रविवार, 29 दिसंबर 2013

तद्भव अंक-२८



#अखिलेश द्वारा सम्पादित #तद्भव पत्रिका एक बहुत जरूरी आयोजन हो गयी है. अंक २८ अपनी ख्याति के अनुरूप ही बन गयी है. तुलसीराम की आत्मकथा के दूसरे खण्ड "मणिकर्णिका" के समापन किश्त में तीन चीजें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. १- कांग्रेस-वामपंथ के रिश्तों को समझने के लिहाज से. यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस की नीतियों का सीपीआई हमेशा से समर्थक रहा है. नक्सलवादी आन्दोलन को भी समझने के सूत्र यहाँ हैं. नक्सली आन्दोलन के भटकाव और अंदरूनी चरित्र को यहाँ से समझा जा सकता है. २- जेपी आन्दोलन का उठान और परिणति समझने के लिहाज से. जेपी आन्दोलन में बहुत सारे लम्पट घुस आये थे. उन लम्पटों ने सारे आन्दोलन को मोड़ दिया था. राही मासूम रजा के उपन्यास कटरा बी आरजू में भी इस तरफ संकेत किया गया है. और, ३- गाजीपुर के शेरपुर गाँव में बरसों पहले हुए अग्निकाण्ड की विभीषिका जानने के नजरिये से. शेरपुर में भूमिहारों ने हरिजन बस्ती में आग लगा दी थी. कई परिवार जलकर राख हो गए थे. यह एक काला अध्याय है. प्रेम को गरिमापूर्ण तरीके से कैसे परोसा जा सकता है, यह सीखने के लिहाज से भी मणिकर्णिका का यह अंश पढ़ा जाना चाहिए. उत्पलवर्णा का प्रसंग बहुत शालीन है.
मणिकर्णिका के दबाव में अरुण कमल के वृतांत की चर्चा कम हो सकी है. ठीक उसी तरह, जिस तरह मुर्दहिया के दौरान राजेश जोशी के गप्पी वाली कथा दब गयी थी. अरुण कमल का वृतान्त कई तरह के अनुशासनों में आवाजाही के लिहाज से भी बहुत मानीखेज है. कविताओं को समझने का सूत्र वहां से निकाला जा सकता है.
उपासना की लम्बी कहानी 'एगही सजनवा बिन$$$ ए राम' छपने के तुरंत बाद चर्चा में आ गयी कहानी है. कहानी ने पढ़ने के लिए धैर्य की परीक्षा ले ली. शिल्प इतना सधा हुआ है और शब्द इतने महीन तथा अर्थवान, कि हर जगह चौंकाते हैं. कहानी में कहन का अंदाज भी बहुत विशिष्ट है. अपने समूचे विवरण में गाँव बढ़िया से उभर आया है. कुछ एक दृश्य और बिम्ब तो अनूठे हैं. कहानी में अनूठापन इन्हीं वजहों से है. लेकिन, कहानी में पात्र इस तरह से आये हैं, कि मन किया कई बार गिनूं कि रतनी दिदिया और सिलेण्डर भईया, मारकंडे चाचा, मारकंडे बो चाची या अन्य ढेर सारे पात्रों का नाम कितनी दफा लिखा गया है. पढ़ते हुए बार-बार लगा कि जैसे टीवी धारावाहिकों में हर पात्र संवाद अदायगी में सामने वाले पात्र का नाम जरूर लेता है, कहानीकार नैरेट करते हुए वही विधा अपना रही हैं. टीवी धारावाहिकों में निर्देशक को यह पता होता है कि बुद्धू बक्से के सामने बैठे दर्शक में इतनी अकल नहीं कि वह याद रख सके कि सामने वाला पात्र कौन है. कहानीकार को भी भरोसा नहीं है? रतनी दिदिया अकेली दिदिया हैं. सिलेण्डर भईया अकेले भईया हैं. आगे सबका नाम लेने की बजाय रिश्ते वाले संबोधन को लेकर भी निर्वाह हो सकता था. यहाँ तक तो ठीक था, चाचा चाची और बाबा इया तक को बिना नाम लिए नहीं कहा गया है. मुझे सबसे ज्यादा इसी ने डिस्टर्ब किया. फिर कुछ तथ्यात्मक गलतियों ने भी. यह मानने का मन किया कि कहानी एक बैठक में लिख ली गयी है. उसे दुहराने की जरूरत नहीं समझी गयी है. अगर उसे पुनर्लिखित किया गया होता तो कई अनचाहे अंश निकाल दिए गए होते और कहानी बहुत बढ़िया हो जाती.
बाकी के विषय में बाद में बात होगी..

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

मेरा रुपया-तेरा रुपया



बहुत पहले जब मेरा हाथ टूटा था और आपरेशन के लिए मैं इलाहाबाद के एक हस्पताल में भरती था, वहां मुझे एक तकरीबन सौ साल से ज्यादा उम्र की महिला मिलीं. वे सुपारी कुतर रही थीं. उनके दांत नहीं थे, मुँह पोपला हो गया था. वे बड़ी मुश्किल से सुपारी खा पाती थीं. हम सहज जिज्ञासु हो आये थे. बतिआने के लिए मौका खोजा और जब हमने पूछा, उनने बताया कि दो शौक बहुत छुटपन में लगे- एक सुपारी चबाने का और दूसरा चाय पीने का. उनने बताया कि चाय की आदत तो मुए अंग्रेज ने लगाई. पहले घर-घर चाय की पैकेट मुफ्त में पहुँचाते रहे. कई दफा चाय बनाकर राहगीरों को मुफ्त में पिलाते रहे. जब आदत पड़ गयी, बेचना शुरू कर दिया. अब तो बिना पिए, ठीक से आँख ही नहीं खुलती.
बीते दिन समाचारों में था कि एटीएम से अब लेन-देन करने पर प्रति व्यवहार 6 rs (छ रुपये) कट जायेंगे. मैं सोचता रहा कि सरकार भी निजी कंपनियों की तरह ही व्यवहार करती है. पहले देश भर में एटीएम लगा कर सबको कार्ड बाँट दिया. किसी भी मशीन से मुफ्त में पैसे निकालने की सुविधा दी. जब हम सुविधाभोगी हो गए तो यह चार्ज थोप दिया. मैं अक्सर सोचता था कि इस कदर तेजी से एटीएम स्थापित करने में बैंक को फायदा क्या होता है? तब यही सोच पाता था कि इससे कर्मचारियों पर काम का बोझ कम होता होगा. लेकिन जब यह चार्ज की बात सुना, उन भद्र महिला से मुलाकात ताज़ा हो आई. अब हम यह चार्ज देने को बाध्य होंगे.
मैं सोचता हूँ कि इसका प्रतिरोध कैसे किया जाये? एक तरीका यह समझ में आता है कि हम फिर से बैंक के नकद काउंटर पर जमा हों, वहां लम्बी कतारें लगें. बैंककर्मी अतिरिक्त दबाव महसूस करें. वैसे भी बैंक में कर्मचारियों की संख्या कम है. लेकिन यह अव्यवहारिक है. हमारे पास समय कम है. आधा घंटा-एक घंटा खड़ा होकर पैसे निकालने के मुकाबिले हम छः रूपये देना पसंद करेंगे. तो दूसरा तरीका यह भी है कि हम महीने भर के अपने अनुमानित खर्च को एक ही बार में बैंक से निकाल लें. इससे बैंक में एकमुश्त नकदी की कमी हो सकती है. हमारे पैसे पर खूब मुनाफा कमाने वाले बैंक के तरल खाते पर असर पड़ेगा.
एक तरीका यह भी है कि न्यायपालिका इसका संज्ञान ले और उसी तरह मामले को निपटाए जैसे बैंक से लेन-देन करने पर sms भेजने पर चार्ज लगाने पर लिया था. बैंक यह तय कर चुके थे कि मोबाइल फोन पर sms द्वारा लेन-देन की सूचना देने के लिए ६० रूपये प्रति वर्ष काटेंगे. यह खासा आपत्तिजनक था. पहले उन्होंने इसे मुफ्त देना शुरू किया था. यह सुविधा ऑटोजेनरेटेड होती है. फिर भी बैंक इससे उगाही करना चाहते थे. न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बाद इसे हल किया गया. एटीएम से पैसे निकलने के मुद्दे पर भी कड़ा प्रतिवाद और हस्तक्षेप होना चाहिए.
मैं समझता हूँ कि आप इसे सहज बात मान कर अनदेखा कर देंगे लेकिन अगर ध्यान से सोचेंगे तो इसे आजमाना जरूर चाहेंगे. अंततः यह हमारे हितों को प्रभावित करता है और मुनाफे की संस्कृति को बढ़ावा देता है.

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कविता सीखो ! - शायक आलोक




(कई दिनों से यह महसूस करता रहा हूँ कि हिन्दी कविता में एक नए तरह का रीतिकाल है. इस रीतिकाल को हमारे समय के महत्त्वपूर्ण युवा कवि शायक आलोक ने बहुत बेबाक अंदाज में साझा किया है. यह बहुत चुटीली और धारदार है. आप इसे दोनों ही तरह से देख-समझ सकते हैं.)
 
शायक आलोक


कई युवा फेसबुक मित्रों के मैसेज आये इन दिनों कि शायक हमें भी लिखना बताइये .. हम भी लिखना चाहते हैं आपकी तरह .. तो इस पोस्ट से एक साझा संवाद दे देता हूँ ..
[१] सबसे पहले समझिये कि आजकल की कविता क्या है .. आज की कविता है वाक्य विन्यास की कलात्मकता .. उसके अन्दर विचार को पिरोना .. और बिम्ब .. अब एक उदाहरण लीजिये .. जैसे मैंने यह पंक्ति चुनी - '' एक लड़की कोने वाले घर की खिड़की पर खड़ी '' .. अब इसे वाक्य विन्यास की कलात्मकता से आप सजायें तो अलग अलग पंक्तियाँ बनेंगी .. जैसे [अ] एक कोने वाला घर / एक लड़की खिड़की पर खड़ी [ब] खिड़की पर खडी लड़की और वह कोने वाला घर [स] लड़की खड़ी खिड़की पर कोने में खड़ा घर [द] खड़ी खिड़की लड़की खड़ी कोने में खड़ा घर .. कुछ भी .. जितना बेतरतीब कर सकेंगे आप उतना चमत्कृत कर सकेंगे ..
[२] विचार को पिरोना... कैसी लड़की.. कैसी खिड़की.. कैसा घर.. अपनी कल्पना लाइए.. एक लड़की जो फिर नहीं सोई.. या एक लड़की जो तारे देखती रहती है.. एक लड़की जो इन्तजार में है.. [ प्रेमपरक कविता ].. लड़की जो भाग जाना चाहती है.. लड़की जो कूद जाना चाहती है [स्त्री विमर्श ].. खिड़की जो कभी बंद नहीं होती.. खिड़की जो आज पहली बार खुली.. खिड़की जो दरवाजा है उस लड़की के मन का.. कुछ भी... ऐसे ही घर.. घर जिसमें दीवारें नहीं है.. घर जो गली में कोने पर है.. कैसे भी उसके होने को जस्टिफाय कीजिये बस ..
[] बिम्ब.. यह सबसे पिटा हुआ फार्मूला है जो युग बदले पर जिसका उपयोग नहीं बदला.. बादल जो प्रेमदूत है.. लड़की जो नीर भरी दुःख की बदली है.. 'तुम्हारे माथे को चूमना तुम्हारी आत्मा को चूमना है'.. 'फफूंद हैं चुपचाप के पेड़'.. 'मैंने मेरी हथेली में लगा दी छलांग.. कुछ भी कल्पना कीजिये.. लड़की खड़ी है खिड़की पर कोने वाले घर में जैसे गुलदाउदी का फूल कोई अभी सूरज की ओर मुड़ा है..
[] नकल करना कविता सीखने का खूब अच्छा तरीका है.. नरेश सक्सेना की नक़ल करना आसान है.. कुंवर नारायण की भी.. कुंवर नारायण लिखते हैं -'ट्यूनीसिया का कुआं'.. आप उसे बना दीजिये 'साईकिल का पहिया'.. 'ट्यूनीसिया में एक कुआं है/ कहते हैं उसका पानी / धरती के अन्दर ही अन्दर / उस पवित्र कुएं से जुड़ा है / जो मक्का में है'... आप लिखिए- ' मेरे घर एक साईकिल का पुराना पहिया है / कहते हैं मेरे दादा के पिता के पास थी साईकिल / साईकिल घुमती पहुँच गई / बनिया साहूकार के घर / सूद मूल चुकाकर / पहिया शेष रह गया'.. समीक्षक का बाप नहीं पकड़ेगा आपको और हाथ चूमेगा आपके ..
[] पढ़ना बहुत जरुरी है.. बढ़िया लोगों को पढ़िए.. मैं एक साल पहले कुछ और लिखता था .. अब कुछ और लिखता हूँ.. क्यों.. क्योंकि मैं अपने हमउम्रों को भी पढता हूँ.. कई बार उनकी बेहतरीन कविता में जो जादू दस फीसद होता है उसी जादू की मात्रा पचास फीसद कर मैं मेरी कविता क्रियेट करता हूँ और आप कह पड़ते हैं वाह !
[६] एक बात हमेशा याद रखिये कि लिखे जाने तक हर कविता झूठ होती है .. रोते हुए कभी नहीं लिखता कोई कवि अपनी कविता .. अभिप्राय यह कि अपने लिखे जाने की प्रक्रिया में कविता संवेदना विचार आदि की मांग नहीं रखती .. कवि शब्दबाजी करता है बस लिखते समय .. तो फिर यह संवेदना विचार आते कहाँ से हैं .. ? ये आते हैं रोजमर्रा की जिंदगी में साक्षी बने रहने से .. महसूसना जगाये रखने से .. दामिनी मरती है तो मैं अभी उद्वेलित होऊंगा कविता नहीं लिख सकूँगा .. दामिनी के प्रति मेरी संवेदना मेरे दिमाग की नसों में जम जायेगी .. और जब बाद में कभी लिख रहा होऊंगा मैं तो नसों में जमी संवेदना खुद पिघल पिघल आएगी उस रचना में .. मुझे प्रयास नहीं करना होगा ..
[] कविता-कहानी में अगर पात्रों के नाम विदेशी, जैसे इटैलियन और चाइनीज हों तो कविता और भी समकालीन हो जाएगी.. कविता में विदेशी पात्रों को ले आईये कविता में या कविता ही समर्पित कर दीजिये किसी बड़ी कवयित्री को.. 'शिम्बोर्स्का के लिए एक कविता'.. ''शिम्बोर्स्का आई थी मेरे सपने में.. किये कुछ स्त्री सवाल.. फिर मुंह छुपाया बुरके में और चली गई.. वहीँ दिखी मुझे मलाला.. मलाला खेल रही थी पिट्टो.. फिर मुंह ढंका किताब में और चली गई.. फिर मुझे दिखी मेरी प्रेयसी.. मुंह ढंकने ही वाली थी कि मैंने रोक लिया.. कहा.. रुको स्त्री मुझे मिल गए हैं जवाब''.... और बस.. ओह शायक.. तुम स्त्री मन को कैसे पढ़ लेते हो.. ओह अनामिका.. तुम तो हमारी साँस लिख रही हो.. ओ पवन करण.. तुम्हारे भीतर तो सच में स्त्री रहती है..
[] अब .. कैसे लिखें एक आधुनिक कविता इसे सीधे रचना प्रक्रिया से समझा देता हूँ आपको .. कविता के किसी एक किरदार की कल्पना कीजिये .. जैसे आजकल चींटी और ईश्वर बहुत हिट हैं .. कविता में कविता खुद भी एक किरदार या एक परिदृश्य के रूप में खूब छाई है आजकल बाजार में.. कैक्टस एक बढ़िया किरदार है.. प्रेयसी.. चिड़िया.. फफूंद.. ये सब भी.. तो मैं ले आता हूँ एक किरदार.. उम्म्म.. लीजिये मैंने चुना अमीबा को.. अब अमीबा के कुछ बेसिक फीचर लाइए जेहन में.. टेढ़ी-मेढ़ी परिधि उसकी.. अमीबा को उसके न्यूक्लियस के साथ काट दो तो दो अमीबा.. दोनों जिंदा.. तो अब कविता लिखते हैं..
''जब तुम कर रही होती हो प्रेम की बातें
तब मैं एक अमीबा के बारे में सोच रहा होता हूँ
मैंने बचपन में अमीबा बनाना पहले सीखा
प्रेम किया बाद में
और जब किया प्रेम
पिछले पृष्ठों पर बनाए हर अमीबा के केंद्र में
प्रेयसी के नाम का पहला अक्षर लिख दिया
मेरे अतीत अनुभवों का अमीबापन
ब्लाह ब्लाह ब्लाह.. ''
[] उस युवा महाकवि महासमीक्षक की तरह लिखना हो तो फिर ऊपर के सब पॉइंट्स भूल जाइए और सीधे निबंध लिख दीजिये.. ''मैं एक मोटा आदमी हूँ.. मैं धंस कर बैठा हूँ मेरे सोफे में.. मेरे हाथ में पित्ज़ा है और देख रहा हूँ टीवी.. एक हेलिकोप्टर अभी उड़ कर गया है आकाश में.. अभी आया था एलिट नवोदित कवयित्री का फोन.. उसकी कविता को साबित करना है सत्ता प्रतिरोध की कविता.. ओह मुझे कितना काम है.. चलो फ़ोन उस लकड़सूंघे कवि को.. उसे होना है खड़ा बेचने को किताब'' ..
अंट शंट कुछ भी.. उसे कविता साबित करने की जिम्मेवारी मुझपर छोड़ दीजिये..
आज बस इतना ही.. बाकी का बाकी !

-शायक आलोक (Shayak Alok)                           

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सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.