मनरेगा की टूटी-फूटी सड़कें हैं और और सड़कों पर जान जोखिम में डाल
कर सवारियां ढोती जीप और बसें हैं. दरिद्रता का साम्राज्य एकछत्र बना हुआ
है. लोग हताश और निराश हैं. बाबा नागार्जुन की कविता याद आ रही है.